Ahsaas in Hindi Classic Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | अहसास

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अहसास

अहसास

मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग

मै जैसे ही उस खाली सीट पर धड़ाम से बैठी, उसके दाहिने कंधे से टकरा गई । उसके दाहिने कंधे और बाज़ू का स्पर्श, तन मन मे एक अंजानी सिहरन का संचार कर गया ।

“सॉरी - - -“ उसकी धीमी लेकिन स्पष्ट आवाज़ मेरे कानो मे गूंज उठी । क्या बेस था उसकी आवाज़ मे । इतनी धीमी आवाज़ भी इतनी स्पष्ट और इतनी गुंजायमान ? आजकल लोग अपने प्रोनाउन्सेशन पर ध्यान ही कहां देते हैं । बस जैसे चाहा बोल दिया और सुनने वाले ने भी जो चाहे अनुमान लगाना था, लगा लिया । ऊंह ! इतनी फ़िक्र करता ही कौन है ? सम्प्रेषण की कला का तो अब खुदा ही मालिक है समझो । कम्युनिकेशन स्किल तो बहुत वीक हो चला है; फ़िर यह किस दुनियां का बाशिंदा है । कोई एक्टर वेक्टर तो नहीं ।

लेकिन ‘सॉरी’ उसने क्यों कहा ? गल्ती तो मेरी थी । मै ही यूं हड़बड़ी मे सीट पर धड़ाम से बैठी थी । मै चिंतित थी बस मे जगह है या नही । मुझे डर था मुझसे पहले कोई सीट पर न बैठ जाये और मुझे खड़े खड़े सफ़र करना पड़े । लेकिन जब मै सीट पर अच्छी तरह धंस गयी और दुबारा फ़िर उसकी मज़बूत फ़ौलादी बाहें और और कंधे मुझे छू गये, और उसने फ़िर से सॉरी कहकर अपने आप को किसी तरह खिड़की की तरफ़ समेट लिया और तिरछा होकर बैठ गया, ताकि मुझे फ़िर अड़चन न हो । तब मेरा ध्यान इस हक़ीकत पर गया कि असल मे उसके कंधे इतने चौड़े थे कि उसकी सीट की हद मे नहीं समा रहे थे और अनचाहे ही मेरे साथ गुस्ताख़ी कर बैठे । वैसे गुस्ताख़ी तो अनजाने मे वह अब भी कर रहा था - - - यानि उसके चौड़े कंधों और मज़बूत बाज़ुओं के स्पर्श का अहसास जैसे मेरी बायीं बांह से चिपक ही गया था । कितनी हैरानी की बात है वह स्पर्श मुझे अब भी यूँ महसूस हो रहा था जैसे अब भी उसके कंधे और उसकी बांह मेरी बायीं बांह से सटी हुई हो ।

पहाड़ी है; मैने मन मे कहा । उसका रंग साफ़ और चमकदार था । बाल घने, मुलायम और चमकदार थे । उम्र तीस के लगभग होगी । आंखों पर धूप का चश्मा चढ़ाये वह खिड़की से बाहर एक टक देख रहा था । वैसे, बस मे चढ़ने से पहले भी मेरी नज़र एक बार उस पर पड़ी थी । वह किसी फ़िल्मी हीरो से कम नही लग रहा था ।

हल्की सी बारिश के बाद धूप निकल आयी थी । पहाड़ के मौसम का क्या ठिकाना । फ़िर भी मुझे नही लगता कि इतनी धूप है कि काला चश्मा पहनना पड़े । हो सकता है कोई एक्टर वेक्टर हो । उन्हीं ख़ैर ! अपना अपना शौक़, अपनी अपनी आदत ! मुझे क्या ? मौसम खुशगवार था । धूप थी लेकिन वैसी नहीं जैसी हम मैदानी इलाके मे देखते हैं । यहां तो धूप जैसे एक नूर की शक्ल मे मौजूद थी; जिसने बारिश से धुले हुये इस पहाड़ी कस्बे को अपनी किरनो से सजा संवार कर, उसकी खूबसूरती को दुगना कर दिया था । सच मे ! वेकेशन का मज़ा दुगुना हो गया था ।

