बारह रचनाएँ
प्राण शर्मा
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बेटियाँ - 1
कानों में रस सा घोलती रहती हैं बेटियाँ
मुरली की तान जैसी सुरीली हैं बेटियाँ
+
क्योंकर न उनको सीने से अपने लगाए वो
माँ के लिए तो प्यारी - दुलारी हैं बेटियाँ
+
कमरे महकने लगते हैं सब उनके आने से
कैसा अनूठा जादू जगाती हैं बेटियाँ
+
उनको बड़े ही लाड़ से पाला करें सदा
देवी की जैसी दोस्तो होती हैं बेटियाँ
+
माना कि बस गयी हैं किसी दूर देश में
ये सोचिये कि पास ही बैठी हैं बेटियाँ
+
बेटे भले ही जाएँ बदल दोस्तो मगर
ये बात सत्य है , नहीं बदली हैं बेटियाँ
+
माँ का कलेजा मुँह को हमेशा ही आया है
जब भी अजीब दौर से गुज़री हैं बेटियाँ
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कश्ती - 2
समंदर में बहती हुई भायी कश्ती
ज़माने की नज़रों को रास आयी कश्ती
+
नज़र में नज़ारा वो लहराता क्यों ना
लहर पर लहर जैसी लहरायी कश्ती
+
न तूफ़ान था और न आँधी कहीं थी
हवाओं की मस्ती में इतरायी कश्ती
+
कभी डगमगायी कभी लडखडायी
भले ही भँवर से निकल आयी कश्ती
+
हुआ ख़त्म उसका सफ़र `प्राण` आखिर
कि चट्टान से जा के टकरायी कश्ती
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बचपन - 3
हर इक की आँखों का वो ध्रुवतारा होता है
सच है प्यारे बचपन कितना प्यारा होता है
+
उसका रूप सलोना जादू क्यों न लगे मन को
बचपन पावन गंगा का ही धारा होता है
+
उसकी चमक-दमक के आगे क्यों न झुके दुनिया
बचपन चढ़ते सूरज का उजियारा होता है
+
आँच न आए उस पे कभी भी उसके रखवालो
बचपन रोता - चिल्लाता बेचारा हॊता है
+
काश , सदा ही साथ रहे उसका प्यारा-प्यारा
बचपन से घर महका - महका सारा होता है
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जवानी - 4
ख़ुद नाचती है और नचाती है जवानी
जब ढोल बजाती हुई आती है जवानी
+
मायूस उसे कितना बनाती है जवानी
जब आदमी को छोड़ के जाती है जवानी
+
उड़ती है कि जैसे उड़े आकाश में गुड्डी
क्या शान ज़माने को दिखाती है जवानी
+
क्योंकर न दिखे हर कोई सुन्दर या सलोना
चेहरे पे कई चाँद सजाती है जवानी
+
दम से इसी के है बड़ी दुनिया में सजावट
जलवा सदा ही ऐसा रचाती है जवानी
+
कोई भी इसे तजने को तैयार नहीं है
कुछ इस तरह हर एक को भाती है जवानी
+
ऐ `प्राण` उसे कोई भी गुस्सा न दिलाना
जीवन में घनी आग लगाती है जवानी
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बुढ़ापा - 5
हँसते हुए जो शख़्स बिताता है बुढ़ापा
उस शख़्स के चेहरे को सुहाता है बुढ़ापा
+
बच्चों की खुशी उसके लिए सबसे बड़ी है
उनकी खुशी में खुशियाँ मनाता है बुढ़ापा
+
औलाद का दुःख - दर्द न देखे वो तो अच्छा
अपने को कई रोग लगाता है बुढ़ापा
+
कितने हैं वे कमज़ोर से ऐ दोस्तो दिल के
जो कहते हैं कि हमको सताता है बुढ़ापा
+
इस बात को तू बाँध ले पल्ले से ऐ प्यारे
हर बात तजुरबे की बताता है बुढ़ापा
+
