Loktantra abhyutthanam in Hindi Comedy stories by Vinod Viplav books and stories PDF | Loktantra abhyutthanam

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Loktantra abhyutthanam

राजनीतिक व्यंग्य

  • लोकतंत्र
  • — विनोद विप्लव

    अनुक्रम

  • लोकतंत्र अभ्युत्थानम्
  • पद न जाये
  • तोप के मुकाबिल जूते
  • जान का स्थानांतरण
  • राजनीति और चुनाव में बल
  • विरोध करने का लाइसेंस
  • आरोप लगवा दो
  • ओबामा के खिलाफ भी पार्टी लड़ेगी चुनाव
  • चोर- पुलिस] मौसेरे भाई
  • लोकतंत्र अभ्युत्थानम्

    मतदाताओं की चिरपरिचित मूर्खता और अपरिपक्वता के कारण पिछले कई चुनावों की तरह इस चुनाव में भी लोकतांत्रिक भावना का धक्का पहुंचा है। हालांकि पिछले दो तीन चुनावों के बाद से जो नतीजे आ रहे थे उसे देखते हुये इस बार उम्मीद बनी थी कि इस बार पहले से और बेहतर नतीजे आयेंगे हमारे देश में लोकतंत्र और मजबूत होगा, लेकिन दुर्भाग्य से मतदाताओं ने वह गलती दोहरा दी जिसे लोकतंत्र प्रेमी कभी माफ नहीं करेंगे। इस चुनाव के नतीजों ने यह साबित कर दिया है कि लोग खुद नहीं चाहते कि उनका भला हो। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र का ऐसा हश्र और वह भी लोक के हाथों- विश्वास नहीं होता। पिछले कुछ चुनाव के बाद कितना अच्छा लोकतांत्रिक वातावरण उत्पन्न हुआ था। यह सोचते ही मन अह्लादित हो जाता है, लेकिन इस चुनाव नतीजों ने लोकतंत्र की स्थापना के लिये किये गये सभी प्रयासों पर पानी फेर दिया।

    प्रधानमंत्री बनने की आस केवल लाल कृष्ण आडवाणी] मायावती, मुलायम सिंह यादव ही नहीं लगाये बैठे थे बल्कि कई और लोग भी इसकी आस लगाये बैठे थे लेकिन लोगों की मूर्खता के कारण सबकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। सोचिये अगर किसी एक पार्टी एवं उनके सहयोगी दलों के गठबंधन को सरकार बनाने लायक पर्याप्त बहुमत मिलने के बजाय सभी पाटियों को केवल पांच- पांच, दस- दस सीटें ही मिलती तो देश में लोकतंत्र का कितना विकास हो सकता था। अगर ऐसा होता तो सबको फायदा होता - समाज के सबसे निचले स्तर के आदमी तक को फायदा होता। अखबार और चैनलवालों को तो मनचाही मुराद मिल जाती।

    आप खुद सोचिये कि तब कितना मजेदार दृश्य होता जब पांच-पांच, दस-दस सीटें जीतने वाली पचास पार्टियों के नेता रात-रात भर बैठकें करते। कई कई दिनों ही नहीं कई-कई सप्ताह तक बैठकें चलतीं। बैठकों में लत्तम-जुत्तम से लेकर को वे सब चीजें चलती जो लोकतांत्रिक मानी जाती हैं। प्रधानमंत्री को लेकर महीनों तक सस्पेंस बना रहता। चैनलों पर दिन रात --कौन बनेगा धानमंत्री’’**रेस कोर्स की रेस’’**कुर्सी का विश्व युद्ध’’ जैसे शीर्षक् से कार्यक्रम पेश करके महीनों तक अपनी कमाई और लोगों का मनोरंजन करते। चैनलों की टीआरपी और अखबारों का सर्कुलेशन हिमालय की चोटी को भी मात देता।

    हलवाइयों से लेकर नाइयों की दुकानों तक लोग राजनीति और लोकतंत्र के विभिन्न पहलुओं पर चलने वाले राष्ट्रीय बहस में हिस्सा लेते और इस तरह देश में लोकतंत्र में जनता की भागीदारी बढ़ती। सबसे दिमाग में यही सवाल होता कौन बनेगा प्रधानमंत्री। अचानक एक दिन रात तीन बजे मेराथन बैठक के बाद मीडियाकर्मियों के भारी हुजूम के बीच घोषणा होती कि प्रधानमंत्री पद के संसद भवन के गेट से 20 फर्लांग की दूरी पर बैठने वाले चायवाले को चुना गया है क्योंकि सभी नेताओं के बीच केवल उसी के नाम पर सहमति बन पायी है। आप सोच सकते हैं कि अगर ऐसा हुआ होता तो हमारे देश का लोकतंत्र किस उंचाई पर पहुंच जाता। इस घोषणा के बाद जब तमाम चैनलों के रिपोर्टर और कैमरामैन अपने कैमरे और घुटने तुडवाते हुये वहां पहुंचते तबतक चायवाले की दुकान के आगे एक तरफ नगदी से भरे ब्रीफकेस लिये हुये सांसदों की लंबी लाइन होती तो दूसरे तरफ उद्योगपतियों की। एक दूसरी लाइन उनसे बाइट लेने वाले चैनल मालिकों और संपादकों की होती।

    एक - दो घंटे के भीतर जब वह चायवाल अरबपति बन चुका होता तभी अखबार या चैनल का कोई रिपोर्टर या कैमरामैन बदहवाश दौड़ता हुआ वहां पहुंचता और जब बताता कि असल में सुनने में गलती हुयी है। दरअसल प्रधानमंत्री के लिये दरअसल जिसके नाम पर सहमति हुयी है वह चायवाला नहीं बल्कि पानवाला है। इसके बाद मीडियाकर्मियों के बीच एक और मैराथन दौड़ होती और अगले घंटे के भीतर एक और व्यक्ति अरबपतियों की सूची में शुमार हो जाता।