बस चल पड़ी । बस कस्बे की हदों से दूर निकलकर खेतों और चारागाहों के बीच लहराती, बलखाती हुई सड़क पर दौड़ रही थी । बीच-बीच मे छोटे-छोटे गांव अचानक नज़र आते और उतनी ही तेज़ी से पीछे छूट जाते । सुन लो ! आज इन नज़ारों से बढ़कर मेरे लिये इस दुनियाँ मे कुछ नहीं है । वह लगातार बहर की तरफ़ देख रहा था । ज़ाहिर है इन नज़ारो को वह भी अपनी आंखों मे क़ैद कर लेना चाहता था । हमेशा के लिये । उसका चेहरे का एक चौथाई हिस्सा ही मुझे नज़र आ रहा था लेकिन इन नज़ारों की ताज़गी, इन हवाओं की नर्म नाज़ुक सरसराहट का लुत्फ़ उसके चेहरे पर साफ़ नुमायां थी ।

उसने एक बार भी मुड़कर मेरी ओर नहीं देखा । मै कोई इतनी बुरी तो नहीं हूँ । ख़ूबसूरत है तू तो हूँ मै भी हसीं - - - । और कोई ऐसी वैसी हसीन ? ऐसी वैसी तो कई हसीनायें तो मेरे सामने पानी भरें । ठीक है, देखें यह बेरुख़ी कब तक क़ायम रहती है ?

हवा की हल्की हल्की लहरें मेरे चेहरे को सहला कर गुज़रने लगी तो मैने अपने लम्बे बालों मे लगी क्लिप निकाल दी । मेरी ज़ुल्फ़ें आज़ाद थीं । वे हवाओं के साथ अठखेलियां करने लगीं । हवा इन खुले बालों को उड़ाती और बिखेर देती । मै उन्हें अपने हाथों से समेटती और फ़िर हवा के हवाले कर देती ।

मुझे हवा और ज़ुल्फ़ों के इस खेल मे मज़ा आरहा था । मै लगातार इस खेल का लुत्फ़ उठाने लगी । बीच बीच मे कनखियों से उसे देख लेती । वह अब भी वैसा ही था - - - बेहिस !! खिड़की के बाहर चेहरा किये हुये । बुत बना हुआ । मेरे लहराते, लम्बे बालों की कुछ लटें, बेसाख़्ता उसके बाज़ू, कंधे, गर्दन और चेहरे पर बिखर जाती और फ़िर सिमट आती । मै जानबूझकर इस बात से अनजान बने रहने की कोशिश कर रही थी । असल मे तो मेरे बालों का यूं उसे छेड़ना मुझे अच्छा लग रहा था । यह खेल मुझे अंदर तक उद्वेलित कर रहा था । मुझमे रोमांच भर रहा था । उसे भी तो कुछ महसूस होता होगा । लेकिन वह तो अब भी वैसा ही था । बुत बना हुआ । कैसा बेहिस है ? इसमे तो अहसास नाम की कोई चीज़ ही नहीं है । कोई जज़्बात नहीं है ।

“अपने बाल बांध लीजिये । मुझे परेशानी हो रही है ।“

परेशानी - - - माई फ़ुट ! हुंह !!

लेकिन नहीं - - -,

चलो, देर से ही सही, मुश्किल से ही सही, उसकी ज़बान से कुछ फ़ूटा तो ।

“ओह, आई एम सॉरी - - - । आई - - - स्ट्रीमली सॉरी ।“ कहते हुये मैने अपने बाल समेटे और उन्हें झटपट बांधकर दुपट्टे से ढक लिया ।

कुछ तो था - - - । कुछ तो था उस आवाज़ मे - - - । एक तिलिस्म सा । एक अनजाना, अबूझा आकर्षण, जिसने मेरे दिलो दिमाग़ को अपने क़ाबू मे कर लिया और मै झट उसकी बात मान गई ।

