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कुछ तो ले गए हो मेरा अपने साथ.. वहीं कुछ का आभाव.. मुझे पहले जैसा होने नहीं देता...!
सबसे कठिन होता है स्वयं से लड़ना। अपनी ही कमजोरियों, भ्रमों, टूटे सपनों और अधूरी उम्मीदों से निरंतर सामना करना। हर सुबह जब सूरज निकलता है, तो दिल करता है कि आज कुछ बदले, आज दर्द कम हो जाए। मगर अक्सर ऐसा नहीं होता, और स्वयं को संभालते-संभालते थकान हावी हो जाती है। फिर भी, जीवन यहीं नहीं रुकता। मन की गहराइयों के सागर में लहरें उठती-गिरती रहती हैं। उलझा मन उम्मीद और चिंता के बीच झूलता रहता है। उदासी जब बहुत गहरी हो जाती है, तब वही पीड़ा हमें मजबूत बनाते हुए धीरे-धीरे बदलने लगती है। खैर.. हर दर्द की अपनी कहानी होती है और हर कहानी का एक अंत होता है।
मैं भली भांति परिचित हूँ, तुम्हारे इस बदले व्यवहार से, परंतु सह जाना, अब तुम्हें कुछ और कहने से श्रेष्ठ हैं।
वो मुस्कान जो कभी सुकून देती थी, अब दर्द देती है। शायद इसलिए कहते हैं यादें सबसे बड़ी सज़ा होती हैं..!! कभी जिसकी एक झलक से दिल खिल उठता था, आज उसी की याद से साँसें भारी हो जाती हैं..!! कभी बातें रूह को छू जाती थीं, आज ख़ामोशियाँ चुभने लगी हैं..!! हम सोचते थे वक़्त के साथ सब ठीक हो जाएगा, पर वक़्त ने तो बस ये साबित कर दिया जिसे दिल से चाहो, वहीं सबसे गहरा घाव देकर जाता है..!! काश कोई समझ पाता. हम हँसते ज़रूर हैं, पर अंदर से हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा टूटते हैं..!! यादें भी अजीब होती हैं, छोड़ती नहीं... और जीने देती नहीं
अंदर शोर समेटे मौन हो रहा हु मैं... मुझे खुद नहीं पता कौन हो रहा हु मैं...!
"इंतज़ार जो शायद ख़त्म ही न हो" इंतज़ार तो ऐसा कर रहा हूँ जैसे, वो सच में एक दिन लौट आएगी... जैसे इन सूनी गलियों में फिर से उसके क़दमों की आहट पड़ेगी, जैसे इन सूखे होंठों पर फिर से उसका नाम हलके से ठहर जाएगा। रातें अब भी लंबी नहीं लगतीं, बस ख़ाली लगती हैं, जैसे किसी ने मेरी नींद से मेरा सुकून चुरा लिया हो। हर सुबह इस आस में आँख खुलती है, कि शायद आज वो "फिर से" अपने होने का कोई सबूत छोड़े। मेरे कमरे की दीवारें अब भी उसका नाम जानती हैं, और वो तसवीर... जिसे मैंने कई बार हटाना चाहा, हर बार दिल ने कहा- छोड़ दे, उसे रहने दे, कहीं सच में लौट आए तो उसे देख कर मुस्कुरा सके। कभी-कभी सोचता हूँ वो कैसे जी रही होगी? क्या उसे भी कभी नींद से पहले मेरी याद आती है? या अब उसके दिल में किसी और के लिए वैसी ही जगह बन गई है जैसी कभी मेरे लिए थी - अधूरी, मगर सच्ची। आज भी बारिश की हर बूंद में वही आवाज़ सुनता हूँ, वही हँसी, वही नाराज़गी वही चुप्पी... कभी लगता है, वो यहीं है, बस छुपी हुई, कहीं मेरी उम्मीदों में, या शायद मेरे टूटने में। लोग कहते हैं, छोड़े हुए लोग लौट कर नहीं आते, पर दिल अब भी जिद्दी बच्चा बना है, बस बैठा है उसी मोड़ पर जहाँ वो आख़िरी बार पलटी थी, आँखों से कुछ कह कर, होंठों से कुछ और। शायद वो कभी न लौटे, पर इंतज़ार तो अब साँसों की तरह हो गया है – रोक लूँ हो दम टूट जाए, चलता रहूँ तो दिल हर धड़कन में उसका नाम ले। बहुत ज्यादा याद आ रही है तुम्हारी🥺🥺🥺
इंसान विकल्पों का आदी है, विकल्प मिलते ही उसे पुराने में कमिया और नए में खूबिया नजर आने लगती है..!
तुम्हें छूना... हमेशा रोमांस नहीं होता, कई बार ये तुम्हारी रूह से अपनी रूह को थोड़ी देर के लिए जोड़ लेने जैसा होता है। तुम्हें गले लगाना... मानो सारे डर, सारी थकान एक ही पल में पिघल जाए। कई बार बहुत तरस जाता हूँ सिर्फ़ तुम्हारी उँगलियों के हल्के-से स्पर्श के लिए, तुम्हारी बाँहों के उस घेराव के लिए जहाँ दुनिया का शोर एकदम ख़ामोश हो जाता है। बस एक ही कसक रहती है-तुम आओ... और मुझे यूँ थाम लो जैसे मैं तुम्हारी ही धड़कन हूँ
इतनी हाई vibrations में रहिये कि जो नकारात्मक लोग हैं वो अपने आप ही आपसे दूर हो जाएं और जिन लोगो की आपको ज़रूरत है वो खुद ही खिंचे चले आएं। खूब खुश रहिये, जहाँ आपको लगे आप निराश महसूस कर रहे हैं, दुखी महसूस कर रहे हैं, तुरंत पूरी एनर्जी के साथ खड़े हों जाइए और लग जाइए कुछ ऐसा करने में जिससे आपको खुशी मिलती हो। याद रखिये सब ऊर्जा का खेल है। जैसी आपकी vibrations वैसा आपका attraction...!
कुछ ज़ख्म इतने गहरे होते है कि शब्द भी उन्हें छू नहीं पाते... सीने के अंदर कहीं एक बोझ-सा बैठ जाता है, जिसे न कोई सुन सकता है, न समझ सकता है। उस पीड़ा को व्यक्त करने की भी हिम्मत नहीं होती और अगर कोई हिम्मत करके किसी से कह भी दे, तो लोग कह देते हैं कि "इतना भी क्या टूटना, थोड़ा मज़बूत बनो..." पर वो क्या जानें, कि कुछ दर्द ऐसे होते हैं जो दिल को भी कमज़ोर कर देते हैं। हम मुस्कुराते हैं, बातें करते हैं, लेकिन अंदर ही अंदर वो ज़ख्म हमें तोड़ता रहता है। वो दर्द, जो दिखता नहीं... वही सबसे ज़्यादा चुभता है। शायद इसलिए ज़िंदगी सिखाती है, कुछ घाव किसी से कहने के लिए नहीं होते, उन्हें बस चुपचाप सहना और वक़्त के हवाले करना पड़ता है क्योंकि आख़िर में, वक़्त ही वो मरहम है जो उन ज़ख्मों को भर देता है।
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