    इस बीच घोषणा होती कि बैठक में पानवाले के नाम पर असमति कायम हो गयी और अब किसी और के नाम पर चर्चा हो रही है। देश में एक बार फिर संस्पेंस का माहौल कायम होता और क्या पता कि बैठक के बाद जिस नाम की घोषणा होती वह नाम इस खाकसार का होता। महीनों तक कई बैठकों का दौर चलने और तमाम उठापटक के बाद प्रधानमंत्री के रूप में किसी का चयन होता है और फिर मंत्रियों के चयन पर सिर फुटौव्वल का दौर चलता और अंत में पता चलता कि मंत्रियों के लिये भी सांसदों के नामों पर सहमति नहीं बन पायी बल्कि किसी मोची, किसी पनवाडी, किसी पंसारी, किसी जुआड़ी और किसी अनाड़ी के नाम पर सहमति बनी है। सोचिये कितने आम लोगों एवं उनके नाते -रिश्तेदारों का भला होता और तब सही अर्थों में लोकतंत्र की स्थापना होती क्योंकि लोकतंत्र वह तंत्र होता है जो जनता का, जनता के लिये और जनता के द्वारा हो।

    पद न जाये

    पुराने समय में जब प्राणों का उतना महत्व नहीं था और जब पद नाम की अमूल्य धरोहर का अविर्भाव नहीं हुआ था, तब लोग अपने वचन की रक्षा के लिये फटाफट प्राण त्याग दिया करते थे। रामायण, महाभारत और अन्य प्राचीन ग्रंथों में ऐसे उदाहरणों की भरमार है। उस समय लोग फालतू-बेफालतू बातों पर प्राण देने के लिये उतावले रहते थे। सदियों बाद जब लोगों को कुछ अक्ल आयी और जब प्राण को मूल्यवाण समझा जाने लगा तो लोग प्राण के बदले पद त्यागने लगे। इतिहास का यह ऐसा भयावह दौर था जिसे सोच कर सिर फोड़ने का मन करने लगता है। ऐसे मूर्ख अधिकारियों, मंत्रियों और नेताओं की भरमार थी जो उस तत्परता एवं निर्ममता के साथ पद त्यागते थे जिस निर्ममता के साथ लोग चिथड़े---चिथड़े हो गये कपड़े को भी नहीं त्यागते। पलायनवाद का ऐसा शर्मनाक दौर था। जब प्राण मिली है तो प्राण का और जब पद मिला है तो पद का सम्मान करो। लेकिन इन पलायनवादियों को कौन समझाता। सभी एक से बढ़कर एक पलायनवादी थे।

    लेकिन अब हमारा देश अंधकार के युग से निकल चुका है। अब लोगों ने प्राण और पद के महत्व को भली भांति समझ लिया है। लोगों को पता चल गया है कि प्राण और पद कितने मूल्यवाण है। जिस तरह से मानव प्राण पाने के सांप-बिच्छुओं आदि के रूप में असंख्य जन्म लेने पड़ते हैं उसी तरह से हजारों पापड़ बेलने, लोहे के सैकड़ों चने चबाने तथा लाख तरह के जुगाड़ और पुण्य-अपुण्य कार्य करने के बाद पद मिलता हैं। इसलिये इतने मुष्किल से मिले पद को त्यागना सरासर मूर्खता नहीं तो और क्या है। जब प्राण मिला है तो जी भर के जियो और पद मिला तो मनभर कर उसका उपभोग करो। यही आदर्ष जीवन दर्शन है और खुशी की बात है कि आज लोगों ने इस दर्शन को अपना लिया है।

    पहले तो लोग ऐसे -ऐसे कारणों से पद त्याग देते थे जिसे सोचकर इनके दिमाग पर तरस आता है। किसी ड्राइवर या गार्ड की गलती से कोई ट्रेन कहीं भिड़ गयी या पटरी से उतर गयी तो रेल मंत्री ने पद त्याग दिया। किसी क्लर्क ने सौ-दो सौ रूपये का घूस खा लिया तो वित्त मंत्री ने इस्तीफा दे दिया। किसी राज्य में पुलिस के किसी जवान ने किसी को डंडा छूआ दिया तो मुख्यमंत्री ने पद छोड़ दिया। लेकिन अब हमारे देश का लोकतंत्र परिपक्व हो चुका है। हमारे नेता कर्तव्यों और भावनाओं के मायाजाल में नहीं फंसते। हालांकि आज भी कुछ ऐसे लोकतंत्र विरोधी लोग हैं जो महिलाओं को सरेआम नंगा किये जाने, उनका सामूहिक बलात्कार किये जाने और निर्दोश छात्र-छात्राओं को आंतकवादी बताकर उन्हें पुलिसिया मुठभेड़ में मार गिराये जाने जैसी छोटी-मोटी घटनाओं को लेकर मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों से इस्तीफे की मांग करते रहते हैं, लेकिन अब मंत्री-मुख्यमंत्री इतने कच्चे दिल के नहीं हैं कि वे ऐसी घटनाओं पर इस्तीफा दे दें। ऐसी घटनायें तो रोज और हर कहीं होती हैं और अगर इन्हें लेकर इस्तीफा देने की पुरातन कुप्रथा फिर शुरू हो गयी तो फिर राज- काज कौन संभालेगा। फिर कैसे सरकार, संसद और विधानसभायें चलेंगी। ऐसे में तो लोकतंत्र का चारों खंभा ही ढह जायेगा और देश रसातल में चला जायेगा। यह तो गनीमत है कि हमारे नेताओं और मंत्रियों में सद्बुद्धि आ गयी है जिसके चलते देश और लोकतंत्र बचा हुआ है।

    तोप के मुकाबिल जूते

    जूतों का महत्व अचानक बढ़ गया है। इनकी टी आर पी पैर से उठकर सिर तक पहुंच गयी है। जो लोग कल तक जूतों को पैरों तले रौंदा करते थे, वे आज जूतों को सिर आंखों पर बिठा रहे हैं। कई ने तो जूते पहनने बंद करके उन्हें मलमल के कपड़ों में लपेट कर लोहे की संदूक में रख दिया है। इसके बाद भी उन्हें जूते चोरी होने का डर लगा रहा है और रोज सोते-जागते उनके दिमाग में जूते ही घूमते रहते हैं। रात को सोने के पहले और सुबह जागने पर जूते देख कर जब तक तसल्ली नहीं नहीं कर लेते मन को चैन नहीं मिलता है। कई लोग तो बैंक लाॅकरों में से जेवरात आदि निकाल कर उनमें जूते रखने के बारे में सोच रहे हैं। हमारे एक पडोसी शर्मा जी ने तो अपने बैंक के मैनेजर से जूतों के लिये विशेष लाॅकर बनाने की मांग कर दी।