बस अपनी रफ़्तार से चली जा रही थी । हवा के हल्के हल्के झोंके अब भी चेहरे पर पड़ रहे थे । पता नहीं कैसी गुनूदगी मुझ पर तारी होने लगी । मै कहीं खो सी गई थी । हरे भरे घांस के मैदान नज़रों की हद तक फ़ैले हुये । बीच-बीच मे कहीं-कहीं एकाध दरख़्त - - - । इन मैदानो के बीच वह कोई गीत गुनगुनाता चला जा रहा है । उसकी आवाज़ हवा की तरह हरे भरे दरख़्तों और मुलायम घांस को सहलाती हुई, सारे मंज़र पर छा रही है । वह दूर - - -, दूर - - - और दूर - - - चला जा रहा है । बस उसकी आवाज़ है कि, मुझ तक पहुंच रही है । वह क्या गा रहा है ? क्या पता । मुझ तक तो बस एक आवाज़ पहुंच रही है । इसी आवाज़ के मोहपाश मे बंधी मै उसके पीछे-पीछे चली जा रही हूँ । कहाँ जा रही हूं ? क्या पता । वह कहाँ जा रहा है ? क्या पता । बस इतना पता है कि, कितने हरे भरे मैदान, नदियाँ, पहाड़, इन भागते कदमों के नीचे से गुज़रते चले जा रहे हैं - - - गुज़रते चले जा रहे हैं - - - । अचानक एक ठोकर लगती है । आह ! मै गिरी - - -, मै गिरी - - -, कोई बचाओ मुझे - - -

ओफ़्फ़ !!!

नहीं, नहीं !! सब ठीक है । मै बस के अंदर ही हूँ । सिर्फ़ एक तीखा मोड़ था, जिसके कारण मुझे झटका लगा था ।

आख़िर यह है कौन ? क्या कोई एक्टर है ? क्यों न इससे इसके ही बारे मे कुछ उगलवाया जाये । अरे हाँ SSS !! यह मुझे सूझा क्यों नहीं ? इसकी पर्सनॉल्टी, इसका मैनरिज़्म तो बिल्कुल एक्टरों जैसा है । ज़रूर यह एक्टर ही है । क्या मैने इसे कभी देखा है ? किसी टी वी सीरियल मे ? या किसी फ़िल्म मे ? कुछ जाना पहचाना सा तो ज़रूर है । कुछ याद क्यों नहीं आता ?

“एक्स्क्यूज़ मी, क्या आप यहीं के रहने वाले हैं ?” मैने बात का सिलसिला चलाने की कोशिश की । मेरी आशा के विपरीत वह चुप रहा । असल मे तो उसने कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी । सच मे बहुत एटिट्यूट दिखा रहा है । मैने उसे हाथ से टोहका मारते हुये कहा- “एक्स्क्यूज़ मी - - -“

“जी, आपने मुझसे कुछ कहा ?” उसने बिना मेरी ओर देखे कहा । ज़रा देखो तो इसका एटिट्यूट ? क्या मै खिड़की से बात कर रही हूँ ? “जी - - -,” मैने कहा, “मैने पूछा आप यहीं के रहने वाले हैं क्या ?”

“क्यों ?”

मै हड़बड़ा गई । इस सपाट प्रतिप्रश्न की मुझे आशा नहीं थी ।

“अं !!!??” मेरी ज़ुबान जैसे गले मे अटक गई ।

“मेरा मतलब है आप यह क्यों पूछ रही हैं ?”

वाह ! ज़रा देखो तो मासूमियत जनाब की । जैसे कुछ समझ ही नहीं आता ।

“बस, वैसे ही - - -, मेरा मतलब था कि आप टूरिस्ट तो नहीं - - - । असल मे मैं टूरिस्ट हूं न, इसलिये पूछ रही थी ।“ मैने लड़खड़ाती सी ज़बान मे जवाब दिया ।

“नहीं मैं लोकल हूँ ।“ उसने बड़े सपाट लहज़े मे कहा मानो पूछ रहा हो ‘तो, क्या करना है ?’

