काव्यभारती
एक पहचान काव्यजगत को दस्तक देती हुई !.......
सचिन अ. पाण्डेय
1 - कलाम को मेरा सलाम
हुआ था एक बुद्धि–सम्राट,
कथा है जिसकी बहुत विराट;
कभी न भाया जिसे आराम,
उस कलाम को मेरा सलाम।
हिंद को किया परमाणु प्रदान,
वह था धारणी माँ का वरदान;
जिसने किए खोज तमाम,
उस कलाम को मेरा सलाम।
जो ‘मिसाइल मैन’ कहलाया,
शास्त्र जगत में इतिहास रचाया;
जिसको प्यारी सारी आवाम,
उस कलाम को मेरा सलाम।
जिससे प्रेरित बूढ़े-जवान,
उर से करूँ उसका गुणगान;
चित्त के जिसके कोई न दाम,
उस कलाम को मेरा सलाम।
धन्य हुई माँ उसको पाकर,
कितनी होगी वह जननी महान?
जन्मा न फिर ऐसा मानव आम,
अब्दुल कलाम को मेरा सलाम।
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2 - तिरंगे का कफन कर दे
ऐ मालिक, सिर्फ इतना-सा मुझपर तू करम दे,
मुझे सनम से प्यारा मेरा वतन कर दे !!
कर दूँ निछावर तन-मन-धन सब अपना,
इतनी प्रज्वलित मुझमें राष्ट्रप्रेम की अगन कर दे !!
सकुचित न होऊँ क्षणभर भी सरफ़रोश बनने को,
ऐसी मनोवृत्ति का मेरे ज़हन में तू जनम कर दे !!
अस्तित्व मिट जाए दहशतवादी नर-पिशाचों का इस धरा से,
और परे हो जाए मुल्क से गद्दारी की सोच भी ऐसे उसे तू दफन कर दे !!
मेरी माँ के आँचल के तले चैन से सो सकूँ मैं,
ऐसे विदा होने पर अता मुझे मेरे तिरंगे का कफन कर दे !!
ऐ मालिक, सिर्फ इतना-सा मुझपर तू करम दे !!
***
3 - माई तू मेरा संसार
माई तू मेरा संसार,
मेरे आयुष्य का आधार;
न्योछावर किया मुझपर दुलार,
चुका न पाऊँ तेरा यह उधार।
बड़े नाज़ो से पोषित किया मुझको,
कितनी वेदना सहनी पड़ी तुझको;
कर न सकूँ तेरे त्याग का उद्गार,
चुका न पाऊँ तेरा यह उधार।
दुग्ध-सूरत में लहु पिलाया तूने,
महत्ता तेरी ईश्वर भी सुने;
तेरे हट-समक्ष यम बैठे हार,
मेरे खातिर छेड़ा विधाता से तक्रार,
चुका न पाऊँ तेरा यह उधार।
था मिट्टी-सा निराकार,
नवाजा तूने उचित आकार;
सत्कर्म होंगे किसी जन्म के,
जो मिला मुझे है तेरा प्यार;
चुका न पाऊँ तेरा यह उधार।
प्रतिमा है ममता की तू,
मुझपर खुदा का है उपकार;
‘अगले जनम मोहे तू ही मिलेयो’,
आस करूँ यही बार-बार।
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4 - कुदरत का भी अजब दस्तूर है
कुदरत का भी अजब दस्तूर है !
जिससे तमन्ना थी बेइंतेहा, रूबरू होने की,
वही सनम हमसे खफा और बहुत दूर है !!
मिन्नतें की खुदा से जिसे पाने की, अपनी शरीक-ए-हयात बनाने की,
वही अपनों को छोड़ किसी गैर संग मसरूर है,
कुदरत का भी अजब दस्तूर है !!
जिसे चाहा बेतहाशा, उसी पर छाया किसी और की हसरत का फ़ितूर है,
हमने की सच्ची वफा, जो उसे हर दफा हुई नामंज़ूर है !!
अश्क बहाए हैं जिसकी याद में, उसीने दिए काँटें ही फिज़ाओं वाले जरूर हैं,
कुदरत का भी अजब दस्तूर है !!
वो ठहरी बेवफा, हम तो रहे वही दीवाने-मनमौजी-मतवाले,
आज भी अपनी चाहत पर हमें नाज़ है, गुरूर है !!
जिसने ठुकराया, उसी को चाहने को यह दिल बेबस और मजबूर है, क्योंकि-
कुदरत का भी अजब दस्तूर है !!
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5 - अब की बार होली में
उल्हासपूर्ण सतरंग सहित, भिगो देंगे सभी को रोली में, अब की बार होली में !
