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Sudhir Srivastava

Sudhir Srivastava

@sudhirsrivastava1309
(33)

यमराज की कांवड़ यात्रा
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कांवड़ियों की भीड़ देखकर यमराज अकुलाया
उसके भी मन में कांवड़ यात्रा का विचार आया।
मुझे फोन मिलाया और फ़रमाया
प्रभु! मैं भी कांवड़ उठाऊँ? भोले को जल चढ़ा आऊँ?
मैंने समझाया - पहले सोच-विचार कर ले
अपने स्थानापन्न का भी इंतजाम कर लें
ऐसा न हो कि सारी व्यवस्था अस्त व्यस्त हो जाये,
तू भोले को जल चढ़ाने जाये
और वहाँ तुझे देखकर भोलेनाथ को गुस्सा आ जाये।
यमराज मायूस होकर कहने लगा
प्रभु!अब आप ही कुछ जुगाड़ लगाइए
मेरे अरमानों को परवान चढ़वाइए,
कैसे भी मुझे कांवड़ यात्रा का सरल उपाय बताइए।
अब तू इतना जिद कर रहा है, तो आ जा
चुपचाप मेरे कंधे पर सवार हो जा,
मार्ग में ज्यादा उछल-कूद मत करना
मुझे छोड़ कर इधर उधर मत फुदकना।
जब मैं भोलेनाथ को जल चढ़ाऊँ
तो तू भी मेरे लोटे को पकड़े रहना।
हम दोनों का ही कल्याण हो जायेगा
कांवड़ यात्रा का आनंद ही नहीं
भोलेनाथ का आशीर्वाद भी मिल जायेगा,
हम दोनों को एक साथ
कांवड़ यात्रा का सुख मिल जायेगा
और आमजन जान भी नहीं पायेगा
भगवान भोलेनाथ को गुस्सा भी नहीं आयेगा,
मेरे साथ तेरा भी नाम सुर्खियों में आ जायेगा।

सुधीर श्रीवास्तव

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कांवड़ यात्रा
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पग-पग पर विश्वास
चहुँदिश भोलेनाथ के जयकारों की गूंँज,
रंग-बिरंगे, तरह-तरह के काँवड लेकर जाते
नाचते गाते शिवभक्तों का जन सैलाब।
श्रद्धा और विश्वास से सराबोर, भरपूर जोशो जूनून
हर सांस में शिव संग माँ गंगा,
नंगे पांव, श्रद्धा से भरपूर अविचलित
अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हर उम्र के काँवड़िए
देवों के देव महादेव के गूँजते जयकारे
शिवालयों, शिव मंदिरों में उमड़ते शिवभक्त।
काँवड़ यात्रा श्रद्धा, विश्वास, संकल्प का अनुष्ठान
गंगा जल से भरी कांवड़, शिव के प्रति समर्पण
यही है कांवड़ यात्रा का मतलब ।
और मिलती है हर शिवभक्त को भगवान शिव की कृपा
जिससे हर्षित शिव भक्त खुद का सौभाग्य मानते हैं,
अपने ही नहीं, परिवार, समाज,
राष्ट्र, संसार की खुशहाली के लिए
सब मिलकर शिव से फरियाद करते हैं,
शिव जी भी मौन मुस्कराहट के साथ
अपने हर भक्त पर अपार कृपा बरसाते हैं,
कांवड़ यात्रियों को भोलेनाथ खूब भाते हैं।
आइए! हम आप भी शिव जी को रिझाते हैं
कांवड़ियों के संग बोल बम ,बोल बम के
जयकारे लगाते, नाचते गाते हैं
अपना और अपनों का जीवन धन्य बनाते हैं।

