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Rinki Singh

Rinki Singh

@rinkisingh917128
(387)

वह भी जन्मी थी इसी ज़मीन पर औरों की तरह..
दौड़ सकती थी सपनों के घोड़ों संग,
लहरा सकती थी अपने इरादों की तलवार…
पर उसकी हथेलियों पर बचपन से ही
सहनशीलता की लकीरें उकेरी गईं,
और कंधों पर रख दिया गया
घर की मर्यादा का अनदेखा, अनचाहा बोझ

फिर भी…
हर दिन वह लड़ती है दो मोर्चों की जंग..
एक बाहर की दुनिया से,
और एक भीतर उठते तूफ़ान से

उसके भीतर
एक रानी है…
जो ताज न पहनकर भी
अपने मन के राज्य को संभाल लेती है;
जिसके सिपाही उसकी उम्मीदें हैं,
और जिसकी फौज उसकी इच्छाशक्ति

वह जानती है..
उसकी थकान को “फ़र्ज़” कहा जाएगा,
उसके आँसू “कमज़ोरी” समझे जाएँगे,
और उसके सपने
चौखट पर ही दम तोड़ देंगे
अगर वह खुद उन्हें थामे न रखे

वह हर रात
अपने घायल मन पर पट्टियाँ बाँधती है,
अपनी इच्छाओं के जख़्मी घोड़े
फिर से पाले में खड़े कर देती है,
और सुबह होते ही
निकल पड़ती है
दुनिया की युद्धभूमि पर।


नारी…
वह सिर्फ एक देह नहीं,
त्याग, संघर्ष, अपमान और क्षमा का एक पूरा वृत्तांत है
वह चाहे गृहिणी हो, मज़दूर हो, अधिकारी हो या कलाकार…
हर रूप में लड़ रही है
एक अनवरत चलने वाली लड़ाई

और यही उसकी विजय है..
कि टूटकर भी जी उठती है,
हारकर भी हार मानती नहीं
हर स्त्री के भीतर
बसती है “मनु” साहस की..
जिसे समाज जितना बाँधने की कोशिश करे,
वह अपने मन की झाँसी
कभी हारने नहीं देती

स्त्री…
अपने घर की “लक्ष्मी” हो या न हो,
अपने जीवन की “लक्ष्मीबाई” अवश्य है

— रिंकी सिंह ✍️

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एकांत का वन”

रिश्तों की डोरियाँ थीं
लताओं की तरह,
धीरे-धीरे मुझमें उलझी हुईं
मैंने उन्हें एक-एक कर सुलझाया,
और चल दी..
अपने भीतर के वन की ओर

यह वन... जहाँ शब्द पत्तों-से गिरते हैं,
और मौन का सूर्य उगता है
जहाँ न कोई नाम पुकारता है,
न किसी अपेक्षा की छाया पीछा करती है

मैंने चुना है एकांत...
जैसे पक्षी चुनता है
आसमान का किनारा,
जहाँ उड़ान और गिरना
दोनों अपनी इच्छा से हों

यह विरक्ति नहीं..
मुक्ति का जल है,
जिससे मैं अपने भीतर की धूल धोती हूँ

अब मैं दुनिया से नहीं
अपने ही कोलाहल से बाहर आई हूँ
और पहली बार,
सच्ची निस्तब्धता की ध्वनि सुनी है

~रिंकी सिंह

#एकांत
#मन_के_भाव
#कविता
#हिंदी

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ये किनकी बेटियाँ हैं?
जो आज नीला आसमान ओढ़े
इतिहास लिख रही हैं..
हर चौके के साथ, हर आँसू के पार जाकर |

ये उन्हीं घरों की बेटियाँ हैं,
जहाँ बेटी के जन्म पर मौन नहीं पसरा
जहाँ किसी ने यह नहीं कहा...
“चलो अगली बार बेटा होगा |”
जहाँ पिता ने सिर झुकाकर नहीं,
कंधा झुकाकर बैग उठाया था
मैदान तक छोड़ने के लिए |

जहाँ माँ ने कहा था..
“धूप से डर मत, रंग से नहीं हौसले से पहचान होगी तेरी |”
जहाँ थाली में सिर्फ रोटी नहीं,
सपनों का भरोसा परोसा गया था |

उन्होंने बेलन की जगह बल्ला थमाया,
ओढ़नी की जगह जर्सी दी,
सीने से लगाकर कहा...
“तू कर, हम हैं न तेरे साथ |”

और जब बेटी मैदान में उतरी,
तो वह अकेली नहीं थी..
उसके साथ खड़ा था
हर वह पिता जिसने ताने नहीं सुने, बल्कि तान दिया हौसला |
हर वह माँ जिसने “क्या ज़रूरत है” नहीं कहा,
बल्कि कहा - “ज़रूरत है तेरे सपनों की दुनिया को।”

आज जो जीत की हँसी गूंज रही है,
वह सिर्फ ट्रॉफी जीतने का जश्न नहीं..
वह उन दीवारों की गिरती आवाज़ है,
जहाँ लिखा था.. “लड़कियां खेल नहीं सकतीं |”

