राजकपूर : सिनेमा का जन नायक
विनोद विप्लव
अनुक्रम
राजकपूर का बचपन
फिल्मी सफरनामा
जीवन साथी
राजकपूर की नायिकायें
जन नायक
संगीत की आत्मा
सपनों का सौदागर
शो मैन बनाम ट्रेजडी किंग
अंतर्राष्ट्रीय फिल्मकार
जीना यहां, मरना यहां
पुरस्कार एवं सम्मान
फिल्मों की सूची
राजकपूर का बचपन
पेशावर (अब पाकिस्तान में) में किस्सा ख्वानी के पास ढक्की मुन्नावर शाह में पृथ्वीराज कपूर और रमासरणी देवी के घर में 14 दिसंबर, 1924 को राजकपूर का जन्म हुआ था। जब रामषरणी कपूर अपनी पहली संतान के आने की प्रतिक्षा कर रही थी तब पृथ्वीराज कपूर ने पुत्र होने की भविश्यवाणी कर दी थी। उन्होंने होने वाले पुत्र के लिये रणबीर राज का नाम भी सोच रखा था और नाम की पर्ची बनाकर रामषरणी के तकिये के नीचे भी रख दी थी।
यह पंजाबी हिन्दू परिवार था। इस परिवार का वातावरण पूर्ण रूप से फिल्मों और थियेटर का था। रणवीर राज कपूर अपने छह भाई—बहनों में सबसे बड़े थे। उनके दोनों भाइयों की मौत कम उम्र में ही हो गयी थी। एक भाई रवीन्द्र थे, जिन्हें सब लोग प्यार से बिन्दू कहते थे। एक दिन जब पृथ्वीराज कपूर कहीं स्टुडियो षूटिंग में व्यस्त थे तब रवीन्द्र की तबियत खराब हो गई। उसने गलती से चूहों को मारने का जहर खा लिया था। उसकी मृत्यु हो गई। एक सप्ताह के भीतर ही निमोनिया के कारण दूसरे भाई देवेन्द्र की भी मृत्यु हो गई। उसके बाद राजकपूर भाइयों में अकेला रह गये। बाद में षम्मी कपूर और षषि कपूर का जन्म हुआ। उनकी बहन का नाम उर्मिला सियाल था।
राज कपूर गोरे और स्वस्थ गुलाबी गालों वाले खूबसूरत बच्चे थे। उनकी नीली आंखें थी जो षायद उनके परदादा से विरासत में मिली थी। उनके गाल इतने लाल थे कि उनकी मां गाल पर जमी धूल समझ कर गीले कपड़े से उन्हें पोंछती रहती थी। वह इतने सुंदर थे कि लड़कियां और महिलायें उन्हें चूमने लगती। पृथ्वीराज कपूर ने एक बार बताया था कि जब वह फिल्म ‘परदेसी' के फिल्मांकन हेतु सपत्नीक मॉस्को गये थे। वहां राजकपूर फिल्म महोत्सव में एक निर्णायक थे। महोत्सव में आयी रूसी लड़कियों ने राज कपूर को घेर लिया था। पृथ्वीराज कपूर जब पत्नी के आग्रह पर राजकपूर को लड़कियों की भीड़ से निकालकर लाये तो उनके गाल लाल हो गये थे। रामशरणी ने अपने पुत्र के गाल साफ किये और लिपस्टिक का रंग बाहर आ गया।
पृथ्वीराज कपूर 1929 में अपने परिवार के साथ पेषावर छोड़कर पहले कलकत्ता और फिर बम्बई आ गये थे। उस समय मूक फिल्मों का जमाना था। उन्होंने ‘आई ग्रांट एण्डरसन थियेटर' में नौकरी की जहां आरदेषिर ईरानी ने पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा' बनाई जिसमें पृथ्वीराज कपूर ने पहली बार अभिनय किया। उन्होंने बिना पगार के ही एक्स्ट्रा कलाकार के रूप में जिंदगी की षुरूआत की थी लेकिन चंद वर्शों में ही वह उच्च कोटि के सितारे बन गये।
कलकत्ता जाने से पूर्व पूरा परिवार लायलपुर में कुछ समय तक रहा। यही पृथ्वीराज कपूर का जन्म हुआ था। पृथ्वीराज कपूर के दादा तहसीलदार थे और गांव में उनकी बहुत साख थी। राजकपूर की बचपन की यादों में इस गांव की कई स्मृतियां शामिल हैं। लायलपुर में उनके तहसीलदार दादा कपास चुनवाने जाया करते थे और राजकपूर भी उनके साथ हो लेते थे। गर्मियों में एक दिन वह रास्ता भटक गये और थक—हार कर एक पेड़ की छांव में लेट गये। लेटे—लेटे उन्हें नींद आ गयी और शाम हो गयी। उनके शाम हो जाने पर भी घर नहीं लौटने पर घरवालों को चिंता होने लगी और उनकी खोज होने लगी। उन्हें उनका जमादार जो एक अस्पृष्य था, घर ले आया और बोला, ‘‘क्षमा करना, गोदी में उठाकर लाने के लिए मुझे छूना पड़ा।'' हाथ जोड़कर उसने माफी मांगी। स्नान कराए जाने के पष्चात् ही वह घर के भीतर आने दिया गया, क्योंकि उन्हें एक अस्पृष्य ने छू लिया था। हालांकि बाल राजकपूर इन सबके निहितार्थ को समझ नहीं सका था लेकिन यह बात उन्हें मन ही मन कटोचती रही।
कलकत्ता में उनका परिवार करीब आठ साल रहा। जब यह परिवार बम्बई लौटा तब राजकपूर 14 वर्श के हो गये थे। कलकत्ता में उनका परिवार घाट के निकट हाजरा रोड पर रहता था जहां से कुछ दूरी पर ही न्यू थियेटर्स था। राजकपूर वहां सैंट जेवियर्स स्कूल में पढ़ते थे।
राजकपूर गोरे और सुंदर तो थे ही बचपन से ही मोटे भी थे। पास—पड़ोस में सब लोग उन्हें ‘पृथ्वी छैले' कह कर पुकारते थे और उन्हें बड़ा लाड़—प्यार करते थे। उनके पिताजी जब थियेटर में काम करने जाते थे तब वह भी साथ जाते थे। वह इतने सुंदर थे कि मंच पर काम करने वाली अभिनेत्रियां उन्हें खूब दुलारती थी। पड़ोस की षादियों, दुर्गा पूजा के पंडालों, स्थानीय संगीत सभाओं सब में उन्हें जरूर लाया जाता था।
स्कूली जीवन में ही उन्हें अभिनय का शौक लग गया था। एक महान अभिनेता के पुत्र होने के नाते उनमें भी अभिनय कौशल विकसित हो गया। एक बार स्कूल में ‘पेंषन' नाटक खेला गया। सबसे बड़ी बात जो राजकपूर ने बताया था कि इस नाटक में हिस्सा लेने वाले प्रत्येक अभिनेता को सैंडविच, समोसा और आइसक्रीम और सभी प्रकार के सुस्वादु व्यंजन खाने के लिए तीन—तीन कूपन दिए गए। उन्हें फादर द्वारा पहनने वाला चोगा दिया गया जो उनकी नाप से थोड़ा बड़ा था। नाटक में उन्हें होसाना, होसाना, होसाना चिल्लाते हुए एक या दो बार ईसा मसीह के पीछे जाना था। उन्होंने दो बार यह किया और अति उत्साह में तीसरी बार भी मंच पर आ गये, जबकि उन्हें ऐसा नहीं करना था। मंच पर आते ही लबादे में पांव फंसने के कारण ईसा की उदास मूर्ति के सामने गिर पडे़ और लोग हंसने लगे। ईसा मसीह का बुत बना कलाकार भी हंसने लगा। पर्दा गिरते ही नाटक निर्देषक ने उनकी गर्दन पकड़ ली और थप्पड़ लगाते हुए कहा, ‘‘तुम अभिनेता हो? मेरी समझ में तुम गधे हो। बाहर निकलो और फिर कभी वापस नहीं आना।'' उनके कूपन छीन लिए गए और वह सैंडविच, आईसक्रीम, केक और समोसे खाने से बंचित हो गये। इसका मलाल उन्हें बर्षों तक रहा।
बचपन में मोटू होने के कारण वह हर तरह के मजाक का विशय बन जाते थे। उन्हें लगता था कि चिढ़ने वालों को लोग ज्यादा चिढ़ाते हैं। इसलिए उन्होंने एक जोकर का मुखौटा ओढ़ लिया और दिखावा करने लगे कि मजाक उड़ाए जाने पर उन्हें भी बहुत मजा आता है। इतना ही नहीं उन्हाेंेने खुद अपने मजाक गढ़ लिए ताकि वह अपने साथियों को हंसा सके। दरअसल वह और बच्चों की तरह दूसरों का प्यार, ध्यान और आदर पाना चाहते थे। वह सब का लाडला बनना चाहते थे। उनमें बचपन से ही प्यार पाने की घोर चाहत थी। वह बचपन से ही प्यार में पड़ते गये—बार—बार। उनमें प्यार करने और पाने की असीमित क्षमता विकसित हो गयी।
स्कूली नाटकों के जरिये वह लोगों के आकर्षण के केन्द्र में रहने लगे। उनके स्कूली नाटकों को लोग खूब पंसद करते थे। राजकपूर स्कूली नाटकों का इस्तेमाल अपने को लोगों, खास तौर पर लड़कियों और महिलाओं की पसंद का केन्द्र में बनाये रखे के लिये करने लगे। राजकपूर ने देखा कि स्कूली नाटकों के बीच में उबाउ प्रसंगों में दर्षक बेचैन हो उठते थे। ऐसे समय अक्सर वह सहज भाव से मुख्य प्रसंग से सर्वथा भिन्न कुछ हास्यास्पद कर दिया करते थे और तुरंत प्रथम पंक्ति में बैठे दर्षकों की हंसी फूट पड़ती। इसके बाद वह और ज्यादा मजाकिया भावभंगिमा करते और हंसी खुले ठहाकों में बदल जाती और आगे से पीछे तक दर्षकों की सभी पंक्तियों में फैल जाती। इस प्रकार वह ‘दृष्य चुराने' की कला सीख गये। वह अपने जीवन में ऐसे अनुभवों एवं प्रसंगों को संजोते गये जो अनेक वर्श बाद उनके फिल्मी जीवन में काम आए।
राजकपूर के बचपन से ही उनके पिता पृथ्वीराज कपूर प्रमुख प्रेरणा स्रोत रहे। उनके पिताजी महान कलाकार थे और उन्हें मानव चरित्र की गहरी पहचान थी। पिता होते हुए भी अपने पुत्रों के साथ दोस्त जैसा व्यवहार करते थे और इस मित्रवत भूमिका का आनंद लेते थे। जब राजकपूर बहुत छोटे थे, तब उन्होंने राजकपूर को एम.जी.एम. निर्मित एन.डी. हार्डी की फिल्म ‘मैन टू मैन' दिखाई। इस फिल्म के कलाकार थे मिकी रूनी और लुई स्टोन जिन्होंने बाप—बेटे की भूमिकाएं की थी। पिता और पुत्र दोनों एक दूसरे को बराबरी का दर्जा देते थे। बाद में एक बार उनके पापाजी एक प्रतिनिधि मंडल के सदस्य बनकर सुमात्रा और बाली गये थे जहां से वह राजकपूर केे लिए एक कलात्मक नग्न पेंटिंग लाए थे और साथ में पत्र लिखा था ‘‘अफसोस मैं जीती जागती न ला सका!'' आज भी यह चित्र उनकी कॉटेज में लगा है।
जैसे बच्चों की कहानी में मेमना मैरी के पीछे घूमता था, वैसे ही राजकपूर ने हमेषा अपने पिता का अनुसरण किया। राजकपूर अपने पिता का इतना आदर करते थे कि उनके सामने कभी सिगरेट या शराब का सेवन नहीं किया। बचपन से ही राजकपूर पर पिता के भव्य व्यक्तित्व का दबदबा रहा। उन्होंने अपने पिता को ही सदैव अपना आदर्श माना। हर फिल्म के आरंभ में ईश्वर से आशीर्वाद लेने के बाद पिता का आशीर्वाद लेते रहे। उनके पिताजी ने उन्हें सिखाया कि महानतम कलाकार वह है जो अपने काम को अपना जीवन समझे और जो अपनी नम्रता और कोमलता से दूसरों का प्यार पा सके। अगर तुम सबसे चहेते कलाकार बन सको तो तुमसे महान कोई कलाकार नहीं। राजकपूर ने अपने को अपने पिताजी के साये में षिक्षित और संस्कारित करना षुरू किया। उनके पिता ने ही नाटकों और रंगमंच से राजकपूर की पहचान कराई। रंगमंच से ही राजकपूर ने रजतपट की ओर प्रवेष किया।
राजकपूर की यादों में कलकत्ता के बचपन के वे दिन भी शामिल हैं जब पिताजी उन्हें तैराना सीखाते थे। पृथ्वीराज कपूर तैरने के षौकीन थे। एक दिन वह राजकपूर को उस झील के किनारे ले गये जहां वह प्रायः तैरा करते थे। वह अपने बेटे को गोद में उठाकर पानी में ले गये और सीने तक गहरे पानी में छोड़ दिया। किनारे पर खड़ी राजकपूर की मां जोर से चिल्लाने लगी कि इस तरह तुम मेरे बेटे को मार दोगे। परन्तु पृथ्वीराज षांत और अविचलित रहे और अपने पुत्र को चारों ओर हाथ—पैर मारते देखते रहे। कुछ दिनों में उन्होंने तैरना सीख लिया। पृथ्वीराज का सीखाने का यही अंदाज था जिसे उन्होंने अपने सभी बच्चों के साथ अपनाया।
राज कपूर एक अच्छे छात्र थे। वह अंग्रेजी में प्रथम आते थे। वह स्कूल में अभिनय, स्कूली नाटकों के निर्देषन और भाषण देने में अव्वल आते थे और इनाम जीतते रहे थे। हालांकि गणित और लैटिन में कमजोर थे और इस कारण वह मैट्रिक नहीं कर सके।
राजकपूर को बचपन में दुनिया भर की सुविधायें मिल सकती थी लेकिन पृथ्वीराज कपूर ने राजकपूर को वहीं सुविधायें दी जो सामान्य बच्चों को मिलनी चाहिये। वह अन्य सामान्य छात्रों के समान ट्राम से स्कूल जाते थे। बरसात के एक दिन रामशरणी कपूर ने अपने पति से बेटे को पारिवारिक कार से स्कूल भेजने का आग्रह किया। पृथ्वीराज कपूर ने अपनी पत्नी से कहा — ‘‘तुम जानती हो, प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ अनमोल अनुभव आते हैं। बरसात की झड़ी में गलियों में घूमने की भी अपनी एक उत्तेजना एवं मजा है। लेकिन आज बारिष जोर से हो रही है और स्कूल को देर भी हो रही है अतः उसे कार ले जाने दो।'' राजकपूर उनकी बात सुन रहे थे और उन्होंने कहा, ‘‘नहीं श्रीमान्, मैं ट्राम से चला जाउंगा।'' बालकनी से उसे जाते देखकर पृथ्वीराज कपूर ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘कार के विशय में चिंता मत करो। तुम्हारे बेटे ने अभी—अभी अपने लिए पिता की वर्तमान या भविश्य की संभावित गाड़ियों से षानदार अनेक गाड़ियां सुरक्षित कर ली है।''
राज कपूर बड़ी निश्ठा से अपने माता—पिता के पैर छुआ करते थे। यह एक ऐसी आदत थी जो वे कहीं भी और कभी भी नहीं भूले। पृथ्वीराज कपूर कहते थे, ‘‘आज लोग कहते हैं कि राज कपूर पृथ्वीराज का बेटा है परन्तु एक समय आयेगा जब लोग कहेंगे कि वह पृथ्वीराज जा रहे हैं जो राज कपूर के पिता हैं। वह दिन मेरे जीवन का सबसे बड़ा दिन होगा।''
फिल्मी सफरनामा
राजकपूर अपने पिता की तरह फिल्मों में अपना मुकाम बनाने के सपने पाल रखे थे। जब मैट्रिक में फेल हो गये तब एक दिन हिम्मत बांध कर वह अपने पिताजी से फिल्मों में काम करने की अनुमति मांगने गयेे। राजकपूर ने कहा, ‘'मैं अपनी पढ़ाई जारी रख सकता हूं। पर मैं वहां ढंग से कपड़े पहनना मात्र सीखूंगा और षायद एक उपाधि मिल जाएगी, जिसके बाद एक बार फिर मैं आपसे नौकरी दिलाने को कहने आउंगा। इससे अच्छा है कि मैं फिल्मों में काम करूं।''
पृथ्वीराज कपूर ने तीन सौ रुपये देकर कहा कि तुम लाहौर, षेखपुरा, समुंदरी और देहरादून जाकर परिवार के सभी लोगों से मिल कर आओ। यदि लौट कर भी तुम्हारी फिल्मों में कार्य करने की इच्छा कायम रही तो मैं तुम्हारी सहायता करूंगा।''
राजकपूर पर तो फिल्मों में ही काम करने का धुन सवार था। वापस आकर उन्होंने फिल्मों में काम करने की इच्छा दुहराई। पृथ्वीराज कपूर ने चंदूलाल षाह से बात कर उन्हें रणजीत स्टूडियो में काम दिला दिया। उनके सामने दो षर्तें रखी थी — पहली शर्त यह थी कि उन्हें वेतन नहीं दिया जायेगा और दूसरी शर्त थी कि उन्हें पृथ्वीराज का पुत्र नहीं बल्कि अन्य कर्मचारियों के बराबर ही समझा जायेगा।
पृथ्वीराज कपूर ने घर पर उनका जेब खर्च पंद्रह रुपये से बढ़ाकर तीस रुपये कर दिया। उन्होंने राजकपूर को सलाह दी कि वह सफेद षर्ट—पैंट सिलवा लें। हर सुबह पहनी एकदम सफेद षर्ट को हर षाम स्टूडियो की लाल धूल से धूसरित और मैली कर लौटो।''
राज कपूर को घर से दोपहर का खाना भी भेजे जाने की इजाजत नहीं दी। अगर राजकपूर चाहें तो घर से खाना अपने साथ ले जा सकते थे और चाहे तो अपने जेबखर्च के रुपयों से स्टूडियो के पास रेस्तरां में खा सकते थे।
रणजीत स्टूडियो में राजकपूर ने करीब एक साल तक काम किया और काम के दौरान ही उन्हें नीलकमल में अभिनय करने का मौका मिला। यह किसी फिल्म में नायक के रूप में उनका पहला अभिनय था। हालांकि इससे पहले भी राजकपूर ने कैमरे का सामना किया था। पूर्व में वह अपने पिता द्वारा अभिनीत ‘गौरी' में वह पहले ही छोटा—सा दृष्य कर चुके थे, जो उनकी पहली भूमिका थी, इसके अलावा कलकत्ता में विख्यात फिल्म निर्माता देवकी बसु की ‘आफ्टर द अर्थक्वेक' में बालक राज कपूर को एक छोटी—सी भूमिका में पर्दे पर ला चुके थे।
रणजीत में एक वर्श काम करने के बाद अभिनय और निर्माण विभागों के विज्ञापन के जरिये राज को बॉम्बे टॉकीज में काम मिल गया। राज यहां सवैतनिक कर्मचारी के तौर पर काम करते थे। राज अपने स्वाभाविक उत्साह के साथ काम में जुट गये। बॉम्बे टाकीज में अत्ंयत कड़ा अनुशासन था। यहीं उनकी दिलीप कुमार से दोस्ती हुयी और दोनों ने बॉम्बे टाकीज की संचालिका देविका रानी से छिपकर कई फिल्में देखी। लेकिन बॉम्बे टाकीज में कुछ समय काम करने के बाद भी अभिनय के नाम पर मात्र एक या दो संक्षिप्त—सी भूमिका ही मिल पाने के कारण वह कुछ निराष हो गये। उन्होंने अपने पिता से पृथ्वी थियेटर में काम की अनुमति मांगी। उन्हें इसकी अनुमति मिल गयी और राज कपूर ने यहां सभी विभागों में सहायक का काम किया। प्रोत्साहन के लिए उनका वेतन बॉम्बे टॉकीज से एक रुपया बढ़ाकर 201 रुपये तय किया गया।