    पहले जिन लोगों ने अपनी जमा कमाई शेयरों में बर्बाद कर दिये वे अब पछता रहे हैं कि उन पैसों को जूते अथवा जूते की कंपनियों के शेयर खरीदने में क्यों नहीं लगाया। जार्ज बुश पर जूतेबाजी की घटना के बाद से जूतों का महत्व जिस तेजी से बढ़ रहा है उसे देखते हुये जूते और जूते बनाने वाली कंपनियों के शेयर खरीदना पक्के तौर पर मुनाफे का सौदा है।

    जूतों के महत्व कवि लोग भी स्वीकार रहे हैं। आज अगर अकबर इलाहाबादी होते तो वे भी यही लिखते - जब तोप मुकाबिल हो तो जूते निकालो। कई लोग मान रहे हैं कि सद्दाम हुसैन ने अगर अमरीका एवं उसके मित्र देशों की सेना से मुकाबले के लिये तोपों, लडाकू विमानों और स्कड् बैलिस्टिक मिसाइलों के बजाय जूतों से काम लिया होता तो वह खुद को और इराक को नेसतनाबुद होने से बचा ले जाते। जो काम इराक के लडाकुओं, सैनिकों, दुनिया भर के अखबारों, चैनलों, बुद्धिजीवियों के लेखों ओर मानवाधिकार समर्थकों के प्रदर्शनों ने नहीं किया वह काम एक जोड़ी जूते ने कर दिया।

    इस घटना से जूते की कारगरता एवं प्रभाक क्षमता जिस तरह से स्थापित हुयी है उसे देखते हुये ऐसा लगता है कि आने वाले समय में दो देशों के बीच युद्ध में तोप चलाये जाने के बजाय जूते ही चलने लगेंगे। यह भी किया जाना चाहिये कि भारतीय संसद में नेता लोग एक दूसरे पर व्यंग्य बाण चलाने के बजाये जूते चलायें। संसद में प्रश्नकाल के दौरान जिस सांसद को सवाल पूछने के लिये कहा जाये वह मंत्री की तरफ जूते फेंके और मंत्री जबावी जूते फेंके। चुनावों में हार जीत का फैसला करने के लिये मतपत्रों का इस्तेमाल करने के बजाय जूते का इस्तेमाल हो। एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को एक जगह बिठा करके उनपर जूते फेंके जायें और जिसे सबसे कम जूते लगे उसे चुना हुआ मान लिया जाये। अगर दो देश एक दूसरे से युद्ध करना चाहते हों तो एक दूसरे देषों की सेना को लड़ने के बदल उन देशों के प्रधानमंत्रियों या राष्ट्रपतियों को एक जूते मारे जायें।

    भविष्य में जूतों के ऐसे कई तरह के उपयोगों के प्रचलन में आने की संभावना है। अगर ऐसा हुआ तो सोचा जा सकता है कि किस भारी पैमाने पर संसाधनों को बर्बाद होने से बचाया जा सकता है।

    अगर जूतों के इस तरह के उपयोग शुरू होने पर भारत में कुछ तरह की दिक्कतें आ सकती है क्योंकि यहां आधे से ज्यादा लोगों को तो जूते या चप्पल ही नसीब नहीं है। ऐसे में जूता विहीन आबादी को जूते मुहैया कराया जाना एक बडी चुनौती है, क्योंकि अगर उनके पास जूते ही नहीं होंगे तो चलायें क्या। दूसरी बात यह कि यहां कुछ लोग चमड़े, रबर या प्लास्टिक के बजाये लकडी के खडाउं पहनते हैं। यह भी तय करना होगा कि खडाउं चलाने के इजाजत दी जानी चाहिये या नहीं क्योंकि इससे खून खराबे का डर है।

    जान का स्थानांतरण

    दादी-नानी की कहानियों में अक्सर वैसे दैत्यों एवं जादूगरनियों का जिक्र होता था जिनके पास ऐेसी प्रौद्योगिकियां होती थीं जिनकी मदद से वे अपनी जान तोते-मैने आदि में डालकर निश्चिंत हो जाते थे। फिर चाहे उनकी जितनी धुनाई की जाये, चाहे जितनी बार उनकी गर्दन मरोड़ी जाये, चाहे जितने दिन उन्हें उल्टा लटकाये रखा जाये और चाहे जितनी बार पहाड़ से नीचे फेंका जाये उनका बाल बांका नहीं होता। लेकिन जैसे ही तोते या मैने की गर्दन मरोड़ी जाती बड़े- बड़े दैत्य टें बोल जाते।

    आज ये प्रौद्योगिकियां कुछ ही लोगों के पास रह गयी हैं, लेकिन आज जो हालात हैं उनमें सरकार को सब काम छोड़ कर इन्हें सर्वसुलभ बनाने में लग जाना चाहिये। इससे कई फायदे होंगे। चाहे स्वाइन फ्लू और डेंगू फैले, चाहे खाने-पीने की चीजों के दाम आसमान छुएं, खाने में अरहर की दाल मिले या न मिले, बिजली-पानी मिले या नहीं, चाहे दंगे होते रहें, ट्रेन दुर्घटनायें होती रहे या मेट्रो के पिलर गिरते रहें, किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा।

