Azad Katha - 2 - 99 in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | आजाद-कथा - खंड 2 - 99

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आजाद-कथा - खंड 2 - 99

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 99

नवाब वजाहत हुसैन सुबह को जब दरबार में आए तो नींद से आँखें झुकी पड़ती थीं। दोस्तों मे जो आता था, नवाब साहब को देख कर पहले मुसकिराता था। नवाब साहब भी मुसकिरा देते थे। इन दोस्तों में रौनकदौला और मुबारक हुसैन बहुत बेतकल्लुफ थे। उन्होंने नवाब साहब से कहा - भाई, आज चौथी के दिन नाच न दिखाओगे? कुछ जरूरी है कि जब कोई तायफा बुलवाया जाय तो बदी ही दिल में हो? अरे साहब, गाना सुनिए, नाच देखिए, हँसिए, बोलिए, शादी को दो दिन भी नहीं हुए और हुजूर मुल्ला बन बैठे। मगर यह मौलवीपन हमारे सामने न चलने पाएगा। और दोस्तों ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाई। यहाँ तक कि मुबारक हुसैन जा कर कई तायफे बुला लाए, गाना होने लगा। रौनकदौला ने कहा - कोई फारसी गजल कहिए तो खूब रंग जमे।

हसीना - रंग जमाने की जिसको जरूरत हो वह यह फिक्र करे, यहाँ तो आके महफिल में बैठने भर की देर है। रंग आप ही आप जम जायगा। गा कर रंग जमाया तो क्या जमाया?

रौनक - हुस्न का भी बड़ा गरूर होता है, क्या कहना!

हसीना - होता ही है। और क्यों न हो, हुस्न से बढ़ कर कौन दौलत है?

बिगड़े दिल - अब आपस ही में दाना बदलौवल होगा या किसी की सुनोगी भी, अब कुछ गाओ।

रौनक - यह गजल शुरू करो -

बहार आई है भर दे बादये गुलगूँ से पैमाना,रहे साकी तेरा लाखों बरस आबाद मैखाना।

इतने में महलसरा से दूल्हा की तलबी हुई। नवाब साहब महल में गए तो दुलहिन और दूल्हा को आमने-सामने बैठाया गया। दस्तरख्वान बिछा, चाँदी के लगन रखी गई, डोमिनियाँ आईं और उन्होंने दुलहिन के दोनों हाथों में दूल्हा के हाथ से तरकारी दी, फिर दुलहिन के हाथों से दूल्हा को तरकारी दी, तब गाना शुरू किया।

अब तरकारियाँ उछलने लगीं। दूल्हा को साली ने नारंगी खींच मारी, हशमत बहू और जानी बेगम ने दूल्हा को बहुत दिक किया। आखिर दूल्हा ने भी झल्ला कर एक छोटी सी नारंगी फीरोजा बेगम को ताक कर लगाई।

जानी बेगम - तो झेंप काहे की है। शरमाती क्या हो?

मुबारक महल - हाँ, शरमाने की क्या बात है, और है भी तो तुमको शर्म काहे की। शरमाए तो वह जिसको कुछ हया हो।

हशमत बहू - तुम भी फेंको फीरोजा बहन! तुम तो ऐसी शरमाईं कि अब हाथ ही नहीं उठता।

फीरोजा - शरमाता कौन है, क्यों जी फिर मैं भी हाथ चलाऊँ?

दूल्हा - शौक से हुजूर हाथ चलाएँ, अभी तक तो जबान ही चलती थी।

फीरोजा - अब क्या जवाब दूँ, जाओ छोड़ दिया तुमको।

अब चारों तरफ से मेवे उछलने लगे। सब की सब दूल्हे पर ताक-ताक कर निशाना मारती थीं। मगर दूल्हा ने बस एक फीरोजा को ताक लिया था, जो मेवा उठाया, उन्हीं पर फेंका। नारंगी पर नारंगी पड़ने लगी।

थोड़ी देर तक चहल-पहल रही।

फीरोजा - ऐसे ढीठ दूल्हा भी नहीं देखे।

दूल्हा - और ऐसी चंचल बेगम भी नहीं देखी। अच्छा यहाँ इतनी हैं, कोई कह दे कि तुम जैसी शोख और चंचल औरत किसी ने आज तक देखी है?

फीरोजा - अरे, यह तुम हमारा नाम कहाँ से जान गए साहब?

दूल्हा - आप मशहूर औरत हैं या ऐसी-वैसी। कोई ऐसा भी है जो आपको न जानता हो?

फीरोजा - तुम्हें कसम है, बताओ, हमारा नाम कहाँ से जान गए?