आमादप्रमोद के दृश्य दिखेंगे , चहु ओर सभी की खोली में, अब की बार होली में !
उत्साह एवं ललकारभरी अब, ध्वनि गूँजे सभी की बोली में, अब की बार होली में !
परसेवा, परप्रेम, परहित, संदेशा यही दे हर एक गीत, ऊँच-नीच की देहरी लाँघ, समभावी रंग गढ़े जाएँ, घर-घर की रंगोली में, अब की बार होली में !
रंगना है सभी के गाल, रिक्त न रह जाए देह-कपाल, सर्वत्र परस्पर रोरी-गुलाल, बच न पाए कोई इस साल, जुनून भरा यही हर एक छोरे-छोरी में, अब की बार होली में !
देखते ही देखते भ्रम में डाल, कर दें सब के तन रंग-लाल, पलक झपकते ओझल हो जाएँ, खेले जैसे आँख-मिचौली में, अब की बार होली में !
जश्न मनेगा अब त्रिभुवन में, बनेगा हर कोई प्रिय नंदलाल, वही कृष्ण है, वही गोपाल, दर्शित होंगे गिरधर-राधिका, हर एक बाल व गोरी में, अब की बार होली में !
द्वेष-कलेश का विलोपन कर, सद्भावों का रोपण कर, प्रीति की डोर से बँध जाएँ सब, चाहे हों बैरियों की टोली में, अब की बार होली में !
दहन करें विषादपूर्ण जीवन का, कहीं और नहीं होलिका भोली में, प्रेम के गुलशन खिल जाएँगे, होंगी खुशियाँ सब की झोली में, अब की बार होली में !
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6 - शिक्षा बड़ी उदार
घर-घर में जिसे मिला मान,
करती सबका है कल्याण;
जिसके बल पर चले घर-बार,
शिक्षा बड़ी उदार।
गांधी, नेहरू और कलाम,
इसकी बदौलत बने महान;
दूर करे अज्ञानी अंधकार,
शिक्षा बड़ी उदार।
दीन को दिलाती यह पहचान,
इसके आगे रंक-न-राजा;
सभी को देती मान समान,
तलवार से अधिक है इसमें धार,
शिक्षा बड़ी उदार।
हुए बड़े-बड़े अनुसंधान,
इसीसे निर्मित महान विज्ञान;
मूल है इसकी शिष्टाचार,
शिक्षा बड़ी उदार।
इसीसे होता भाषा-ज्ञान,
इससे बड़ा नहीं कोई दान;
आरंभ इसीसे विकास का प्रसार,
शिक्षा बड़ी उदार।
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7 - है मेरी अभिलाषा
छू लूँ गगन बिना लिए पर,
किसी का न हो मुझको डर;
मंजिल छोडू न भी मरकर,
है मेरी अभिलाषा।
सामर्थ्य रहे मुझमें इतना,
करूँ मैं सभी का उद्धार;
बनूँ मैं दीन का जीवनाधार,
कुछ न लगे मुझे अपार;
है मेरी अभिलाषा।
यदि कहीं हो भ्रष्टाचार,
कर दूँ उसे मैं तार-तार;
न हो जन में वाद-विवाद,
सभी करें शुभ-संवाद;
है मेरी अभिलाषा।
साक्षात्कार हो कहीं दहशतगर्दी,
मिटा दूँ उसे मैं बिना कोई वर्दी;
प्रसारित हो एक संदेश,
सभी का हो एक देश, एक वेश;
अब भिन्नता रहे न शेष,
है मेरी अभिलाषा।
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8 - एक पगली अनजानी-सी
कॉलेज का वो पहला दिन, एक पल को आँखें चार हुईं,
थे अनजाने एक-दूजे से वो, फिर अनचाही तक्रार हुई,
वो एक पगली अनजानी-सी, जो प्यार उसीसे करती थी,
थी दिल की कमज़ोर बहुत वो, इज़हार करने से डरती थी I
कॉलेज उसका न आना, एक दिन भी न उसको गवारा था,
उसकी नज़रों में वो सारे जहाँ से भी प्यारा था,
वो एक पगली अनजानी-सी, जो दिन-रात उसी पर मरती थी,
थी थोड़ी शर्मीली-सी वो, यह बतलाने को डरती थी I
पलभर-भी उसका रूठ जाना, अब उसको तो दुश्वार हुआ,
उसकी मुस्कानभर को देख उस पगली का दिल गुल्ज़ार हुआ,
वो एक पगली अनजानी-सी, जो उसकी याद में आहें भरती थी,
थी थोड़ी नादान बहुत वो, यह इकरार कभी न करती थी I
बिन उसके अब दिन न चाहे, उसके बिन निशा न भाए,
ख्वाबों की शहज़ादी थी वो, पर उसको अब नींद न आए,
वो एक पगली अनजानी-सी, जो तन्हाई की बाहों में दीदार उसीका करती थी,
थी नाजुक वो कलियों-सी, यह समझाने से डरती थी I
जुदा थीं उनकी राहें, जुदा ठहरी तक़दीरें,
जो वो पगली कहती, अब सूझे न फिर कैसे जिएँ?