    आज भी जिन मंत्रियों के पास ये प्रौद्योगिकियां हैं उनका कभी कुछ नहीं बिगड़ता चाहे मंहगाई हो, दंगे हो, दुर्घटनायें हो, भूकंप हो या तूफान हो, क्योंकि उनकी जान कुर्सी में बसती है। जब तक उनकी कुर्सी को कुछ नहीं होता उनकी जान पर कोई आफत नहीं आती। पिछले दिनों एक मंत्री ने यह कहकर इसका सबूत भी दिया कि अगर उनकी कुर्सी गयी तो उनकी जान चली जायेगी और सरकार ने उनकी जान बचाने के लिये उनकी कुर्सी नहीं छिनी। मंत्रियों की तरह कुछ नेताओं ने अपनी जान संसद की सीट में डाल रखी है। संसद की सीट छीनते ही उनकी जान निकलने-निकलने को हो जाती है। पिछले दिनों एक पार्टी ने लोकसभा चुनाव हार कर संसद की सीट से वंचित रहने वाले अपने बुजुर्ग नेता की जान बचाने के लिये उन्हें किसी तरह से राज्य सभा की सीट देकर उन्हें जिंदा रखने का इंतजाम किया। वे चल-फिर नहीं पाते। यहां तक कि बोल-सुन और देख नहीं पाते लेकिन राज्य सभा की सीट मिलते ही उनमें नई जान आ गई। लोकसभा की सीट से वंचित होने पर जब उनकी हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी तभी पार्टी को अचानक इस रामबाण का ख्याल आया। अब चाहे उनके शरीर का एक-एक अंग जवाब दे जाये लेकिन उनकी जान नहीं जायेगी, क्योंकि उनकी जान पांच साल तक के लिये राज्य सभा की सीट में डाल दी गयी है। पार्टी ने जब उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ने का टिकट नहीं दिया था तब पार्टी की जबर्दस्त आलोचना हुई कि उसने अपने ही नेता को जिसने पार्टी को पाला-पोसा और अपने पैरों पर खड़ा किया, मौका मिलते ही किनारा कर दिया। लेकिन अब पार्टी नेताओं की दूरदर्शिता की जयजयकार हो रही है क्योंकि लोकसभा सीट का तो आजकल कोई भरोसा नहीं है, कब सरकार गिर जाये, कब चुनाव हो जाये। ऐसे में इतने बुजुर्ग नेता कैसे चुनाव लड़ पायेंगे लेकिन राज्य सभा की सीट के साथ तो इस तरह का खतरा नहीं है। वह पूरे छह साल तक रहेगी।

    बालीवुड के स्टारों और बड़े उद्योगपतियों में अपनी जान को डाल कर रखने वाले एक पार्टी के बड़े नेता ने पिछले चुनाव में यह कहकर अपनी प्रिय सखी को चुनाव में जीत दिलायी कि अगर वह चुनाव हार गयीं तो वह अपनी जान दे देंगी। ऐसे में झख मार कर लोगों को उस नेता को जीताना पड़ा क्योंकि सुंदर सी-प्यारी सी नेता की जान की हत्या का पाप कौन अपने सिर पर लेना चाहेगा।

    इन उदाहरणों से साफ हो गया है कि कुछ लोगों के पास जान स्थानांतरित करने वाली प्रौद्योगिकी है। सरकार को सर्वजन सुखाय की भावना का परिचय देते हुये ऐसी प्रौद्योगिकियां लोगों को सुलभ करानी चाहिए ताकि वे अपनी जान को वैसी अनष्वर चीजों में डाल कर निष्चिंत हो सकें – गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी और मंहगाई जैसी अनश्वर चीजों में।

    राजनीति और चुनाव में बल

    चुनाव आयोग चुनाव में धन और बल के प्रभाव को कम करना चाहता है। धन का तो पता नहीं लेकिन इस चुनाव में बल का बढ़ता प्रभाव और महत्व साफ दिख रहा है, जो सही भी है।

    पिछले कई वर्षों से बाबरी मस्जिद विध्वंस जैसी घटनाओं के दौरान बलषाली होने के ठोस सबूत पेश करने वाले प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री ने प्रतीक्षा किये बगैर प्रधानमंत्री बनने वाले अपने प्रतिद्वंद्वी को बलहीन करार दिया। मौके-बेमौके पर लाठी-भाले, त्रिशूल और तलवार आदि चलाने की क्षमता का प्रदर्शन करने वाले बलशाली कार्यकर्ताओं से भरी उनकी पार्टी के एक तेजस्वी उम्मीदवार ने अपने को इतना अधिक बलवान होने का दावा कर दिया कि उनके शौर्य के आगे पूरा देश कई हफ्तों तक कांपता रहा। इसी पार्टी का एक समर्थक दल अपने ही एक प्रमुख नेता को बलहीन करार देते हुये चुनाव से उनका पत्ता काटने पर तुल गया। कभी अमरीका में अपने शरीर सौष्ठव का प्रदर्शन करने वाले वह नेता हालांकि अब बुजुर्ग हो चुके हैं लेकिन वह दावा कर रहे हैं कि उनमें अब भी काफी दम है और इस नाते वह चुनाव लड़कर ही दम लेंगे।

    आज राजनीतिक दल एवं उम्मीदवार चुनाव में धन से कहीं अधिक बल को जो महत्व दे रहे हैं, वह बेजा नहीं है। यह वक्त की जरूरत है। दरअसल आज चुनाव और राजनीति पहले की तरह टाइम पास करने वाला काम नहीं रह गये हैं। आज ये चुनौतीपूर्ण काम बन गये हैं जिनमें भरपूर तन और धन की जरूरत होती है। (मन नहीं भी हो तो काम चलेगा। जाहिर तौर पर आज चुनाव और राजनीति के लिये बल एक जरूरी योग्यता बन गया है। संसद और विधानसभाओं के भीतर आये दिन बल दिखाने की जरूरत पड़ती रहती है और अगर आप बलषाली नहीं हैं तो आप एक दिन भी टिक नहीं सकते। आजकल राजनीति को लेकर जनता का जो मूड बन रहा है उसमें नेताओं के लिये लात-घूंसे, जूते आदि खाने के खतरे बढ़ गये हैं। इन्हें झेलने के लिये भी बल की जरूरत है। भारत में ही नहीं, ऐसा दुनिया भर में हो रहा है - अमरीका और चीन में भी। ऐसे में आप सोचिये कि अगर नेता बलहीन रहेंगे तो जनसेवा कैसे करेंगे। साक्षरता बढ़ने और संचार क्रांति के कारण जनता अब मूर्ख नहीं रही और अब जनता को दंगे आदि करने के लिये भड़काना भी मुष्किल होता जा रहा है। ऐसे में नेताओं को अपने हाथों से ऐसे काम करने पड़ रहे हैं। एक बलषाली पार्टी के युवा एवं प्रतिभाशाली नेता ने तो यह संकेत दे दिया है कि आने वाले समय में वह कुछ लोगों के हाथ काटने और उनके गालों पर तमाचे मारने अदि के काम खुद ही किया करेंगे।

