Anjane Lakshy ki yatra pe - 3 in Hindi Adventure Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- 3

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- 3

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे

तृतीय भाग

समुद्री तुफ़ान के बाद किनारा

व्यापारी हैरानी से देख रहा था किस तरह शेरू ने अपनी जान दांव पर लगा दी थी लेकिन एक-एक करके कई भेड़िये झाड़ियों से निकलकर शेरू पर टूट पड़े । शेरू एक साथ कई भेड़ियों के साथ गुत्थमगुत्था था । सारे भेड़िये उसे घेर कर बुरी तरह नोचने लगे । शेरू की मौत करीब देखकर व्यापारी का दिल दाहल गया था कि अगले ही पल उसके दोनो कानो के पास से सायं-सायं की अवाज़ गुज़री और उसने सामने दो भेड़ियों को बुरी तरह तड़पते देखा । दोनो के शरीर मे तीर घुसे हुये थे । उसके पीछे से दोनो डाकू उन भेड़ियों पर तीर की बौछर करने लगे । अचानक पासा पलट गया और भेड़िये तुरंत मैदान की दूसरी तरफ़ छिपे अपने साथियों के ओर भागे ।

भेड़ियों का घेरा टूट चुका था । दोनो डाकू उन्हे चुन-चुन कर निशाने पर ले रहे थे । और शेरू जोर शोर से उन्हे भौक भौक कर खदेड़ रहा था । शेरू का आत्मविश्वास, आसमान छू रहा था । उसकी चाल मे दबंगता आगई थी । उसका सीना फूल गया था और गर्दन मे अकड़ नज़र आने लगी थी । व्यापारी ने उसे आवाज़ देकर वापस आने के लिये कहा । वह अनिच्छा से वापस लौटने लगा तभी एक भेड़िये ने उठने की नाकाम कोशिश की और शेरू वापस पलट कर उसके ऊपर लपका । वह भेड़िया बेचारा तीर से घायल था और शेरू से लड़ने की उसमे कोई ताकत थी न इच्छा थी । वह सिर्फ़ अपनी जान बचाना चाहता था अत: वह ज़मीन पर गिर पड़ा और अपने चारो पैर उठा कर शेरू के सामने आत्मसमर्पण कर दिया । शेरू इससे सन्तुष्ट हो गया और उसे गुर्राकर एक घुड़की दी और वापस अपने मालिक की ओर मुड़ गया । कुछ दूर आकर वह फ़िर रुका पीछे उस भेड़िये की तरफ़ देखकर गुर्राया फ़िर भागता हुआ वापस आ गया ।

आते ही वह बारी-बारी तीनो से लिपटने लगा और इस तरह वह अपनी वफ़ादारी और बहादुरी का एलान करने लगा ।

“बिल्कुल ठीक ! बिल्कुल ठीक किया तुमने …” उनमे से एक डाकू ने उसे प्यार जताते हुये कहा “अच्छा सबक सिखाया ।“

“बहुत बहादुर है ।“ दूसरा बोला “लौटकर हम इसे अपने गिरोह मे शामिल कर लेंगे । हमे बहादुर साथियो की सदा ज़रूरत रहती है ।“

“लेकिन यह मेरा है ।“ व्यापारी ने ऐतराज़ जताया ।

वे चलने लगे ।

“तुम तो खजाने खोजते रहो ।“ एक ने चलते हुये कहा । अब वह प्रसन्नता से हस रहा था ।

“लेकिन मै यह इसके बिना नही कर सकता ।“ व्यापारी बोला ।

“और इसकी सहायता से भी नही कर सकते … हा हा हाSSS ।“ दूसरे ने मज़ाक करते हुये कहा । इस मुठ्भेड़ ने उन्हे तरोताज़ा कर दिया था । वे अब अपने बिल्कुल बेफ़िक्र और आत्मविश्वास से भरपूर लग रहे थे । आखिर क्यों न हो कितने दिनो बाद उन्हे अपना मनपसन्द काम किया । कितने दिनो बाद उन्होने अपने धनुष बाण पर हाथ आज़माया था । कितने दिनो बाद उन्होने किसी दुश्मन का मुकाबला किया था । भले वह दुश्मन बेज़ुबान जानवर ही क्यों न हो । आखिर वे डाकू थे … ।

“लेकिन मै इसे तुम्हे नही देने वाला ।“

“ठीक है, ठीक है, तुम्हे भी रख लेंगे, इसकी सेवा के लिये … हा हा हा … अभी नाराज़ मत हो ।“