सुधीर श्रीवास्तव

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फोटो पर हार
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यह कैसी विडंबना है
जिसे हम आप स्वीकार नहीं करते
या यूँ कहें, करना ही नहीं चाहते।
क्योंकि हमें तो आदत है
सच को दूर ढकेलने की
अपने स्वार्थ सुविधा और दंभ में खेलने की।
पर क्या इतने भर से सच बदल जायेगा?
जो वास्तव में होना निश्चित है
वह इतने भर से लुप्तप्राय हो जायेगा?
ऐसा सोचिए भी मत, दिवास्वप्न देखिए मत
भ्रम से बाहर निकलिए और विचार कीजिए
सत्य की सत्यता को ईमानदारी से स्वीकार कीजिए।
आज चाहे जितना उछल कूद कर लीजिए,
धन-दौलत, सुख-सुविधाओं का घमंड कर लीजिए,
मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा का ढिंढोरा पीट लीजिए
या जो मन में आये, वो सब भी कर लीजिए।
पर यह सच स्वीकारने का साहस भी कीजिए
कि कल तो फोटो पर हार चढ़ना ही है,
हमारा अस्तित्व तो मिटना ही है,
फिर कोई अपना पराया नहीं होगा,
कोई हमारा नाम भी नहीं लेगा।
सब हमको चंद दिनों में भूल जायेंगे
और हम सबके लिए इतिहास बन जायेंगे
हमेशा के लिए अस्तित्व विहीन हो जायेंगे,
फोटो में दीवार पर लटके रहे जायेंगे
यदा-कदा औपचारिकताओं के पुष्प हार
हमारे फोटो पर चढ़ाए जायेंगे,
और हम हों या आप कुछ भी नहीं कर पायेंगे
सिर्फ फोटो से एकटक देखते रह जायेंगे।

सुधीर श्रीवास्तव

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दोहा - गुरु ज्ञान
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जीवन में हम सब करें, कुछ तो ऐसा काम।
जीवन सुरभित हो उठे ,हर्षित हों घनश्याम।।

भौतिक जीवन में बहुत, मिलते हैं संताप।
गुरू कृपा से दूर हो, तन मन का अभिशाप।।

गुरू कृपा से ही बने, उत्तम जीवन राग।
मुश्किल कितनी हो बड़ी, मत उससे तू भाग।।

गुरू कृपा से ही मिले, जीवन पंथ अनन्य।
चरण पकड़ जा गुरु शरण , सांसें होगी धन्य।।

मातु पिता की सीख का, मत करना अपमान।
गुरु शिक्षा को संग में, भवतारण ले मान।।

मातु पिता गुरु पूर्णता, इतना लीजै जान।
शीष चरण इनके झुके, यही आज का ज्ञान।।

कितना भी कर लीजिए, महिमा गुरू बखान।
फिर भी सारा जग रहे, निश्चित ही अंजान।।

गुरु चरण में स्वयं को, सौंप दीजिये आप।
बस इतना ही जानिये, मन में रहे न पाप।।

मन में रखते जो सदा, अपने गुरु का ध्यान।
भव बाधा से मुक्त रह, मुश्किल हो आसान।।

सुधीर श्रीवास्तव

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सतगुरु चालीसा
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-:दोहा:-
गुरुवर की कर वंदना, नित्य झुकाऊँ माथ।
गुरुवर विनती आप से,रखना सिर पर हाथ।।

-:चौपाई:-
सतगुरु का जो वंदन करते ।
ज्ञान ज्योति निज जीवन भरते।।१
गुरू ज्ञान का तोड़ नहीं है।
इससे सुंदर जोड़ नहीं है।।२

गुरु वंदन का शुभ दिन आया।
सकल जगत का उर हर्षाया ।।३
गुरु चरनन में खुशियाँ बसतीं।
सुरभित जीवन नदियाँ रसतीं।।४

गुरु दरिया में आप नहाओ।
जीवन अपना स्वच्छ बनाओ।।५
गुरुवर जीवन साज सजाते।
ठोंक- पीटकर ठोस बनाते।।६

पाठ पढ़ाते मर्यादा का।
भाव मिटाते हर बाधा का।।७
गुरू कृपा सब पर बरसाते।
समय-समय पर गले लगाते।।८

गुरुवर जीवन मर्म बताते।
नव जीवन की राह दिखाते।।९
साहस शिक्षा गुरुवर देते।
जीवन नैया जिससे खेते।।१०