इक बात बड़ी सच्ची किताबों में है प्यारे
हर गलती का अहसास कराता है बुढ़ापा
+
ऐ `प्राण` बुढ़ापे का निरादर नहीं करते
इक रोज़ हरिक शख़्स पे आता है बुढ़ापा
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वतन की ख़ुशबू - 6
हरी धरती खुले,नीले गगन को छोड़ आया हूँ
कि कुछ सिक्कों की ख़ातिर मैं वतन को छोड़ आया हूँ
+
विदेशी भूमि पर माना लिए फिरता हूँ तन लेकर
वतन की सौंधी मिट्टी में मैं मन को छोड़ आया हूँ
+
पराये घर में कब मिलता है अपने घर के जैसा सुख
मगर मैं हूँ कि घर के चैन-धन को छोड़ आया हूँ
+
नहीं भूलेंगी जीवन भर वो सब अठखेलियाँ अपनी
जवानी के सुरीले बाँकपन को छोड़ आया हूँ
+
समायी है मेरे मन में अभी तक खुशबुएँ उसकी
भले ही फूलों से महके चमन को छोड़ आया हूँ
+
कभी गाली कभी टंटा कभी खिलवाड़ यारों से
बहुत पीछे हँसी के उस चलन को छोड़ आया हूँ
+
कोई हमदर्द था अपना , कोई था चाहने वाला
ह्रदय के पास बसते हमवतन को छोड़ आया हूँ
+
कहाँ होती कोई मीठी बोली अपनी बोली सी
मगर मैं `प्राण` हिंदी की फबन को छोड़ आया हूँ
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मेले में - 7
घर वापस जाने की सुधबुध बिसराता है मेले में
लोगों की रौनक में जो भी रम जाता मेले में
+
किसको याद आते हैं घर के दुखड़े,झंझट और झगड़े
हर कोई खुशियों में खोया मदमाता है मेले में
+
नीले ,पीले ,लाल ,गुलाबी पहनावे हैं लोगों के
इंद्रधनुष का सागर जैसे लहराता है मेले में
+
सजी - सजायी हाट - दुकानें, खेल तमाशे और झूले
कैसा - कैसा रंग सभी का भरमाता है मेले में
+
कहीं समोसों , कहीं पकौड़ों, कहीं जलेबी की महकें
मुँह में पानी हर इक के ही आ जाता मेले में
+
ज़ेबें खाली कर जाते हैं क्या बच्चे और क्या बूढ़े
शायद ही कोई कंजूसी दिखलाता है मेले में
+
तन और मन की मदमस्ती के क्या कहने क्या ही कहने
जब बचपन का दोस्त अचानक मिल जाता है मेले में
+
जाने - अनजाने लोगों में फर्क़ नहीं दिखता कोई
जिससे बोलो वो अपनापन दिखलाता है मेले में
+
डर कर हाथ पकड़ लेती है हर माँ अपने बच्चे का
ज्यों ही कोई बिछुड़ा बच्चा चिल्लाता है मेले में
+
ये दुनिया और दुनियादारी एक तमाशा है भाई
हर बंजारा भेद जगत के समझाता है मेले में
+
रब न करे कोई बेचारा मुँह लटकाये घर लौटे
ज़ेब अपनी कटवाने वाला पछताता है मेले में
+
राम करे हर गाँव - नगर में मेला हर दिन लगता हो
निर्धन और धनी का अंतर मिट जाता है मेले में
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ग़ज़ल - 8
मानाकि आदमी को हँसाता है आदमी
इतना नहीं कि जितना रुलाता है आदमी
+
माना गले से सबको लगाता है आदमी
दिल में किसी-किसी को बिठाता है आदमी
+
कैसा सुनहरा स्वांग रचाता है आदमी
ख़ामी को अपनी ख़ूबी बताता है आदमी
+
सुख में लिहाफ़ ओढ़ के सोता है चैन से
दुःख में हमेशा शोर मचाता है आदमी
+
हर आदमी की ज़ात अजीबोगरीब है
कब आदमी को दोस्तो भाता है आदमी
+
पैरों पे अपने ख़ुद ही खड़ा होना सीखिये
