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हसीं तो और है लेकिन कोई कहाँ तुझ सा वो सादगी न करे कुछ भी तो अदा लगे..
एक ऐसा भी वक़्त आएगा, तुम सुनोगे फ़क़त कहूँगा मैं.. देखना तेरी रहबरी के बगैर, अपनी मंज़िल तलाश लूंगा मैं...
क़ल्ब-ए-सुकून को अब लफ़्ज़ काफ़ी है तू मिले ना मिले बस दिखे तो काफ़ी है
तुम्हें इत्तला कर दूँ संभाले हसरतों का आना तुम, फिसल ना जाओ की मेरा शहर हुस्न का शहर है..
आब-ए-तल्ख़ ने आशरा बेशक़ दिया ख़ुमार था मगर ईन होठों सा कहाँ दिया
तुम को जाना है शौक़ से जाओ अब ख़ुशामद नहीं करूँगा मैं.. क्या सबब है मिरी ख़मोशी का शोर थमने दो फिर कहूँगा मैं..
मेरी हसरतों का उन फरेबी फ़ितरतों से रूबरू होना जैसे जिस्म के बाज़ार में तवायफ सी आबरू होना
किसी और जैसे बनने की तलब तुम्हें ले डूबेगी तुम खुद हि खुद में कमाल लगती हो ..
मेरी आँखो के प्याले में यूँ नूर-ए-जाम तुम भर दो बैठों रूबरू और आज क़त्ल-ए-आम तुम कर दो..
वो ग़ज़ल किताब सी मैं शायर बेज़ुबॉं सा.. वो गुलों में गुलाब सी मैं महफ़िल-ए-शराब सा.. वो चासनी सी मीठी मैं दहकते अँगार सा.. वो सावन की बारिश मैं बारिश में आग सा.. वो महंगी सी कॉफ़ी मैं कुल्हड की चाय सा.. वो शोहरत शबाब की मैं आशिक़ मिज़ाज़ सा..
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