गुरू शिष्य का निर्मल नाता।
जीवन को है सहज बनाता।।११
भेद-भाव नहिं गुरु है करता।
नजर शिष्य पर पैनी रखता।।१२

गुरुवर देकर ज्ञान सहारा।
लाते जीवन में उजियारा।।१३
शिष्य सभी उनको हैं प्यारे।
गुरुवर होते सदा सहारे।।१४

गुरु ही भव से पार लगाते।
जीवन का हर कष्ट मिटाते।।१५
गुरु पर जो विश्वास रखेगा।
जीवन का नव स्वाद चखेगा।।१६

गुरू शरण में तुम आ जाओ।
अपना जीवन आप बनाओ।।१७
महिमा गुरु की है अति प्यारी।
सदा सजाती उत्तम क्यारी ।।१८

गुरू ज्ञान है बड़ा अनोखा।
सदा बनाता जीवन चोखा।।१९
गुरु ज्ञानी सब जान रहे हैं।
अपना हित पहचान रहे हैं।।२०

आप घमंडी कभी न होना।
बीज जहर के कभी न बोना।।२१
सतगुरु सबको यही बताते।
जीवन का सत लक्ष्य सजाते।।२२

गुरु का जो अपमान करेगा।
घट संकट का स्वयं भरेगा।।२३
सोच समझकर गुरु से बोलो।
निज वाणी में मधु रस घोलो।।२४

अति ज्ञानी खुद को मत मानो।
गुरु की क्षमता को पहचानो।।२५
प्रभुवर भी गुरु को शीश झुकाते।
तभी आज ईश्वर कहलाते।।२६

गुरु का मान सदा ही रखिए।
और किसी से कभी न डरिए।।२७
गुरु संगति से ज्ञान मिलेगा।
बाधाओं का किला ढहेगा।।२८

जिसने गुरु की आज्ञा मानी।
बन जाता वो खुद ही ज्ञानी।।२९
गुरु आज्ञा का पालन सीखो।
रखो शान्ति तुम कभी न चीखो।।३०

गुरू ज्ञान है बड़ा अनोखा।
स्वाद बड़ा है देता चोखा।।३१
गुरु ज्ञानी सब जान रहे हैं।
अपना हित पहचान रहे हैं।।३२

गुरु अपमान पड़ेगा भारी।
काम नहीं आयेगी यारी।।३३
सही समय है सोच लीजिए।
नादानी मत आप कीजिए।।३४

गुरु जीवन की सत्य कहानी।
आदि अंत की कथा बखानी।।३५
मात-पिता अरु गुरु सम बानी।
दुनिया में जानी पहचानी।।३६

नैतिक शिक्षा पाठ पढ़ाते।
ज्ञान की दरिया में नहलाते।।३७
गुरु उपकार सदा ही करते।
त्याग भाव से जीवन भरते।।३८

गुरु सेवा से उन्नति होती।
मिले सफलता का ही मोती।।३९
गुरु की माया गुरु ही जानें।
या फिर ब्रह्मा जी पहचानें।।४०

-:दोहा:-
हाथ जोड़ विनती करूँ, सतगुरु देव महान।
भूल क्षमा मम कीजिए,जैसे बने विधान ।।

वरद ज्ञान का दीजिए, मेट अहम का भाव।
जीवन जिससे खिल उठे,पार लगे मम नाव।।

सुधीर श्रीवास्तव

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संत-महात्मा-ज्ञानी
महात्मा बनादास जी महाराज