अब खेल बदल गया है,
क्योंकि कुछ माँ-बापों ने
परंपरा से ज़्यादा
पलकों पर बेटी का सपना रखा |

और जब माँ-बाप हौसला बन जाएं,
तो बेटियाँ सिर्फ खेल नहीं जीततीं...
वे इतिहास लिख देती हैं |

~रिंकी सिंह ✍️

#विश्व_चैंपियन
#भारत
#महिला_टीम
#क्रिकेट

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(डर)

सोशल मीडिया पर लगातार खबरें वायरल होती रहती हैं
बच्चियों के साथ हुए यौन शोषण, घिनौनी हरकतें।
देखकर मन भर आता है, गुस्सा, बेचैनी, घिनौना अहसास।
कितना नीचे गिर चुका है इंसान, कि मासूमियत को भी नहीं छोड़ता।

मेरे ज़ेहन में भी एक ऐसी ही याद हमेशा अटकी रहती है।
मैं शायद आठ-नौ साल की थी, माँ के साथ नानी के घर जा रही थी।
छोटी बहन माँ की गोद में, मैं माँ के पीछे उसका आंचल पकड़कर खड़ी थी।
बस में एक ही सीट मिली,माँ बैठ गई बहन को गोद में लिए, मुझे अपने आगे खड़ा कर लिया |
तभी पीछे वाली सीट से एक अंकल ने माँ से कहा, बच्ची को मेरे पास भेज दीजिये बहन जी..| माँ ने भी उनका उपकार माना
मुझसे कहा बैठ जाओ…, मैं उनकी गोद में बैठ गई |

लेकिन थोड़ी देर बाद महसूस किया..
कुछ ऐसा हो रहा था, जो मुझे अच्छा नहीं लगा
उन अंकल का हाथ पीछे से मेरी स्कर्ट में अंदर की तरफ बढ़ रहा था,
मैं डर गई और, उतरकर खड़ी हो गई।
अंकल ने मेरी ओर देखा और बोले, “क्या हुआ बेटा, बैठ जाओ।”
माँ ने भी कहा, “बैठ जाओ, गिर जाओगी।”

मैं चुप रही, भीतर से असहाय थी |
उन्होंने फिर मुझे अपनी गोद में उठा लिया |
मैं रोने लगी, माँ ने कहा नहीं बैठोगी तो आओ मेरे पास खड़ी रहो ;
वो आदमी मेरे पिता से भी बड़ी उम्र का था |
आजकल वायरल होती.. विडिओज में शरीफ़ दिखने वाले लोगों के
चेहरे दिख जाते हैं. वो कितने हैवान हैं भीतर से |
उन लोगों की तो कोई पहचान ही नहीं थी.. ना है जो विडिओ में, फोटो में नहीं आते |

आज मैं माँ हूँ।
जब भी अपनी बेटी को बाहर भेजती हूँ,
मन कहीं गहरे डर में डूब जाता है |
कौन सा चेहरा सुरक्षित है, कौन सा भेड़िये की तरह छुपा हुआ है, पता नहीं |
सोचती हूँ, जो लोग मासूम बच्चियों पर बुरी नज़र डालते हैं,
वे अपने घर की बेटियों, अपनी बहनों, अपनी औरतों के बारे में क्या सोचते होंगे?
कितने दिन, कितने साल हमें इसी डर के साथ जीना होगा.
अपने लिए, अपनी बेटियों के लिए |

यह डर, यह सतर्कता, यह सावधानी..
यह हर माँ की हकीकत है |
मासूमियत की रक्षा करना, इस दुनिया में सुरक्षित रहना,
ये हर माँ की सबसे बड़ी जंग है |

~रिंकी सिंह

#fear_of_every_mother
#sadtruth
#womanlife
#thought

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हर साल आता है एक वक़्त,
जब लगता है जैसे जीवन की सारी थकान उतर गई हो |
दिन वही होते हैं, पर वातावरण बदल जाता है...
हवा में एक पवित्रता घुल जाती है,
सूरज की रोशनी में भी एक नई आभा उतर आती है |

चार दिन के इस पर्व में
मानो पूरा संसार थम जाता है..
दुख, पीड़ा, चिंता सब कहीं पीछे छूट जाते हैं |
केवल शुद्ध भावनाएँ रह जाती हैं...
उत्साह, उमंग, और अपार प्रसन्नता |

सुबह की अरुणिमा में जब घाटों पर गीत गूंजते हैं,
तो लगता है जैसे आत्मा स्वयं गा रही हो |
साँझ का वह क्षण, जब डूबते सूरज को अर्घ्य दिया जाता है,
वो कोई सामान्य क्षण नहीं...
वो तो आत्मा और प्रकृति का संवाद होता है |

छठ केवल एक पूजा नहीं,
यह मनुष्य और प्रकृति के बीच की गहरी मित्रता है |
यह वह पर्व है जहाँ व्रत कठिन होता है,
पर मन हल्का और निर्मल होता जाता है |

कितनी ही बार जीवन में उदासी आई,
पर इस पर्व के आते ही मन फिर से खिल उठा|
क्योंकि छठ केवल आस्था नहीं,
यह शांति का उत्सव है,