    मेरा तो स्पष्ट मानना है कि आज किसी नेता के लिये ज्ञान, विवेक, नैतिकता और ईमानदारी जैसी पुरातन योग्यताओं से भरपूर होना जरूरी नहीं है बल्कि उनके लिये बल से भरपूर होना जरूरी है। जिनके पास तलवार चलाने आदि की योग्यता हो उन्हें संसद में वाइल्ड कार्ड एंट्री दी जानी चाहिये और इसके लिये अगर संविधान में संषोधन भी करना पड़े तो किया जाना चाहिये।

    विरोध करने का लाइसेंस

    हम कुछ लोगों ने मोहल्ले में फैले कूड़े-कचरे छुटकारा पाने के लिये नगर निगम के दफ्तर के सामने विरोध प्रदर्शन करने की योजना बनायी। जब विरोध प्रदर्शन करने की अनुमति लेने के लिये पुलिस के पास गये तो पुलिस ने हमसे ‘‘विरोध करने का लाइसेंस’’ मांगा। हम घोर आश्चर्य में पड़ गये क्योंकि हमने पहले ऐसे किसी लाइसेंस के बारे में सुना नहीं था।

    पुलिस ने बताया कि यह नया सरकारी आदेश है। जो लोग भी विरोध प्रदर्शन या धरना करना चाहते हैं या विरोध के तौर पर कोई पुरस्कार लौटाना चाहते हैं तो उन्हें पहले इसका लाइसेंस लेना होगा।’’

    हमने कहा, ‘’हमारे पास तो ऐसा लाइसेंस नहीं है। हम तो शांतिप्रिय लोग हैं। आपको जो भी हलफनामा, लिखित आष्वासन, शपथ पत्र आदि चाहिये वह ले लीजिये।’’

    पुलिस ने कहा, ‘’आप पहले लाइसेंस लेकर आइये। सरकार ने हमें साफ-साफ निर्देश दिया है कि जिसके पास विरोध करने का लाइसेंस नहीं हो उसे विरोध करने की अनुमति किसी भी हाल में नहीं दी जाये। आप अखबार नहीं पढ़ते क्या।’’

    हमें पुलिस वालों ने बताया कि सरकार ने आम लोगों की सुविधा को ध्यान में रखते हुये लाइसेंस देने का काम एक संगठन को सौंपा है। दूसरे दिन जब हम विरोध करने का लाइसेंस बनवाने के लिये उस संगठन के कार्यालय में पहुचे तो हमसे विरोध करने के अनुभव का प्रमाण पत्र मांगा गया।

    हमने जब बताया कि हमारे पास ऐसे किसी अनुभव का प्रमाण पत्र नहीं है। हम शांतिप्रिय लोग हैं। हमने पहले कभी किसी बात का विरोध नहीं किया।

    संगठन के अधिकारी तैस में आ गये, ‘‘‘जब आपने पहले किसी बात पर विरोध नहीं किया तब अब आप ऐसा कैसे कर सकते हैं। पहले जब सिख विरोधी दंगे हुये थे, मुंबई में आतंकवादी हमले हुये थे, गोधरा कांड हुआ था तब आप कहां थे। आपने उस समय विरोध क्यों नहीं किया। आपको विरोध करने का लाइसेंस नहीं मिल सकता है। आप चाहें तो हम आपको समर्थन करने का लाइसेंस दे सकते हैं। इसके लिये आपको कुछ करना नहीं है, केवल एक खास नम्बर पर मिस्ड काॅल करना है और हम आपको तुरंत समर्थन करने का लाइसेंस दे देंगे।

    हमें पता चला कि दरअसल यह संगठन दो तरह का लाइसेंस देता है - विरोध करने का लाइसेंस अर्थात -----विरोधक लाइसेंस’’ और समर्थक करने का लाइसेंस अर्थात ----समर्थक लाइसेंस’’। विरोधक लाइसेंस बनवाने के लिये संगठन में 50 हजार रूपये की रसीद कटानी होगी। इसके अलावा अपने और अपने परिवार के सभी सदस्यों के आय, शिक्षा, जाति एवं संपति के पूर्ण विवरण एवं प्रमाण पत्र देने होंगे। साथ ही आपको इस बात के प्रमाण भी देने होंगे कि आपने आजादी के बाद होने वाली सभी हत्याओ का आपने विरोध किया है और अगर आप पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार हैं तो आपने पहले भी विरोध स्वरूप अपने पुरस्कार लौटाये हैं। लाइसेंस शुल्क का भुगतान करने के बाद आपके और आपके परिवार के सभी लोगों का पुलिस वेरिफिकेशन होगा और अगर संगठन के लोग संतुष्ट होंगे तभी आपको लाइसेंस मिलेगा।

    विरोधक लाइसेंस अर्थात विरोध करने का लाइसेंस मिलने के बाद आप मंहगाई, भ्रष्टाचार, हत्या, आतंकवाद, दंगा आदि को लेकर आप विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं या विरोध स्वरूप पुरस्कार लौटा सकते हैं, लेकिन अगर कुछ देशप्रेमियों ने आपके चहेरे पर स्यायी मल दिया, आपका हाथ-पैर तोड दिया, आपके धर में लूटपाट और तोड़फोड कर दी तो इसके लिये आप सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। समय-समय पर पुलिस आपको गिरफ्तार भी कर सकती है।