राजकपूर पृथ्वी थियेटर में अपने पिता की देखरेख में सेट की प्रकाष व्यवस्था से लकर कला निर्देषन तक के छोटे—बड़े सभी प्रकार के काम करते थे। वह सेट पर झाडू देने से लेकर फर्नीचर सेट के हिस्सों को इधर—उधर उठाते और सरकाते थे। उन्होंने पृथ्वी थियेटर में फिल्म निर्माण के हर काम को सीखा। उसी दौरान उन्हें नाटक ‘दीवार' में रामू नामक सेवक की छोटी सी भूमिका करने को कहा गया। दस वर्श फिल्म उद्योग में बिताने के बाद उन्हें इस नाटक में एक अभिनेता के तौर पर काम करने का मौका मिला।
उन्होंने सिर्फ 23 वर्श की उम्र में अपनी पहली फिल्म आग (1948) बनायी। ठीक एक वर्श बाद उन्होंने बरसात बनाई और सिर्फ 24 वर्श की आयु में राजकपूर का सिक्का बाजार में तेजी से चल पड़ा।
नीलकमल (1947)
राजकपूर जब ‘रणजीत स्टूडियो में केदार षर्मा की यूनिट में क्लैपर बॉय के रूप में काम करते थे। उनका काम था — हर षॉट के पहले क्लैपर बोर्ड दिखाना। कैमरा मैन से उनकी अच्छी दोस्ती हो गई थी और वह हर षॉट के पहले क्लैपर बोर्ड के साथ राजकपूर का क्लोज—अप लेने और बाद में वह फोटो उन्हें देने लगा। फिल्म विषकन्या की शूटिंग के दौरान उन्होंने अपने बालों में अच्छी तरह कंघी कर चेहरे को क्लैपर पट्टी से भिड़ाया। इस बार अभिनेता की दाढ़ी क्लैपर पट्टी के बीच फंस गई। दाढ़ी का लंबा हिस्सा हवा के जोर से आगे आ गया था। सारे कर्मचारी जोर से हंसने लगे किंतु किदार षर्मा बहुत क्रोधित हो गए और राजकपूर के चेहरे पर एक थप्पड़ जड़ दिया। राजकपूर अवाक् रह गये। थप्पड़ जोर से लगा था लेकिन उन्होंने एक षब्द भी नहीं कहा। वह चुपचाप सेट से बाहर चले गये।
अगले दिन किदार शर्मा ने राजकपूर को अपने पास बुलाया और उन्होंने अपनी नई फिल्म नीलकमल के लिए राजकपूर को साइन कर लिया। यह सन् 1944 की बात थी। बाद में किदार शर्मा ने राजकपूर को बताया कि, ‘‘तुम्हारी आंखों में जो गहराई और दर्द उभरा था उसने मुझे बहुत प्रभावित किया।''
राजकपूर ने इस फिल्म में पहली बार नायक की भूमिका की। यह फिल्म 1947 में रिलीज हुयी थी। इसमें राजकपूर के साथ मधुबाला भी थी और यह मधुबाला की भी पहली फिल्म थी। हालांकि यह फिल्म असफल हो गई लेकिन नीलकमल का विशेष महत्व इसलिये है क्योंकि यह नायक और नायिका के रूप में राजकपूर और मधुबाला की पहली फिल्म थी। दो बहनों और एक मूर्तिकार के दुखांत प्रेम की यह मधुर कथा निर्देशक किदार शर्मा ने कुशलतापूर्वक गढ़ी थी। एक विरल काव्यात्मक प्रवाह उनकी हर फिल्म में दिखलाई देता है। फिल्म का नामकरण ‘‘नीलकमल'' इसलिए किया गया था क्योंकि नायिका जहां आत्महत्या करती है वहीं तालाब में नीलकमल खिल जाता है। इसकी कथा, पटकथा और गीत भी स्वयं किदार शर्मा ने ही लिखे थे और संगीतकार थे डी. वासुदेव।
आग (1948)
नीलकमल के 1947 में रिलीज होने के एक साल बाद सन् 1948 में 24 साल की उम्र में ही उन्होंने अपनी स्टुडियो, आर.के. फिल्म्स की स्थापना कर ली और उस समय के सबसे कम उम्र के निर्देशक बन गये। सन् 1948 में उन्होंने पहली बार फिल्म आग का निर्माण और निर्देशन किया और वह अपने समय की सफलतम फिल्म रही।
आग जब रिलीज हुयी तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि इस फिल्म के साथ भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े शो मैन का पदार्पण हो रहा है। इस फिल्म का कथानक, फिल्मांकन और स्वरूप अपने समय की प्रचलित प्रद्धति से अलग थी। यह अभी—अभी आजादी पाने वाले नौजवानों के ख्वाहिशों की कहानी थी जो अपनी जिंदगी को परम्परागत ढर्रे से अलग हटकर जीना चाहते हैं। यह उजले और गहन जीवन के लिए तड़पते युवा की कहानी है। यह कहानी उन अनुभवों के बारे में थी जो परछाइयों की मानिद राजकपूर के जीवन से गुजरे थे — जिन्होंने कुछ दिया, तो कुछ छीना भी।
यह फिल्म राजकपूर की विराट ख्वाहिशों का भी परिचय देती है। इस फिल्म के निर्माण के दौरान राजकपूर को कई तरह की कठिनाइयों से गुजरना पड़ा। इसके लिये बड़ी मुश्किल से धन जुटाया जा सका। फिल्म के मुहूर्त से लेकर प्रदर्षन तक हर जगह मुश्किलें आयी। एक ऐसा समय आया जब राजकपूर को अपनी कार भी गिरवी रखनी पड़ी। यहां तक कि अपनी यूनिट को चाय पिलाने के लिए परिवार के सेवक द्वारका से पैसे उधार लेने पड़े।
राजकपूर ने फिल्म निर्माण के दौरान अपनी मांं को पिताजी को एक पंजाबी मुहावरा सुनाते हुये सुना था — ‘‘थूक में पकोड़े नहीं तले जा सकते।'' उनका कहने का आशय यह था कि धन के बिना फिल्म नहीं बन सकती। इस बात पर उनके पिताजी ने कहा, ‘‘प्रतीक्षा करो और देखो। मेरा बेटा फिल्म जरूर बनाएगा। उसके पास आत्मविष्वास और आस्था है।'' पिताजी के इस बात ने राजकपूर को हिम्मत दी और वह पूरे जोश से फिल्म को पूरा करने में जुट गये।
आग के निर्माण के दौरान ऐसा भी समय आया जब राजकपूर को अपनी अधूरी बनी फिल्म के लिए वितरकों की तलाष में, दफ्तर दर दफ्तर भटकना पड़ा और उन्होंने निराषा के दौर में एक दिन वितरकों के छोटे समूह को अपनी अधबनी फिल्म का ‘षोज' दिखाया। वितरकाें में से एक वितरक उब कर सो ही गए। उन्हें ‘षोज' देखना वैसे भी पसंद नहीं था। उन्होंने कहा, ‘‘मैं फिल्म पर दांव नहीं लगाता, मैं निर्देषक पर भरोसा करता हूं।'' एक अन्य वितरक ने कहा, ‘‘यह फिल्म किसी भी वितरण क्षेत्र में सफल नहीं हो सकती।'' सिर्फ एक वितरक ऐसे थे जिन्होंने कहा, ‘‘फिल्म चले या नहीं चले मैं इसे किसी भी कीमत पर खरीदूंगा। उस वितरक ने चांदी का एक रुपया राजकपूर की हथेली पर रख दिया और गर्मजोषी से हाथ मिलाकर सौदा पक्का किया।
राजकपूर ने उस वितरक का एहसान जीवन भर माना और अपनी सभी फिल्में उसी वितरक को दी जिसने सबसे पहले एक अनजान युवा की प्रतिभा पर भरोसा करने का साहस दिखाया।
पाई—पाई जोड़कर बनायी गयी इस फिल्म में उस समय की तीन प्रसिद्ध नायिकाओं — नरगिस, कामिनी कौशल और निगार सुल्तान को लिया गया। इन नायिकाओं ने जो हैसियत एवं लोकप्रियता हासिल की थी उसके आगे नौजवान राजकपूर की कोई हस्ती नहीं थी। राजकपूर ने आग और अंदाज दोनों फिल्मों में नरगिस को एक आधुनिक युवती के रूप में पेष किया। यह कोई आंदोलन के रूप में प्रस्तुति नहीं थी वरन् वास्तविक जीवन में नरगिस वैसी ही थी। वह उन कतिपय अभिनेत्रियों में से थी जो कान्वेंट षिक्षित थीं। वह कॉलेज आने वाली एक लड़की थी और यदि फिल्माें ने उन्हें अपनी ओर नहीं खींच लिया होता तो वह उस समय भी कॉलेज में पढ़ रही होतीं। सच पूछा जाये तो आग और अंदाज की उनकी भूमिकाएं उनके वास्तविक जीवन के एकदम निकट थी। एक प्रकार से नरगिस अपनी पीढ़ी की युवतियों का साकार और प्रतिनिधि रूप थीं।
फिल्म के अन्य कलाकार थे — कमल कपूर, विजय मेहरा, बी.एस. व्यास और शशिकपूर, जिन्होंने राजकपूर के बचपन की भूमिका निभायी। फिल्म के लेखक थे इंदरराज आनंद और छायाकार थे बी.एन. रेड्डी। संगीत पृथ्वी थियेटर के स्थायी संगीतकार राम गांगुली ने तैयार किया था। गीत लिखे थे सरस्वती कुमार दीपक, वहजाद लखनवी और मजरूह सुल्तानपुरी ने।
इस फिल्म में केवल निर्माता, निर्देशक और अभिनेता राजकपूर ही नये थे जबकि बाकी लोग अपने—अपने क्षेत्र में स्थापित और सफल थे। इस फिल्म के गीत काफी लोकप्रिय हुये। मुकेश का गाया गीत — ‘जिंदा हूं इस तरह के गमे जिंदगी नहीं' आज भी लोगों के दिलों पर राज करता है। इस फिल्म का प्रभाव राजकपूर की अगली कुछ फिल्मों — सत्यम शिवम् सुंदरम और मेरा नाम जोकर पर भी देखा जा सकता है।
आग की कहानी उनके पिता पृथ्वीराज के अनुभवों से प्रेरित थी जो अपने पिता की बैरिस्टर बनाने की इच्छा का विरोध कर अभिनेता बनना चाहते थे। इस कहानी ने बहुत से लोगों के हृदय को छुआ। फिल्म उन दिनों में सोलह हफ्ते चली। यह एक सर्वथा भिन्न प्रकार की फिल्म थी जिसने फिल्म जगत में एक धमाका कर दिया।
आग के प्रणय दृष्यों में एक सीधी अपील है और इनसे एक सजीव व नई किस्म की परम्परा प्रारंभ हुई। मुड़कर देखने पर इसका राज समझ में आता है। उन दृष्यों में सच्चाई और आस्था की षक्ति थी। उनमें अभिव्यक्ति की एक नई आग थी। जीवन के उस मूक चरण—यौवन— की संचित आषा—आकांक्षाओं की तड़प का मार्मिक चित्रांकन था।
अंदाज (1949)
फिल्म का निर्माण और निर्देशन राजकपूर ने नहीं किया था लेकिन यह फिल्म न केवल राजकूपर और दिलीप कुमार के कैरियर की बल्कि भारतीय सिनेमा की महत्वपूर्ण फिल्मों में गिनी जाती है। हिन्दी सिनेमा के स्वर्ण युग की महत्वपूर्ण फिल्म मानी जाने वाली अंदाज 21 मार्च, 1949 को बम्बई के लिबर्टी सिनेमा घर में रिलीज हुयी थी। यह उस समय की सबसे आधुनिक फिल्म थी। सन् 1949 में महबूब खान ने मेला और षहीद के जरिये फिल्मी दुनिया में स्थापित हो चुके दिलीप कुमार को पहली बार फिल्म अंदाज के जरिये राज कपूर और नरगिस के साथ काम करने का मौका दिया और अंदाज को आषातीत सफलता मिली और दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के ट्रेजेडी किंग के नाम से जाने जाने लगे। इस फिल्म के बाद पहली बार मोहम्मद रफी को राजकपूर की आवाज के रूप में और मुकेष को दिलीप कुमार की आवाज के रूप में इस्तेमाल किया गया। अंदाज ने फिल्म निर्माण की धारा ही बदल दी। फिल्म अंदाज के बाद बरसों प्रेम त्रिकोण पर आधारित फिल्में बनती रहीं, जिसकी चरम परिणति राज कपूर की ‘संगम' फिल्म में हुई। आज भी इस विशय पर फिल्में बनती रहती हैं। इस फिल्म में पहली बार दिलीप कुमार ने एंटी हीरो की भूमिका निभाई। इस फिल्म की कहानी को आधार बनाकर षाहरूख खान अभिनीति डर फिल्म बनी जो सुपर हिट रही।
अंदाज में दिलीप (दिलीप कुमार) धनी एवं आजाद ख्याल वाली नीना (नरगिस) को घोड़े पर से गिरने से बचाते हैं और इसके साथ ही दोनों मे दोस्ती हो जाती है। दिलीप कुमार नरगिस पर फिदा हो जाते हैं, तभी राजेन (राज कपूर) की एंट्री होती है। राज कपूर और नरगिस पहले से एक—दूसरे से मुहब्बत करते हैं। उस दौर के नजरिए से इसे एक बोल्ड फिल्म कहा जा सकता है, क्योंकि चालीस के दषक में दर्षक किसी एक हिंदुस्तानी औरत की जिंदगी में एक साथ दो पुरुशों की मौजूदगी को स्वीकार करने के लिए मानसिक और सामाजिक रूप से तैयार नहीं थे। इसके बावजूद बेहतरीन तकनीक, यादगार संगीत और षानदार अदाकारी के दम पर यह फिल्म कामयाब रही।
जब महबूब खान ने अंदाज बनाने के बारे में सोचा तब भारत में फिल्म उद्योग बदलाव के दौर से गुजर रहा था। पुराने स्टार पर्दे से धीरे—धीरे गायब हो रहे थे जबकि नये चेहरे अपनी पहचान बना रहे थे। नयी तकनीकों का इस्तेमाल हो रहा था और फिल्मों की कहानियां भी बदल रही थी। नयी फिल्म के लिये महबूब की कहानी और पटकथा तैयार थी और वह इसे हालीवुड की परम्पराओं के अनुसार पेष करना चाहते थे। महबूब इस फिल्म के लिये नये चेहरों को लेना चाहते थे, लेकिन ऐसे भी नहीं कि अनुभवहीन हों। उन्होंने नरगिस को इस फिल्म के लिये इस लिये साइन किया क्योंकि उन्होंने ही नरगिस को फिल्म तकदीर में पहला मौका दिया था और अब वह सफल स्टार बन चुकी थी। नरगिस ने राजकूपर को फिल्म में रखने का सुझाव दिया, जिनके साथ वह फिल्म आग में काम कर चुकी थी। दिलीप कुमार को इस फिल्म में रखने का सुझाव संगीतकार नौषाद ने दिया जो मेला में काम करने के दौरान उनसे बहुत प्रभावित हो चुके थे।
मुंबई के लिबर्टी सिनेमा घर में अंदाज ने 28 सप्ताह के दौरान सात लाख रुपये की कमाई की जो कि एक रेकार्ड था। यह फिल्म क्लासिक फिल्म का दर्जा पा गयी और यह फिल्म संकट से जूझ रहे महबूब एवं उनके कलाकारों के लिये वरदान साबित हुयी।
बरसात (1950)
आग के निर्माण के बाद उनकी महत्वपूर्ण फिल्म बरसात थी जो 1949 में रिलीज हुयी और यह उनकी पहली व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म थी। आर.के. फिल्म्स का प्रतीक चिन्ह भी बरसात के एक स्थिर चित्र से जन्मा है। यह बहुत खूबसूरत स्थिर चित्र था। एक आदमी वायलिन बजा रहा है और एक औरत उसकी दूसरी बांह पर झूल रही है : एक हाथ में वायलिन अर्थात् संगीत और दूसरे हाथ में औरत अर्थात सौंदर्य। संगीत और सौंदर्य की यह गरिमा सृजन का प्रतीक बन सकती थी और इसलिए उन्होंने उस स्थिर चित्र को आर.के. के प्रतीक चिन्ह के रूप में चुना।
आग के विपरीत बरसात में योगदान देने वाले अधिकांष लोग नये थे। स्वयं राजकपूर को सिर्फ एक फिल्म का अनुभव था। संगीतकार षंकर जयकिषन की पहली फिल्म थी, षैलेन्द्र और हसरत ने पहली बार गीत लिखे थे, रामानंद सागर ने पहली बार राजकपूर के लिए पटकथा लिखी थी और निम्मी भी बिल्कुल नयी थी। बरसात ही राजकपूर की उन पहली फिल्मों में से थी जिसमें लता ने पहली बार राजकपूर के लिए गाया।
राज कपूर और नरगिस के परस्पर आकर्शण को महसूस करते हुए नरगिस की मां जद्दनबाई ने अपनी बेटी को बरसात की षूटिंग के लिए कष्मीर नहीं जाने दिया। राज कपूर को समझौता करते हुए सारे महत्वपूर्ण दृष्य महाबलेष्वर में षूट करने पड़े। आग की तरह बरसात का विशयवस्तु भी यौवन और प्रेम था। इसका प्रणय दृष्य आधुनिक भारतीय रजतपट का आज तक का सबसे रोमांटिक दृष्य माना जाता है। भावना की तीव्रता हिंसा की सीमा रेखा को छूती सी प्रतीत होती है पर वह चोट नहीं पहुंचाती है, न ही गत्यावरोध करती है क्याेंकि भावना की गहराई और षुचिता के कारण यह प्रेम दैहिक सीमा को पार कर अतीन्द्रिय आयाम को छू लेता है।
फिल्म में राजकपूर के अलावा नरगिस, प्रेमनाथ, के.एन. सिंह, निम्मी और कुकू ने भूमिका निभायी थी। यह फिल्म 21 अप्रैल, 1949 को रिलीज हुयी थी।
इस फिल्म की सफलता की बदौलत राजकपूर ने 1950 में आर.के. स्टूडियो को खरीदा। यह फिल्म दो प्रेम कथाओं पर बुनी हुयी है। एक प्रेम कथा प्राण (राजकपूर) और रेशमा (नरगिस) के बीच की है तथा दूसरी प्रेम कथा गोपाल (प्रेमनाथ) और नीला (निम्मी) के बीच की है। प्राण और गोपाल दोस्त हैं लेकिन दोनों के स्वभाव एवं व्यक्तित्व बिल्कुल अलग हैं। प्राण अमीर एवं संवेदनशील हैं।
आवारा (1951)