अठारह सौ इक्कीस में जन्में, बना सिंह था नाम,
गुरुदत्त सिंह पिता थे जिनके अशोकपुर, गोण्डा था ग्राम।
अट्ठारह सौ इक्यावन में बना को पुत्र वियोग हुआ
पार्थिव शरीर लेकर जब पहुँचे अयोध्या
उनको सांसारिक नश्वरता का बोध हुआ।
जिसका उनके अंतर्मन में भीतर तक बहुत प्रभाव पड़ा
फिर बना सिंह लौट कर वापस घर को नहीं गये,
रामघाट पर कुटी बना तप, साधना में रमे रहे,
वहीं पर उनके आराध्य का उनसे सीधा साक्षात्कार हुआ,
और तभी से बना सिंह का बनादास जी नाम हुआ
फिर भवहरण कुंज आश्रम बनाया,
अठारह सौ बानबे में यहीं पर उनका साकेतवास हुआ।
इकतालीस वर्षों में चौंसठ ग्रंथों की रचना कर डाली
राम कृपा से बनादास की साहित्य में फैली हरियाली।
संत प्रवृत्ती बनादास ने सत - साहित्य साधना की।
राम की लीला राम ही जाने, जाने कैसी विधि रचना थी
बनादास हकदार हैं जिसके, उससे अब तक दूरी है
यह कोई मजबूरी है या विधना की चाह यही
कारण चाहे जो भी लेकिन कहता कोई सही नहीं।
समय आ गया वर्तमान की सरकारें अब तो सतत विचार करें
उनके ग्रंथों के संरक्षण, प्रकाशन पर भी ध्यान धरें,
पाठ्यक्रमों में उनका जीवन परिचय होना आज जरूरी है,
महात्मा बनादास जी को जानना जनमानस के लिए जरूरी है।
उनके आश्रम और मंदिर का नया कलेवर अपेक्षित है
बनादास जी न केवल साधू, संत, महात्मा थे,
चौंसठ ग्रंथों को रचने वाले बनादास जी ज्ञानी थे।
ऐसे संत, महात्मा को बारंबार नमन वंदन है
उनके ज्ञान से बढ़े रोशनी,यही हमारा शीतल चंदन है
बनादास जी के चरणों में कोटि कोटि अभिनंदन है।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)

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चलो मित्र यमलोक चलो
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आज सायं तीन बजे मित्र यमराज आये
और बिना लाग लपेट फरमाये।
बस प्रभु! अब आप मेरे साथ चलिए
चाहे तो एक पर एक का फ्री में लाभ भी ले लीजिए
और भाभी जी भी साथ ले चलिए।
मैंने कहा - थोड़ा धैर्य धरो
कुछ जलपान तो ग्रहण करो,
फिर जी भरकर मन की बात करो।
यमराज ने हाथ जोड़ लिए
मुझे जलपान नहीं करना
बात मेरी प्रतिष्ठा पर आ गई है
आज रात का भोजन यमलोक में
आप दोनों मेरे साथ करिए।
मेरे चेले भी आपसे मिलना चाहते हैं
आपके सम्मान में भोज देना चाहते हैं,
आपको छूकर देखना चाहते हैं
असली नकली का भ्रम मिटाना चाहते हैं।
अब आप मेरी लाज रखिए
मेरे चेलों का मुँह बंद कीजिए
हमें तो पता ही है कि आप मेरे मित्र हैं,
यह बात वहीं चलकर अपने मुँह से कह दीजिए।
मैंने हँसकर कहा- बस इतनी सी बात है
इसमें क्या खास है?
फोन मिला अभी बोल देता हूँ,
यदि तू चाहता है, तो तेरे साथ अभी चल देता हूँ।
कौन सा मुझे चुनाव लड़ना है
विधायक सांसद या मंत्री बनना है।
यमराज बच्चों की तरह खुश हो उछलने लगा,
मेरी जय जयकार करने लगा
उसकी आँखों में आँसू आ गये,
उसे पोंछकर वो कहने लगा
आपने मेरा मान रखा लिया प्रभु!
मित्रता क्या होती है, इसका बोध करा दिया है,
तो मैंने भी आपको यमलोक ले चलने का प्रस्ताव
तत्काल वापस ले लिया।
अब जल्दी जलपान नहीं भोजन कराओ,
मुझे विदा कर चैन की बंशी बजाओ
फिर चादर तानकर सो जाओ।

सुधीर श्रीवास्तव

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दोहा -कहें सुधीर कविराय
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विविध
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भीतर जहर भरे हुए, ऊपर से हैं संत।
जाने कैसे लोग हैं, नहीं पता क्या अंत।।