    दूसरी तरफ समर्थक लाइसेंस अर्थात समर्थन करने अथवा विरोध करने वालों का विरोध करने का लाइसेंस मिलने पर दाल- प्याज के दाम में वृद्धि, काला धन, भ्रष्टाचार, हत्या आदि मुद्दों के विरोध में होने वाले धरने, अनशन, प्रदर्शन, जुलूस आदि के विरोध में आप प्रदर्शन कर सकते हैं, भारत विरोधी पुस्तकों का विमोचन करने वालों और बीफ पार्टी देने वालों के मुंह पर कालिख पोत सकते हैं तथा हत्या आदि के विरोध में पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों के घरों पर हमले कर सकते हैं। इसके अलावा आप ‘‘हिन्दू विरोधियों को पाकिस्तान भेजने’’---मोबाइल और जींस के कारण बलात्कार बढने‘‘ और ’’बीफ खाने वालों की हत्या कर देने’’ जैसे बयान देने के लिये आप आजाद होंगे। अगर आप नियमित रूप से ऐसा करेंगे तो आपको संगठन से हर माह प्रोत्साहन राशि भी मिलेगी। अगर आपका काम बढि़या रहा तो आपको मंत्री बनाने के लिये सरकार से सिफारिश भी की जायेगी।

    यह सब सुनकर हमने मिस्ड काल देकर समर्थक लाइसेंस लेने का फैसला किया क्योंकि हमें बताया गया कि यह लाइसेंस मिलते ही हमारी सभी अपने आप समस्यायें दूर हो जायेगी।

    आरोप लगवा दो

    सुबह- सुबह घर पर सत्ताधारी दल के एक बड़े नेता पधारे। वह वह केन्द्रीय मंत्री थे लेकिन कुछ समय पहले हुये कैबिनेट फेरबदल में उन्हें मंत्री पद से हटा दिया गया था। वह काफी दिनों से दोबारा मंत्री बनने की जुगाड़ में थे। उन्हें उम्मीद थी कि इस फेरबदल में उन्हें जरूर मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया जायेगा, लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। फेरबदल के बाद से ही वह काफी विचलित दिख रहे थे।

    वह एक मोटी सी फाइल लिये हुये थे। सोफे पर बैठते ही बोले - मेरे पास घोटालों का पूरा सबूत है। इंडिया एंड करप्शन अर्थात आईएसी वालों के पास भी गया था, लेकिन वे इन्हें उठाने को तैयार नहीं हो रहे हैं। सुना है कि आपका बजरीवाल साहब से अच्छा संबंध है। आप कुछ कीजिये।

    मैंने पूछा, --- किसके खिलाफ सबूत है।’’

    उन्होंने फाइल दिखाते हुये कहा,-- मेरे अपने घोटालों के सबूत हैं। ये देखिये पूरे कागजात हैं। लेकिन आईएसी वाले कहते हैं कि ये तो ठोस सबूत हैं और हम ठोस सबूत के आधार पर आरोप नहीं लगाते। कोई कच्चे और बिना सबूत वाले आरोप हो तो बताइये।

    “लेकिन अपने ही खिलाफ आरोप लगवाने से आपको क्या फायदा होगा। आप तो आरोपों में फंस जायेंगे।’’

    नेताजी हमारे भोलेपन पर तरस खाते हुये कहा, ---आप पत्रकार होकर भी नहीं समझ रहे हैं। पिछली दफा प्रधानमंत्री जी ने मंत्रिमंडल से हमको बाहर इसलिये किया था कि दो साल में हमने कुछ किया नहीं और मंत्रिपद का दुरूपयोग कर दिया। किसी और को मंत्रिपद दिया गया होता तो कितना ही जाहिल होता तो कम से कम लाख दो लाख करोड़ का घोटाला तो कर दिया होता। इस बार हमको उम्मीद थी कि मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया जायेगा, क्योंकि मंत्री पद से हटाये जाने के बाद पिछले दो सालों में दस लाख करोड़ के घोटाले कर दिये थ। मैंने प्रधानमंत्री के सामने इन घोटालों का पूरा सबूत पेश किया था और कहा था कि जब मैंने मंत्री पद के बगैर इतना कर दिया तो सोचिये मंत्री बनने पर कितना बड़ा काम कर सकता हूं, लेकिन उनका कहना था कि केवल घोटाले करने से काम नहीं बनता। काम बनाने के लिये आरोप लगवाने भी होते हैं और महीने दो महीने मीडिया में बने रहना भी होता है ताकि जनता को आपकी क्षमता के बारे में पता चले। इसलिये हमने सोचा कि आईएसी वाले मेरे लिये इतना कर देते तो मेरा कल्याण हो जाता और अगली बार मुझे भी मंत्री बना दिया जाता।’’

    मैंने कहा -- आईएसी वाले अगर आपके घोटाले का खुलासा नहीं करते तब किसी चैनल से संपर्क क्यों नहीं करते।’’

    उन्होंने कहा -- चैनल पर खुलासा करवाने में काफी समय लग जाता है और उसका उतना असर भी नहीं रहता। किसी को यह याद भी नहीं रखता कि पिछले घंटे किस चैनल ने किस मंत्री या नेता या किसके दामाद के खिलाफ खुलासा किया था। आईएसी वाले इस काम में माहिर हैं और बहुत तरीके से खुलासा करते हैं कि महीनों तक मीडिया में चर्चा होती रहती है। मीडिया में भी खुलासा करवाने के बाद आईएसी से भी खुलासा कराना जरूरी होता है तभी असर होता है। ऐसे में मैंने सोचा अगर आईएसी वाले ही यह काम कर दें तो एक पंथ दो काज हो जायेगा। अब देखिये उन्होंने एक मंत्री के ट्रस्ट के घोटाले खुलासा किया तो उनकी इतनी चर्चा हुयी कि उन्हें पदोन्नति कर दी गयी।

    मैंने कहा--अगर आईएसी वाले आधे- अधूरे सबूत के आधार पर खुलासा करते हैं तो आप भी उन्हें आधे - अधूरे सबूत ही दीजिये। आपकी तरह अगर सभी लोग उन्हें ठोस सबूत उपलब्ध कराने लगेंगे तो उन्होंने इतने प्रोफेशनल्स पाल रखे हैं वे खाली नहीं हो जायेंगे और फिर चैनल वालों के पास भी कुछ और सबूत जुटाने के मौके छोड़ने चाहिये। नहीं तो कितने खोजी पत्रकार बेरोजगार हो जायेंगे।

