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मुस्काते ही अधर जलें तो, कहो भला! मुस्काएँ कैसे? मन की वीणा टूटी हो तो, प्रेम तराने गाएँ कैसे? जब पीड़ाएं गणनाओं में सुख से ज़्यादा हों जीवन में, व्यथा कांच के टुकड़ों जैसे, नित्य चुभे जब अंतर्मन में | जब एकाकीपन सह -सहकर, मन रिश्तों से ऊब गया हो, गहन तिमिर से हार मान जब,आस का सूरज डूब गया हो | एक दिवस सब अच्छा होगा, खुद को ये समझायें कैसे? मन की वीणा....| ~रिंकी सिंह ✍️ #गीतांश #गीत #हिंदी पंक्तियाँ
अंतरद्वंद्व मैं खुश हूँ, पर किसी की खुशी में नहीं, चेहरे पर मुस्कान है, पर मन अँधेरे में उलझा है | आँखों में चमक है, पर वह छलावा है, जो भीतर की पीड़ा को छुपा देता है, वो पीड़ा जो किसी की ख़ुशी देखकर पनपती है मैं महसूस करती हूँ, दूसरों के दुःख से मन विचलित नहीं होता अब | मैं उस वृक्ष की तरह हो गई हूँ, जो अपने ही छाल में काँटे उगा बैठा है प्रेम की नमी से उपजा मन अब क्रोध की ज्वालाओं में जलता है | मैं देखती हूँ अपनी परछाई को, जो हर श्वास के साथ मुझसे पूछती है “तुम वही हो जो चाहती थी बनना? " पर नहीं बता पा रही खुद को ही.. की जो नहीं होना था वो हो रही हूँ, खुद को खो रही हूँ, और नफरत अपने भीतर बो रही हूँ | मैं जानती हूँ, यह मुस्कान केवल प्रलय की आहट है, मेरे भीतर का इंसान धीरे-धीरे मिट रहा है | फिर भी मैं मुस्कुराते हुए, अपने अँधेरों के साथ जी रही हूँ, जैसे कोई राख में बचा हुआ अंगार अपने आप को जलते हुए महसूस कर रहा हो | ~रिंकी सिंह ✍️
गुनगुनाती रश्मियों से, द्वार नभ का सज रहा है | सुर सजे खलिहान हैं ज्यों, पग में नूपुर बज रहा है | ओस की बूंदें हैं बिखरी,मही पे मोती सी बनकर | मुग्ध होकर गा रहे हैं, विहग सारे वृक्ष ऊपर | तानकर कोहरे की चादर, छिप रहे हैं दिग -दिगंत, फिर सुखद अनुभूतियाँ ले, आ गया प्यारा हेमंत | ~रिंकी सिंह ✍️
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