वे चलते हुये हसते जारहे थे और यह देख व्यापारी भी मुस्कुराये बिना रह न सका ।

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“आगे क्या हुआ ? अब अपनी कहानी पूरी करो ।“ एक डाकू बोला ।

वे तीनो जंगल के बीच एक खुली और सपाट जगह पर बिस्तर बिछा कर लेटे थे । पास ही सूखी पत्तियो का एक बिछौना था जिसपर शेरू आराम कर रहा था । उनके चारो ओर एक गोल घेरे मे आग धधक रही थी, और कभी-कभी आग की कोई लपट हवा के झोके से लपक कर उनके करीब तक पहुंच भी जाती लेकिन वह घेरा इतना बड़ा था कि लपट उन्हे छू नही पाती । बल्कि वे इस आग के घेरे मे अपने आप को निरापद महसूस कर रहे थे और इसीलिये वे बिल्कुल निश्चिंत थे ।

आग के घेरे के बाहर जहां तक आग की लपटे रौशनी फेक सकती उससे आगे रात का अंधेरा पूरी तरह पसरा हुआ था । आग के घेरे के किसी ओर की कोई लपट तेज़ी से भड़क उठती और अपनी रौशनी दूर विशाल पेड़ो पर डालती तो लपलपाती रौशनी मे जंगल के पेड़ थिरकते हुये जान पड़ते । कुल मिलाकर ऐसा दृश्य था कि चारो आग के घेरे के बीच मे आराम से सो रहे है और घेरे के बाहर भूत नाच रहे हों । लेकिन उनका ध्यान इस सब पर था ही नही । वे तो बस टकटकी लगाये ऊपर आसमान पर छाये अनगिनत तारो को निहार रहे थे । और शेरू अपने अगले पंजो पर अपनी थूथन टिकाये उन्हे निहार रहा था । ऐसा नही कि आसमान मे चांद नही था । वह था लेकिन पेड़ों की फ़ुनगियों के आड़ मे छिपा हुआ था । वे बेशक़ उसे देख नही पारहे थे, लेकिन वह छुप-छुप कर इन्हे देख रहा था ।

“जो कहानी शुरू की है उसे पूरी करो । आगे क्या हुआ …”

“ठीक है, सुनो । … लेकिन हम कहां थे ?” व्यापारी ने पूछा । किसी ने कोई जवाब नही दिया । कुछ पल रुकने के बाद व्यापारी खुद ही बोला “हां तो मुझे लगा…”

इसके साथ ही उसका किस्सा शुरू हुआ ।

मुझे लगा मेरी बंद आखों के ऊपर कोई प्रकाशपुन्ज धीरे-धीरे मेरे अस्तित्व को सहला रहा है । वह धीरे-धीरे मेरे शरीर को गर्म कर रहा है । यह प्रकाशपुंज निश्चय ही बड़ा दयालू है । क्या यह ईश्वर की दया का प्रकाश है क्या वह ऐसा ही दयालू है । क्या यह स्वयं ईश्वर का ही आलोक है । मै तो धन्य हो गया ।

धीरे-धीरे मेरे शरीर मे शक्ति का संचार होने लगा और इसी के साथ असंख्य सुईयों के चुभने का अहसास भी होने लगा । मेरा शरीर हिल-डुल नही पा रहा था । मेरी पलकें सूजी हुई और भारी थी । मै आखें भी नही खोल पा रहा था । मुझे लगने लगा जैसे हज़ारो कीड़े मेरे शरीर पर रेंग रहे है । क्या मै फ़िर से नर्क मे फ़ेंक दिया गया हूं । नही वह प्रकाश अब भी विद्यमान है और वह मुझमे प्राण का संचार कर रहा है और मेरी आत्मा को आलोकित कर रहा है । ईश्वर बहुत दयालू है । मैने मन ही मन अपने विश्वास को दृड़ता प्रदान करने की कोशिश की । अब मेरे पास इसके सिवा और कोई चारा भी तो नही था ।

धीरे-धीरे मेरी आंखे खुली तो सबसे पहले मैने अपने ऊपर विशाल चमचमाते आकाश को पाया और उसके बाद मेरी नज़र अपने पूरे तेज से चमकते सूर्य पर पड़ी । मेरे नीचे समुद्री रेत और पत्थर थे और मेरी दायी ओर समुद्र गरज रहा था । हज़ारो बल्कि लाखों छोटे-छोटे नवजात केकड़े मेरे उपर से होते हुये समुद्र की ओर जारहे थे ।