    उन्होंने कहा,- मैने उनसे कहा था कि आपको मैं आधे----अधूरे सबूत ही दूंगा, लेकिन वे तब भी नहीं माने। उनका कहना है कि वे उन्हीं के खिलाफ खुलासा करते हैं जो या तो किसी प्रभावशाली नेता के दामाद हो या जरे केन्द्रीय मंत्री हो या किसी बड़ी पार्टी के अध्यक्ष हों। और मैं इनमें से कुछ भी नहीं हूं। आपसे गुजारिश है कि आप ही कोई तरकीब निकालें।’’

    इतना कहकर नेताजी तो चले गये लेकिन मैं सोच में पड़ गया कि क्या तरकीब निकाली जाये। अगर आपके पास कोई तरकीब हो तो मुझे बताइयें।

    ओबामा के खिलाफ भी पार्टी लड़ेगी चुनाव

    दो साल पुरानी एक पार्टी ने चुनाव के लिये उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की। इस संबंध में पार्टी प्रमुख से हमारे संवाददाता की बातचीत यहां प्रस्तुत है।

    प्रश्न -- आपने लोकसभा चुनाव के लिये अपनी पार्टी के उम्मीदवारों पहली सूची जारी की है। लेकिन आपने केवल अपनी पार्टी के ही नहीं बल्कि बाकी दलों के उम्मीदवारों की सूची भी जारी कर दी। क्या बाकी दलों का भी नेतृत्व आप ही करते हैं।

    उत्तर ---- हम बाकी दलों को राजनीति सीखा रहे हैं। ये राजनीतिक दल तो हमारे सामने बच्चे हैं। अभी उन्हें बहुत कुछ सीखना है। उन्हें मालूम नहीं है कि चुनाव में कैसे उम्मीदवार उतारने चाहिये, किस क्षेत्र से किस उम्मीदवार को खड़ा करना चाहिये। इसलिये हमने बाकी दलों के उम्मीदवारों की सूची भी जारी कर दी है ताकि उन दलों के नेताओं को अपने उम्मीदवारों के नाम तय करने में सिर- फुटौव्वल नहीं कर पड़े। हम राजनीति में अपने फायदे के लिये नहीं आये हैं। हम राजनीति करने थोड़े ही आये हैं। हम तो राजनीति बदलने आये हैं। हम इन्हें सिखा रहे हैं कि राजनीति कैसे की जाती है, चुनाव प्रचार कैसे किया जाता है, किस तरह के उम्मीदवार उतारने चाहिये।

    प्रश्न ---- लेकिन अगर कोई पार्टी किसी क्षेत्र से किसी अन्य उम्मीदवार को चुनाव लड़ाना चाहे या आपने अन्य किसी पार्टी के जिस उम्मीदवार की घोषणा की है चुनाव ही लड़ना नहीं चाहे या राजनीति से ही संन्यास ले ले। ऐसे में क्या होगा।

    उत्तर ------ जब हमने अन्य दलों के उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है तो उन्हें चुनाव लड़ना ही होगा अन्यथा उसे पराजित माना जायेगा। चुनाव लड़ना कोई सहुलियत नहीं है - यह नहीं हो सकता है कि आप एक बार एक जगह से दूसरी बार दूसरी जगह से चुनाव लड़ें। यही तो भ्रष्टाचार है। इस तरह की राजनीति को तो हमें खत्म करना है। हम स्वच्छ और पारदर्शी राजनीति करने आये हैं। हम बतायेंगे कि राजनीति कैसे की जाती है, पार्टी कैसे चलायी जाती है, सरकार कैसे बनायी जाती है और सरकार कैसे गिरायी जाती है।

    प्रश्न ----- लेकिन आपने तो मौजपुरी सीट से डेमोक्रेटिक पार्टी से उम्मीदवार के रूप में बराक ओबामा का भी नाम घोषित कर दिया है। यह आप कैसे तय कर सकते हैं कि अमरीका के राष्ट्रपति किस क्षेत्र से चुनाव लडेंगे । फिर अमरीका के राष्ट्रपति को भारत से चुनाव लड़ने की क्या जरूरत क्या पड़ी है।

    उत्तर ------- उन्हें चुनाव लड़ना होगा। अगर वह चुनाव मैदान से हटते हैं तो यह साबित हो जायेगा कि वह हार मान चुके हैं। वह जहां से भी चुनाव लड़ेंगे, हम उनके खिलाफ अपना उम्मीदवार उतारेंगे। हम अगली बार अमरीकी लडेंगे के चुनाव में भी बराक ओबामा के खिलाफ भी अपने उम्मीदवार खड़े करेंगे और उन्हें हरा कर दिखायेंगे। हम केवल भारत के लोगों को ही राजनीति सिखाने नहीं आये हैं हम पूरी दुनिया के लोगों को राजनीति सिखायेंगे।

    प्रश्न ------ लेकिन अमरीका में आप चुनाव कैसे लड़ेंगे। अमरीका का चुनाव इस बात की अनुमति देता है क्या। यह तो अमरीकी संविधान के अनुसार संविधान विरोधी काम होगा।

    प्रश्न - क्या भ्रष्टाचार दूर करना संविधान विरोधी है, क्या भ्रष्टाचारियों को जेल भेजना संविधान विरोधी है। हमने संविधान पढ़ा है। अमरीका के संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा है। अगर कोई बता दे कि ऐसा कहीं लिखा है तो राजनीति ही छोड़ देंगे। हमें छोड़ने में ज्यादा समय नहीं लगता है। अभी देखा ना आपने। हमने आव देखा ना ताव - मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी। भ्रष्टाचार मिटाने के लिये हम एक लाख बार राजनीति छोड़ने को तैयार है।

    प्रश्न ---- लेकिन अमरीका में चुनाव कैसे लड़ेगे। आपका वहां कोई संगठन नहीं है।

    उत्तर ----- हम चुनाव थोड़े ही लड़ रहे हैं। चुनाव तो जनता लड़ रही है। यह जनता की लडाई है। हमारी कोई औकात नहीं है। हम बहुत छोटे लोग हैं।

