महॅक
अमित मिश्रा
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1.माँ......................................................Page 3
2.कतरा कतरा बहता गया......................................................Page 4
3.सपने......................................................Page 5
4.नया जहा......................................................Page 6
5.मुखौटा......................................................Page 7
6.मज्लिश......................................................Page 8
7.हवा......................................................Page 9
8.एहसास......................................................Page 10
9.आज......................................................Page 11
10.किसे यहां फ़र्क पडता है......................................................Page 12
11. पूराना एक सपना.....................................................Page 13
जब पहली बार रोया मैं, तो हँसी थी माँ,
मुझे सोता देख जागी थी माँ....
ऊँगंली थाम के चलना सिखाया,
मेरी तोतली जीभ को बोलना सिखाया....
लगे न चोट कहीं, गोदी में उठा लेती,
धुप में अपने पल्लु को छत बना लेती....
वो कभी परीयों की कहानी सुनाती,
हर राजा को अपना, शहजादा बनाती....
वो ढेरो खिलौने लाना,
और उनके टुटने का इन्तेज़ार करना....
रुठूँ जब कभी मैं, वो चेहरे बनाके मनाना,
और मेरे सँग यूहीं वो गुन गुनाना....
जो डाटे गर वो मुझे कभी,
अपने कमरे में जाके खुद रो पडती....
मेरे सारे ऐब सभी से छुपाती,
सबको अपने आँखों का तारा बताती....
नज़र ना लगे कहीं, माथे पे काजल लगा देती,
मंदीर जा पुजा करती, बाहों में मेरे काला धागा बाँधती....
सोते हूए मेरे माथे को चूमना,
मेरे हर बात पे अपने सपने सजाना....
मेरा इन्तज़ार आंगन में बैठ करती,
घर ना पहूँचू पुरे मोहल्ला उठा देती....
अब भी मुझे वैसे ही मुझे प्यार करती,
बस अपनी जुर्रियो से अभीव्यक्ति छुपा लेती....
कतरा कतरा बहता गया,
रुक रुक के चलता गया....
साथ छुटा मेरी हर आस टुटी,
बिखरता गया धीरे धीरे....
मेरा एक आशीयाना था,
मेरा भी एक बागबाँ था,
थी मेंरी भी हस्ती,
थी मेंरी भी एक बस्ती,
था मैं भी जहां को प्यारा,
थे मेंरी राहें भी खुशीयों से भरे,
बिखरता गया धीरे धीरे....
वो साथ थे मेरे अपने,
वो साथ थे सपने,
न जाने लगी किसकी ये नज़र,
न जाने कैसे ये तूफ़ान आया,
मैं भी रोक न पाया,
मैं भी बोल न पाया,
बस अपनों को कटते पाया,
बस वक्त्त में खुद को कटते पाया,
बिखरता गया धीरे धीरे....
आज दिल ने कहा थोडा जागते हैं,
सपने कहाँ से आते हैं चलो जानते हैं....
कहाँ बनते हैं, कैसे ये बुनते हैं,
अन्धेरे में भी, ये रंगीन कैसे होते हैं....
ना जाने कैसे ये जान जाते हैं,
मैं जो चाहता हूँ, बडे प्यार से दे जाते हैं....
बडे हैं निराले ये,
आसानी से सब कर जाते हैं….
इनके लिये न फ़र्क किसी का,
सबका कहा मान जाते हैं....
पता नहीं कैसे, जो दिन में ना थामते हाथ मेरा
साथ रात कैसे मेरे अपने हो जाते हैं....
शरमीले हैं उसकी ही तरह
शायद तभी रात में आते हैं !
आओ एक नया जहाँ बनाऐं
छत चुमें जहाँ आसमाँ को....
बहती फ़र्स पे नदीयाँ हों
बंद न हो जहाँ रोशनी सुरज की....
रात बैठे चाँद के साथ हो
गुलमोहर से सजे....
लौन जहाँ हमेंशा हरे हो
कटे ना पतंग कुछ ऐसा डोर हो....
अब ये मुखौटे को हटाना चाहता हूँ,
मैं भी जिंदगी जीना चाहता हूँ....
बहुत जी लिया ज़माने के लिये,
मैं कहाँ, उनसे अलग होना चाहता हूँ...
बस एक बार खुद का होना चाहता हूँ
अपने पल को अपना कहना चाहता हूँ...
सब चले गये, बस ये दिलासा देके,
छीन के ले गये उन लम्हों को....
जो था मेंरा, बस उनको वापस चाहता हूँ
मैं फिर से हँसना चाहता हूँ....
फिर से उडना चाहता हूँ
चाँद को अपना कहना चाहता हूँ....
मैं इस आसमाँ को फिए छूना चाहता हूँ
ज़माने से बेखबर फिर से दौडना चाहता हूँ....