“आप लोग कितने खुशकिस्मत हैं, जो इस जगह पर रहते हैं ।“

“क्यों ऐसी क्या ख़ुशकिस्मती है इस जगह पर रहने मे ?”

“यह जगह इतनी ख़ूबसूरत जो है ।“

वह चुप रहा ।

“क्यों आपको ऐसा नही लगता ?” मैने पूछा ।

“पता नहीं,” उसने उपेक्षित भाव से कहा “लोग कहते तो हैं ।“

लोग कहते हैं - - - । यह क्या बात हुई भला ? पता नहीं यह क्या कहना चाहता है । क्या इसका अपना कोई ओपिनियन नहीं है ? लोग कहते हैं - - -

चुप्पी लम्बी हो रही थी और मेरा सवाल अपनी जगह पर खड़ा हुआ था । चुप्पी तोड़ते हुये मैने सीधा प्रश्न कर दिया- “आप काम क्या करते हैं ।“

“पढ़ाता हूँ ।“

पढ़ाता है ? अच्छा, टीचर है । किसी स्कूल मे पढ़ाता होगा या शायद ट्यूशन टीचर हो ।

“क्या पढ़ाते हैं ?”

“इतिहास ।“

इतना बोरिंग सब्जेक्ट ? तभी इतना रूड है । क्या पता अपने आप को कोई राजा महाराजा समझता हो ।

“इतिहास???” मैने यूं पूछा जैसे मेरा मतलब हो ‘यह भी कोई सब्जेक्ट है ?’

“जी,” उसने सरलता से जवाब दिया । फ़िर थोड़ा रुक कर कहा – “गवर्न्मेंट कॉलेज मे प्रोफ़ेसर हूँ; इतिहास का ।“

प्रोफ़ेसर ? इतिहास ?? पता नहीं लोग आजकल दिखते कुछ और निकलते कुछ और हैं ।

बस अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ी जा रही है - - -, कितने नज़ारे हैं जो दौड़ते भागते पीछे निकलते जा रहे हैं । क्या इन्हे कुछ भी वास्ता है मेरे अंदर के तूफ़ान से - - -

अगले स्टॉप पर बस मे एक अंधा भिखारी चढ़ा । उसके साथ दस-बारह साल की एक लड़की थी जिसका कंधा पकड़े वह चलता और गाना गाता था । वह लड़की एक छोटी सी डफ़ली जैसा कुछ बजा रही थी और कभी कभी अंधे के सुर मे सुर मिलाती । वह भिखारी एक फ़िल्मी गीत गा रहा था- “आदमी मुसाफ़िर है, आता है जाता है; आते जाते रस्ते मे यादें छोड़ जाता है ।“

कुछ तो उन दोनो का हाल ही ऐसा था या आवाज़ मे दर्द ऐसा था, कि हर कोई उन्हे कुछ न कुछ दे रहा था । वह इतिहास का प्रोफ़ेसर, वह संगदिल इन्सान अब भी उसी तरह मुंह फ़ेरे बुत बना बैठा रहा । जैसे वह अपने आस पास की गतिविधियों से कतई अंजान हो । न जेब से फ़ूटी कौड़ी निकाला, न मुंह से दो बोल । और तो और हमदर्दी की एक नज़र तक नहीं । हुंह ! लानत है मुझ पर !! मैं इस पत्थर दिल इन्सान के बारे मे क्या क्या सोंचने लगी थी ।

अंधा भिखारी तो चला गया लेकिन मैने उस संगदिल इनसान को सबक सिखाने की ठान ही ली ।

“हमे लाचार मजबूरों की मदद करनी चाहिये । यही इनसानियत है ।“ मैने उसे कोहनी से टोहका मारते हुये कहा ताकि वह यह न कहे कि “जी, आपने मुझसे कुछ कहा ?”