    प्रष्न - आपका लक्ष्य क्या है।

    उत्तर-- - हमारा लक्ष्य भ्रष्टाचार मुक्त विश्व की स्थापना है। हमने दिल्ली से 49 दिन में भ्रष्टाचार खत्म कर दिया। जैसे ही यह काम पूरा हो गया हमने सरकार गिरा दी। लोकसभा चुनाव के बाद हम इससे दोगुने दिन में पूरे भारत से भ्रष्टाचार खत्म कर देंगे। यह काम पूरा होने पर हम सरकार गिरा देंगे उसके बाद पुरी दुनिया से में अपनी सरकार बनायेंगे और इससे दोगुने दिन में पूरी दुनिया से भ्रष्टाचार खत्म कर देंगे।

    चोर- पुलिस, मौसेरे भाई

    जब से यह खबर पढ़ी है कि लूटरे बैंक लूटने के बाद रूपयों से भरे बैग लेकर बस में बैठकर चले गये, तब से मेरा मन देश की पुलिस के प्रति श्रद्धा से भर गया है। कई वर्षों की मेहनत से ही पुलिस ने न केवल आम लोगों का बल्कि अपराधियों का भी विश्वास जीता है और इसीका नतीजा है कि लूटरे तसल्ली से बैंक लूटते हैं, आराम से बस आने का इंतजार करते हैं और इत्मीनान से बस में बैठकर चले जाते हैं। जब पुलिस पर इतना भरोसा है तो आटो- टैक्सी करने की झंझट क्यों उठायी जाये और क्यों ज्यादा भाड़ा खर्च किया जाये। वैसे भी आजकल पुलिस पर जितना विश्वास है, उतना आटोवालों पर नहीं है। क्या पता जो पैसा इतनी मेहनत से लूटा है, वह बाद में आटो वाले लूट लें।

    अपराधियों और पुलिस के बीच इसी तरह का सौहार्द्र एवं विश्वास बना रहा तो जल्द ही अपराधियों को लूटपाट के लिये कहीं जाने का कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा। उन्हें केवल पुलिस को फोन करना होगा, और पुलिस वाले ही बताये गये बैंक, दुकान या घर लूटकर अपराधियों के पास पैसे पहुंचा देंगे और हाथों-हाथ अपना कमीशन ले लेंगे। किसी महिला की इज्जत लूटनी होगी, तो पुलिस वाले महिला को अपराधियों के सामने हाजिर कर देंगे ताकि वे इत्मीनान से महिला की इज्जत लूट सकें और पुलिस बाद में कमीशन बतौर बची-खुची इज्जत लूटे ले।

    आजकल अक्सर पढ़ने को मिलता है कि जिस मकान में कोई नहीं होता है वहां लूटरे जाते हैं। इत्मीनान से खाना बनाते हैं, खाते हैं, एक-दो घंटे की नींद लेते हैं और समाना ट्रक पर लदवाकर ले जाते हैं। कई तो इतने भले होते हैं कि वे मकान में झाड़ू लगा देते हैं ताकि माकान मालिक को नये सामान रखवाने में आसानी हो। लोकतंत्र में इसी तरह का सहयोग एवं विष्वास अपेक्षित है जिसे और बढ़ाना चाहिये। अगर ऐसा होता रहा तब आने वाले दिनों में अपराधी किसी मालदार घर में घुसेंगे। सोफे पर विराजमान होने के बाद वहां की औरतों से मनपंसद का भोजन बनाने को कहेंगे और घर के पुरूषों और बच्चों को समान पैक करने को कहेंगे। जब तक उनके लिये खाना तैयार होगा और सामान पैक होगा तब तक वे आराम से टीवी आदि देखेंगे। जब तक वे खाना खायेंगे तब तक घर के लोग ट्रक पर सामान रखवायेंगे। इस दौरान अपराधी किसी बड़े षो रूम को फोन करके उस घर के लिये नये टेलीविजन, फ्रिज, वाशिंग मशीन आदि के आर्डर देंगे। वे नामी कंपनियों के महंगे सामान ही भेजने की ताकीद कर देंगे क्योंकि दो साल के बाद फिर से उन्हें ही ले जाना है। असल में आजकल लोगों को पुरानी चाीजों की आदत नहीं रही। मार्केट में रोज नये-नये ब्रांड आ रहे हैं और लोग पुरानी चीजों से जल्दी उब रहे हैं। इस कारण उन्हें लोगों के घरों से पुराने सामान उठाकर अपने घर में रखने पड़ते हैं। समाजसेवा की इसी भावना के कारण उनका घर पुराने सामनों का कबाड़ खाना बना हुआ है।

    पुलिस और अपराधियों में सहयोग एवं विश्वास इसी तरह से बढ़ता रहा तो तो आने वाले दिनों में किसी धनी व्यक्ति से फिरौती वसूलने के लिये उनके बेटे-बेटियों का अपहरण करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। केवल फोन करके बताना होगा कि किस जगह पर कितना पैसा पहुंचाना है। पैसा पहुंच जाने के बाद पुलिस मीडिया के सामने जी भर के दावे कर ले और अपनी पीठ थपथपा लें, उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। जो अपहर्ता बहुत अधिक नैतिकवान होंगे वे कह सकते हैं कि पैसे लाते समय बच्चे को भी लेते आयें और पैसे उनके पास रखकर बच्चे को साथ लेते जायें। नैतिक बने रहने के लिये इतना दिखावा चलेगा।

    जब इतना हमारे बीच आपस में इतना सहयोग और आपसी विष्वास है तो फालतू की कागजी कार्रवाइयों, दिखावटी गोलीबारी, लुका -छिपी और पकड़ा-पकड़ी के खेल करने की जरूरत क्या है। लूटे जाने वाले लोगों को पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने और पुलिस बुलाने की जहमत उठाने की जरूरत क्या है। जो काम होना ही है, वह शांति एवं सहयोग से हो जाये।

    लोकतंत्र में अपराधियों और पुलिस के बीच उसी तरह से पारस्परिक सहयोग एवं विश्वास जरूरी है जिस तरह से राजनीति में सत्ता और विपक्ष के बीच है। उन्हें नेताओं और मंत्रियों से सीख लेनी चाहिये कि वे किस तरह से एक दूसरे के काम करते हैं।