वो एक पगली अनजानी-सी, जो उसकी ख्वाहिश में तिल-तिल मरकर जीती थी,
थी बड़ी दीवानी-सी वो, उसकी खातिर खुद करार खोया करती थी I
थी मजबूर बहुत वो, हो अपनों से दूर बहुत वो,
अब तो बस उसको यादों का ही सहारा था,
डूबता जा रहा था दिल उसका प्रेमसरोवर में अब,
जब कि वो सामने ही किनारा था,
वो एक पगली अनजानी-सी, जो उसके लिए ही फरियाद,
हर रोज़ खुदा से करती थी,
थी ज़रा भोली-सी वो, यह बात कभी न कहती थी I
जब उसकी चाहत में उसके अपनों ने साथ छोड़ दिया,
बेरहमी कर किस्मत ने भी अपना रुख मोड़ लिया,
क्या कसूर था उस पगली का ?
जो एक पगले पर मरती थी,
वो एक पगली अनजानी-सी, जो प्यार उसीसे करती थी,
थी दिल की कमज़ोर बहुत वो, इज़हार करने से डरती थी I
***
9 - मुझे कोई पैगाम दे दे
ऐ मेरी हुस्न-ए-मल्लिका, मुझे तू उल्फ़त का जाम दे दे,
हसीन तो मिलते हैं कई राह-ए-ज़िंदगी में, मगर
तुझे ही चाहूँ उम्रभर मैं, ऐसा मुझे कोई पैगाम दे दे !!
हर दिन हो होली और हर रात दिवाली हो,
यूँ मेरे दामन में तू अपनी सुबहो-शाम दे दे !!
गुमनाम हो जाऊँ तेरी दीवानगी में एक दिन मैं,
मुझे तू ऐसे ही सच्चे आशिक का नाम दे दे !!
मिसाल रह जाए तेरी-मेरी मोहब्बत की अरसों तक,
ऐसी यादगार अफ़्साना-ए-उल्फ़त को तू अंजाम दे दे !!
सजा दूँ तेरे गुलिस्ताँ को खुशियों से मैं,
चाहे क्यूँ न मुझे तू ग़मभरी सौगातें तमाम दे दे !!
ऐ मेरी हुस्न-ए-मल्लिका, मुझे तू उल्फ़त का जाम दे दे !!
***
10 - नाच रहा है मोर
हो गया है भोर,
वर्षा हुई घनघोर;
बाँधे प्रीति की डोर,
नाच रहा है मोर।
बयार चल रही जोर-जोर,
तृप्त हुआ अवनि का एक-एक छोर,
बाँधे प्रीति की डोर,
नाच रहा है मोर।
उर में हर्ष नहीं है थोर,
दादुर मचा रहे हैं शोर;
बाँधे प्रीति की डोर,
नाच रहा है मोर।
धरणी कहती– आनंदित है पूत मोर,
कहाँ छिप गया दीनकर चोर;
बाँधे प्रीति की डोर,
नाच रहा है मोर।
जीव-जंतु हुए आनंदभोर,
टूट गई ग्रीष्म की डोर;
बाँधे प्रीति की डोर,
नाच रहा है मोर।
***
11 - रक्षाबंधन
बहन-भाई की प्रीति है,
यह चली आ रही रीति है;
है अनुरागा यों सलोना बंधन,
लो पधारा पर्व ‘रक्षाबंधन’।
त्योहार यह ठहरा प्रतीक-ए-अमन,
पवित्र ‘श्रावण’ माह होता आगमन;
सर्वत्र परस्पर तिलक-चंदन,
जिसे दर्शाए ‘रक्षाबंधन’।
डोर यों तो कच्चे धागे का,
सुरक्षा-चिह्न आयुष्यभर का;
विनोदमय हुए सभी के मन,
आया खुशनुमा ‘रक्षाबंधन’।
इस रिश्ते का इतना मान,
खींच लाए यमलोक से प्राण;
नाता है नाजूक कलियों-सा ,
जिसे खिलाए ‘रक्षाबंधन’।
एक उदाहरण गोविंद-द्रोपदी,
जिनकी मिसाल रही सदियों-सदी;
बहन करे भाई का वंदन,
एकत्र मनाएँ ‘रक्षाबंधन’।
***
12 - घर पधारी सुनहरी परी
बरखा-सी इठलाती,
लोगों को हर्षाती;
सौम्यता भरी कलियों-सी,
घर पधारी सुनहरी परी।
माँ-बाप की यों दुलारी,
जीवन से ज्यादा प्यारी;
अंतर में सभी के बसती,
खुशियों का गीत रचती;
घर पधारी सुनहरी परी।
संघर्ष-भरे क्षण को भी,
मौका-ए-खास बनाती;
ज़िंदगी के विषाद को,
मुस्कान से यह हर लेती;
प्रेमभावी गुलशन संग लाती,
घर पधारी सुनहरी परी।
ज्यों विदा हुई पीहर को,
कैसे संभाले पिता स्वयं को?