मुबारक महल - बड़ी ढीठ है। इस तरह बातें करती हैं, जैसे बरसों की बेतकल्लफी हो।

फीरोजा - ऐ तो तुमको इससे क्या, इसकी फिक्र होगी तो हमारे मियाँ को होगी, तुम काहे को काँपती जाती हो।

दूल्हा - आपके मियाँ से और हमसे बड़ा याराना है।

फीरोजा - याराना नहीं वह है। वह बेचारे किसी से याराना नहीं रखते, अपने काम से काम है।

दूल्हा - भला बताओ तो, उनका नाम क्या है। नाम लो तो जानें कि बड़ी बेतकल्लुफ हो।

फीरोजा - उनका नाम, उनका नाम है नवाब वजाहत हुसैन।

दूल्हा - बस, अब हम हार गए, खुदा की कसम, हार गए।

मुबारक महल - इनसे कोई जीत ही नहीं सकता। जब मर्दों से ऐसी बेतकल्लुफ हैं तो हम लोगों की बात ही क्या है, मगर इतनी शोखी नहीं चाहिए।

फीरोजा - अपनी-अपनी तबीयत, इसमें भी किसी का इजारा है।

दूल्हा - हम तो आपसे बहुत खुश हुए, बड़ी हँस-मुख हो। खुदा करे, रोज दो-दो बातें हो जाया करें।

जब सब रस्में हो चुकीं तो और औरतें रुखसत हुई। सिर्फ दूल्हा और दुलहिन रह गए।

नवाब - फीरोजा बेगम तो बड़ी शोख मालूम होती है। बाज-बाज मौके पर मैं शरमा जाता था। पर वह न शरमाती थीं। जो मेरी बीवी ऐसी होती तो मुझसे दम भर न बनती। गजब खुदा का! गैर-मर्द से इस बेतकल्लुफी से बातें करना बुरा है। तुमने तो पहले इन्हें काहे को देखा होगा।

सुरैया - जैसे मुफ्त की माँ मिल गई और मुफ्त की बहनें बन बैठीं, वैसे ही यह भी मुफ्त मिल गईं।

नवाब - मुझे तो तुम्हारी माँ पर हँसी आती थी कि बिलकुल इस तरह पेश आती थीं जैसे कोई खास अपने दामाद के साथ पेश आता है।

सुरैया - आप भी तो फीरोजा बेगम को खूब घूर रहे थे।

नवाब - क्यों मुफ्त में इलजाम लगाती हो, भला तुमने कैसे देख लिया?

सुरैया - क्यों? क्या मुझे कम सूझता है?

नवाब - गरदन झुकाए दुलहिन बनी तो बैठी थीं, कैसे देख लिया कि मैं घूर रहा था! और ऐसी खूबसूरत भी तो नहीं हैं।

सुरैया - मुझसे खुद उसने कसमें खा कर यह बात कही। अब सुनिए, अगर मैंने सुन पाया कि आपने किसी से दिल मिलाया, या इधर-उधर सैर-सपाटे करने लगे तो मुझसे दम भर भी न बनेगी।

नवाब - क्या मजाल, ऐसी बात है भला!

सुरैया - हाँ, खूब याद आया, भूल ही गई थी। क्यों साहब, यह नारंगियाँ खींच मारना क्या हरकत थी? उनकी शोखी का जिक्र करते हो और अपनी शरारत का हाल नहीं कहते।

नवाब - जब उसने दिक किया तो मैं भी मजबूर हो गया।

सुरैया - किसने दिक किया? वह भला बेचारी क्या दिक करती तुमको! तुम मर्द और वह औरतजात।

नवाब - अजी, वह सवा मर्द है। मर्द उसके सामने पानी भरे।

सुरैया - तुम भी छँटे हुए हो!

उसी कमरे में कुछ अखबार पड़े थे, सुरैया बेगम की निगाह उन पर पड़ी तो बोलीं - इन अखबारों को पढ़ते-पढ़ाते भी हो या यों ही रख छोड़े हैं।

नवाब - कभी-कभी देख लेता हूँ। यह देखो, ताजा अखबार है। इसमें आजाद नाम के एक आदमी की खूब तारीफ छपी है।

सुरैया - जरा मुझे तो देना, अभी दे दूँगी।

नवाब - पढ़ रहा हूँ, जरा ठहर जाओ।

सुरैया - और हम छीन लें तो! अच्छा जोर-जोर से पढ़ो, हम भी सुनें।

नवाब - उन्होंने तो लड़ाई में एक बड़ी फतह पाई है।

सुरैया - सुनाओ-सुनाओ। खुदा करें, वह सुर्खरू हो कर आएँ।

नवाब - तुम इनको कहाँ से जानती हो, क्या कभी देखा है।

सुरैया - वाह, देखने की अच्छी कहीं। हाँ, इतना सुना है कि तुर्को की मदद करने के लिए रूम गए थे।

***