ज्ञान आज देने लगे, बेटी बेटे खूब।
सोच रहे माँ बाप हैं, मर जाएँ हम डूब।।

आहट अब आने लगी, विश्व युद्ध है पास।
मानवता की अब नहीं, बचती दिखती आस।।

सत्य बोलना आजकल, सबसे बड़ा गुनाह।
झूठ बोलना सीखिए, सबको मुफ्त सलाह।।

हम भी कविता कर रहे, कहते हैं यमराज।
भला कौन मुझसे बड़ा, आप बताओ आज।।

धरती की क्या फिक्र है, जाना जब यमलोक।
पर्यावरण की आप भी, नाहक करते शोक।।

जाने कैसा दौर है, देख रहे हम आप।
हर रिश्ते की आड़ में, होता खुलकर पाप।।

चिंतन करने के लिए, कहाँ समय है आज।
चिंता में ही हो रहे, सबके पूरे काज।।

ज़िद करके बैठे हुए, मम प्रियवर यमराज।
चमचा गीरी के सिवा, करना क्यों अब काज।।
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वर्तमान साहित्य
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मातु शारदे मौन हो, करती सोच विचार।
कलम उठा कर झूँठ की, प्रगति करे संसार।।

नौटंकी जैसा लगे, साहित्यिक परिदृश्य।
रंग पोत कर बिक रहे, डूबने लगा भविष्य।।

पिंगल सेवा आड़ में, होते कैसे खेल।
अब तो ऐसा लग रहा, बनी अजूबा रेल।।

व्यापारी बन कर रहे, खुलेआम व्यापार।
ये कैसे परिदृश्य में, दिखता अब व्यभिचार।।
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प्रकृति (नगण 111)
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कठिन साधना संत की, सच्चे मन के भाव।
उनके जीवन में कभी, होता नहीं अभाव।।

सरल सहज जीवन रखें, मन को रखिए साफ।
ईश्वर भी करते सदा, मानव दोष को माफ।।

प्रकृति का करिए सदा, आप सभी सम्मान।
मानव जीवन का तभी, निश्चित ही उत्थान।।

नयन नीर से क्यों बहे, बड़ा प्रश्न है आज।
इसके पीछे है छिपा, गुपचुप कोई राज।।

राम लखन वन को चले, शीश झुका सिय साथ।
सकल अयोध्या को लगा, अब क्या अपने हाथ।।

दिखा भरत को निज नगर, जैसे प्राण विहीन।
गये राम वन जब सुना, लगा हुए वो दीन।।

हनुमत जी कुछ कीजिए, होते हरदम युद्ध।
बेबस दिखते आज हैं, लगता जैसे बुद्ध।।
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जन्मदिन / शुभकामना
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आप सभी को मैं करूँ, शत-शत बार प्रणाम।
आओ मिलकर हम लिखें, नव जीवन आयाम।।

जीवन पथ पर आपको, मिले नया आयाम।
आगे बढ़ करिए सदा, नित-नित नूतन काम।।

जन्म दिवस फिर आ गया, मुझको लगे बवाल।
समझ नहीं कुछ आ रहा, लगता ये जंजाल।।

एक वर्ष के बाद फिर, दिन आया ये आज।
निकट और है आ गया, मम यमलोकी राज।।

चलते फिरते आ गया, जन्म दिवस मम आज।
समय छुड़ाता जा रहा, शेष बचा बहु काज।।

नाहक हम हर्षित हुए, दिवस एक फिर बार।
हर दिन जैसा आज है, बदला क्या संसार।।

जन्म दिवस पर आपसे, कब चाहूँ उपहार।
हमको केवल चाहिए, थोड़ा प्यार दुलार।।

जन्म दिवस पर आपसे, एक निवेदन आज।
अपने बड़ों को मान दें, यही बड़ा है काज।।
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गुरु
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गुरुवर देखें कर्म को, भूल रहे हम आप।
हम सबसे नित हो रहा, नादानी में पाप।।

