ज़िन्दगी फ़ासलों से गुज़रती रही
-एक संकलन भूली हुई यादो का, गुज़री हुई
संध्या राठौर
सूची
ग़ुमशुदा इस सफर के मुसाफिर है हम
जी करता है
तुम कहाँ चल दिए
बरसो सी एक तलाश थी
सुनो थामोगे तुम उम्रभर, मेरा हाथ क्या ??
जाने कहाँ ग़ुम हुई ……
प्रस्तावना
लेखन में रूचि बचपन से ही थी। उम्र के साथ साथ , ज़िन्दगी के बहुत सारे चेहरे देखे- कुछ अच्छे तो कुछ बुरे… बस जो कभी जुबां कह न पाई , कलम ने कह दिया - और बड़े ही पुरज़ोर ढंग से कहा। कवि ह्रदय था - काँच की तरह था - बड़े सारे दरक पड़े इसमें - फिर भी संजो के रखा।
ये संकलन- उन कुछ अधूरी ख्वाहिशों , सपनों, यादों और वो बातें, जो बस मैं अक्सर खुद से किया करती थी, को कविताओं में पिरोने का एक छोटा सा प्रयत्न है।
इस संकलन को मैं अपनी माता श्री श्रीमती शिवकान्ति राठौर को अर्पित करती हूँ।
धन्यवाद
संध्या राठौर
ग़ुमशुदा इस सफर के मुसाफिर है हम
ग़ुमशुदा इस सफर के मुसाफिर है हम,
पूछे, दोनो जहाँ से, कहाँ के हैं हम?
किसकी खातिर जीये किसकी खातिर मरे,
ऐ ख़ुदा ! तु बता क्या करे और हम ?
ख़्वाब देखे हुअे इक ज़माना हुआ,
आजकल आँखो में नींद आती है कम,
ग़ुमशुदा इस शहर के मुसाफिर हैं हम .........
ख़्वाहिशों के शहर हो गए अब विरां,
बस तन्हाई हैं और थोड़े हैं ग़म !
ग़ुमशुदा इस शहर के मुसाफिर हैं हम... ......
दिन ने कुछ न कहा, यूँ ही चुप वो रहा,
रात कोने में बैठी रही, ... ग़ुमसुम
ग़ुमशुदा इस शहर के मुसाफ़िर हैं हम .......
रेत पर छोड़ कर आए थे जो निशां,
वक्त के पानियों में हो गये वो ग़ुम,
ग़ुमशुदा इस शहर के मुसाफ़िर हैं हम........
ज़िदगी को मेरी अब ज़रूरत नहीं,
कब पता तोड़ दे, साँसे मेरी ये दम !
ग़ुमशुदा इस शहर के मुसाफ़िर हैं हम
पूछे, दोनो जहाँ से, कहाँ के हैं हम? .......
जी करता है
कभी कभी युहीं
खामोशियों को सुनने का
जी करता है।
कोई न हो पास फिर भी
किसी के पास होने को
जी करता है।
रास्ते है पास,
जाने क्यों है मंज़र उदास ?
क्यों तुझे खोकर, पाने को
जी करता है।
तुझसे दूर होकर
तेरे पास होने
जी करता है।
सदियों पहले रूह ने
जिस्म को मेरे छोड़ा।
तुझको पाकर
फिर से जीने को
जी करता है।
अपनी रूह से
तेरी रूह को छूने को
जी करता है।
तुम कहाँ चल दिए
रेत पर छोड़ कर , यूँ निशाँ चल दिए।
राह में छोड़कर, तुम कहाँ चल दिए ?
कुछ पहर की सहर ही होती नहीं।
कुछ शहर में बसर ही होती नहीं।
इस शहर के सभी रहनुमां चल दिए।
राह में छोड़कर, तुम कहाँ चल दिए ?
कुछ डगर पे सफर कभी होते नहीं।
कुछ मकानो में घर कभी होते नहीं।
इस डगर पे क्यों हम जानेजाँ चल दिए।
राह में छोड़कर, तुम कहाँ चल दिए ?
तुम कहाँ चल दिए
रेत पर छोड़ कर , यूँ निशाँ चल दिए।
राह में छोड़कर, तुम कहाँ चल दिए ?
कुछ पहर की सहर ही होती नहीं।
कुछ शहर में बसर ही होती नहीं।
इस शहर के सभी रहनुमां चल दिए।
राह में छोड़कर, तुम कहाँ चल दिए ?
कुछ डगर पे सफर कभी होते नहीं।
कुछ मकानो में घर कभी होते नहीं।
इस डगर पे क्यों हम जानेजाँ चल दिए।
राह में छोड़कर, तुम कहाँ चल दिए ?
बरसो सी एक तलाश थी
बरसो की एक तलाश थी ,
जो आ कर तुझपे, थम गई।
उदास इन ख्यालो में ,
तेरी सुगबुगाहट बढ़ गई ।
तू मिला जैसे मुझे
सारी खुदाई मिल गई !
क्या ज़मीं, क्या आसमाँ,
मेरी दुनिया ही बदल गई !!
वो धोख़ा था, फरेब था !
जब जाना तो नब्ज़ थम गई !!!
सौदे के इस बाजार में ,
उसूलों की, दिल से ठन गई .......
एक कोशिश और,
ख़ून से कलाई मेरी रंग गई !
ज़िन्दगी और मौत की ,
एक बार फिर जंग छिड़ गयी .
सुर्खियाँ अख़बार की ,
उस रोज़ जब मैं बन गई !
शर्मसार थी मैं यूँ भी ,
एक बार फिर शर्म से मर गई !!!!
सुनो थामोगे तुम उम्रभर, मेरा हाथ क्या ??
मेरे क़ाग़ज़ो की तेरी क़लम से हुई है बात क्या?
बातों बातों में कह गये तुम, थी वो बात क्या ?
कुछ लम्हे थे, वक़्त से कल कहीं खो गये
तुम कहो, आए है वो, तुम्हारें साथ क्या ?
दिन उजालों की, तान चादर क्योंकर सो गया
शाम आयेगी कैसे, आयेगी अब भला रात क्या ?
तुम मिले तो यूँ लगा मिल गया सारा जहाँ
सुनो थामोगे तुम उम्रभर, मेरा हाथ क्या ??
जाने कहाँ ग़ुम हुई ……
किसी की वो निगाह थी …
किसी की मुझे चाह थी ....
किसी की उस तलाश में ....
मैं जाने कहाँ ग़ुम हुई ……
चले थे ये जो रास्ते ……
जो बने थे मेरे वास्ते ……
क्या जाने किसी मोड़ पे ……
वो राहें कहाँ ग़ुम हुई ……
बरसती वो बूँदे थी ……
तरसती वो बूँदे थी ……
सूनी सूनी आँखों से ……
बरस के कहाँ ग़ुम हुई ……
किसी से कुछ ग़िला नहीं ……
कोई भी शिक़वा नहीं ……
मेरे हाथो की लकीरों से ……
एक लकीर जाने कहाँ ग़ुम हुई ……