मै एक झटके से उठ खड़ा हुआ और तेज़ी से उस जगह से दूर भाग गया । लेकिन जैसे ही मै चट्टान के ऊपर पहुंच कर ठहरा, मेरा शरीर दर्द से दोहरा हो गया । मै धड़ाम से गिर पड़ा ।

अब मेरा दिमाग सचेत होने लगा था । और अब मुझे सिर्फ़ इतना पता है कि मैने किसी चीज़ को अपनी पूरी ताकत से पकड़े हुये था और पूरी तरह तर ब तर था । अब मै यही कह सकता हूं कि यह शायद सैकड़ों फ़ीट ऊंची समुद्री लहर का थपेड़ा था जिसने हमारे जहाज़ को तहस नहस कर दिया था । फ़िर भी यह बात मै सिर्फ़ अपने अनुभव से ही कह रहा हूं क्योंकि वह सब मैने सिर्फ़ महसूस किया था । और इसके तुरंत बाद मै आपनी चेतना गंवा चुका था ।

और इस तरह मै एक बिल्कुल अनजान दुनिया मे पहुंच गया था ।

मै बड़ी देर तक यूं ही पड़ा अपने भीगे शरीर को सुखाने और सूरज की रौशनी से अपने शरीर मे उष्मा और शक्ति का संचार करने की कोशिश मे लगा रहा । मेरा रोम-रोम दुख रहा था । मेरे कपड़े तार-तार हो चुके थे । और मुझे यह भी पता नही था कि मै हूं कहां ?

लेकिन यूं ही पड़े रहने से तो कोई समस्या हल नही होने वाली । चूंकि सत्य तो यही है कि असली पुरुष भाग्य के सहारे नही बैठा रह सकता । पुरुषर्थ तो इसी मे है कि आप अनुकूल समय का इन्तेज़ार करने के बजाये स्वयं आगे बढ़कर समय को अपने अनुकूल बनाये । और भाग्य के सहारे जीने वाला कभी सुखी नही होता । तो, यही सब सोचते हुये मै अपनी पूरी ताक़त बटोरकर उठ खड़ा हुआ और आस-पास का निरीक्षण करने लगा ।

मुझे इस जगह का कोई ज्ञान नही था और चूंकि अज्ञान ही समस्त भय का कारण होता है मुझे यह कहने मे कोई संकोच नही कि मै डरा हुआ भी था ।

अब मै जहां तक नज़र दौड़ाता और जहां भी जाता समुद्र, रेत, कटे-फ़टे पथरीले किनारे, तो कहीं-कहीं रेतीले किनारे और दूर दूर तक बिखरे हुये टूटे फ़ूटे जहाज़ के अवशेष बिखरे पड़े थे । यहां यात्रियों के सामान जैसे बड़े बड़े बक्से और संदूकें भी थीं जिनमे निश्चित ही यत्रियों के कीमती सामान भरे होंगे । जहाज़ो के मस्तूल और फ़टे हुये पाल और दूसरे सामान बड़ी मात्रा मे बिखरे पड़े थे जिससे प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र मे बड़ी संख्या मे दुर्घटनाये होती रहती है । लेकिन जिस प्रकार से सारा सामान अछूता पड़ा था, ऐसा लगता था आज तक इस तरफ कोई नही आया । लेकिन यह कैसे सम्भव है और वह भी तब जब यहां इतना कीमती सामान बिखरा पड़ा है । मै चलते हुये यही सोच रहा था । मैने एक बहुत बड़े संदूक को देखा जिसपर पुराने ज़माने का बहुत बड़ा ताला पड़ा था । वह संदूक तिरछी होकर रेत मे आधी धसी हुई थी । मैने उसके ताले को हाथ से उठाने की कोशिश की । वह इतना भारी था कि उसे पकड़े रखना मुश्किल था । यह पुराने ज़माने का संदूक था जिसमे राजा महाराजा अपना धन सेना की सुरक्षा मे एक स्थान से दूसरे स्थान भेजा करते । मै समझ गया इसमे ज़रूर बहुत ही कीमती खजाना होगा । आगे बढ़कर मैने फ़टे हुये पाल के एक टुकड़े को उठाया और अपने लगभग नग्न शरीर के गिर्द लपेट लिया । मेरे लिये तो इस जगह यही सबसे बड़ा खजाना था । इससे मेरा शरीर ठंड और तेज़ समुद्री हवा से सुरक्षित हो गया था ।