“हाँ, अच्छी बात है ।“ उस बेरुख़ इनसान ने उसी तरह बाहर देखते हुये कहा ।

“आपको दया नहीं आती ?” मै भी उसे कब छोड़ने वाली थी ।

“किस लिये ?” उसने हैरानी जताते हुये पूछा ।

“वह बेचारा अंधा था । भिखारी था ।“ मैने कहा ।

“आपको अंधों पर दया आती है ?” उसने बड़ी बेशर्मी दिखाते हुये, सवाल के जवाब मे सवाल दाग दिया ।

“बिल्कुल,” मैने कहा “हम इन पर तरस नही खायेंगे तो, ये कैसे जियेंगे ? कभी सोंचा है इस बारे मे ?”

“नहीं, मै इस बारे मे नही सोंचता ।“ उसने उसी तरह बेरुख़ी से जवाब दिया ।

“हमे इनसानियत के नाते से तो सोंचना चाहिये ।“

“क्यों सोंचना चाहिये ? कोई ख़ुद्दारी से जीना चाहता है, कोई लोगों के रहम पर जीना चाहता है । अपनी अपनी च्वाईज़ है ।“

“सो डिस्कस्टिंग - - - ।“ मै बड़बड़ाई ।

उसने कुछ नहीं कहा ।

इसमे तो इनसानियत भी नहीं है ।

वह उसी तरह मुंह मे दही जमाये बैठा रहा । अपने सारे शरीर को बस की खिड़की की ओर समेटे हुये, बाहर की तरफ़ मुंह किये । बस धीरे धीरे घाटी पार करती हुई ऊपर की ओर जा रही थी । उस खिड़की की तरफ़ तो खड़ी खड़ी चट्टानो के अलावा कुछ था ही नहीं । वह तो बाहर देखने की नाटक कर रहा है । जबकि हमारी दूसरी ओर घाटी मे सुंदर सुंदर फ़ूल खिले हुये थे, जिनके ऊपर बादल और सूरज मिलकर धूप छाँव का खेल खेल रहे थे ।

ज़ाहिर है, वह इस तरह मेरी अवहेलना कर रहा था । लेकिन मै भी कुछ कम तो न थी । मै इतनी आसानी से उसे बख़्शने वाली न थी ।

“- - - क्या आपको दया नहीं आती ।“

“नहीं, मुझे इन पर दया नहीं आती ।“

ओह ! ज़रा देखो तो इस बेशर्म को, इसको तो शर्म भी नहीं आती ।

“दया तो आपको भी नहीं आती । आप तो सिर्फ़ अपने अहंकार को संतृप्त करने के लिये उन्हे भीख देते हैं । आपको कोई अधिकार नहीं उनके आत्म-सम्मान को रौंदने का । वह भिखारी इस लिये है, क्योंकि आप उन्हे भीख देकर भिखारी बनाये रखते हैं । अगर आप उनकी मदद करना चाहते है तो उनके साथ बराबरी का बर्ताव करें । उन पर विश्वास करें कि वह भी आपकी तरह कुछ न कुछ ढंग का करके आपकी तरह सम्मानजनक ज़िंदगी जी सकते हैं । वे लाचार नहीं है, उन्हे सिर्फ़ आत्मविश्वास की ज़रूरत है - - -“

वह आवेशपूर्वक धाराप्रवाह बोलता रहा, पता नहीं क्या क्या बोलता रहा और मै स्तब्ध सी सुनती रही हूँ । उसके स्वर मे मेरे लिये घृणा साफ़ झलक रही थी । मै हत्प्रभ थी । मैने ऐसा ग़लत क्या कह दिया ? मै तो अपनी जगह बिल्कुल सही थी । इस प्रकार के निर्दयी लोगों से बात क्या करना । ऐसे लोग जो अपनी निर्दयता के पक्ष मे भी शान से तर्क दे सकते हैं । बातें करना बहुत आसान है, जब खुद पर बीतती है तब पता चलता है । ये तो बस हीरो बनकर, जिम जाकर मसल्स बनाना और अच्छे-अच्छे कपड़े और महंगे गॉगल्स लगाकर अपना रोब झाड़ना ही जानते हैं । एक तो लड़की से बात करने का तरीका भी नहीं । इस तरह मुंह फ़ेरकर बात करता है जैसे मै बस ऐसी वैसी ही हूँ । क्या मै उससे किसी बात मे कम हूँ ? क्या मै सुंदर नहीं ? क्या मै उसकी एक नज़र की मुहताज़ हूँ ।