बरसात की सफलता के बाद राजकपूर ने दूसरी सफल फिल्म आवारा का निर्माण और निर्देशन किया। सन 1951 में रिलीज हुयी इस फिल्म ने राजकपूर को एक महान फिल्मकार के रूप में स्थापित किया और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलायी। हिंदी सिनेमा की उत्कृष्टतम फिल्मों में शुमार की जाने वाली यह फिल्म न केवल भारत में बल्कि सोवियत संघ, पूर्वी एशिया, अफ्रीका और पश्चिम एशिया में सफल रही। पूरे भारतीय महाद्धीप में इस फिल्म का गीत ‘‘आवारा हूं'' लोगों के दिलों पर छा गया। शैलेन्द्र का लिखा और मुकेश का गाया यह गीत सोवियत संघ, चीन, तुर्की, अफगानिस्तान और रोमानिया में भी बजने लगा। इस फिल्म को 1953 में केन्स फिल्म महोत्सव में ग्रांड प्राइज के लिये नामांकित किया गया। यह फिल्म अब तक की सर्वाधिक सफलतम फिल्मों में शुमार की जाती है।
यह पहली फिल्म थी जिसका फिल्मांकन अर्द्धनिर्मित आर.के. स्टूडियोज में हुआ। फिल्म बरसात ने जो धन वर्षा की उसकी बदौलत इस स्टूडियो का निर्माण शुरू हुआ और आवारा की सफलता की बदौलत यह स्टूडियो परिपूर्ण हुआ।
आवारा में राजकपूर के अलावा उनके पिता पृथ्वीराज कपूर ने भी अभिनय किया। फिल्म में राजकपूर के दादा विशेशर नाथ कपूर ने भी जज की छोटी सी भूमिका की। राजकपूर के बचपन की भूमिका शशि कपूर ने निभायी। इस फिल्म की अभिनेत्री की भूमिका में नरगिस ने फिल्म में जान डाल दी। वैसे तो आवारा नायक प्रधान फिल्म मानी जाती है लेकिन इसकी भावनात्मक केन्द्रबिन्दू नायिका है जो नायक को निराशा से उबारने वाली प्रेरणा है। फिल्म में लीला चिटनिस और के.एन. सिंह ने भी भूमिका निभायी।
इस फिल्म के साथ ही राजकपूर और पटकथा लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास के बीच दोस्ती की शुरूआत हुयी। दरअसल अब्बास की इस पटकथा पर महबूब खान फिल्म बनाने वाले थे। फिल्म में बेटे की भूमिका में दिलीप कुमार और पिता की भूमिका में अशोक कुमार को लेना चाहते थे लेकिन अब्बास चाहते थे बेटे की भूमिका में राजकपूर हाेंं और पिता की भूमिका में पृथ्वीराज कपूर। इस मतभेद के कारण अब्बास ने यह पटकथा महबूब खान से वापस ले ली और आखिरकार राजकपूर ने इस कथा के आधार पर आवारा का सृजन किया। पटकथा को तैयार करने में बी.पी. साठे ने भी सहयोग किया। इस फिल्म के साथ ही राजकपूर के साथ शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी गीतकार के तौर पर स्थायी तौर पर जुड़ गये।
आवारा का संगीत इतना सफल रहा कि शंकर—जयकिशन प्रमुख संगीत निर्देशक के रूप में स्थापित हो गये। इस फिल्म के गीतों को बालीवुड के 100 सबसे अधिक लोकप्रिय गीतों में शुमार दिया जाता है। आवारा के गीत खास कर ‘‘आवारा हूं'' एक समय युवा वर्ग के लिये उनके दिल की पुकार बन गयी। इसके अलावा ‘‘घर आया मेरा परदेशी'', ‘‘जबसे बलम घर आये'', ‘‘दम भर को जरा मुंह फेरे, ओ चंदा,'' ''एक बेवफा से प्यार किया,'' और ‘‘हम तुमसे मुहब्बत करके सनम'' जैसे गीतों ने वर्षों तक लोगों के दिलों पर राज किया।
वर्ष 2012 में टाइम पत्रिका ने 100 महानतम फिल्मों में इस फिल्म को शामिल किया। वर्ष 2003 में आवारा में राजकपूर के अभिनय को हर समय के लिये सर्वश्रेष्ठ दस शीर्षस्थ भूमिकाओं में शामिल किया गया। भारत में इस फिल्म ने एक करोड़ 20 लाख की कमाई की जो कि एक रेकार्ड बना। अगले साल इस रेकार्ड को महबूब खान निर्देशित और दिलीप कुमार अभिनीत फिल्म आन ने तोड़ा। सोवियत संध में आवारा को चार से छह करोड़ दर्शकों ने देखा। सोवियत संघ में यह सर्वाधिक सफल भारतीय फिल्म रही। बाद में बॉबी, सीता और गीता तथा डिस्को डांसर को भी वहां इसी तरह की सफलता फिली।
इस फिल्म में सामंतवादी संस्कारों तथा रूढ कानून एवं समाज व्यवस्था की जकड़न के खिलाफ आम आदमी के विद्रोह को दर्शाया गया है। आवारा में यह संदेश दिया गया है कि यह कतई जरूरी नहीं कि अपराधी का बेटा अपराधी ही बने और इज्जतदार का बेटा इज्जतदार ही बने। किसी का अच्छा या बुरा बनना या अच्छा या बुरा काम करना वंशानुगत नहीं बल्कि परिस्थितिजन्य होता है।
चीन में भी इस फिल्म को देशव्यापी सफलता मिली और सोवियत संघ की तरह राजकपूर और उनपर फिल्माया गया गीत ‘‘आवारा हूं‘‘ देश भर में लोकप्रिय हुआ। सोवियत संघ और चीन में इस फिल्म के सफल होने का कारण फिल्म में दिये गये साम्यवादी संदेश को माना जाता है। कहा जाता है कि फिल्म आवारा साम्यवादी चीन के जनक माने जाने वाले माओ की पसंदीदा फिल्म थी और ‘‘आवारा हू'' गीत उनका पसंदीदा गीत था।
तुर्की में यह फिल्म इतनी सफल हुयी कि 1964 के आवारा को तुर्की भाषा में ‘‘अवारे'' के नाम से बनाया गया जिसमें तुर्की अभिनेता सादरी अलिसिक और अभिनेत्री आजदा पेक्कन ने अभिनय किया।
आह (1053)
बरसात और आवारा की सफलता के बाद राजकपूर के मार्ग पर एक असफलता इंतजार कर रही थी और इस असफलता का स्वाद चखने के लिये उन्हें अधिक दिनों तक इंतजार नहीं करना पड़ा। यह असफलता फिल्म आह के रूप में आयी, जो उनकी एक और महत्वाकांक्षी फिल्म थी। राजकपूर की स्मृतियों में ऑपरा हाउस का अंधेरा दुखदायी सपने की तरह दर्ज है। आह के प्रथम प्रदर्षन के मौके पर ऑपरा हाउस में मौजूद राजकपूर अंधेरे हॉल के वातावरण में सांस लेती हुई ध्वनियों को स्पष्ट रूप से महसूस कर रहे थे जो साफ कह रही थी तुम्हारी फिल्म असफल हो गयी है और इस सत्य की प्रतिध्वनि उन्होंने बार—बार सुनी। फिल्मी व्यवसाय में वर्शों रहने के बाद राजकपूर जैसे फिल्मकार जीते—जागते, धड़कते आस—पास की भाशा पहले ही षो में बखूबी समझ लेते थे। आस—पास के दर्षकों की प्रतिक्रियाओं के जरिये वह भांप लेते थे कि फिल्म सफल रहेगी या असफल।
दिलीप कुमार की फिल्मों की तरह इस फिल्म का अंत दुखांत रखा गया था लेकिन कल्पनाशील निर्देशन, बेहतरीन अभिनय और यादगार संगीत के बावजूद संभवतः दर्शकों को दिलीप कुमार की नकल वाला फार्मुला पंसद नहीं आया। दर्शक इस बात को हजम नहीं कर पाये कि खुशियां बांटने वाला आवारा अभिनेता दिलीप कुमार के देवदास की तरह दर्द से छटपटाये और आहें भरे।
इस फिल्म में नायक (राजकपूर) को तपेदिक की बीमारी का पता चलता है तो वह नायिका से खुद को अलग कर लेता है। वह अपने पिता की इच्छा के अनुरूप उसकी बहन से शादी करने को तैयार हो जाता है और अपने डॉक्टर मित्र को नायिका से शादी करने को राजी कर लेता है।
इस फिल्म में प्राण खलनायक की भूमिका में नहीं बल्कि सहृदय डॉक्टर की भूमिका में थे और संभवतः दर्शकों को यह परिवर्तन भी पंसद नहीं आया। लेकिन फिल्म के असफल हो जाने के बाद फिल्म के अंत को सुखांत बना दिया गया लेकिन इसके कारण पूरी फिल्म की पटकथा खराब हो गयी। वर्ष 1953 में रिलीज हुयी यह फिल्म हालांकि बॉक्स आफिस पर औसत से नीचे करार दी गयी लेकिन इसके गीत खास तौर पर ‘‘राजा की आयेगी बारात'', ‘‘आजा रे अब मेरा दिल पुकारे', और ‘‘जाने ना नजर,'' ‘‘ये शाम की तनहाइयां, ऐसे में तेरा गम,‘‘ और ‘‘छोटी सी ये जिंदगानी'' हिट रहे। यह फिल्म बाद में तमिल और तेलुगू में भी डब की गयी।
इंदराज आनंद लिखित पटकथा पर आधारित इस फिल्म का निर्माण राजकपूर ने किया था किन्तु निर्देशन राजा नवाथे ने किया था। निर्देशन के तौर पर यह नवाठे की पहली फिल्म थी जो पहले आग, बरसात और आवारा फिल्म के निर्देशन में राजकूपर के सहायक निर्देशक थे। फिल्म में राजकपूर एवं नरगिस मुख्य भूमिका में थे।
बूट पॉलिश (1954)
फिल्म आह की बॉक्स आफिस पर विफलता के बाद रिलीज हुयी फिल्म बूट पालिश व्यावसायिक तौर पर सफल रही। बॉक्स आफिस पर आह के असफल होने के बाद राजकपूर को बूट पालिश के भी असफल होने का डर सता रहा था लेकिन फिल्म ने बॉक्स आफिस पर सफलता हासिल की। बूट पालिस राजकपूर के कैरियर की अनोखी फिल्म है। इसके निर्देषक थे प्रकाष अरोरा, पर इस पर और खास तौर से गीतों के चित्रांकन पर राजकपूर की छाप साफ देखी जा सकती है। हिंदी में बच्चों के लिए, बच्चों की समस्याओं पर आधारित और उनके मनोविज्ञान से संबंधित फिल्मों का अभाव है, पर 1954 में तीन अच्छी बाल फिल्में बनीं — मुन्ना, जागृति और बूट पालिस। बच्चों की फिल्मों की सफलता भी हमेषा संदिग्ध मानी जाती है लेकिन जागृति और बूट पालिस ने भारी सफलता अर्जित की।
बाल समस्याओं एवं उनके मनोविज्ञान पर आधारित इस फिल्म का दृष्टिकोण आशावादी है लेकिन यह यथार्थ के बीच उत्पन्न स्वतः स्फूर्त आदर्शवाद है। इसका संदेश यह है कि जीवन में परिश्रम से बढ़कर सफलता की कोई पूंजी नहीं है। यह फिल्म जीवन के कटु सत्य से सामना करते हुये खुद के लिये रास्ता बनाने का संदेश देती है। यह फिल्म कहती है कि कोई भी काम छोटा नहीं होता है। मेहनत— मजदूरी षर्म की बात नहीं, भीख मांगना और चोरी करना षर्म की बात है। परिश्रमी हाथों में ही ईष्वर के दर्षन किए जा सकते हैं। बूट पालिस में बच्चों के लिए यही संदेष है— भीख में जो मोती मिले तो भी हम न लेंगे।
बेबी नाज और रतन कुमार ने अनाथ बच्चों की व्यथा, आंसुओं में डूबी मासूम मुस्कुराहट और अपनापन पाने की ललक को अनन्य चित्रात्मकता में पेष किया। वे दोनों अपनी संरक्षिका से ठोकरें खाकर बूढ़े ईसाई लंगड़े जॉन चाचा में अनुराग का स्रोत पाते हैं। बेबी नाज को केन्स फिल्म समारोह में सर्वोत्कृश्ट अभिनेत्री का सम्मान मिला। जॉन चाचा के रूप में डेविड अब्राहम की यह सबसे यादगार फिल्म है, इसके लिए उन्हें सह अभिनेता का फिल्म फिल्मफेयर अवार्ड मिला था। षैलेंद्र—हसरत और सरस्वती कुमार दीपक के गीतों को षंकर जयकिषन ने संगीतबद्ध किया। ‘‘नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है'', ‘‘चली कौन से देष गुजरिया तू सज धज के'', ‘‘लपक झपक तू आ रे बदरवा'' — सभी गीत एक से बढ़कर एक थे। पर्दे पर ‘‘चली कौन से देष गुजरिया'' खुद षैलेंद्र पर चित्रित किया गया था।
श्री 420 (1955)
श्री 420 राजकपूर निर्मित, निर्देषित, अभिनीत आम आदमी की मस्त मौला छवि को चरमोत्कर्श तक ले जानी वाली सदाबहार फिल्म है। आज इतने साल बाद भी इसका आकर्शण बरकरार है। ‘श्री 420' कहती है कि हजारों आदमियों को भूखा रखकर एक गुलछर्रे उड़ाता है। दसरों के खून—पसीने पर चमकदार जिंदगियां इतराती हैैं। पर सच्चाई और ईमानदारी से कमाई गई सूखी रोटी जितनी षांति और मोहब्बत दे सकती है उतनी बेईमानी से कमाई गई करोड़ों की दौलत नहीं। माया भटकती है सुकून नहीं देती।
इस फिल्म का निर्माण और निर्देशन राजकपूर ने किया। इस फिल्म में कल्पनाशीलता का बेजोड़ परिचय दिया गया है। यह फिल्म जब रिलीज हुयी तक देश को आजाद हुये सात—आठ साल ही हुये थे लेकिन इस फिल्म के जरिये आने वाले भविष्य की कड़वी सच्चाई से अगाह करने की कोशिश की गयी कि भविष्य में किस तरह से अमीर और पूंजीपति लोग आम लोगों को झूठे सपने दिखाकर उनके साथ छल करेंगे और उनके खून—पसीने की कमाई से अपनी तिजोरियां भरेंगे।
इस फिल्म का नाम भारतीय दंड संहिता की धारा 420 पर रखा गया जिसमें धोखाधड़ी के लिए सजा का प्रावधान किया गया है। इस फिल्म में राजकपूर का किरदार चार्ली चैपलिन से प्रभावित है और अपनी फिल्म आवारा(1951) में कपूर के किरदार की तरह ही है। यह ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा रचित था तथा संगीत शंकर जयकिशन की टीम द्वारा रचा गया था। गीत शैलेन्द्र द्वारा लिखे गए थे।
फिल्म की नायिकाओं के नाम ही प्रतीकात्मक रखे गए हैं — विद्या और माया। विद्या नायक को जिंदगी की असलियत की ओर खींचती है। उसके भीतर के सच्चे इंसान को जगाती है और माया दुनिया भर की दौलत लूट लेने का रास्ता दिखलाती है। वह सारी दुनिया को लूट सकते हैं। यहां तक कि गरीबों के सपनों को भी। क्लाइमेक्स में राजू सेठ सोनाचंद धर्मानंद से पूछता है कि सौ रुपये में मकान कैसे बनेंगे? तब सेठ उसकी मूर्खता पर हंसते हुए कहता है — हम मकान नहीं, मकान का सपना बेच रहे हैं।
निर्माण, गुणवत्ता, कल्पनाषील निर्देषन, अनुपम छायांकन और कला संयोजन सभी दृश्टियों से विलक्षण ‘श्री 420' में स्टूडियो में लोकल ट्रेन गुजरने का इतना सुंदर सेट खिलौना रेलगाड़ी से तैयार किया गया था कि वह वास्तविक का भ्रम पैदा करता था। षैलेंद्र—हसरत के गीत और षंकर जयकिषन का संगीत तो सारी दुनिया में गूंजा ‘‘मेरा जूता है जापानी''।
शैलेन्द्र—हसरत के गीत और शंकर जयकिशन के संगीत का जादू लोगों के सिर चढ़ कर बोला। ‘‘मेरा जूता है जापानी'' और ‘‘रमय्या वस्ताबय्या'' का जादू आज भी बरकरार है। इसके अलावा ‘‘दिल का हाल सुने दिलवाला'', ‘‘ईचक दाना, बिचक दाना'', ‘‘मुड़—मुड़ के ना देख'', ‘‘प्यार हुआ इकरार हुआ'' जैसे गीत भी खूब लोकप्रिय हुये। एक फिल्म में एक छाते के नीचे खड़े राजकपूर और नरगिस के दृश्य फिल्मी दुनिया के सबसे अधिक लोकप्रिय एवं इस्तेमाल किये जाने वाले प्रतीकों में से एक है। इस फिल्म में सहायक की भूमिका में ललिता पवार, कुमार, रशीद खान, नेमो जैसे कलाकारों ने गजब की भूमिका की।
यह फिल्म बॉक्स आफिस पर सफल रही और इसके कारण श्री 420 के प्रदर्षन के बाद अक्सर उनके प्रषंसक उन्हें 420 कहकर पुकारने लगे। उन्हें यह नाम पसंद भी था। हालांकि एक अवसर पर प्रारंभ में वे इससे थोड़े नाराज ही हुए थे। राज कपूर अप्सरा थियेटर में संगम की हीरक जयंती पर अपने पूरे यूनिट के साथ मंच पर होने का वाकया याद करते हैं।
अमरीका के लंबे प्रवास के बाद लौटने पर आर.के. स्टूडियो के एक कर्मचारी ने उनका अभिवादन हलो 420 कहकर किया। उन्हें यह थोड़ा बुरा लगा, लेकिन वह सोचने लगे कि क्या यह एक मजाक था या दामोदर उनके प्रति अनादर व्यक्त कर रहा था। उन्होंने इस बात की उपेक्षा करनी चाही परन्तु वे उसे भूल न सके। अंत में उन्होंने उसे बुलाकर पूछ ही लिया उसका आषय क्या था। क्या यह एक महज मजाक था यह जानकर कि उसके मालिक भी उसकी बात को नहीं समझ सके दामोदर को बहुत खुषी हुई। उसने बताया, ‘‘मैं आपको केवल यह बताना चाहता था कि संगम अप्सरा थियेटर में 420 दिन चल चुकी है।
जागते रहो (1956)
राजकपूर निर्मित तमाम फिल्मों में जागते रहो उनकी प्रमुख कालजयी कृति है। निःसंदेह उनकी अधिकांष फिल्में श्रेश्ठ ही हैं और उन्हीं के बलबूते मृत्यु के इतने समय बाद भी राजकपूर इस सदी के वास्तविक फिल्म महानायक ठहरते हैं।
जागते रहो (1956) राजकपूर की बनायी गयी सातवीं फिल्म थी। आग (1948), बरसात (1949), आवारा (1951), आह (1953), बूट पॉलिष (1954), श्री 420 (1955) और फिर जागते रहो (1956) बॉक्स आफिस पर आयी। हालांकि यह फिल्म बॉक्स आफिस पर अप्रत्याषित रूप से औंधे मुंह गिरी लेकिन यह फिल्म अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराही गयी। बरसात के बाद से ही बाजार में राजकपूर की धूम मच गयी और आह को छोड़कर उनकी ज्यादातर फिल्मों ने बॉक्स आफिस पर भी कमाल किया। आवारा ने तो उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिला दी। 1956 में जब जागते रहो रिलीज हुई तब राजकपूर 31 वर्श के थे।