जय हो छठी मईया,
तुम्हारे इस दिव्य वातावरण में
हम हर बार खुद को नया जन्म लेते महसूस करते हैं
थोड़े थमे हुए, थोड़े शांत, और बहुत आभारी |

~रिंकी सिंह✍️

लोक आस्था के महापर्व छठ की अंनत शुभकामनाएँ 😊❣️

#छठपूजा
#आस्था
#मन_के_भाव

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(जीवन गीत )

कितनी ही बातें जीवन की गीत ख़ुशी का हो सकतीं हैं,
मगर ये दिल ना जाने क्यों बस दुख के राग सुनाता रहता |

कितने ही क्षण होते जिनको हँसके उत्सव कर सकते पर,
उस क्षण में भी बीते दुख में डूबके अश्रु बहाता रहता |

सबको ज्ञात यहाँ पर है कि,
सुख-दुख जीवन के हिस्से हैं |
कोई ऐसा मनुज नहीं है,
जिसके बस सुख के किस्से हैं |

जो संग हैं उनकी संगत में ये चेहरा जो खिल सकता पर,
छोड़ गए जो नाते उनकी याद में ही मुरझाता रहता |

ऐसा नहीं है सम्भव कि,
हरएक सपन साकार हो सके ||
जिनसे मन का मोह जुडा,
सबपर अपना अधिकार हो सके |

जो भी सुखद मिला जीवन से उसका जश्न मना सकता पर,
जो कुछ मिला नहीं चाहत का उसका शोक मनाता रहता |

कुछ भी वश में नहीं है अपने,
सारा खेल विधानों का है |
कोशिश करते रहना ही बस,
काम यहाँ इंसानों का है |

मन को है मालूम फ़िकर से कुछ भी ठीक नहीं हो सकता,
फिर भी चिंता की अग्नि में खुद को नित्य जलाता रहता |


~रिंकी सिंह ✍️

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#जीवन
#हिंदी
#सिंह

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मैं विज्ञान को चमत्कारिक तब मानूँगी,
जब वह केवल तन ही नहीं, मन भी पढ़ सके |

शरीर के घाव की ही दवा न करे महज,
आत्मा की पीड़ा पर भी मरहम धर सके |

~रिंकी सिंह ✍️


#हिंदी
#विचार
#मन_के_भाव

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मुस्काते ही अधर जलें तो, कहो भला! मुस्काएँ कैसे?
मन की वीणा टूटी हो तो, प्रेम तराने गाएँ कैसे?

जब पीड़ाएं गणनाओं में सुख से ज़्यादा हों जीवन में,
व्यथा कांच के टुकड़ों जैसे, नित्य चुभे जब अंतर्मन में |
जब एकाकीपन सह -सहकर, मन रिश्तों से ऊब गया हो,
गहन तिमिर से हार मान जब,आस का सूरज डूब गया हो |

एक दिवस सब अच्छा होगा, खुद को ये समझायें कैसे?
मन की वीणा....|

~रिंकी सिंह ✍️

#गीतांश
#गीत
#हिंदी पंक्तियाँ

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अंतरद्वंद्व

मैं खुश हूँ, पर किसी की खुशी में नहीं,
चेहरे पर मुस्कान है, पर मन अँधेरे में उलझा है |
आँखों में चमक है, पर वह छलावा है,
जो भीतर की पीड़ा को छुपा देता है,
वो पीड़ा जो किसी की ख़ुशी देखकर पनपती है

मैं महसूस करती हूँ,
दूसरों के दुःख से मन विचलित
नहीं होता अब |
मैं उस वृक्ष की तरह हो गई हूँ,
जो अपने ही छाल में काँटे उगा बैठा है
प्रेम की नमी से उपजा मन
अब क्रोध की ज्वालाओं में जलता है |

मैं देखती हूँ अपनी परछाई को,
जो हर श्वास के साथ मुझसे पूछती है
“तुम वही हो जो चाहती थी बनना? "
पर नहीं बता पा रही खुद को ही..
की जो नहीं होना था वो हो रही हूँ,
खुद को खो रही हूँ,
और नफरत अपने भीतर बो रही हूँ |

मैं जानती हूँ,
यह मुस्कान केवल प्रलय की आहट है,
मेरे भीतर का इंसान धीरे-धीरे मिट रहा है |
फिर भी मैं मुस्कुराते हुए,
अपने अँधेरों के साथ जी रही हूँ,
जैसे कोई राख में बचा हुआ अंगार
अपने आप को जलते हुए महसूस कर रहा हो |


~रिंकी सिंह ✍️

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गुनगुनाती रश्मियों से, द्वार नभ का सज रहा है |
सुर सजे खलिहान हैं ज्यों, पग में नूपुर बज रहा है |
ओस की बूंदें हैं बिखरी,मही पे मोती सी बनकर |
मुग्ध होकर गा रहे हैं, विहग सारे वृक्ष ऊपर |
तानकर कोहरे की चादर, छिप रहे हैं दिग -दिगंत,
फिर सुखद अनुभूतियाँ ले, आ गया प्यारा हेमंत |

~रिंकी सिंह ✍️

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