मुश्किल से आदमी को उठाता है आदमी
+
आक्रोश,प्यार, लालसा,नफ़रत, जलन,दया
क्या-क्या न जाने दिल में जगाता है आदमी
+
दिल का अमीर हो तो कभी देखिये उसे
क्या-क्या ख़ज़ाने सुख के लुटाता है आदमी
+
सपने अनेक दिन में भी वो देखे क्यों नहीं
सपनों से ख़ुद को यारो लुभाता है आदमी
+
दुनिया से खाली हाथ कभी लौटता नहीं
कई राज़ अपने साथ ले जाता है आदमी
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ग़ज़ल - 9
सीने में ऐसा भी कोई अरमान होता है
जैसे कि बाँध तोड़ता तूफ़ान होता है
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पलड़ा हमेशा उसका ही भारी है दोस्तो
यारों के बीच शख़्स जो धनवान होता है
+
हर ठौर रौनकें हों , ज़रूरी तो ये नहीं
फूलों भरा बगीचा भी सुनसान होता है
+
मौक़ा मिले तो आप कभी जा के देखिये
घर में फ़क़ीर के सभी का मान होता है
+
उड़ते हैं इक क़तार में वे किस कमाल से
दिल सरसों को देख के हैरान होता है
+
ऐ `प्राण` नेक बंदों की जग में कमी नहीं
इंसान में भी देव या भगवान होता है
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ग़ज़ल - 10
कितने हो अनजान तुम पतझड़ के आ जाने के बाद
ढूंढते हो खुशबुओं को फूल मुरझाने के बाद
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सब्र करने की कोई हद होती है ऐ साहिबो
क्यों न मुँह खुलता किसीका गालियाँ खाने के बाद
+
ये कभी मुमकिन नहीं मंज़िल न आये सामने
रास्तों की ठोकरें ही ठोकरें खाने के बाद
+
क्या कहें कैसे कहें कि वो जला कितना हज़ूर
दोस्तों में आपके उस पर कसे ताने के बाद
+
पाँव हर इक के रुके होंगे घड़ी भर के लिए
ज़िंदगानी के सफ़र में मुश्किलें आने के बाद
+
याद रखते आपको गर शहर को हम छोड़ते
याद कैसे रक्खेंगे संसार से जाने के बाद +
चाहता है आदमी जीना हमेशा के लिए
नीयत उसकी देखिये संसार में आने के बाद
+
`प्राण` तुम भी दोस्तों में कुछ तो मुस्काया करो
हर कोई मासूम सा दिखता है मुस्काने के बाद
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ग़ज़ल - 11
खुशी अपनी करे साझी बताया किस से कोई प्यारे
पड़ोसी को जलाती है पड़ोसी की खुशी प्यारे
+
तेरा मन भी तरसता होगा मुझसे बात करने को
चलो हम भूल जाएँ अब पुरानी दुश्मनी प्यारे
+
तुम्हारे घर के रोशनदान ही हैं बंद बरसों से
तुम्हारे घर नहीं आती , करे क्या रोशनी प्यारे
+
सवेरे उठ के जाया कर बगीचे में टहलने को
कि तुझ में भी ज़रा आये कली की ताज़गी प्यारे
+
कभी कोई शिकायत है कभी कोई शिकायत है
बनी रहती है अपनों की सदा नाराज़गी प्यारे
+
कोई चाहे कि ना चाहे ये सब के साथ चलती है
किसी की दुश्मनी प्यारे किसी की दोस्ती प्यारे
+
कोई शै छिप नहीं सकती निगाहों से कभी उनकी
कि आँखें ढूँढ लेती हैं सुई खोई हुई प्यारे
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ग़ज़ल - 12
ज़रा ये सोच मेरे दोस्त दुश्मनी क्या है
दिलों में फूट जो डाले वो दोस्ती क्या है