राजकपूर इस फिल्म के बॉक्स आफिस पर विफल हो जाने के बारे में कहते हैं, ‘‘जागते रहो के प्रथम प्रदर्षन पर अंधेरे सिनेमा हॉल के जीते—जागते धड़कते आसपास ने मुझे फिर दबोच लिया। इस बार इसका फैसला मानने से मेरे दिल ने इंकार कर दिया। इसीलिए कारलेवी वेरी के अंतर्राश्ट्रीय समारोह में जागते रहो को मिला उच्चतम पुरस्कार — ‘ग्रा प्री.' — मेरे लिए दुगुनी खुषी का अविस्मरणीय क्षण था।''
अंतर्राश्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत होने के बाद हिंदी दर्षक चौंका और दोबारा प्रदर्षित होने पर जनता और कला समीक्षकों ने इसे हाथों—हाथ लिया।
जागते रहो, प्यास और पानी के बीच के संघर्श की कहानी है। नायक पानी की गहरी प्यास लिये रात भर पानी के बिल्कुल नजदीक रहकर भी प्यास बुझाने को तरस रहा है। प्यास आर्तनाद कर रही है और पानी जरा—सी दूर खड़ा मुस्कुरा रहा है। एक कहानी में कई—कई पात्र हैं और उन्हें निबाहने वाले एक से बढ़कर एक दिग्गज अभिनेता हैं — इफि्तखार, पहाड़ी सान्याल, भूडो अडवानी, मोतीलाल, प्रदीप कुमार, नाना पलसीकर, कृश्ण धवन, सुलोचना चटर्जी और, रषीद खान भी हैं। घाघ सेठ मलिक की भूमिका में परम्परागत रूप से नेमो हैं। ये सभी राजकपूर के स्थायी रूप से प्रिय कलाकार रहे हैं, सभी का संयोजन और उपयोग निर्देषकद्वय ने बहुत कुषलता के साथ किया है।
जागते रहो का एक और सषक्त पक्ष उसका गीत—संगीत है। सलिल चौधरी अपने मेलोडियस संगीत के लिए हमेषा ही याद किये जाते हैं। राजकपूर की यही विषेशता थी कि वे बड़ी कुषलता से भाव प्रवणता के साथ करुणा को प्रतिरोपित करते थे। यही कारण है कि आवारा, श्री 420, बूट पॉलिष और मेरा नाम जोकर में उनकी कारुणिकता बहुत ही स्वाभाविकता के साथ प्रकट होती है। जिस देष में गंगा बहती है में जब वे घायल और भूखे डाकू को बहुत आर्द्र होकर अपने भोजन का अधिकतम हिस्सा समर्पित करते हैं तो ‘दूं या न दूं' के आत्मद्वंद्व के उपर करुणा की विजय का भाव देखते ही बनता है।
चोरी—चोरी (1956)
1956 में रिलीज हुयी फिल्म चोरी—चोरी आर.के. फिल्म्स के बाहर की फिल्म है जिसमें राजकपूर ने नायक की भूमिका निभाई है। इस फिल्म का निर्माण एल.बी. लक्ष्मण ने और निर्देशन अनंत ठाकुर ने किया था। इसकी पटकथा अगा जानी ने लिखी थी। यह फिल्म हालीवुड फिल्म ‘‘इट हैपेन वन नाइट'' पर आधारित है। बाद में इस फिल्म की नकल महेश भट्ट के निर्देशन में 1991 में बनी ‘‘दिल है कि मानता नहीं'' में की गयी जिसमें पूजा भट्ट और आमिर खान ने अभिनय किया था। चोरी—चोरी की तरह यह फिल्म भी बॉक्स आफिस पर हिट रही।
चोरी—चोरी फिल्म की कहानी सिर्फ इतनी है कि करोड़पति सेठ गिरधारी (गोप) की लड़की कम्मो (नरगिस) सुमन (प्राण) से प्यार करती है और उससे षादी करना चाहती है पर गिरधारी लाल को रिष्ता पसंद नहीं। वे जानते हैं कि सुमन धनी व्यक्तियों की लड़कियों से विवाह कर उनकी संपत्ति हड़पता है। इसी बात को लेकर बाप—बेटी में विवाद होता है पर परिस्थितियां कुछ इस तरह की निर्मित होती हैं कि उसकी मुलाकात सागर (राजकपूर) से होती है और बंगलौर पहुंचने तक दोनों एक दूसरे को प्यार करने लगते हैं। घटनायें इस तरह घटती है कि कम्मो यह समझती है कि सागर उसे अकेला छोड़ कर चला गया है। वह दुखी और निराष होकर अपने पिता के पास चली जाती है। वे सुमन के साथ उसकी षादी का आयोजन करते हैं पर ठीक षादी के दिन सागर आ पहुंचता है और सागर और कम्मो की छोटी सी नोंक—झोंक के बाद दोनों की गलतफहमी दूर हो जाती है। गिरधारी लाल (जो यही चाहते थे) सुमन के पास जाकर इस विवाह से इंकार कर देते हैं। कम्मो और सागर का मिलन होता है।
देखा जाये तो इस सीधी—सादी कहानी में कोई नवीनता या चमत्कार नहीं है जिसके आधार पर बहुत अच्छी फिल्म बनाई जा सके पर इस फिल्म के निर्देषक अनंत ठाकुर, निर्माता एल.बी. लक्ष्मण की सूझ—बूझ और प्रतिभा की जितनी प्रषंसा की जाये, कम है। इन्होंने फिल्म का एक—एक दृष्य, संवाद और प्रस्तुतीकरण पर मेहनत कर ऐसी फिल्म का निर्माण किया जो समय गुजरने के साथ बासी या उबाउ नहीं हो सकती। हसरत जयपुरी और षैलेंद्र के गीतों और षंकर जयकिषन के संगीत ने इसे और अधिक रोचक बना दिया। निर्माता—निर्देषक ने एक साथ गोप, भगवान दादा, जानी वाकर, मुकरी जैसे हास्य कलाकारों की ऐसी कामेडी प्रस्तुत की जो दर्षकों का स्वस्थ मनोरंजन करती है। इस फिल्म का एक पहलू यह है कि इसमें राजकपूर पर फिल्माये गये गीत मुकेश के बजाय मन्ना डे ने गाये हैं।
अनाड़ी (1959)
अनाड़ी भी आर.के. फिल्म्स के बैनर के बाहर की फिल्म है। यह ऋशिकेष मुखर्जी निर्देषित सबसे कामयाब फिल्मों में एक है। यह राजकपूर की उन फिल्मों में से है जिसमें आर.के. फिल्म्स के बाहर उन्होंने बहुत सुंदर अभिनेता के रूप में काम किया है। उनकी इमेज को खुद उनके अतिरिक्त ऐसा सुंदर स्पर्ष अनाड़ी के अलावा सिर्फ तीसरी कसम में ही मिला। इसी फिल्म में राजकपूर को पहली बार सर्वश्रेश्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर अवार्ड मिला था। नायिका थीं नूतन। इस फिल्म का प्रचार वाक्य बनाया गया था — उंची लड़की और बौने आदमी की प्रेम कथा। राजकपूर की नूतन के साथ यह पहली फिल्म थी।
जीवन की व्यावहारिक चालबाजियों से दूर यह एक ऐसे सीधे—सच्चे आदमी की कथा थी जो सड़क पर मिले हुए मनी पर्स उसके मालिक को लौटाने की बेवकूफी करता है जबकि ये दुनिया उन लोगों की है जिन्हें पर्स पड़े हुए मिले और उन्होंने लौटाए नहीं। उन्हें ही समाज में बड़ा आदमी कहा जाता है। पर यह सीधा इंसान दुनिया की चालबाजियां तो दूर प्रेम की भाशा भी नहीं समझता इसलिए नायिका भी उसे अनाड़ी कहती है। फिल्म की एकमात्र कमजोरी है, इसका मैलोड्रैमैटिक अंत। वरना समूची फिल्म यथार्थ के रूमानी धरातल पर विचरण करती है। नायिका की सहेली की भूमिका में षुभा खोटे और अभिभावक की भूमिका में मोतीलाल लाजवाब थे। मोतीलाल हिंदी सिनेमा के उन अभिनेताओं में हैं जिनको स्वाभाविक अभिनय की मिसाल माना जाता है। पर इस फिल्म में यदि सर्वश्रेश्ठ भूमिका किसी की थी तो ललिता पवार की। उन्होंने अपने बेटे को खो चुकी एक विधवा स्त्री मिसेज डीसा की यादगार भूमिका की है। वह रोज राजू को हर पल उलाहना देती है लेकिन अपने बेटे की तरह प्यार करती है और अंत में मरते समय उसे अपना सब कुछ दे जाती है। गरीब और अमीर की प्रेमकथा को जिस सहजता से ऋशिकेष मुखर्जी ने अनाड़ी में चित्रित किया, वैसा ही वे असली नकली (1962— देव आनंद, साधना) में नहीं कर सके। ‘‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होषियारी'' के लिए षैलेंद्र को गीतकार और मुकेष को गायक का फिल्मफेयर अवार्ड मिला था। ‘‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार/किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार/किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार/जीना इसी का नाम है'' — यह गीत उत्कृश्ट काव्यात्मकता का भी उदाहरण है। हालांकि इस फिल्म का हर गीत बेहद लोकप्रिय हुआ था। इसके संगीतकार हैं षंकर जयकिषन।
छलिया (1960)
छलिया भी आर.के. फिल्म्स के बाहर की फिल्म है। यह मनमोहन देसाई निर्देषित पहली फिल्म है जो बाद में बनाई गई उनकी सारी फिल्मों से सबसे अलग है। यह भारत—पाक विभाजन की पृश्ठभूमि पर आधारित थी जिसमें एक पठान डाकू हिंदू स्त्री की अस्मत बचाकर उसे भारत वापस भेजता है। उसके साथ उसका बेटा भी है। भारत वापस आने पर लड़की का पति उसे स्वीकार करने से मना कर देता है क्याेंकि वह किसी डाकू के साथ रही थी और उसे संदेह हो जाता है कि वह बेटा उसी डाकू का ही है। पति और मां—बाप द्वारा ठुकराए जाने पर कुतुबमीनार से कूदकर आत्महत्या करते वक्त उसे एक सड़कछाप गुंडा, जिसे लोग छलिया कहते हैं, बचाता है और संरक्षण देता है। जाहिर है कि वह उसके प्यार में पड़ जाता है। लेकिन बाद में वस्तुस्थिति का पता लगने पर पति—पत्नी का मेल करवाने के लिए अपनी जान की बाजी लगाने को भी तैयार हो जाता है। प्राण इस फिल्म में खलनायक होते हुए भी खलनायक नहीं थे। उन्होंने पठान डाकू की भूमिका, जो थी तो बहुत छोटी लेकिन उन्होंने बहुत प्रभावषाली ढंग से अदा की थी।
‘‘छलिया मेरा नाम'', ‘‘मेरी जान कुछ भी कीजिए'', ‘‘मेरे टूटे हुए दिल से कोई तो आज ये पूछे कि तेरा हाल क्या है'' आदि लोकप्रिय गीतों के साथ इस फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत था ‘‘डमडम डिगा डिगा'' जो आज भी उतनी ही मस्ती जगाने में सफल है। क्लाइमेक्स में दषहरे के जुलूस के वक्त पति—पत्नी के मिलन के वक्त मिलन के लिए मोहम्मद रफी की आवाज में एक लंबे गीत का उपयोग किया गया है — ‘‘गली—गली सीता रोए आज मेरे देष में, सीता देखी राम देखा आज नए भेस में''। छलिया के गीतकार थे कमर जलालावादी और संगीतकार थे कल्याणजी—आनंदजी। मुख्य कलाकार थे राजकपूर, नूतन, रहमान, षोभना समर्थ और प्राण।
जिस देष में गंगा बहती है (1960)
इस फिल्म का निर्माण राजकपूर ने किया है। रंगमंच के प्रभाव के अनुरूप ही जिस देष में गंगा बहती है के निर्माण की संरचना की गई है। फिल्म का अधिकांष निर्माण डाकुओं की बस्ती के सेट पर स्टुडियो में ही हुआ है। नायक, नायिका, खलनायक और अन्य पात्रों की वेषभूशा भी रंगमंचीय प्रभाव लिये हुए है। नृत्य, संगीत, गीत, प्रकाष व्यवस्था और संवादों की संरचना में भी इस प्रभाव को देखा जा सकता है। यही वह फिल्म है जिसके कारण राजकपूर को षैलेन्द्र ने भी अपनी फिल्म तीसरी कसम का नायक बनाया। तीसरी कसम के हीरामन का स्वरूप जिस देष में गंगा बहती है के नायक राजू में दिखाई देने लगा था।
इस फिल्म का नायक राजू असंभव सच्चा इंसान है जिसकी वेषभूशा बड़ी अजीब है। लगता है दो—तीन किस्म के परिधानों को मिलाकर उसका लिबास बनाया गया है। उसके बालों की बनावट भी कृत्रिम लगती है। पर तब भी कुछ भी अलग या अस्वाभाविक नहीं लगता। यहां राजकपूर जैसा नीली आंखों वाला अभिनेता जो देखने में यूरोपियन लगता था और जिस पर कुछ लोगों ने उस समय जब वह अपने को अभिनेता के रूप में स्थापित कर रहा था, चार्ली चैपलिन की नकल करने का आरोप लगाया था, यहां वह अपने को उस छवि से बिल्कुल मुक्त कर लेता है। आवारा या श्री 420 में भी राजकपूर चार्ली चैपलिन से प्रभावित जरूर थे परन्तु उन्होंने चार्ली चैपलिन की नकल मात्र न करके अपनी एक अलग छवि का निर्माण किया था जिसे लोगों ने तब भी पसंद किया था और आज भी करते हैं। यहां जिस देष में गंगा बहती है का नायक राजू देष के एक आम आदमी का प्रतिनिधित्व करता है।
फिल्म देखने के लिए होती है, इसलिए उसका दर्षनीय होना जरूरी है। जिस देष में गंगा बहती है में फिल्म निर्माण सभी तत्वों का विलक्षण रंगमंचीय समन्वय दिखाई देता है। गीत—संगीत, नृत्य, संवाद, अभिनय, दृष्यांकन एवं प्रकाष व्यवस्था आदि का अद्भुत सामंजस्य है। ‘‘हम इस देष के वासी हैं'' — गीत के आरंभ होने से पहले सभी डाकू उसे पुलिस का आदमी समझकर उस पर पत्थर फेंकते हैं, पानी फेंकते हैं तब राजू उनसे कहता है — ‘‘मैं अभी बताता हूं, मैं कौन हूं।'' सभी आषंकित हैं कि वह क्या करेगा, तभी राजू अपनी ढपली उठाता है और पीटने लगता है। तीव्रगति का उत्तेजक संगीत प्रवाहित होता है। डाकू पहले से ही एकत्र थे। उसकी ढपली की आवाज से बूढ़े, बच्चे और महिलाएं भी एक—एक करके एकत्र हो जाते हैं। उत्तेजक संगीत कौतुहल उत्पन्न करता है और उसके बाद एक छोटी से बच्ची की संकुचित मुस्कान को देखकर राजू का मुग्ध होकर उसे गोद मं उठा लेना और फिर गीत का आरंभ ‘‘हम उस देष के वासी हैं जिस देष में गंगा बहती है।'' पूरे दृष्य को षब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है। वह न केवल अपना परिचय देता है बल्कि डाकुओं को भी याद दिलाता है कि वे भी उसी देष के वासी हैं जिस देष में गंगा बहती है और यहीं वह संकेत करता है कि कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं, इंसान को कम पहचानते हैं। दुनिया की यह भी एक बहुत बड़ी समस्या है जिसकी तरफ इस गीत में षैलेन्द्र ने बड़े सरल षब्दों में इषारा किया है कि जो ज्यादा जानने लगता है वह इंसान और इंसानियत को भूल जाता है। यही असल समस्या है।
संगम (1964)
रंगों की दुनिया में संगम राजकपूर का प्रथम प्रयास था। राज कपूर का स्वभाव था कि वे आसानी से संतुश्ट नहीं होते थे इसलिए उन्होंने अपनी जानी पहचानी तुनकमिजाजी से काम को अंजाम दिया। जाहिर है समूची फिल्म की परिकल्पना ही भव्यता में लिपटी चाक्षुक सम्मोहन के रूप में की गई थी। वह रंगों का नयनाभिराम इंद्रजाल था।
संगम (1964) आर.के. बैनर के अंतर्गत बनी थी। संगम राजकपूर का बहुत पुराना सपना था और वे इसमें दिलीप कुमार को महत्वपूर्ण भूमिका देना चाहते थे बाद में वही भूमिका संगम में गोपाल के रूप में राजेन्द्र कुमार ने बखूबी निभाई। राधा की भूमिका के लिए सुप्रसिद्ध नृत्यांगना और अपने समय की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री वैजयंतीमाला को चुना गया तथा सुन्दर की भूमिका स्वयं राजकपूर ने निभाई।
दरअसल फिल्म अंदाज की अभूतपूर्व कामयाबी के बाद जब दिलीप कुमार, राजकपूर एवं नरगिस की तिकड़ी ने लोकप्रियता के षिखर को छू लिया तब राजकुमार ने इस तिकड़ी को लेकर एक और फिल्म बनाने का सपना देखना षुरू किया। उस समय तक आग एवं बरसात के साथ राजकपूर अभिनेता के साथ—साथ निर्माता—निर्देषक के रूप में स्थापित हो चुके थे। राज कपूर चाहते थे कि उन्हीं तीनों को लेकर एक फिल्म बने जो फिल्म अंदाज में थे। नरगिस आर.के. फिल्म का हिस्सा बन चुकी थी और दिलीप कुमार के साथ राजकपूर की कालेज के दिनों से दोस्ती थी इसलिये उन्हें लगा कि ऐसा संभव हो सकता है।
उनके पास ऐसी फिल्म के लिये कथावस्तु भी थी। उनकी फिल्मों के पटकथा लेखक इंदर राज आनंद ने 1948 में ही घरौंदा नाम से पटकथा लिखी थी। उस समय राजकपूर आग बना रहे थे। राजकपूर ने इसी पटकथा पर फिल्म बनाने के सिलसिले में नरगिस और दिलीप कुमार के समक्ष प्रस्ताव रखा। राजकपूर को इसमें कोई मुश्किल नजर नहीं आ रही थी लेकिन दिलीप कुमार की सोच कुछ अलग थी। दिलीप कुमार को ऐसा लगा कि इस फिल्म में उनके किरदार के साथ पूरा न्याय नहीं हो पायेगा। वह धीरे—धीरे इस प्रस्ताव से दूर होते गये और इस फिल्म की पटकथा राजकपूर के अलमारी में पड़ी रही और करीब 15 साल बाद जब उन्होंने अपनी पहली रंगीन फिल्म बनाने की सोची तो उन्हें इस पटकथा की याद आयी और उन्होंने दिलीप कुमार की जगह पर राजेन्द्र कुमार और नरगिस की जगह पर वैजयन्तीमाला को लेकर संगम बनायी जो बॉक्स आफिस पर अत्यधिक सफल रही।
संगम की सफलता में राजकपूर की सृजनात्मक सोच और तल्लीनता का गहरा योगदान है। संगम में भावनाओं का ज्वार षुरू से अंत तक हिलोरें लेता रहता है। साधारण प्रेम त्रिकोण वाली पटकथा के साथ संगम ने अपार सफलता प्राप्त की और एक यादगार फिल्म का स्वरूप धारण कर सकी, इसका एकमात्र कारण था फिल्म निर्माण के हर पक्ष के द्वारा अपनी भूमिका के साथ पूरा—पूरा न्याय करना।
