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इंसान ज़िंदगीभर चैन की ज़िंदगी बिताने के लिए दौलत के पीछे भागता है, और अंत में दौलत तो बहुत होती है पर ज़िंदगी पीछे छूट जाती है । - उषा जरवाल
कुछ लोग आपके धैर्य की अंतिम सीमा तक आपको आजमाते हैं । फिर एक वक्त आता है जब उनके हर सवाल का जवाब आपकी खामोशी होती है । ये खामोशी उनकी उपेक्षा से उपजी हृदय की वो निराशा है जो अब उन्हें नहीं सुहाती । - उषा जरवाल
खुद को बेहतर बनाने के लिए समय लीजिए, खुद को साबित करने के लिए नहीं । - उषा जरवाल
खिचड़ी - यदि बरतन में पके तो बीमार इंसान को ठीक कर देती और दिमाग में पके तो इंसान को बीमार कर देती है । - उषा जरवाल
माँ और पत्नी दोनों ही आपकी गुरु हैं । माँ कहती है कि पत्नी सिखाती है और पत्नी कहती है कि माँ सिखाती है । विनम्रता की पराकाष्ठा तो देखिए कि सिखाती दोनों हैं लेकिन उसका श्रेय दोनों ही नहीं लेना चाहती । - उषा जरवाल
यूँ ही एक छोटी - सी बात पर रिश्ते पुराने बिगड़ गए, बात ‘सही क्या है ?’ से शुरू हुई थी और वे ‘सही कौन है ?’ पर अड़ गए । उषा जरवाल ‘एक उन्मुक्त पंछी’
उन्हें कामयाबी में सुकून नज़र आया तो वे दौड़ते गए, हमें सुकून में कामयाबी दिखाई दी तो हम ठहर गए । ख़्वाहिशों के बोझ में दबा तू क्या - क्या कर रहा है ? इतनी तो ज़िंदगी भी नहीं है जितना तू मर रहा है ! - उषा जरवाल
किसी न किसी के शब्द तो यदा कदा चुभते ही रहते हैं । जिस दिन किसी का मौन चुभ जाए तो सँभल जाना । उषा जरवाल ‘एक उन्मुक्त पंछी’
मुझे ‘मैं’ पसंद हूँ । यह बिंदी ना लगाया करो , यह तुम पर जँचती नहीं । गहरे रंग ही पहना करो , यह साड़ी तुम पर फबती नहीं ॥ तो सुनो ... यह बिंदी मैंने लगाई है , तो मुझे तो जँचती ही होगी। यह साड़ी भी मैंने ही खरीदी है, पहनी है तो मुझे पसंद ही होगी ॥ तुम्हें लाल रंग पसंद है तो , पीला रंग खराब है क्या ? तुम शौक़ीन हो ‘अंग्रेज़ी’ में बड़बड़ाने के, तो ‘हिंदी’ मेरी बेमिसाल नहीं है क्या ? इतना तो तुम्हें भी पता ही होगा कि , नहीं मिलते दो लोगों के उंगलियों के भी निशान । फिर कैसे हो सकती है ? सभी की पसंद नापसंद एक समान । । मेरे शौक को ,मेरे पहनावे को, मेरे खाने को , मेरे गाने को , यूँ बेवजह जज ना तुम किया करो । खुद में भी मस्त रहना सीखो , हरदम दूसरों में नुक्स निकालने का कष्ट ना तुम किया करो ॥ क्या पता ... तुम्हारी कोई पसंद भी , करोड़ों में से हर एक को रास नहीं हो। । तो क्या ? आज तक जो तुम खुद को ‘ख़ूब’ समझते आए हो , मतलब, तुम भी कुछ खास नहीं हो। उषा जरवाल ‘एक उन्मुक्त पंछी’
एक बार समंदर के किनारे एक केकड़ा अपने पैरों के सुंदर निशान बनाता हुआ चल रहा था । वह बार - बार पीछे मुड़कर अपने पैरों से बनाए हुए निशानों को देख रहा था और मन ही मन खुश हो रहा था । वह यह सोचकर खुश हो रहा था कि उसके पैरों के निशान सबसे सुंदर हैं । इतने में ही समंदर की एक तेज़ लहर आई और उसके सुंदर निशानों को मिटा दिया । यह देखकर केकड़े को बहुत बुरा लगा और वह समंदर को भला - बुरा कहने लगा । उसने समंदर से कहा कि वह उसकी कला से चिढ़ता है इसलिए उसने उसके पैरों के निशानों को मिटा दिया । समंदर मुस्कुराया और कहा -“कुछ मछुआरे तुम्हारे पैरों के निशानों का पीछा करते हुए तुम्हें पकड़ने आ रहे थे इसलिए मैंने उन निशानों को मिटा दिया ताकि वे तुम तक न पहुँच सके और तुम्हारी रक्षा हो सके ।” समंदर की बात सुनकर केकड़े को अपने व्यवहार पर पछतावा हुआ । कई बार हम दूसरों के बारे में जाने बिना उनके प्रति गलत धारणा बना लेते हैं जिसके लिए हमें बाद में पछताना पड़ता है ।
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