+
हज़ार बार ही उलझ हूँ उसके बारे में
कोई तो मुझको बताये कि जिंदगी क्या है
+
ये माना , आदमी की ज़ात है मगर तूने
कभी तो जाना ये होता कि आदमी क्या है
+
कभी तो बेबसी से सामना तेरा होता
तुझे भी कुछ पता चलता कि बेबसी क्या है
+
खुदा की बंदगी करना चलो ज़रूरी सही
मगर इंसान की ऐ दोस्त बंदगी क्या है
+
किसी अमीर से पूछा तो तुमने क्या पूछा
किसी गरीब से पूछो कि जिंदगी क्या है
+
नज़र में आदमी अपनी नवाब जैसा सही
नज़र में दूसरे की `प्राण` आदमी क्या है
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ग़ज़ल - 13
इसकी चर्चा हर बार न करते अच्छा था
ज़ाहिर अपना उपकार न करते अच्छा था
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खुदगर्ज़ी की हद होती है मेरे प्यारे
अपने से ही तुम प्यार न करते अच्छा था
+
चलने से पहले सोचना था कुछ तो साथी
रास्ते में हाहाकार न करते अच्छा था
+
वो चुप था तो चुप ही रहने देते उसको
पागल कुत्ते पर वार न करते अच्छा था
+
अपनों से ही सब रिश्ते - नाते हैं प्यारे
अपनों में कारोबार न करते अच्छा था
+
ख़ुद तो बीमार हुए ही तुम पर सबको भी
अपनी ज़िद से बीमार न करते अच्छा था
+
ऐ `प्राण` भले है मिलते तुम सबसे खुल कर
लेकिन सबका एतबार न करते अच्छा था
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ग़ज़ल - 14
मन किसी का दर्द से बोझल न हो
आंसुओं से भीगता काजल न हो
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हो भले ही कुछ न कुछ नाराज़गी
दोस्तों के बीच में कलकल न हो
+
आया है तो बन के जीवन का रहे
ख़्वाब के जैसे ही सुख ओझल न हो
+
धूप में राही को छाया चाहिए
पेड़ पर कोई भले ही फल न हो
+
प्यासी धरती के लिए गर जल नहीं
राम जी ऐसा भी तो बादल न हो
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कविता - 15
अमानत
तुम अगर मुझसे कहो
मैं जिंदगी से भाग आऊँ
यह कभी संभव नहीं है
जिंदगी मुझको मिली है
मैं मिटाऊँ गीत पस्ती के
नित,नए,शाश्वत इरादों से
मैं खिलूँ
जैसे बसंती धूप खिलती है
पहाड़ों पर
चाँदनी जैसे छिटकती है
सरोवर पर
मैं सँवारूँ जिंदगी को हर घड़ी
तब तक कि जब तक जिंदगी की
साँस बाक़ी है
जिंदगी मुझको मिली है
मैं चलूँ पथ पर
भले ही हों अँधेरे
मैं चलूँ पथ पर
भले ही विघ्नों ने डाले हों डेरे
जिंदगी मुझको मिली है
मैं सम्भालूँ जिंदगी को
एक अमानत की तरह
हाँ , एक अमानत की तरह
मौत की सुन्दर अमानत ही तो है यह जिंदगी
यह अमानत उस समय से पास मेरे
जब कि मैंने इस जगत के
रूप का दर्शन किया था
और तब तक यह रहेगी पास मेरे
जब कि ख़ुद ही मौत
मुझसे माँगने आती नहीं है
तुम अगर मुझसे कहो
मैं जिंदगी से भाग आऊँ
यह कभी संभव नहीं है
यदि मैं जिंदगी से भाग आया
मैं भगोड़ा ही सदा कहलवाऊँगा
उस सिपाही की तरह
जो
ख़ून से लथपथ धरा को देख कर
वेदना से पूर्ण चीत्कारें श्रवण करता हुआ
जंग के मैदान से
डरता - सिहरता
भाग उठता है
दिखा कर
पीठ अपनी