संगम के निर्माता, निर्देषक, संपादक और नायक स्वयं राजकपूर थे। संगम की पटकथा इंदरराज आनंद ने लिखी थी। गीतकार थे षैलेन्द्र और हसरत जयपुरी। षंकर जयकिषन ने संगम में लाजवाब धुनें प्रस्तुत की थी। पार्ष्व गायन में लता मंगेषकर, मुकेष, मोहम्मद रफी, महेन्द्र कपूर ने अपनी छाप छोड़ी। सह कलाकार के रूप में फिल्म में ललिता पवार, अचला सचदेव, राज महेष, नाना पलसीकर, इफि्तखार, विजयलक्ष्मी, हरि षिवदषानी और प्रयागराज थे।
छायाकार राधू करमाकर का योगदान भी संगम में अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्हें ‘द पेंटर ऑफ लाइट' मान लेने में कोई अतिषयोक्ति नहीं है। राधू करमाकर की गणना विष्व के दस महान सिनेमेटोग्राफरों में की जाती है। सोवियत रूस में आवारा, श्री 420 और संगम जैसी फिल्मों को सिनेमेटोग्राफी के पाठ्यक्रम में रखा गया है, जिनका फे्रम दर फ्रेम विष्लेशण करके छात्रों को फोटोग्राफी के गुर सिखाए जाते हैं।
संगम में कला—निर्देषन एम. आर. अचरेकर ने किया था। उनके अप्रतिम कला—निर्देषन से पूरी फिल्म सौन्दर्यबोध से परिपूर्ण है। साउंड रिकार्डिस्ट अलाउद्दीन ने संगम के बैकग्राउंड म्यूजिक को तैयार करने में षंकर जयकिषन को तथा गीतों एवं संवाद अदायगी को ध्वनि संयोजन के माध्यम से महत्वपूर्ण सहयोग दिया ताकि कैमरामैन राधू करमाकर अपना कार्य आत्मसंतोश के साथ पूरा कर सके। संगम के माध्यम से यह भी स्पश्ट होता है कि फिल्म निर्माण में तरह—तरह के हुनरमंदों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तथा यह फिल्म के निर्माता—निर्देषक की क्षमता पर निर्भर करता है कि वह अपने कलाकार साथियों के टैलेंट का सही उपयोग कर पाता है अथवा नहीं।
राजकपूर ऐसे फिल्म निर्माता थे जो धन को और स्वयं को एक साथ खर्च करने में कभी पीछे नहीं हटते थे। न उम्र के मामले में स्वयं को बचाकर रखते थे और न खर्च के मामले में पीछे हटते थे। जीवन की सार्थकता भी सृजन कार्य में तल्लीन हो जाने में है। संगम की अभूतपूर्व सफलता का राज भी यही था।
इस फिल्म के एक लोकप्रिय गीत ‘‘बोल राधा बोल, संगम होगा कि नहीं'' के निर्माण से जुड़ा एक रोचक वाक्या है। राजकपूर ‘संगम' में मुख्य भूमिका निभाने के लिए वैजयंतीमाला को रखना चाहते थे। उन्होंने टेलीग्राम करके पूछा कि वह उनकी फिल्म में काम कर सकेगी या सच पूछो तो काम करना चाहेगी। मद्रास में कार्यरत उस तारिका को तार भेजा गया — ‘‘बोल राधा बोल संगम होगा के नहीं।'' कुछ दिनों के अंतराल के बाद उत्तर मिला — ‘‘होगा, होगा, होगा।''
उस वक्त गीतकार षैलेन्द्र भी उसी जगह मौजूद थे और इसी जवाब के आधार पर उस लोकप्रिय गीत की रचना हुयी जिसमें नायक के प्रष्न पर नायिका सुर मिलाती है ‘‘होगा, होगा, होगा।''
तीसरी कसम (1965)
बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देषित तथा कवि षैलेन्द्र द्वारा निर्मित तीसरी कसम की पटकथा तथा संवाद हिंदी के यषस्वी कथाकार फणीष्वर नाथ ‘रेणु' ने लिखे थे। उनकी लोकप्रिय जनांचल पर आधारित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम' को षैलेन्द्र ने फिल्म के लिए हीरामन के रूप में राजकपूर को और हीराबाई के रूप में वहीदा रहमान को चुना। पहले वहीदा की भूमिका के लिए नूतन के नाम पर भी विचार किया गया किंतु आखिर में हीराबाई की अविस्मरणीय भूमिका वहीदा रहमान ने ही निभाई।
तीसरी कसम हिंदी की एक ऐसी प्रामाणिक सामाजिक फिल्म है जो वर्शों तक भी आज की लगती रहेगी। विचित्र बात है कि इस फिल्म को पहले सफलता नहीं मिली पर क्यों? मेरे जैसा दर्षक यह मानने को तैयार नहीं है कि इसकी असफलता ने षैलेंद्र को तोड़ दिया क्योंकि सातवें दषक में जिस प्रकार की फिल्में निर्मित हो रही थीं, दर्षकों का एक बड़ा पढ़ा—लिखा वर्ग पवित्र प्रेम संबंधों पर आधारित सामाजिक पारिवारिक फिल्मों का प्रेमी था। तब उस समय दर्षकों से क्यों अन्याय हो गया।
यह वह फिल्म है जिसमें राजकपूर ने अपने जीवन की सर्वश्रेश्ठ निभाई है। एक अभिनेता की तरह इसे उनकी सबसे अच्छी फिल्म भी कहा जाय तो इसमें कोई अतिषयोक्ति नहीं होगी। इसमें भी कोई षक नहीं कि तीसरी कसम वह फिल्म है जिसने हिंदी साहित्य की एक अत्यंत मार्मिक कृति को सेल्युलाइड पर पूरी सार्थकता से उतारा। तीसरी कसम को यदि पर्दे पर ठीक साहित्य की तरह लिखी गई एक भावना प्रधान कविता भी कहा जाय तो इसमें काई बड़ी गलत बात न होगी। यही इस फिल्म की सबसे बड़ी विषेशता है।
मेरी दृश्टि में यह राश्ट्रपति सम्मान से सम्मानित हिंदी की अंचल पर केंद्रित पहली सफल और प्रामाणिक फिल्म है। यह स्वार्थों की दुनिया से दूर ले जाने वाली कथावस्तु पर आधारित फिल्म है जहां गांव है, नदी है, रास्ते हैं, पगडंडियां हैं, बैलगाड़ी है, गाड़ीवान की दर्दीली आवाज में गूंजता अंचल कछार है। हीरामन नायक है और हीराबाई के पूछने पर — मीता! यहां पर हर कोई गीत गाता है? वह कहता है — फटा कलेजा गाओ गीत!
राजकपूर अपनी संपूर्ण भावनाओं के साथ इस फिल्म में उतरे हैं। राजकपूर पर हीरामन पूरी तरह हावी है उसी प्रकार वहीदा रहमान पर हीराबाई का प्रभाव है। बिहार के पूर्णिया अंचल के दर्षकों में राजकपूर और वहीदा रहमान की कोई पहचान नहीं है, उनकी सच्ची पहचान तो हीरामन और हीराबाई में है।
हीरामन के बड़े भाई का अभिनय कर रहे ए.के. हंगल का महाजन के डर से अंदर चले जाना पूर्णिया के किसानों, आम जनता के अंदर महाजनी वसूली का भय दिखलाता है। षैलेंद्र यूनियन में थे और वे भोले—भाले व्यक्ति के अंतर की मजबूरी जानते हैं — कितना यथार्थ संदेष दे रही है यह फिल्म।
हिंदी सिनेमा में ही नहीं, समूचे विष्व सिनेमा में ऐसा बहुत कम ही घटित हुआ है कि किसी अत्यंत भावना प्रधान कहानी को उसी सटीक गहराई के साथ पर्दे पर पेष किया जा सके। तीसरी कसम उन गिनी—चुनी फिल्मों में एक है जो साहित्य और सिनेमा को समरस बनाने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इस फिल्म के निर्देषक तो बासु भट्टाचार्य थे। पर जैसा कि सभी मानते हैं सबसे पहले यह फिल्म षैलेन्द्र का ही मानसपत्र है। यदि षैलेन्द्र इतनी आत्मिक गहराई से न जुड़े होते तो इसका निर्माण ही कतई संभव न होता। इसमें कोई षक नहीं कि यह सिनेमा की एक यादगार कृति है। इसे यादगार बनाने में राजकपूर और वहीदा रहमान के साथ ही छोटी—छोटी भूमिकाओं में लाल मुहर के रूप में कृश्ण धवन, पंडित के रूप में विष्वा मेहरा, हीरामन के एक और साथी के रूप में समर चटर्जी, नौटंकी के विदूशक की भूमिका में असित सेन, जमींदार की भूमिका में इफि्तखार, बिरजू दलाल की भूमिका में नबेंदू घोश ने अद्भुत अभिनय किया है। इसके पटकथा लेखक नबेंदु घोश ही हैं जो स्वयं भी एक अत्यंत अभिनेता थे। उन्होंने कुछ फिल्मों में इसी तरह की संक्षिप्त भूमिकाएं की हैं। तीसरी कसम के पटकथा लेखक भी वही हैं। नबेंदु जी ने इसकी पटकथा स्वयं रेणु के साथ मिलकर तैयार की थी। नबेंदु हिंदी सिनेमा के सर्वश्रेश्ठ पटकथा लेखकों में एक थे। 1966 में पटकथा लेखन के लिए जब पहली बार फिल्मफेयर पुरस्कारों की घोशणा हुई तो उसके जीतने वाले नबेंदु घोश ही थे। बिमल राय के वे सबसे प्रिय पटकथा लेखक थे।
गीतकार स्वयं षैलेंद्र तो थे ही और हसरत जयपुरी ने इसके नौ गीतों में सिर्फ एक गीत लिखा है। लेकिन क्या कमाल का गीत लिखा है — दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई/काहे को दुनिया बनाई।' यह गीत इस फिल्म की आत्मा है। इसकी एक और बहुत बड़ी खूबी है इसका छायांकन। सत्यजीत राय की फिल्मों के छायाकार सुब्रत मित्र ने इसका छायांकन किया था।
मेरा नाम जोकर (1970)
हिंदी सिनेमा में जिन दो हसरतों की विफलताओं की चर्चा की जाती है उनमें गुरुदत्त की फिल्म ‘कागज के फूल' और राजकपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर' शामिल है और ये दोनों ही फिल्में निर्माता—निर्देशक की सर्वाधिक महत्वाकांक्षी फिल्में थींं लेकिन दर्षकों ने इन दोनों को नकार दिया। उस समय के दर्शकों द्वारा नकारे जाने के बाद भी आज ये दोनों फिल्में सराही जा रही है। हालांकि कहा जाता है कि जब राजकपूर ने ‘‘मेरा नाम जोकर'' बनाना शुरू किया तभी से उन्हें लगता रहा कि यह फिल्म बॉक्स आफिल पर धमाल नहीं कर पायेगी, इसके बावजूद उन्होंने यह फिल्म बनायी और अपने ख्वाब को सिनेमा के पर्दे पर उतारने में कोई कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने दर्षकों को लुभाने के लिये हर तरह के फार्मूलों का इस्तेमाल भी किया— इसके बाद भी बॉक्स आफिस पर यह फिल्म पिट गयी। उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा के अनुरूप फिल्म बनाने की कोशिश में दो फिल्म के बराबर एक फिल्म बनायी।
जब पहली बार यह फिल्म रिलीज हुई तो इसका रनिंग टाइम चार घंटे तैंतालीस मिनट था। दो सप्ताह बाद ही इसे काटपीट कर चार घंटे का कर दिया गया और अब तो यह मात्र 170 मिनट के छोटे स्वरूप में उपलब्ध है। खराब संपादन के कारण इस फिल्म का आकर्षण समाप्त हो गया। फिल्म में ‘‘आवारा हूं'' गीत को षामिल कर राजकपूर ने खुद जता दिया कि इस फिल्म के कथानक का उनके रचनात्मक जीवन से ताल्लुकात है। इसलिए इस फिल्म को राजकपूर आत्मकथात्मक फिल्म के रूप में भी देखा जाता है।
इस फिल्म में उनके नेतृत्व में सितारों की पूरी फौज मौजूद थी। धर्मेन्द्र राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, दारा सिंह, पद्मिनी, सिमी ग्रेवाल, क्षण राबिनकिना, अचला सचदेव और ऋशि कपूर के साथ ओपनिंग सीन में ओमप्रकाष के नेतृत्व में हिंदी सिनेमा के कामेडियनों की पूरी फौज मौजूद थी— राजेंद्रनाथ, आगा, बीरबल, मुकरी आदि।
इस फिल्म को बनाने में राजकपूर को छह साल लगे थे। यह सबसे लंबी समयावधि है जो उन्हें किसी फिल्म को बनाने में लगी। यह उनके नायकत्व में बनी उनकी आखिरी फिल्म साबित हुयी। जब यह फिल्म रिलीज हुयी तब उनका नायकत्व का अवसान काल था और राजेष खन्ना जैसे युवा अभिनेताओं की नयी फौज पुराने समय के अभिनेताओं को चुनौती दे रही थी। इसके अलावा राजकपूर को अपने समकालीन और चिर प्रतिद्वंद्वी देव आनंद की लोकप्रियता से भी मुकाबला करना था।
यह फिल्म न केवल राजकपूर के नायकत्व का बल्कि षंकर जयकिषन के संगीत का भी यह अंतिम उत्कर्श साबित हुयी। जयकिषन की विदाई के बाद षंकर अकेले पुराना जादू नहीं जगाये रख सके। उन्हें लक्ष्मी—प्यारे की जोड़ी ने अपदस्थ किया। इस फिल्म के ‘‘ऐ भाई जरा देख के चलो'', ‘‘जीना यहां मरना यहां'', ‘‘जाने कहां गये ओ दिन'', ‘‘कहता है जोकर सारा जमाना'', ‘‘कहीं दाग लग जाए'' — जैसे सभी गीत आज भी सुपरिचित हैं।
इस फिल्म में राधू कर्मकार ने अद्भुत छायांकन किया। यूं तो राधू राजकपूर की अंतर्छवियों को हूबहू उतारने वाले सिनेमैटोग्राफर आवारा से निरंतर बने रहे हैं लेकिन जोकर में वे छायांकन को काव्यात्मक प्रखरता तक ले जाते हैं। जिस तरह उन्होंने ‘‘ऐ भाई देख के चलो'' के आखिरी बंद में अवसान का धुंधलका रचा है उसके मुकाबले कागज के फूल में ‘‘वक्त ने किया क्या हसीं सितम'' के आरंभ के पूर्व के दृष्यों को ही देखा जा सकता हैं।
बॉबी (1973)
मेरा नाम जोकर की असफलता ने राजकपूर की हिम्मत तोड़ दी। इस फिल्म के असफल होते ही उनकी फिल्मों से करोड़ों रुपये कमाने वाले उनके कई साथियों ने उनसे मुंह मोड़ लिया। आर. के. स्टुडियो, घर, पत्नी कृश्णा के जेवर तक रेहन रखने पड़े। वह पूरी तरह कर्ज में डूब गये। उनका बनोबल टूटने लगा था। इसी संकट से उबरने के लिये और अपने को श्रेश्ठ फिल्मकार के रूप में पुनः प्रतिश्ठित करने की साध लेकर बॉबी प्रारंभ की। राजकपूर सदा रूमानियत और किषोर प्रेम के तरफदार रहे हैं और इसी को उन्होंने बॉबी में पेश किया। उन्होंने अपने बेटे ऋशि कपूर को नायक की भूमिका के लिए उपयुक्त पाया लेकिन इससे पहले उससे पूछ लिया था कि क्या वह उन जैसे एक असफल और कस कर काम लेने वाले फिल्म निर्देषक के साथ काम करना चाहेगा।
इस फिल्म ने राजकपूर को मेरा नाम जोकर की असफलता से बाहर निकालकर पुनः षोमैन की तरह प्रतिश्ठित किया।
मेरा नाम जोकर को जितनी बड़ी असफलता मिली, बॉबी को उससे भी बड़ी सफलता मिली। मेरा नाम जोकर के बाद रणधीर कपूर के निर्देषन में बनी कल आज और कल भी एक साधारण सफलता साबित हुई थी और राजकपूर का अपने बड़े बेटे को स्टार निर्देषक के रूप में अपनी ही तरह प्रतिश्ठित करने का सपना भी सच नहीं हो सका था। यह फिल्म राजकपूर के लिए करो या मरो की तरह थी। फिल्म पंडितों ने उन्हें गुजरे हुए जमाने की तरह देखना षुरू कर दिया था लेकिन बॉबी ने उन्हें एक बार फिर समकालीन सर्वोच्च बना दिया था।
यह नए जमाने की नई फिल्म थी। इसकी हीरोइन खुद को बाइसवीं सदी की लड़की के रूप में देखती है। राजकपूर की प्रसिद्ध टीम में राधू करमार और अब्बास के अतिरिक्त षंकर जयकिषन की जगह लक्ष्मी—प्यारे और षैलेन्द्र की जगह आनंद बख्षी ने ले ली थी। गीतकारों में बख्षी के साथ विट्ठलभाई पटेल और इंद्रजीत सिंह ‘तुलसी' भी आ गए थे और संवाद लेखक के रूप में पत्रकार जैनेंद्र जैन।
इसमें युवा वर्ग की मानसिकता को फिल्मकार ने बारीकी से पकड़ा था और अब्बास की दुखांत कथा को सुखांत में बदल दिया था। इसके साथ ही लड़की का पिता मछुआरा जरूर है लेकिन पैसे वाला है। वे पैसे के बढ़ते हुए वर्चस्व को बखूबी पहचान समझ रहे थे, ‘‘मेरा जूता है जापानी'' वाला दौर गुजर गया। इसमें जूनियर जोकर ऋशि कपूर नायक और डिंपल कपाड़िया नायिका थीं। सहयोगी कलाकार थे — प्राण, प्रेमनाथ, सोनिया साहनी, दुर्गा खोटे, फरीदा जलाल, पिंचू कपूर, अरुणा ईरानी और प्रेम चौपड़ा। प्रेम चौपड़ा ने पे्रम चौपड़ा की ही भूमिका निभायी थी। उनका तकिया कलाम था फिल्म में — ‘‘मेरा नाम है पे्रम, प्रेम चौपड़ा।'' यह बिल्कुल छोटी सी भूमिका बहुत लोकप्रिय हुई थी।
राजकपूर ने अपने व्यक्तिगत जीवन की कुछ घटनाओं को भी फिल्म में पिरो दिया था। नरगिस से उनकी पहली मुलाकात फिल्म में डिंपल और ऋशि के प्रथम मिलन के रूप में चित्रांकित की गई थी। नायिका पहली फिल्म से ही युवा दिलों की धड़कन बन गई थी और राजेष से उनके विवाह और फिर फिल्मों से दस साल तक दूर रहने के कारण उनका क्रेज और बढ़ा। राजकपूर का निर्देषन इतनी गहरी पकड़ रखता है कि वे मामूली से मामूली किरदार की भी खास मौजूदगी निरुपित कर देते हैं।
एक अधेड़ सोषलाइट के रूप में अरुणा ईरानी की ‘बॉबी' में जबरदस्त मौजूदगी है। लड़के और लड़की के पिताओं के रूप में प्राण और प्रेमनाथ के मध्य संघर्श इन बेजोड़ कलाकारों ने बड़ी खूबी के साथ उभारा। खास बात यह कि प्रेमनाथ के हाथों अमीर प्राण का रुआब मिट्टी में मिलते देख दर्षक बहुत खुष हुए।