बहुत सी बातें यकायक मेरे मन मे उठने लगी और मेरे मन मे उसके लिये नफ़रत बढ़ने लगी । ग़ल्ती मेरी ही थी । मै ही क्यों उसके मुंह लगी । क्या वही एक हैंडसम लड़का रह गया है इस दुनिया में ? ठीक है, शक्ल से किसी इनसान के विचारों का पता कहां चलता है । किसी का बाहरी रूप ही सब कुछ नहीं होता - - - छि: - - -

एक अजीब सा अहसास है जो दिलो दिमाग पर हावी होता जा रहा है । कुछ तो है जो अब भी निहा है - - - छिपा हुआ है - - -

“गवर्नमेंट कॉलेज !” एक आवाज़ - - - यह बस कंडक्टर की आवाज़ है ।

बस रुक गयी । कंडक्टर ने पास आकर उसे बड़े अदब से कहा – “आपका कॉलेज आ गया सर है सर ।“ फ़िर मुझसे कहा “मैडम ज़रा इधर आ जाईये, सर को बाहर निकलने दीजिये ।“ पता नहीं उसे इतना वी आई पी ट्रीट्मेंट किस लिये । ये कंडक्टर जैसे छोटे-मोटे लोग ही ऐसे लोगों को ज़रूरत से ज़्यादा ही भाव देते हैं । वे इनकी असलियत नहीं जानते न, इसी लिये । इनमे इनसान को परखने की इतनी समझ भी कहां । मै बस-कंडक्टर पर कुढ़ती हुई निकलकर सीट के किनारे खड़ी हो गई । वह उठ्कर खड़ा हुआ और इस तरफ़ घूमा तब मैने उसे अच्छी तरह देखा । दुबला पतला लम्बा सा; लेकिन कंधे कद के हिसाब से भी काफ़ी चौड़े और मज़बूत । चौड़ा चेहरा और मज़बूत जबड़े जो उसके मज़बूत इरादों वाले शख़्स होने की निशानी थे । उसके बायें कंधे पर एक बैग था । उसने अपना हाथ बैग मे डाला और एक छड़ी निकालकर उसे झटके से खोल दिया । छड़ी लम्बी हो गयी । अरे ! यह तो अंधों वाली छड़ी है । छड़ी ठकठकाता, रास्ता बनाता वह बिना किसी की मदद के बस से उतर कर चल दिया और मै अपने दाहिने हाथ से बांये बाज़ू को सहलाती रह गयी; जहां उसके चौड़े कंधे और मज़बूत बांह के अकस्मिक स्पर्श का अहसास अब तक मौजूद था ।

वह अहसास मेरी बांह पर मानो चिपक ही गया था । मै अपने बायें बाज़ू को सहलाती जा रही हूं; और वह, मुझसे दूर - - - दूर - - - और दूर - - - । मैं उसे रोकना चाहती हूं । मैं आवाज़ देना चाहती हूँ । पुकारना चाहती हूँ । पुकारती हूँ; वह चला जारहा है । फ़िर पुकारती हूँ; वह नही सुनता । क्यों वह बहरा तो कतई नहीं है । बहरी तो मै भी नहीं फ़िर मैं भी तो नहीं सुन रही हूँ अपनी आवाज़ । क्या हुआ है मेरी आवाज़ को - - - ? मैं चीखती हूँ; पूरा ज़ोर लगाकर - - - एक सीटी सी आवाज़ निकलती है हलक से । मेरे हलक मे कुछ फ़ंस गया है, शायद । मैं क्या करूं ? क्या करूं ? मेरी आंखों मे आंसू आगये । मै रोती हूँ; अपनी लाचारी पर । सिसकती हूँ - - - कोई हमदर्दी से मेरा कंधा थपथपाता है ।