आज रुसवा हो गई उसकी,
घर पधारी सुनहरी परी।
***
13 - चंदा की डोली
छाई निशा घनेर,
हो गई है देर;
चंभित हुई अंबर को देख,
बोल उठी चम्पा भोली-
आ रही चंदा की डोली।
पवन चल रहा जोर-जोर,
अंधकार फैला चारों ओर;
वाचाल बनी सिंधु-लहरों की बोली,
आ रही चंदा की डोली।
सभी ऊँघ रहे स्वप्न में,
चादर ओढ़े सदन में;
प्रस्थान की संग तारकों की टोली,
आ रही चंदा की डोली।
खिल उठी रातरानी प्यारी,
दमक उठी पृथ्वी जननी हमारी;
किए पूर खुशियों से झोली,
आ रही चंदा की डोली।
***
14 - ऐ खुदा, हो मेहरबाँ
दुनिया के रखवाले जिससे सभी को डर,
आया एक सवाली तेरे दर पर;
करूँ न कभी कोई दूसरी रज़ा,
ऐ खुदा, हो मेहरबाँ।
रहमत तेरी सभी को मिले,
नफरत-भरे इस जहाँ में गुल-ए-मोहब्बत खिलें;
करूँ न कभी कोई दूसरी रज़ा,
ऐ खुदा, हो मेहरबाँ।
मेरी गुस्ताखियों को तू करना मुआफ,
तेरे दीदार को तड़प रही मेरी आँख;
करूँ न कभी कोई दूसरी रज़ा,
ऐ खुदा, हो मेहरबाँ।
ऐ ऊपरवाले, तेरे बंदों को एक पैगाम दे,
बैर न रहे किसी का किसी से;
करूँ न कभी कोई दूसरी रज़ा,
ऐ खुदा, हो मेहरबाँ।
राह-ए-जिंदगी में बनना हमदर्द,
कर दे परे दुनिया से ख्वाहिस-ए-खुदगर्ज़;
करूँ न कभी कोई दूसरी रज़ा,
ऐ खुदा, हो मेहरबाँ।
***
15 - अगर तुझसे दिल लगाने का
हम कब के तुम्हारे हो जाते सनम,
अगर ज़िंदगी में कोई दस्तूर न होता !!
दिल तक दस्तक जरूर दे पाते,
अगर तेरे दिल का पता इतना दूर न होता !!
कोई हमें बावला न कहता,
अगर हम पर तेरे इश्क़ का सुरूर न होता !!
हम इस कैद-ए-मोहब्बत से कब के रिहा हो जाते,
अगर तुझसे दिल लगाने का कसूर न होता !!
***
16 - भुलाया नहीं जाता
संग गुज़री यादों को अब भुलाया नहीं जाता !दिल में जगे जज़्बातों को अब सुलाया नहीं जाता !!झेल लिए ढेरो सितम उसके हर घड़ी, हर डगर, मगर मासूम-सी उसकी सूरत देख बेवफ़ा उसे बुलाया नहीं जाता !जी करता कि ग़मों से भर दूँ झोली उसकी मैं, जबकि जो सच कहूँ तो पलभर भी उसे अब रुलाया नहीं जाता !!की हैं लाख नाकाम कोशिशें उससे दूरियाँ बनाने की, पर चाह कर भी हमदर्मियान ये अनूठा नाता अब छुड़ाया नहीं जाता !पड़ जाएँ कितनी ही कुदरती बंदिशें इस गुलशन-ए-वफ़ा पर, फिर भी प्रीति का गुल यूँ तो अब मुरझाया नहीं जाता !!ज़िंदगी को मुहय्या हुई हर खुशहाली रहमत-ए-खुदा से, पर बगैर उसके अब इस दिल को कुछ लुभाया नहीं जाता !इश्क़ करना छोड़ दो कहते ये ज़मानेवाले, मगर रोम-रोम में रौशन चिराग-ए-मोहब्बत को अब बुझाया नहीं जाता !!
सचिन अ॰ पाण्डेय
***