लक्ष्मी—प्यारे का संगीत बेमिसाल था ही। सभी गीत बेजोड़ थे और पार्ष्व संगीत भी। लता मंगेषकर तो थीं लेकिन मुकेष की जगह षैलेन्द्र सिंह आ गए थे और ‘ःबेषक मंदिर—मस्जिद तोड़ो'' के लिए नरेंद्र चंचल की आवाज ली गई थी। इस गीत के लिए उन्हें सर्वश्रेश्ठ गायक का फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। ‘‘मैं षायर तो नहीं'', ‘‘झूठ बोले कौवा काटे'', ‘‘हम तुम एक कमरे में बंद हों'', ‘‘न मांगू सोना चांदी'', ‘‘अक्सर कोई लड़की इस हाल में'' आदि सभी गीतों ने धूम मचा दी थी।
हालांकि इस फिल्म के लिए राजकपूर की जबर्दस्त आलोचना भी हुई और बुद्धिजीवियों ने इसे एक बड़े फिल्मकार के पलायन के रूप में भी देखा जिसके जवाब में राजकपूर ने गहरा व्यंग्य किया कि अगर यही फिल्म फ्लॉप हो जाती तो आलोचक इसे ‘क्लासिक' बताते। इतने सालों बाद भी आज भी यह फिल्म यादगार बनी हुई है। राजकपूर ने उस समय कुछ झूठ नहीं कहा था। दरअसल वे यही कहना चाहते थे कि फिल्मकार को जमाने के साथ चलना होता है। वह एक स्वांतः सुखाय सृजनरत चाहकर भी नहीं हो सकता।
सत्यम षिवम सुंदरम (1978)
इस फिल्म को राजकपूर की खराब फिल्मों में शुमार किया जाता है। इस फिल्म में नायिका के देह को अधिक से अधिक प्रदर्शित करने के कारण उनकी खूब आलोचना भी हुयी और सेंसर बोर्ड ने कई आपत्तियां भी जतायी। नायिका के रूप में जीनत अमान ने जबकि उनके बचपन के दृश्यों में पद्मिनी कोल्हापुरे ने अभिनय किया है। अन्य कलाकारों में षषि कपूर, कन्हैया लाल, डेविड, लीला चिटनीस, षीतल, विष्वा मेहरा प्रमुख हैं। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत का सबसे उज्जवल पक्ष/ षीर्शक गीत के अतिरिक्त ‘‘यषोमती मैया से बोले नंदलाला'', ‘‘रंग महल के दस दरवाजे'' आदि अनेक मधुर गीत हैं। गीतकार हैं— आनंद बख्षी, पं. नरेंद्र षर्मा और विट्ठल भाई पटेल। संवाद जैनेंद्र जैन का है और छायाकार हैं— आर.के. फिल्म्स के स्थायी सदस्य राधू कर्मकार।
राजकपूर को सत्यम् षिवम् सुंदरम् बनाने की प्रेरणा लता मंगेषकर से मिली। राजकपूर ने इस बारे में बताया था, ‘‘पचास के दषक में लता मंगेशकर अलसभोर तक हमें अपने संगीत से आनंदित करती रहती थीं। उस समय मैं आंख बंद कर जैसे एक लोकोत्तर आनंद जगत में पहुंच जाता। ईष्वर किसी स्त्री को स्वर्गिक आवाज और असाधारण सौंदर्य एक साथ नहीं बख्षता, अगर ऐसा होता तो वह संसार को हिला कर रख देती। मैं एक अति मधुर आवाज वाली अति सामान्य रूप रंग वाली लड़की की फिल्म बनाना चाहता था, जो एक सुंदर नवयुवक को सम्मोहित कर लेती है। मैंने लताजी से इसमें अभिनय करने को कहा था, और वह राजी भी हो गई थी, पर बाद में उन्होंने मना भी कर दिया। सत्यम षिवम् सुंदरम का मूल विचार था कि प्रेम और विष्वास ही किसी रिष्ते की पवित्रता का आधार होता है सौंदर्य नहीं। षायद आपको याद हो कि फिल्म का पहला षॉट है सड़क पर पड़ा एक पत्थर। लोग उस पर फूल और कुमकुम चढ़ा कर पूजा करने लगते हैं। परन्तु फिल्म में अन्तर्निहित इस भावना को जनता समझ न सकी और फिल्म असफल हो गई।''
राजकपूर ने बताया था कि कैसे इस फिल्म के अंतिम दृश्यों की शूटिंग के दौरान एक करिश्मा हुआ। फिल्म के अंत में गांव को बाढ़ में डूबते हुये दिखाया जाना था। जब फिल्म का चरमोत्कर्श षूट होने का समय आया तो लोनी की ‘मेरी नदी' में अचानक बाढ़ आ गयी और पूरा गांव बाढ़ में पानी से घिर गया। चारों ओर केवल पानी ही पानी था। सौभाग्य से कैमरा यूनिट वहीं थी और उन्होंने उस असली बाढ़ में बहुत दृष्य षूट कर लिये। वहां मंदिर और बाकी सारा सेट था। फिल्म में उन्हीं सब का बाढ़ में डूबना प्रस्तावित था। इस प्रकार लोनी की वह नदी राजकपूर के लिये भाग्यषाली सिद्ध हुई।
इस फिल्म में नग्नता दिखाये जाने पर हुयी आलोचना के जवाब में राजकपूर ने कहा था, ''नग्नता देखकर हम हतप्रभ रह जाते हैं। हमें परिपक्व होना होगा। साठ करोड़ बच्चों के जन्म वाले देष में आंषिक नग्नता तक इस प्रकार आघात पहुंचाये — ये ताज्जुब की ही बात है। हम इतने पाखंडी क्यों हैं। बच्चे वृक्षों पर नहीं लगते। वे बिस्तर की देन हैं। एक सुंदर बाला को पर्दे पर दिखाने में अनैतिक क्या है। सिनेमा को गांवों तक ले जाओ, उन्हें मनोरंजन उपलब्ध कराओ। अभी तक उनके मनोरंजन के साधन हैं — भट्टी से दारू पीना और बच्चे पैदा करना। सत्यम षिवम् सुंदरम के पूरी होने पर मैंने सेंसर बोर्ड से सवाल किया ‘‘कौन अधिक हानिकर? — मेरी फिल्म या आपकी स्वीकृत फिल्में? जगह—जगह से मारी हुई अपराध फिल्में, जेम्स बांड की भौंडी नकल और अन्य कचरा जिनके बैनर और पोस्टर पूरे भारत में लगे हैं। अहिंसा का दम भरने वाले इस देष में हर पोस्टर पर नायक हाथ में पिस्तौल, तलवार या मारने का अन्य कोई हथियार ताने खड़ा है। क्या आप महसूस नहीं करते कि यह अत्यंत हानिकारक है। पर अफसोस, सेंसर इसे आसानी से इजाजत दे देता है।''
प्रेम रोग (1982)
प्रेम रोग अत्यंत प्रभावी एवं सुपरहिट फिल्म रही। प्रेम रोग ने कई फिल्म फेयर अवार्ड जीते। राजकपूर की यह फिल्म एक साथ कई सवालों—समस्याओं से रूबरू होती है। यों तो यह एक निष्छल भोली, सीधी—सादी, सामंती परिवार की लड़की की कहानी है जो किषोरवय को लांघती यौवन के द्वार पर दस्तक दे रही है। जिसमें बचपना अभी भी है। लाड़—प्यार और सम्पन्नता के चलते जिसने स्वप्न में भी अभाव नहीं देखे, और तो और जमीन पर नंगे पांव तक नहीं धरे कभी। इस फिल्म में राज साहब ने कई सामाजिक विसंगतियों, रूढ़ियों, परंपराओं, वर्ग—संघर्श, स्त्री की दुर्दषा, ठकुराई अय्याषी, झूठे अहंकार और भ्रश्टाचार पर प्रहार किया है। केवल प्रहार ही नहीं इनसे निजात पाने का हल भी दिखाया है।
कई वजहों से यह फिल्म सर्वश्रेश्ठ कही जा सकती है। इसका संदेश बहुत दमदार है। सषक्त और चुस्त पटकथा है। संवाद अदायगी प्रभावी है। छायांकन, दृष्यांकन सम्मोहक है। दृष्यों को एक—दूसरे से जोड़ने की कला—कौषल इस तरह कि उनकी धारावाहिकता अभंग बनी रहे। मन मोह लेने वाले, कषिष पैदा करते गीत, उनका बेजोड़ संगीत, पात्रों का मंजा हुआ अकृत्रिम अभिनय, कथावस्तु के अनुरूप देषकाल—परिदृष्य का अंकन, तदनुरूप वेष—विन्यास, साज—सज्जा.....। यानि सब की मिली—जुली परिणति यह कि देखने के बाद अर्से बाद तक फिल्म दिलोदिमाग पर कब्जा किये रहती है।
बिमलराय या वी. षांताराम की तरह राजकपूर की अपनी एक टीम थी जो उनकी कई फिल्मों में, लगभग दो तिहाई फिल्मों में दिखती है। कई कलाकारों को भी वे रिपीट करते थे। सुशमा सेठ, कुलभूशण खरबंदा, रजा मुराद जैसे कलाकार राम तेरी गंगा मैली में भी थे।
राम तेरी गंगा मैली (1985)
राजकपूर निर्देशित यह अंतिम फिल्म है। इस फिल्म के कथाकार भी वह खुद थे और संपादक भी। राजकपूर ने एक प्रेमकथा को गंगा के रूपक में ढाल दिया था। जिस प्रकार हिमालय से अपनी यात्रा शुरू करने वाली गंगा बनारस पहुंचते—पहुंचते प्रदूषित हो जाती है उसी प्रकार फिल्म की नायिका हिमालय की तराई में बसे गांव से चलकर अपने प्रेमी एवं पति को खोजते—खोजते बनारस पहुंचती है तो वह कलंकित हो चुकी होती है।
इस फिल्म में नायक के रूप में अपने सबसे छोटे बेटे राजीव कपूर को रखा है। यह राजीव कपूर की एकमात्र फिल्म है। इसी तरह से फिल्म की नायिका मंदाकिनी का भी यही हाल रहा।
राजकपूर वैसे निर्देशक थे जो किसी भी कलाकार से मनमाफिक काम करा लेते थे। यह फिल्म अंतरवस्त्र के बिना पारदर्शी साड़ी में नायिका के स्नान दृश्य तथा बच्चे को स्तनपान कराने के दृश्य के कारण काफी चर्चित एवं विवादित रही। इसकी पटकथा वी.पी. साठे, ज्योति स्वरूप और के.के. सिंह ने लिखी थी। संवाद लेखक के.के. सिंह थे। गीतकार हसरत जयपुरी, अमीर कजलबख्श और संगीतकार रवीन्द्र जैन थे। छायाकार हमेशा की तरह राधू कर्मकार थे।
यह फिल्म बॉक्स आफिस पर ब्लॉकबस्टर साबित हुयी और 1985 की सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्म साबित हुयी। इस फिल्म को पांच श्रेणियों — सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ संपादक और सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशक में पुरस्कार मिले।
राजकपूर को राम तेरी गंगा मैली बनाने का विचार उसी दरम्यान आया था जब वह जिस देष में गंगा बहती है के गीत का कुछ भाग फिल्माने के लिए कलकत्ता गए थे। वह हुगली के किनारे दक्षिणेष्वर मंदिर के परिसर में स्थित स्वामी रामकृश्ण परमहंस के मठ में ठहरे थे। वहां एक साधु ने उन्हें एक बहुत दिलचस्प घटना सुनाई जिससे प्रेरित होकर 25 वर्श बाद उन्होंने राम तेरी गंगा मैली बनाई। दक्षिणेश्वर मंदिर में एक दिन ऋशिकेष से प्रसिद्ध नागा साधु तोतापुरी महाराज हुगली पधारे जहां वह राम कृश्ण परमहंस की आध्यात्मिक उपलब्धियों की परीक्षा लेना चाहते थे। वे एक घाट पर मिले जहां गंगा का पानी सबसे अधिक गंदा था। तोतापुरी महाराज ने ताना मारा, ‘‘राम, यह तेरी गंगा कितनी मैली है!'' रामकृश्ण ने उन पर नजर जमाये उत्तर दिया, ‘‘महाराज ऐसा तो होना ही है। गंगा ऋशिकेष से बहकर यहां आती है। राह में सभी मनुश्यों के पाप धोती है।'' इस घटना के विवरण उन्हें लंबे समय तक याद रहे और इसी से प्रेरित होकर राम तेरी गंगा मैली बनाई।
वह नायिका के रूप में किसी ऐसी लड़की को लेना चाहते थे जो पर्दे पर कभी देखी नहीं गयी हो और किसी अन्य से उसका कोई साम्य नहीं हो ताकि दर्षक उसे गंगा के रूप में स्वीकार सकें। उन्हें मंदाकिनी के रूप में ऐसी लड़की मिली जो गंगा की कल्पना के अनुरूप थी और दर्षकों ने उसे गंगा की तरह स्वीकार भी किया। मंदाकिनी ने भी गंगा के पात्र को जीया।
जीवन साथी
1946 में 22 वर्ष की उम्र में राजकपूर की शादी कृष्णा मल्होत्रा से हुयी। वह जबलपुर की परम्परागत परिवार से थी। कृष्णा राजकपूर के परिवार में दूर की रिश्तेदार थी। दरअसल रिश्ते में वह पृथ्वीराज कपूर की भगिनी — उनकी मां के भाई की बेटी थी। जब कृष्णा की शादी हुयी थी तब कृष्णा के पिता रीवा में पुलिस इंस्पेक्टर जनरल थे। उन्होंने तीन शादियां की थी और फिल्म अभिनेता प्रेमनाथ एवं राजेन्द्रनाथ सहित उनकी 13 संतानें थी। कृष्णा पढ़ाई में बहुत अच्छी थी। शादी के समय उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा दे दी थी और इसका परिणाम शादी के बाद आया जिसमें उन्होंने डिस्टिंग्शन के साथ परीक्षा उतीर्ण की, जो उन दिनों के लिये गौरव की बात थी।
राजकपूर से कृष्णा की शादी परम्परागत रूप से तय हुयी थी। शादी के समय कृष्णा 16 वर्ष की थी। मुंबई का वातावरण कृष्णा के लिये नया था। जब शादी हुयी तो राजकपूर सितारा बनने की राह पर थे। राजकपूर के कैरियर का ग्राफ बढ़ता गया। पहले वह अभिनेता थे और धीरे—धीरे निर्देशक और निर्माता तथा बाद में स्टूडियो के मालिक बन गये। राजकपूर अपने काम में पूरी तरह व्यस्त रहते थे और कृष्णा ने अपने को गृहणी और बच्चों की माताओं की भूमिका में बांध लिया।
कृष्णा अभिनेता प्रेमनाथ और राजेन्द्रनाथ की बहन थी।
कृश्णा से पहली मुलाकात के बारे में राज कपूर बताते हैं, ‘‘मैं आग बनाने की योजना बना रहा था और अपने सह अभिनेता प्रेमनाथ के बारे में विचार विमर्ष करने के बहाने उनके घर गया। दरअसल मैं उनकी बहन को देखना चाहता था जिसके साथ मेरे विवाह का सुझाव मेरे बुजुर्गों ने दिया था। जैसे ही मैंने घर में प्रवेष किया, मुझे सितार के स्वर सुनाई पड़े। मैं स्वचालित—सा उस कमरे की ओर खिंचा चला गया। जैसे ही दरवाजे के पास पहुंचा तो ठगा—सा खड़ा रह गया। वहां बैठी सुंदर युवती अपने संगीत में पूर्ण रूप से लीन थी। संगीत की आराधना में खोई हुई। यह था पहली नजर का प्यार। उसके बाद की कहानी किसी इतिहास से कम नहीं।''
शादी के बाद राज कपूर नाम कमाने में मषगूल थे। प्रारंभ में कृश्णा उनके फिल्मी जीवन में ज्यादा रूचि नहीं ले पाई। हालांकि उन्होंने हर कदम पर राजकपूर का साथ निभाया।
कृश्णा कहती हैं, ‘‘गलती अब मैं याद करती हूं। गलती मेरी भी उतनी ही थी जितनी उनकी। मैं अपरिपक्व थी, मुझमें आत्मविष्वास की कमी थी। स्वस्थ बच्चे और सुविधाजनक जिंदगी के परे व्यापक और वृहतर जीवन से पूर्णतः अनभिज्ञ। मेरी मानो तो हर संगीन रात एक सुनहरी सुबह का इंतजार भर है और समय सभी टुच्चेपन को धो देता है। मृत्यु के पल में भावनाओं और एकत्रित सम्पदा का क्या मोल रह जाता है? मैंने छोटी—छोटी बातों पर चिंता करना छोड़ दिया और मुझे मिले वरदानों को गिनना षुरू किया। आज जो कुछ भी मेरे पास है, मेरे पति का दिया हुआ है। यह सब उन्होंने रात—दिन पसीना बहाकर कमाया। दुनिया में हर दम्पत्ति के जीवन में संकट काल आता है। पत्नी पर बहुत कुछ निर्भर करता है, उसे गुजरते वक्त के साथ—साथ बदलते पति के साथ खुद भी बदलते जाना चाहिए।
राज कपूर ने कृश्णा को पहली बार सफेद सूती साड़ी में देखा, वही सफेद साड़ी में लिपटी नारी आकृति उनके जीवन में विषेश महत्वपूर्ण बन गयी। राज कपूर के अपनी नायिकाओं के साथ विषेश संबंध रहे। नरगिस, पद्मिनी और वैजयंतीमाला पूर्ण रूप से उनके बताए हुए ढांचे में ढलती रहीं और सब पर राज कपूर की ष्वेत वस्त्रों में लिपटी महिला की छाप लगती गयी। कुछ लोगों का कहना है कि राज कपूर अपनी नायिकाओं से प्यार करने लगते थे और कुछ का कहना है कि नायिकाएं राज कपूर से प्यार करने लगती थीं। लेकिन सच्चाई यह है कि राज कपूर केवल अपनी पत्नी कृश्णा से प्यार करते थे।
अपनी पत्नी के बारे में राजकपूर ने कहा, ‘‘ईमानदारी से कहूं तो मैं कभी भी एक बहुत अच्छा पारिवारिक व्यक्ति नहीं बन पाया और यदि आज मेरा परिवार है भी तो इसका पूरा श्रेय मिसेज राज कपूर को जाता है। यह वही थी जिसने गत 33 वर्शों से मेरी सभी कमजोरियों को सहन किया और मैं अपने कार्यों में जो हासिल कर सका उस सब में वह सतत् मेरे साथ रही और इस सुंदर परिवार की देखभाल का सारा श्रेय कृश्णा कपूर को ही है। यद्यपि कभी—कभी हम दोनों की किसी बात पर अनबन भी हो जाती थी और सही तालमेल नहीं बैठ पाता था फिर भी हम हर बात में हमेषा साथ रहे। और इस का श्रेय भी उसी को है मुझे नहीं, मैं आपको विष्वास दिलाता हूं कि वह एक बहुत दयालु और सहनषील महिला है। वह मेरे माता—पिता की आदर्ष बहू रही है। उसने उनकी भली—भांति देखभाल की। राज कपूर के परिवार का सच यही है।''