गुरु वाणी का कीजिए, आप सभी सम्मान।
तभी सफल हो आपका, मिला विज्ञ गुरु ज्ञान।।
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भावना
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जैसी जिसकी भावना, वैसा ही परिणाम।
बिना स्वार्थ हर काम से, मिलता सुख का धाम।।

माँ गोदी सम पालना, दूजा क्या है मित्र।
ऐसे प्यारे दृश्य का, मन में रखिए चित्र।।

सूना हो सब आँगना, सुता विदाई साथ।
स्मृतियों में है घूमता, खाली अपना हाथ।।

आज स्वार्थ के दौर में, किसको किससे प्यार।
बिना बात के ठानते, अपने ही अब रार।।

आज हमारी भावना, कुंठाग्रस्त शिकार।
स्वयं नहीं हम जानते, क्या अपनी दरकार।।
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प्रभाव (जगण 121)
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किस पर कितना रह गया, यारों आज प्रभाव।
इसीलिए तो सभी को, होता नित्य अभाव।।

बुद्धि ज्ञान उपयोग सब, मात्रा करते रहते रोज।
जी भर मेहनत रात दिन, रहे सत्य को खोज।।

चाहे जितना कीजिए, व्यर्थ आप तकरार।
बदले में कुछ भी नहीं, हाथ लगेगा सार।।

शांति सुघड़ होना सदा, देता भारी पीर।
उल्टे सहना आपको, कष्ट बड़ा गंभीर।।

जब दे रहे उधार हो, करिए खूब विचार।
उम्मीदों को छोड़कर, करो खूब सत्कार।।
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अंगद (भगण 211)
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कैसी रंगत दिख रही, मानव मन की आज।
क्या ये संगत का असर, या फिर कोई राज।।

अंगद पैर जमा दिए, रावण के दरबार।
दरबारी गण मौन थे, दिखता दुर्दिन सार।।

कुंठित सारे लोग हैं, दिखते चहुँदिश आज।
होते उनके हैं सभी , मुश्किल से सब काज।।

बेबस अरु लाचार है, सारे निर्धन लोग।
ईश्वर का यह कोप है, या केवल संयोग।।

बैरंग वापस जा रहे, कुंठित होकर लोग।
रिश्ते उनसे पूछते, क्या हम कोई रोग।।
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आसन (२११)
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सिंहासन जो हैं चढ़े, उनके ऊंचे भाव।
अंदरखाने देखिए, होता बहुत अभाव।

दामन नहीं छुड़ाइए, मातु- पिता से आज।
मुश्किल देगा कल यही, किया आज का काज।।

आसन वासन कुछ नहीं, ये सब महज प्रपंच।
सभी चाहते आज हैं, केवल अपना मंच।।

दुर्दिन के इस दौर का, क्या वो जिम्मेदार।
जिसके हाथ में कुछ नहीं, जो बेबस लाचार।।
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उपकार
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करते जो उपकार हैं, रखते मन में धीर।
खुश रहते हर हाल में, कहलाते वे वीर।।

उपकारों की आड़ में, स्वार्थ सिद्ध का खेल।
चहुँदिश दिखता आज है, जैसे कोई रेल।।

नाहक ही उपकार का, ठेका लेते आप।
ये सब तो बेकार है, करिए जमकर पाप।।

उपकारों को आजकल, मिलता कितना मान।
हँसी उड़ाते जो फिरें, उनका होता गान।।

मत करिए उपकार का, अपने आप बखान।
इससे होगा आपका, निश्चित ही अपमान।।
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कंचन (२११)
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कंचन काया का करो, आप नहीं अपमान।
निज नूतन व्यवहार से, खींचो सबका ध्यान।।

बेबस दिखते लोग जो, उनका क्या है दोष।
फिर उन पर हम आप क्यों, दिखा रहे हैं रोष।।

अब धन दौलत के लिए ,आज हो रहे खून।
लोग समझते हैं कहाँ, ये तो क्षणिक जुनून।।

तन मन निर्मल आपका, रहे सदा ही साथ।
तब ईश्वर की हो कृपा, ऊंचा हो तव माथ।।

बरबस लालच में फँसे, जाते क्यों हम आप।
खुद ही अपने कृत्य से, भोग रहेशं अभिशाप।।

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गगरी (सगण 112)
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गगरी सिर रखकर चली, गोरी पनघट ओर।
चंचल मन के भाव का, नहीं पता है छोर।।