मै किनारे-किनारे समुद्र तट का निरीक्षण करता हुआ चलता रहा चलता रहा … सारा समुद्र तट एक जैसा ही लग रहा था । आखिर मुझे लगने लगा कि मै घूम फ़िर कर एक ही स्थान से कई बार गुज़र चुका हूं ।

ओह ! तो यह बात है । यह तो एक छोटा सा टापू है ।

धूप से मेरे शरीर मे प्राणो का संचार तो हुआ था । शरीर की पीड़ा भी एक हद तक कम हुई थी, लेकिन तेज़ प्यास भी लगी थी । अब वही धूप सहन नही हो रही थी । मैने फ़टे हुये पाल का एक और टुकड़ा उठाकर अपने सिर पर लपेट लिया, ताकि सिर और आंखों को धूप से बचा सकूं । किसी पेड़ की टूटी हुई एक शाख को उठा लिया और उसके सहारे लंगड़ाता घिसटता सा चलने लगा ।

पानी की समस्या बड़ी विकट हो रही थी; और मै जानता था कि मजबूरी मे भी अगर समुद्री पानी पी लिया तो मतिभ्रम और मृत्यु निश्चित है । पागल होकर मरने से प्यास से तड़प-तड़प कर मरना ठीक रहेगा; मैने सोचा ।

सो मैने किनारे से दूर रहने मे ही अपनी भलाई समझी और जंगल का रुख किया । यह द्वीप मानव रहित है यह तो मुझे समझ आगया था लेकिन, जंगल के अंदर कौन-कौन से विस्मय मेरी प्रतीक्षा मे है मुझे पता नही था ।

अज्ञान भय का मूल है, और जब तक मै इस टापू के बारे मे ज्ञान प्राप्त नही कर लेता मै अपने भय पर नियंत्रण नही पा सकता था ।

अचानक मुझे ख्याल आया कि मेरे पास सहारा लेकर चलने के लिये पेड़ की टूटी शाख़ तो थी जिसे मै समय आने पर हथियार के तौर पर भी इस्तेमाल कर सकता था । लेकिन मेरे पास औज़ार के नाम पर कुछ भी नही था । एक धारदार या कम से कम नुकीली चीज़ का होना तो ज़रूरी था वर्ना यहां जीवित किस प्रकार से रहा जा सकता है ? कितने कमाल की बात है न, ऐसी जगह पर और ऐसी परिस्थितियो के बीच भी मन कैसे जीवन की चिन्ता करता रहता है । यह सब अंतरमन के रहस्य हैं और हमारे जीवन का आधार । यह सब हमारी चेतना का पूर्व-नियोजित अंग होता है, जिसे हम कभी समझ नही पाते हैं । संकट के समय मे ही हम इसका आभास पाते हैं ।

मै फ़िर से तट की रेत पर जाकर औजार खोजने लगा । यहां टुटे जहाज और नावों के मलबे के ढेरो मे औजार की तरह इस्तेमाल की जा सकने लायक वस्तु ढूंढना कोई मुश्किल काम नही था तथापि, मै अधिकतम उपयुक्त वस्तु खोजना चाह रहा था । वैसे तो लोहे की एक छड़ भी इस समय औज़ार की तरह उपयोग की जा सकती थी … वो कहते हैं न नही मामा से काना मामा भला । लेकिन मेरे पास समय का अभाव नही था और देखा जाये तो विकल्पों की भी कोई कमी नही थी । सो मै अच्छी तरह से खोज-बीन कर बेहतरीन विकल्प रखना चाह रहा था ।

अंतत: मैने एक नुकीली छड़ का चयन किया जो दरअसल किसी प्रकार का औज़ार ही रही होगी क्योंकि वह काफी उच्च किस्म की धातु से निर्मित थी और उसकी सतह अब भी चिकनी सी थी । मैने वह छड़ उठा ली लेकिन मै जैसे ही आगे बढ़ने को उदधत हुआ मेरे रेत मे धसे हुये बाये पैर ने उठने से इनकार कर दिया । उसे बाहर निकालने की कोशिश मे दाये पैर के नीचे रेत की सतह सरक गई जिससे दायां पैर विचलित हो गया परिणाम स्वरूप.मै रेत पर गिर पड़ा । मेरा बाया पैर अब भी रेत मे धसा हुआ ही था लेकिन अब वह आसानी से बाहर निकल गया । पैर के मुक्त होते ही वहां रेत मे धसी हुई कपड़े जैसी कोई चीज़ दिखाई दी ।

क्रमश:__ अगले अंक मे…

चतुर्थ भाग- अनजान टापू पर

ज़रूर पढ़ें _मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग की कृति ।