आदर्श पत्नी कैसी हो, इसके बारे में राजकपूर ने कहा था, ‘‘क्या आप जानते हैं कवि कालिदास ने आदर्ष पत्नी का किन षब्दों में वर्णन किया? जो पति की सच्ची मित्र, दार्षनिक और मार्गदर्षक हो। पति के पषोपेष में पड़ने पर उसे उचित मार्ग पर ले जाए। आहत होने पर वह मां की तरह दुलारे और बीमार होने पर कुषल परिचारिका बन सेवा करे। कृश्णा ने इन सारी भूमिकाओं को कुषलता से निभाया। कृश्णा मेरी षक्ति है, वह अर्धांगिनी की भूमिका अक्षरषः निभाने वाली आदर्ष स्त्री है। हर उतार—चढ़ावे में वह मेरा सम्बल रही। मेरी जीवन नैया का वही लंगर है। हर एक की किस्मत में कृश्णा जैसी पत्नी नहीं होती। पर यह भी है कि हर स्त्री की किस्मत में राज कपूर जैसा पति नहीं होता।''
राजकपूर ने 1963 में भारत चीन के युद्ध के दौरान उत्तरपूर्वी सीमा से अपनी पत्नी को पत्र लिखा। इसमें उन्होंने कहा, ‘‘तुम जो मेरी चिरंतन प्रेम और जीवन हो, तुम जो मेरी पत्नी हो, तुम जो मेरे बच्चों की मां हो, मेरी जीवन संगिनी कृश्णा, तुम्हें सम्बोधित कर यह पत्र लिख रहा हूं ताकि अपने भावनात्मक अहसास को जो कि सत्य यथार्थ है, तुम तक पहुंचा सकूं। मैं अपनी सारी गलतियां और खामियां स्वीकार करता हूं चाहे वह संसार सम्बन्धी हों चाहे बाहर की। जब कभी मैं अपने अत्यंत निकट के लोगों के प्यार के बदले प्यार का प्रदर्षन नहीं कर सका तब सत्य यह नहीं था कि अपने पर बरसाये उनके अपनत्व को समझने में मैं असमर्थ रहा बल्कि अपने आत्मकेंद्रित स्वभाव के कारण मैं यह प्रदर्षित नहीं कर सका कि जितना तुम सब मेरे दिल के पास हो, उतना ही मैं भी तुम्हारे दिल के पास हूं। तुम्हारे प्रति मेरा प्रेमपाष भी पहले से सषक्त हुआ है। हो सकता है इसी प्रेमपाष से मुझे जीवन की धूप—छांव को सहने की षक्ति मिली हो। इसी धूप—छांव से तो है मेरा वजूद। और मेरा वजूद है मेरा काम। पता नहीं मैं अपनी भावनाएं कहां तक अभिव्यक्त कर पाउंगा। मेरी प्रकृति चंचल हैं, यह तुम अच्छी तरह जानती हो। परन्तु एक बात मेरे मन में स्पश्ट और निष्चित है कि हम दोनों को मिलकर परस्पर संपर्क और साथ का वातावरण बनाना है। इस रिष्ते की पहल करते हुए मैं तुम्हें विष्वास दिलाना चाहता हूं कि मैं जो भी हूं, जहां भी हूं, अटल सत्य है कि मैं तुम्हारा हूं।''
कृश्णा कहती हैं, ‘‘यदि मुझे जीवन फिर से जीने को मिले तो मैं पति के रूप में उन्हें ही चुनूं। दस बार भी........और उन्हीं अनुभूतियों की आवृति के साथ। रात का अंधेरा ही सुबह का उजाला देता है।''
1980 में राज कपूर के एक पारिवारिक व्यक्ति के रूप में दिए गए साक्षात्कार में से :—
‘‘ईमानदारी से कहूं तो मैं कभी भी एक बहुत अच्छा पारिवारिक व्यक्ति नहीं बन पाया और यदि आज मेरा परिवार है भी तो इसका पूरा श्रेय मिसेज राज कपूर को जाता है। यह वही थी जिसने गत 33 वर्शों से मेरी सभी कमजोरियों को सहन किया और मैं अपने कार्यों में जो हासिल कर सका उस सब में वह सतत् मेरे साथ रही और इस सुंदर परिवार की देखभाल का सारा श्रेय कृश्णा कपूर को ही है। यद्यपि कभी—कभी हम दोनों की किसी बात पर अनबन भी हो जाती थी और सही तालमेल नहीं बैठ पाता था फिर भी हम हर बात में हमेषा साथ रहे। और इस का श्रेय भी उसी को है मुझे नहीं, मैं आपको विष्वास दिलाता हूं कि वह एक बहुत दयालु और सहनषील महिला है। वह मेरे माता—पिता की आदर्ष बहू रही है। उसने उनकी भली—भांति देखभाल की। राज कपूर के परिवार का सच यही है।'
राजकपूर की नायिकाएं
राजकपूर को बेहतरीन फिल्मों के निर्माता, निर्देशक एवं अभिनेता के रूप में ही नहीं बल्कि भारतीय सिनेमा में अनेक खूबसूरत एवं प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों को लाने तथा उनकी अभिनय प्रतिभा को उभारने के लिये भी जाना जाता है। वह अपनी अभिनेत्रियों के बारे में कहते हैं, ‘‘हर अभिनेत्री अपनी भूमिका में निर्देषक के माध्यम से प्रवेष करती है और जब वह पात्र को जीती है तो स्वयं उस पर मुग्ध होकर कहती है ‘‘तुम सचमुच महान हो जो मैं यह कर सकी'' और इस प्रकार वह अपनी इस छवि (जिससे उसे प्यार है) के जनक के नाते निर्देषक से प्यार करने लगती है। पर सच तो यह है कि इस प्रकार वह स्वयं को प्यार करती है। यही कारण है कि मेरी नायिकाओं से मेरे बड़े सुंदर और कोमल संबंध रहे क्योंकि काम के दौरान हममें एक आत्मीयता की भावना जो कि हमारे उद्योग में नितांत जरूरी है, विकसित हो जाती थी। स्वाभाविक है कि इसमें एक पुरुश होता है और एक स्त्री, परंतु यथार्थ में इंसान प्रेम तो खुद अपने आप से ही करता है।
मैरी मेरा नाम जोकर के नायक राजू का पहला प्यार था। किषोर वय का नाजुक प्रेम। किषोर राजू के लिए उसकी षिक्षिका मैरी अच्छाई, सच्चाई और पवित्रता का प्रतीक थी। वह मानवीय, कोमल और संवेदनषील थी। सिम्मी में सारे अपेक्षित गुण थे और उसने भूमिका का निर्वाह सम्पूर्णता से किया।
मधुबाला
सौंदर्य की मल्लिका के रूप में मशहूर मधुबाला सिनेमा के पर्दे पर राजकपूर की पहली नायिका बनी थी। नायक—नायिका के रूप में दोनों के कैरियर की शुरूआत किदार शर्मा निर्देशित नीलकमल से हुयी थी। यह फिल्म 1947 में रिलीज हुयी थी। इसके बाद दोनों ने उसी साल रिलीज हुयी फिल्म दिल की रानी में काम किया। इसके अलावा 1948 में रिलीज हुयी फिल्म अमर प्रेम और 1959 में रिलीज हुयी फिल्म दो उस्ताद में भी दोनों ने काम किया।
कामिनी कौशल
राजकपूर की फिल्मी सफर की शुरूआत में उनके संपर्क में आने वाली अभिनेत्रियों में कामिनी कौशल शुमार थी। कामिनी कौषल ने चेतन आनंद की फिल्म नीचा नगर से अपने कैरियर की षुरुआत की थी। नीचा नगर पहली भारतीय फिल्म थी जिसने केन्स समारोह में कई मुख्य अवार्ड प्राप्त किया। अत्यधिक षिक्षित, सुसभ्य और संभ्रांत परिवार में जन्मी उमा सूद (नी कष्यप) लाहौर में लेडी मेकलैगन स्कूल और एमिली किनायर्ड कॉलेज की प्रतिभावान छात्रा थी। वह मैट्रिक में पहले नंबर पर और बैचलर ऑफ आर्ट्स परीक्षा में तीसरे नंबर पर आयी थी। वह अपने स्कूल और कॉलेज की ड्रामेटिक सोसायटी की एक सक्रिय सदस्य और लाहौर में एक प्रसिद्ध रेडियो कलाकार भी थीं।
राजकपूर अपनी पहली फिल्म आग बनाने से करीब एक साल पहले जेल यात्रा नामक फिल्म में कामिनी कौशल के साथ काम कर चुके थे। राजकपूर आग में कामिनी कौशल की भूमिका से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने कहा था कि आग में उसने अपने व्यक्तित्व के अनुरूप बहुत ही संवेदनषील भूमिका अदा की। राजकपूर ने कामिनी कौशल के बारे में कहा था, ‘‘वह ऐसी ही थी, बड़ी संवेदनषील, नाजुक, अति सुंदर, बहुत कम उम्र की, बड़ी स्त्रियोचित्त एक श्रेश्ठ अभिनेत्री और बड़ी भावुक महिला। मैं उसकी ईमानदारी, जो उसके अभिनय में झलक आती थी, का कायल था। जब वह बोलती तो आपको महसूस होता कि वह सच बोल रही है।
नरगिस
राजकपूर की पहली खोज नरगिस थी। नरगिस राजकपूर की पहली फिल्म आग में नायिका बनी। उस समय नरगिस 16 वर्ष की थी। उस समय तक राजकपूर 22—23 वर्ष के थे। उनकी शादी हो चुकी थी और पिता भी बन चुके थे।
नरगिस से उनकी पहली मुलाकात फिल्म आग के निर्माण के सिलसिले में हुई थी। वे नरगिस की मां जद्दन बाई से मिलने के लिये मैरीन ड्राइव स्थित उनके फ्लैट पर गये। इस पहली मुलाकात के बारे में राजकपूर ने बताया, ‘‘दरवाजे की घंटी बजाकर मैं खड़ा था। दरवाजा खुला तो देखता हूं — मेरे सामने एक परी खड़ी थी। वास्तव में वह किसी परी से कम नहीं थी। छोटे बाल, बालों की एक लट उसकी दाहिनी आंख पर आई और लगता था जैसे वह मुझे सिर्फ एक आंख से देख रही थी। ये थी हमारी प्रथम भेंट और हम दोनों ने उस फिल्म (आग) में साथ काम किया।''
नरगिस के साथ अपनी पहली मुलाकात की यादों के आधार पर अपनी फिल्म बॉबी में एक दृष्य का फिल्मांकन किया। यह वह दृश्य है जिसमें नायक (त्रृषि कपूर) पहली बार नायिका (डिंपल कपाडिया) के घर जाता है। यह दृश्य नरगिस के साथ मरीन ड्राइव स्थित फ्लैट में हुई राजकपूर की मुलाकात से प्रेरित थी।
नरगिस से मुलाकात का वाकया यह है कि षिराज अली हकीम ने महालक्ष्मी में फेमस नाम का स्टूडियो बनाया था। इस स्टूडियो के नया होने के कारण बहुत कम निर्माताओं ने यहां फिल्म बनाई थी। राजकपूर इसी स्टुडियो में अपनी पहली फिल्म आग की षूटिंग करना चाहते थे। लेकिन इसके पहले वह वहां की ध्वनि की गुणवत्ता की जांच करना चाहते थे क्याेंकि ध्वनि पुनर्मुद्रण की सुविधा न होने के कारण उस समय दृष्य के साथ ही ध्वनि भी रिकार्ड करते थे। जब वह फेमस स्टूडियो गये तो उन्हें पता चला कि जद्दन बाई ‘रोमियो जूलियट' नाम की फिल्म बना रही हैं। काम समाप्त करके वह उसी समय अपने घर के लिये रवाना हुई थीं। राजकपूर उनसे मिलने के लिये मरीन ड्राइव स्थित उनके फृलैट पर पहुंचे। जब उन्होंने दरवाजे पर लगी घंटी बजायी तो उनके सामने जो घटित हुआ उसके आधार पर बॉबी का वह दृष्य फिल्माया जब डिम्पल, चिंटू (ऋशि) के लिए दरवाजा खोलती है। जद्दन बाई की बेटी अंदर भजिया बना रही थी। दरवाजे की घंटी सुनकर वह दौड़ती हुई आई और मुझसे बात करते हुए उसने अपना बेसन ने सना हाथ माथे पर फेर लिया। सारा माथा सन गया। ठीक यही दृष्य और यही अदा मैंने बॉबी में डिम्पल की पेष की।
उसके पूछने पर मैंने अपना परिचय पृथ्वीराज कपूर के बेटे के रूप में दिया था क्योंकि तब तक वही मेरी पहचान थी। उसने बताया कि रंगमंच पर ‘दीवार' नाटक में देखने के कारण वह मुझे पहचानती हैं। मैंने बीबीजी — इसी नाम से जद्दन बाई जानी जाती थी — के बारे में पूछा। उसने कहा ‘‘घर में कोई नहीं है। मैं अकेली हूं।'' उसने मुझे बैठने को कहा किन्तु मैंने कहा, ‘‘नहीं, मैं जाता हूं।'' मैं चला आया पर उसकी स्मृतियां मेरा पीछा करती रही। मैं सीधा इन्दर राज आनंद के पास पहुंचा। मुझे अपनी फिल्म में हर हाल में यह लड़की चाहिए। तुम पटकथा में उसकी भूमिका के दृष्य जोड़ो। मैं उस समय आग बनाने की योजना बना रहा था। इस प्रकार मैं नरगिस से मिला और प्रदर्षन पूर्व प्रचार के कारण उत्सुक दर्षक उसकी एक झलक के लिए तरसते रहे परन्तु नवीं रील में जाकर कहीं वे उसके दर्षन कर पाये।
राजकपूर के शब्दों में ‘‘नरगिस सचमुच में महान कलाकार भी। एक इंसान के नाते नरगिस बहुत कुलीन औरत थी जो अपने पास आये किसी व्यक्ति की चिंतायें, दुख और व्यथा समझ लेती थी। वह एक स्रोत थी— हर किसी के लिए। वह किसी में भी एक आत्मिक षांति का संचार कर देती थी जिस षक्ति के सहारे व्यक्ति कुछ भी काम करने में सक्षम हो जाता।
नरगिस मेरी प्रेरणा थी, मेरी स्फूर्ति (मेरी उर्जा) थी। जी हां, मेरी पत्नी मेरी षक्ति रही है और मेरी सभी नायिकाएं मेरी स्फूर्ति। मेरी पत्नी कभी मेरी नायिका नहीं बन सकती थी और मेरी नायिकाएं कभी मेरी पत्नी नहीं बन सकती थी।
स्त्रियों का मेरे जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान था। पर नरगिस का स्थान दूसरों से कहीं अधिक था। मैं उससे कहा करता था, ‘‘कृश्णा मेरी पत्नी है, मेरे बच्चों की मां है, मैं चाहता हूं कि तुम मेरी फिल्मों की मां बनो और वही उसका असली सीन था।
मेरे काम और नरगिस के बीच एक बहुत सुंदर संबंध रहा। उसके चेहरे में, चाल में और बातों में एक विषेश खुषगवारी झलकती थी। उसे हर किसी भूमिका में नहीं लिया जा सकता था यद्यपि उसमें किसी भी भूमिका में स्वयं को ढाल लेने की काबलियत काफी थी। इस तरह की काबलियत और ऐसा व्यक्तित्व आज की फिल्मों में नहीं मिलता।
नरगिस मुझे समझाती थी और मैं उसे। मैं उसके प्रति अपनी अनुभूति को व्यक्त नहीं कर सकता। नहीं, वह प्यार नहीं था हालांकि मुझे वह बहुत पसंद थी। मुझे लगता है कि वह एक श्रेश्ठ कलाकार का दूसरे श्रेश्ठ कलाकार के साथ भावनात्मक तादात्म्य था।''
राज कपूर ने कहा, ‘‘हो सकता है, उस फिल्म को स्वीकार करते समय नरगिस ने अपने जीवन का सबसे कठिन फैसला कर लिया था कि क्या उसे राज कपूर के साथ एक भविश्यहीन रिष्ते को जारी रखना है या आर.के. से अलग होकर अपने लिए एक सर्वथा नई जिंदगी बनानी है।''
हालांकि राज कपूर और नरगिस के बीच का संबंध बहुत लंबे समय तक चला लेकिन यह शुरू से ही तय था कि दोनों के बीच के रिश्ते का कोई अंजाम नहीं है और उसका अंत होना अवष्यंभावी था। दोनों के बीच के संबंध का कोई निष्चित भविश्य नहीं हो सकता था और एक दिन जैसे अचानक वह उनके जीवन में आई थी, वैसे ही अभिनेता—निर्माता—निर्देषक सुनील दत्त से अचानक विवाह कर वह राज कपूर ही नहीं वरन् सिने जगत से भी दूर हो गई। नरगिस को मदर इंडिया की भूमिका मिल चुकी थी और वह मेहबूब कैम्प जा चुकी थी। और इस प्रकार एक सुंदर रिष्ते का अंत हो गया। एक ऐसा रिष्ता जिसने सार्वजनिक और निजी जीवन के अनेक दबाव को सहन करते हुए भी पर्दे पर कुछ ऐसे आनंदमय अविस्मरणीय दृश्यों के सृजन का कारण बना जो भारतीय सिनेपट की धरोहर बन गये।
बेबी नाज
नरगिस की खोज राजकपूर ने की थी लेकिन बेबी नॉज उनकी खोज नहीं थी। बेबी नाज को प्रकाष अरोरा राजकपूर के पास लेकर आये थे और आते ही राजकपूर को भा गयी। राजकपूर का कहना था कि बेबी नाज बड़ी तेज थी। मात्र सात वर्श की बालिका, पर बड़ी चुलबुली और प्रतिभा के प्रति बिल्कुल सजग। वह उनकी फिल्म बूट पॉलिष की नायिका बनी और उसने उसमें स्मरणीय अभिनय किया।
निम्मी
वास्तव में निम्मी भी राजकपूर की खोज नहीं थी। राजकपूर ने मेहबूब खान से निम्मी को फिल्म बरसात में काम करने के लिये मांगा था। निम्मी प्रसिद्ध गायिका वहीदन की बेटी थी जो उस समय मेहबूब खान के लिए काम कर रही थी। निम्मी और उसकी मां मेहबूब स्टूडियो में बन रही फिल्म अंदाज के सेट पर आती—जाती रहती थीं और वहीं राजकपूर ने निम्मी को पहली बार देखा था। राजकपूर ने मेहबूब खान से पूछा कि क्या वह उसे अपनी फिल्म बरसात में ले सकता है और उन्होंने हां कहा। राजकपूर ने निम्मी के बारे में कहा था कि जब उन्होंने निम्मी को अपनी फिल्म में लिया तब वह अभिनय के बारे में कुछ भी नहीं जानती थी। निम्मी को अभिनय सिखाना पड़ा लेकिन पर्दे पर वह इतनी ताजगी भरी और कमसिन दिखी — एक गुलाब की कली सी — हूबहू मेरे सपनों की नायिका।
वैजयंतीमाला
राजकपूर की पहली रंगीन फिल्म संगम में वैजयंतीमाला हीरोइन बनी थी। राजकपूर इस फिल्म की मुख्य भूमिका निभाने के लिए एक विषिश्ट सिने तारिका चाहते थे। उन्होंने वैजयंतीमाला को टेलीग्राम किया कि क्या वह उनकी फिल्म में काम कर सकेगी या सच पूछो तो काम करना चाहेगी। मद्रास में रह रही वैजयंतीमाला को तार भेजा गया — ‘‘बोल राधा बोल संगम होगा के नहीं।'' कुछ दिनों के अंतराल के बाद उत्तर मिला — ‘‘होगा, होगा, होगा।''
यह फिल्म उन्हें कैसे मिली, इस बारे में एक बार खुद वैजयंतीमाला ने बताया था, ‘‘मेरे लिए वह एक बहुत रोचक भूमिका थी। मैं मद्रास में बन रही फिल्म नजराना में राज जी के साथ काम कर रही थी। एक बार षाट संयोजन के बीच राज जी ने मुझे ध्यान से देखकर कहा, ‘‘तुम मेरी अगली फिल्म संगम की आदर्ष राधा हो। क्या तुम राधा बनोगी?''