“क्या हुआ मेडम ?” कंडक्टर है । मैं अचकचाकर आस-पास देखती हूँ; बस तो घाटी उतर रही है । वह उसी तरह अपनी सीट पर जमा हुआ है । खिड़की से चिपका; बाहर की तरफ़ मुंह किये । मैने झटपट आंसू पोंछे ।

“मेडम टिकिट - - -“ मैने जल्दी से पैसे निकालकर दिये; छुट्टे वापस लिये । हो गई टिकिट । उसने भी पैसे दिये, छुट्टे लिये और लापरवाही से शर्ट के सामने वाली जेब के हवाले कर दिया । मेरा दिल तो हुआ कि, उसकी टिकिट के पैसे मै दे दूं लेकिन वह बुरा मान जाता । वह खुद्दार है । मै कुछ करना चाहती हूं; उस संगदिल शख़्श के लिये कुछ करना चाहती हूँ । यह उतना बुरा तो नहीं है; मैं समझ चुकी हूँ ।

“सुनिये - - -“ कहने के लिये मै मुंह खोलती हूं कि जैसे, अच्छे खासे सीन के बीच मे ही निर्देशक की ‘कट !’ की आवाज़ गूंज उठी हो - - -

“चींईईईई !!!!” की तेज़ आवाज़ गूंज उठी । मेरा सर जाकर सामने वाली सीट से टकराया । घाटी के उतार पर एक तीखे मोड़ पर अचानक सामने से एक ट्रक आजाने के कारण ड्राईवर ने झटके से ब्रेक लगाये और हमारी बस खाई मे गिरने से बाल-बाल बची । हम सब की सांसें ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई ।

मैने देखा उसका चश्मा छिटककर मेरे पैरों के सामने आ गिरा । मुझे ही उठाकर देना होगा वर्ना मुझे पता है; वह मेरे इतने करीब आकर उठाने से तो रहा ।

“उसे मत छूओ !” वह चिल्लाया; इससे पहले कि मै चश्मे को उठा पाती । हूंम्म्म, तो इसे मेरा उसके चश्मे को हाथ लगाना भी गवारा नहीं ? डिस्कस्टिन्ग !! यह तो सचमुच रहम के लायक नहीं । एक मै ही हूं जो बार बार इस गंवार, जंगली, पहाड़ी पर - - - । मैं गुस्से मे भरकर उसकी ओर घूमी; लेकिन उसकी आंखें तो मुझसे पहले ही लाल हो चुकी थीं । लाल और चिपचिपी सी । ओह ! मुझे खयाल आया; मैने उसकी आंखों को पहली बार देखा है ।

“मेरी आंखें आई हैं । यू नो, कन्जक्टिवाइटिस । यह छुने और आंखों मे देखने से फ़ैलता है, न - - -” हां ! मुझे याद है न, बचपन के, स्कूल के वे दिन, “उसे मत देख रे ! नई तो तेरी भी आंख आ जायेगी ।“ यकायक मैं जैसे खिल उठी । बिना चाहे ही एक मुस्कान मेरे ओठों पर फ़ैल गई ।

“इसीलिये मैं कब से एक ओर सिमटा, दूसरी ओर देखता, बैठा हूँ । मैं नहीं चाहता कि कोई मुझसे इन्फ़ेक्टेड हो - - -“ वह कह रहा है और मै सोंच रही हूँ, ‘कितना मासूम है ? बेशक, इसे तो यह भी इल्म नहीं होगा कि उसके स्पर्श का अहसास मै अपनी बांह पर चिपकाये अपने साथ लिये जा रही हूँ; हमेशा के लिये - - -‘

***