मैं बस एक बार अपने लिये जीना चाहता हूँ
मैं अपने लिये जीना चाहता हूँ....
मज्लिशों को देख, दिल मेरा अचानक बोला
थोडा रुका फिर हाल-ए-दिल कह ही डाला....
एक बात बता ऐ मालिक मेरे
सच न कह पाये पर झूठ ज़रा भी न कहना....
देख इन बाशिंदों को, सुन इन परिन्दो को
कटे तो होगें पर इनके....
गिरे तो होगे अपने घोसलों से
पल भर की उस टीस को भुला तो होगा....
ज़माने के लिये ही सही, मुखौटा लगाया होगा
मैं नहीं कहता दे तू खुद को दगा, या फिर सज़ा....
होगा शायद एक बार फिर तूझे दर्द
टुटेगें एकाद फिर से पर....
इस डर से क्युँ छोड रहा हैं चलना
क्युँ ले रहा हैं मुझसे बदला....
मैंने जान के तो तेरा साथ नहीं छोडा
हूँ अब भी उसका पर धडकता तो तेरे सीने में हूँ....
रहता तो तूझ में ही हूँ, एक बार फिर दोस्ती करते हैं
मिलके फिर गलती करते हैं....
क्या पता इस बार मिल जाये
इस बहाने वो जुड जाये....
न गर फिर भी हुआ, मैं यूहिं तेरे सीने में धडकता रहूँगा,
ये वादा हैं मेरा, मैं हँसके जीता रहूँगा....
जब भी चलती हवा कहीं
अपने दिल को थाम लेता हूँ....
कहता कुछ नहीं बस इनमें बह लेता हूँ
याद दिला जाती महक तेरी....
इनको अपने सिने से लगा लेता हूँ
बैठ कहीं कोने में तेरा इन्तेज़ार करता हूँ
कहा खुदा से एक दिन, उसे मुझे देता तो नहीं
फिर याद क्युँ दिला जाता हैं इन घावों को हरा क्युं कर जाता हैं
क्या बिगाडा मैंने तेरा, क्युं इन आखों में लहूँ दे जाता हैं
मेरे सोते हूँए अरमानों को जगा जाता हैं
हो जहाँ भी वो मँहकें उसकी राहे
जहाँ हो रोशन उसकी रहे हमेंशा मुस्कुराती
कह देना की करता हूँ याद अभी भी
इतनी रहमत कर देंना, बस यही दुआ हैं
इसे कबूल कर लेना....
कभी न सोचा था, कीतना प्यारा होता ये एहसास हैं
दुर होके भी लगता कीतना तू पास हैं
दिल तो थम गया था मेरा
धडकाता अब तो तेरे नाम से हैं
आखें अब देख्नना चाहे
वो चेहरा तेरा कीतना खास हैं
आ जाये कहीं से महेक
दिल करता यही बार बार हैं
लोग अब कहने लगे मुझे
अमित दिवानो में अब तेरा नाम हैं
जब भी मिला तूझे जब भी छुआ तूने मुझे
हर लम्हा अब वो दौडता बार बार हैं
कल था जो बीत गया,
कल न फिर आयेगा
कल जो हैं अभी आना बाकी
फिर वो कल, कल बन जायेगा
कल जो था आज वो आज हैं
आज भी कल कल बन जायेगा
आज जी लेते हैं इन लम्हों को
आज कल, कल आज ना बन पायेगा....
कीसे यहां फ़र्क पडता हैं,
तू हँसता या फिर रोता हैं ?
मत जी तू उन झुठे रिश्तों के लिये,
न ले सहारा उन नामों का....
कोई नहीं रहने वाला साथ तेरे,
अकेला आया था, अकेले ही जायेगा....
कुछ रोयेंगे पल दो पल
कुछ ऐसे ही चले जायेगें....
फ़िर धुन्धले यादों की तरह
कागज़ का टुकडा बन दिवारों पर नज़र तू आयेगा....
कीसे यहां फ़र्क पडता हैं
तू जीता या फिर मरता हैं....
कमरे के किसी कोने में,
पूराना एक सपना,
किसी किताब के पन्नो में,
एक गुलाब सा कही दबा था,
सोचा, आज उसे निकालता हुं,
क्या पता कही सच हो जाये.
जब किताब के पन्ने पलटे, देखा
भुरा हो चला था, दरारे पड चुकी थी,
वो पत्ते अब सुख गये थे,
हल्के से उन्गलीयो से उठाया ही था की, हाथो मे बिखर पडे,
पर जाते - जाते अपनी महेक इन हाथो में छोड गये,
अब भी यकीन नही होता, की वो एक सपना था, या फिर कोई हकीकत,
पर जो भी था, कुछ देर के लिये ही सही,
अपनी खुश्बु से मुझे जीना सिखा दिया....