चलनी से हम चालते, अपने चाल चरित्र।
फिर भी मिलते हैं नहीं, हमको अच्छे मित्र।।

करनी ऐसी कीजिए, बने नहीं संताप।
वरना सब संसार में, कहलाएगा पाप।।

हमने जिनको प्यार से, दिया मान सम्मान।
सबसे आगे हैं वही, करते ज्यादा दान।।

उसके चाल चरित्र के, जो हैं ठेकेदार।
आज वही हैं कर रहे, राजनीति व्यापार।।
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जगन्नाथ( 1221)
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जगन्नाथ रथ खींचते, मिलकर भक्त अपार।
खुशियों के सैलाब से, प्रमुदित हर घर द्वार।।

डोला सजकर है चला, अद्भुत दृश्य अनंत।
दीवारें सब गिर गईं, अमीर गरीब या संत।।

बहन सुभद्रा को लिए, बलदाऊ भी साथ।
जगन्नाथ का रथ चला, उन भक्तों के हाथ।।

जग में बड़ा प्रसिद्ध है, यात्रा भव्य विशाल।
जगन्नाथ जी जब चलें, लेने मौसी हाल।।

उमड़ा जन सैलाब है, रथ यात्रा में आज।
जगन्नाथ सरकार हैं, जिनका जग में राज।।
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सावन (२११)
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आया सावन निकट है, ताव दिखाए ताप।
इंद्र देव का कीजिए, सब मानव मिल जाप।।


सावन में अब दिख रहा, नहीं पुराना चित्र।
सखियाँ केवल रह गईं, हैं आभासी मित्र।।

सावन शिव का मास है, जल अर्पण हो खूब।
काँवड़‌ लेकर चल रहे, भक्त भक्ति में डूब।।

मन भावन सावन लगे, रिमझिम पड़े फुहार।
बूढ़े-बच्चे सभी को, करते हर्ष अपार।।

सोलह सावन को किये, शिव का पूजन आप।
इसीलिए क्या कर रहे, उसके बदले पाप।।

सुधीर श्रीवास्तव

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मुक्तक
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122-122-122-122
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पिता
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हमें साथ लेकर चलें वो पिताजी।
कठिन राह चलते हमारे पिताजी।
समंदर सदृश भाव रखते सदा ही
बड़े आज हैं बेसहारा पिताजी।।

रखे शीश पर हाथ मेरे पिताजी।
सजे शीश पर हाथ प्यारे पिताजी।
नहीं साथ जिनको मिला है पिता का
रुलाते बहुत हैं दिनों दिन पिताजी।।
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मित्र
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कभी मित्रता में न संदेह लाओ।
नहीं सत्य का आप दीपक बुझाओ।
शिकायत करो जो गिला फाँस चुभती।
उठो मित्र को फिर गले से लगाओ।।

चलो यार भूलो नहीं गाँठ कसना।
नहीं भावना स्वार्थ के साथ रसना।
कहीं ये सलीका रुलाए न कल में।
खुले मन हमारे गले मित्र लगना।।

बड़े कीमती आप मेरे सही हो।
सही बात ये तुम समझते नहीं हो।
बताओ भला रूठकर क्या मिलेगा।
पड़े हो भरम में अभी भी वहीं हो।।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)

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चौपाई - जगन्नाथ जी
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जगन्नाथ जी का रथ खींचें।
भक्त खुशी से आँखे खींचें।
बड़भागी अवसर जो पाया।
जनमानस में हर्ष समाया।।

जगन्नाथ जी नजर घुमाओ।
नाहक इतना न शरमाओ।
भक्त आपके द्वार खड़े हैं।
सब बच्चे हैं नहीं बड़े हैं।।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)

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