वैजयंतीमाला कहती हैं, ‘‘प्रारंभ में मुझे राज जी की कार्यषैली थोड़ी भिन्न लगी। वे अपने कलाकारों से सम्पूर्ण और कठोर परिश्रम, जो कभी—कभी अत्यधिक लगता था, की मांग करते थे। पर जल्द ही मैं उनकी नायिका राधा को समझ गई — उर्जा से भरपूर, जीवंत, चुलबुली, सुसंस्कृत, आकर्शक और बुद्धिमान। हिंदी रजतपटल पर यूरोप का इतना मनोहारी छायांकन प्रथम बार आया था। सौंदर्य की उन्हें जन्मजात समझ थी, जनमानस की धड़कन की पहचान थी और कलात्मक ढंग से पेष करने में तो वे पारंगत थे। वे कड़ी मेहनत करते थे और वांछित प्रभाव के लिए छायाकार से घंटों बातचीत करते थे।''
‘‘उनका दूसरा गुण उनकी संगीत की समझ थी। संगीत में सुर, ताल और समय की उनमें अद्भुत योग्यता थी। मैंने देखा कि स्वर में अपेक्षित माधुर्य पाने के लिए घंटों अपने संगीत—निर्देषकों के साथ मेहनत करते थे। मैं सभी महान फिल्म—निर्माताओं के साथ काम कर चुकी हूं, हर एक की अपनी विषिश्ट षैली होती है। संगम की मेरी भूमिका के लिए मैंने अपना सर्वश्रेश्ठ अभिनय देने का प्रयास किया। वे महानतम फिल्म निर्माताओं में से एक थे।''
पद्मिनी
फिल्म मेरा नाम जोकर में पद्मिनी ने एक विषिश्ट भूमिका निभायी थी। जोकर राजू बेघर पद्मिनी को गलियों से उठाता है। कठोर परिश्रम से उसे सितारा बना देता है। षिखर पर पहुंचते ही वह ‘जोकर' को एकाकी और असहाय छोड़ देती है। मेरा नाम जोकर में पद्मिनी को मीना के रूप में बेघर खिलंदड़ लड़की से कामदेवी तक की यात्रा तय करनी थी। अपनी ग्रामीण मांसलता और जमीनी आदिम यौनाकर्शण के कारण राजकपूर ने पद्मिनी को यह भूमिका दी। राजकपूर की नजर में कामदेवी की इस भूमिका को विष्वसनीय तरीके से निभाने के लिए पद्मिनी ही सर्वोत्तम चुनाव थी।
बेलेरिना
बेलेरिना ने मेरा नाम जोकर में रूसी युवती की भूमिका निभायी थी। इस फिल्म में बेलेरिना को हिन्दी की कुछ पंक्तियां भी बोलनी थी इसलिये राजकपूर ने हिंदी बोलना सिखाने के लिये एक हिंदी शिक्षक नियुक्त किया था। राजकपूर ने बेलेरिना के बारे में कहा था, ‘‘मास्को (रूस) जाते समय मेरे मन में ट्रेपीज कलाकार की एक स्पश्ट छवि थी। सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा मास्को में दिखाई सैकड़ों कलाकारों में से मुझे एक भी नहीं जंची। अचानक एक रात बैले में मैंने पीछे की पंक्ति में खड़ी नवयुवती कलाकार को देखा। वह बेलेरिना थी। प्रथम दृश्टि में ही मैंने उसे मेरा नाम जोकर की नायिका मैरिना चुन लिया। मैंने तुरंत संबंधित व्यक्तियों को निर्णय की सूचना दी और एक दिन राबिनकिना की भूमिका के लिए उड़कर बम्बई के आर.के. स्टुडियो पहुंच गई।
शिम्मी ग्रेवाल
मेरा नाम जोकर मैं कमसिन राजू अपने से बड़ी उम्र की षिक्षिका से प्यार करता है। यह भूमिका सिम्मी ग्रेवाल ने निभाई थी। इस फिल्म में सिम्मी ग्रेवाल ने अत्यंत बोल्ड दृश्य दिये थे जिसकी कल्पना उस समय करना असंभव सा था।
इस फिल्म में सिम्मी ग्रेवाल की भूमिका की पटकथा का वह अंष किसी लेखक की कल्पना नहीं थी। राजकपूर जिस स्कूल में भी पढ़ते थे वहां की अध्यापिकाओं के वह चहेते रहे। बम्बई में उनका पहला स्कूल था ‘न्यू ईरा बॉयज' जो ह्यूज रोड पर स्थित था और वहां की सभी अध्यापिकाएं उन्हें चूमने के लिए कतार बना कर खड़ी रहती थीं। वह उस समय प्राथमिक कक्षा के छात्र थे और इस सबसे खीज कर वह उनसे पूछते थे, ‘‘तुम मुझे क्यों चूमती हो? क्या तुम मेरी मां हो?'' वे उनकी बात को अनसुना करके चूमती थीं। एक अध्यापिका से उन्हें बहुत लगाव था। एक बार वे पिकनिक पर गये। वहां उन्होंने उड़ती हुई चिड़ियों का एक झुंड संध्या की लालिमा में देखा। बरसों बाद यही दृष्य मेरा नाम जोकर में ‘‘तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर'' गीत के साथ फिल्माया गया। उन्हें करीब छह वर्श की आयु में अपनी षिक्षिका से इतना लगाव हो गया कि जब उनके पिताजी को न्यू थियेटर्स में नौकरी मिली और उन्हें कलकत्ता जाना पड़ा, तो वह बम्बई में ही रहने के लिए अड़ गये। बम्बई में बिताये उन आखिरी कुछ दिनों में वह शिक्षिका के लिए फूल ले जाया करता थे। इस जुदाई पर राजकपूर खूब रोये।
डिंपल कपाड़िया
फिल्म बॉबी के लिए राज कपूर को नई लड़की की जरूरत थी। पारिवारिक मित्र मुन्नी धवन ने डिम्पल कापड़िया का सुझाव दिया। राज कपूर ने डिम्पल को देखते ही पसंद कर लिया।
डिंपल ने इस फिल्म में भूमिका मिलने के बारे में बताया, ‘‘मैं मात्र तेरह वर्श की थी, जब राज साहब ने मुझे भूमिका दी। मेरे पिता को डर था कि कापड़िया कुटुम्ब मेरे फिल्म प्रवेष पर हल्ला मचाएगा। हम ऋशिकेष मुखर्जी के गुड्डी की भूमिका को पहले ही ठुकरा चुके थे। राज साहब ने मेरे पिता से कहा, ‘‘स्क्रीन टेस्ट के परिणाम देखकर ही आप निर्णय लीजिए।'' मेरी फिल्मों में काम करने की तीव्र इच्छा के कारण अंत में पिताजी मान गये। डब्बू उस समय कल आज और कल बना रहे थे, उसी सेट पर मेरा स्क्रीन टेस्ट लिया गया। राज साहब ने मुझे बाद में बताया कि मेरे मेकअप से सुसज्जित होकर सेट पर पहुंचते ही लोग आंदोलित हो गये थे। पहले ही षॉट के समय उन्होंने कहा कि मेरा अभिनय सहज और स्वभाविक था। टेस्ट के बाद राज साहब ने ध्वनि मुद्रक अलाउद्दीन खान से पूछा, ‘‘कैसी लगी?'' उन्होंने कहा, ‘‘बिस्मिल्लाह करो! (प्रारंभ करो)'' और तब निर्णायक क्षण आ पहुंचा जब उन्होंने कैमरामैन राधू करमरकर से उनकी राय पूछी। ‘‘सितारा सामगी'' राधू साहब ने कहा और काम षुरू हो गया।
वह कहती हैं, ‘‘राज साहब मेरे पिता तुल्य थे। मेरी अंतर्चेतना ने उनको सिखाई सभी बातें संजो ली है। आज फिल्म जगत में मेरे आत्मविष्वासपूर्ण व्यवहार का सारा श्रेय उन्हीं के प्रषिक्षण को जाता है। अभिनय की बारीकियां उन्होंने ही मुुझे सिखाई। वे मुझे डांट कर, पुचकारकर, दुलारकर मुझसे सही षॉट दिलवा ही लेते। एक बार बिना ग्लिसरीन के ही मेरे गालों पर आंसू लुढ़क आए। लुढ़कते आंसुओं को देखकर उन्होंने कहा, ‘‘यह है मेरी जन्मजात अभिनेत्री।'' ऐसी ही छोटी—छोटी बातें आपको अधिक मेहनत करने को उत्पेरित कर अपना सर्वश्रेश्ठ देने को आतुर कर देती है। उनके स्तर से मैं अपने आप में हमेषा कुछ कमी पाती थी। वे छोटी से छोटी भावभंगिमा खुद करके दिखाते। मैंने जान बूझकर दूसरी अभिनेत्रियों से अपनी तुलना नहीं की, फिर भी कई बार मैं खुद के आत्मविष्वास में कमी पाती हूं। अब मैं समझ पाई हूं कि मैं हमेषा राज साहब के रचे गये प्रतिमान को छूने और उनकी अपेक्षाओं पर खरी उतरने की चेश्टा करती रही हूं।''
जीनत अमान
राज कपूर की नई फिल्म की घोशणा के साथ ही सत्यम षिवम सुंदरम के साथ भी वही हुआ। जब राजकपूर अपनी आगामी फिल्म के लिये नयी अभिनेत्री की तलाश में जुटे थे तभी जीनत अमान संभावित नायिका की काल्पनिक छवि के वेष— विन्यास में उनकी कुटिया पहुंची। जब उन्होंने दरवाजे पर दस्तक दी तो राजकपूर ने भीतर से पूछा, ‘‘कौन?'' जवाब में जीनत अमान ने कहा, ‘आपकी भावी नायिका।''
इस फिल्म के अनुभवों के बारे में जीनत अमान कहती हैं, ‘‘मुझे लगता है कि उनकी फिल्म की नायिका बनने की मेरी आतुरता और समर्पण ने उन्हें छू लिया और उन्होंने मेरे पक्ष में निर्णय ले लिया। उन्होंने मेरा स्क्रीन टेस्ट, जो अपने आप में एक अविस्मरणीय अनुभव रहा, लिया। भूमिका मिल गई। मैंने खुद को उनके हाथों में उसी प्रकार सौंप दिया जैसे कुम्हार के हाथ में मिट्टी। इस फिल्म की षूटिंग दो वर्श तक चली जिसका अधिकांष भाग उनके पूना स्थित फार्म में शूट किया गया। हम सभी एक सम्मिलित बड़े परिवार की तरह उनके घर साथ रहते, भोजन करते, दिन के कार्य पर बातचीत करते और रात्रि में उनकी पुरानी फिल्मों को देखते। हर सुबह मुझे फूलों की सौगात मिलती। पूरे फार्म में बड़े—बड़े विषाल चित्र लगा दिए गए — मुझे लगता जैसे मैं संसार में इकलौती नायिका हूं। पर कैमरे के पीछे जाते ही वे एक कठोर मास्टर बन जाते। तनिक भी समझौता उन्हें मंजूर न था। मुझे बारिष में भींगना, पत्थरों पर चलना और कंटीली झाड़ियों के बीच नृत्य करना पड़ता। हां, षॉट के तुरंत बाद गर्म षाल और चम्मच में ब्रांडी मेरा इंतजार कर रही होती। और नंगे पैर नृत्य करते समय रास्ते के कांटे भली—भांति बुहार दिए जाते। यह राज जी का विषेश प्रेमल स्पर्ष था जो अपनी नायिकाओं को कोमलांगी और विषिश्ट होने के अहसास से भर देता।' मैं आज जो कुछ भी हूं राज जी की बदौलत हूं। सत्यम षिवम् सुंदरम ने ही मुझ में अभिनय के प्रति सजगता पैदा की। उन्होंने मुझे अभिनय करना सिखाया। राज अंकल ने मुझे क्या करना, सेट की चीजों के प्रति सही दृश्टिकोण और कैमरे का सही ढंग से सामना करना सिखाया।''
पदमिनी कोल्हापुरे
बाल कलाकार के रूप में पदमिनी कोल्हापुरे की पहचान राजकपूर ने अपनी फिल्म सत्यम शिवम् सुंदरम् से दिलाई। इसके बाद जब राजकपूर ने पदमिनी को प्रेमरोग में नायिका की भूमिका के लिये चुनाव किया तब वह केवल पंद्रह वर्श की थी। आर.के. की नायिका बनना एक सपने का साकार हो जाना था।
पदमिनी प्रेम रोग के बारे में बताती हैं, ‘‘राज अंकल ने मुझे बुलाकर कहा, ‘‘तुम्हें मनोरमा की भूमिका के लिए पहले स्क्रीन टेस्ट देना होगा क्योंकि तुम्हें एक कम उम्र विधवा की भूमिका करना है और जरूरी है कि तुम विधवा लगो, एक बच्ची नहीं।'' मुझे भूमिका मिली। पहले तो मुझे विष्वास ही नहीं हुआ। और सचमुच अभिनय के संसार में यह एक अभूतपूर्व अनुभव था। प्रेमरोग' के दौरान मेरा उनसे एक विषिश्ट रिष्ता बन गया। वह अपनी कुर्सी पर बैठे—बैठे बताते रहते, ‘‘मैं यह चाहता हूं'' और न जाने कैसे मुझे अहसास हो जाता कि वह क्या चाहते हैं, और वह भी मेरे कार्य से बहुत खुष थे। मुझे लगता है कि उनके बहुत कुछ सीख और उन्हीं के मार्गदर्षन में मैं परिपक्व हुई। भावना की गहनता, संवेदना और फिल्म निर्माण के प्रति उनका जुनून सम्मोहक था। निर्देषक के रूप में वे अपनी क्षमता के प्रति पूर्ण सचेत थे और उन्होंने उसे कभी छिपाया भी नहीं। जब वे वांछित परिणाम पाते तो बोल उठते, ‘‘वाह क्या बात है।'' परंतु कई बार प्रवाह उम्दा लगने पर किसी विषिश्ट दृष्य को वे पूर्व निर्धारित षॉट पर कट न करते हुए आगे तक ले जाते। कभी—कभी मैं हड़बड़ा जाती और अपने संवाद भूल जाती तो वे नाराज होकर मुझे कड़ी फटकार लगाते। मुझे बुरा लग जाता और काम खत्म होने पर मैं उनके पास जाकर यह बता भी देती। परन्तु वे तब तक सारी बातें भूल चुके होते।'
मंदाकिनी
राम तेरी गंगा मैली में पवित्र गंगा की भूमिका के लिए राज कपूर अनेक लड़कियों से मिले परन्तु उनकी छवि से किसी का मेल न हुआ जब तक कि मेरठ से आई एक लड़की उनसे मिलने नहीं आई।
मंदाकिनी के पिता सी. जोसेफ याद करते हैं : 1982 के प्रारंभ में एक फिल्म पत्रिका में हमने पढ़ा कि राज कपूर अपनी आगामी फिल्म राम तेरी गंगा मैली के लिए एक नई लड़की की तलाष में हैं। मेरी बेटी यास्मिन फिल्मों में भविश्य बनाना चाहती थी इसलिए हमने सोचा कि क्यों न हम यहां कोषिष करें। मैं और मेरी बेटी मेरठ से बम्बई आकर राज कपूर से स्टूडियो जाकर मिले। मुलाकात अच्छी रही और उन्होंने स्क्रीन टेस्ट लेने को कहा।
स्क्रीन टेस्ट के बाद हम मेरठ लौट आये। एक पखवाड़े के बाद मेरठ का एक प्रदर्षक दौड़ता हुआ हमारे घर आया, उस समय हमारे घर फोन नहीं था। उसने बताया कि उसे राज साहब के दिल्ली वितरक का फोन आया है कि हमें तुरंत बम्बई जाकर राज साहब से मिलना है। हम बहुत उत्तेजित होकर बम्बई पहुंचे। राज साहब ने पिछला स्क्रीन टेस्ट दिखाकर एक और स्क्रीन टेस्ट लेने को कहा। तब तक हमें अहसास हो गया था कि राज साहब ने यास्मिन को चुन लिया है। सचमुच वे चुनाव कर भी चुके थे और तब षुरू हुआ प्रचार अभियान का एक लंबा सिलसिला।
सिनेमा के जन नायक
राजकपूर ने सिनेमा के पर्दे पर आम आदमी का सही मायने मेें प्रतिनिधित्व किया। फिल्मों में उन्होंने जिस आम आदमी को प्रस्तुत किया उसकी झलक आवारा के इस गीत में देखी जा सकती है—”जख्मो से भरा सीना है मगर, हंसती है मेरी मस्त नजर।‘‘ आम आदमी चाहे जिस हाल में रहे, वह हर हाल में खुष रहता है।
राजकपूर ने आजाद भारत के आवाम के जीवन के यथार्थ एवं उसके सपनों को सिनेमाई मुहावरा दिया। आम आदमी को नायक बनाकर उन्होंने गणतंत्रीय व्यवस्था की नब्ज पकड़ ली। वे आम आदमी की आषा, निराषा के सामाजिक और राजनैतिक अर्थ को समझते थे और आज के घटनाक्रम में भी राजकपूर की चिंताओं और महत्वाकांक्षा को महसूस कर सकते हैं। राजकपूर ने अपनी फिल्मो में आजादी के बाद भारतीय समाज की चालीस साल की दास्तान को जीवंत करने का प्रयास किया लेकिन उनकी फिल्मों की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी फिल्में आम आदमी के दुख—दर्द और उसके संघर्ष को जीवंत करती रही। आवारा, श्री ४२०, जागते रहो, बूट पॉलिश, मेरा नाम जोकर, प्रे्रम रोग, सरीखी राजकपूर की फिल्मों का नायक आम आदमी है।
चाहे तीसरी कसम का हीरामन हो, जागते रहो का गांव का भूखा—प्यासा असहाय नायक हो और चाहे जिस देश में गंगा बहती हो का राजू हो — सभी ने सिनेमा के पर्दे पर आम आदमी के वास्तविक जीवन को इस तरह से पेश किया कि उस पर कभी अविश्वास हो ही नहीं सकता। पानी की तलाश में ये आदमी समाज के अलग—तबके से हैं और उनके अपने अलग—अलग दुख—दर्द, प्रेम और कठिनाइयों से उबरने के संघर्ष हैं। इन सभी फिल्मों का संदेश एक ही है कि आम आदमी चाहे वह जिस पेश में हो, वह ईमानदारी एवं शांति के साथ जीवन गुजर बसर करना चाहता है।
उनकी फिल्मो के मुख्य किरदार जालिम और जटिल बाजार तंत्र का हिस्सा होते हुए भी उसके तिलिस्म को तोड़ने की कोषिष करता है। उनकी फिल्मों का नायक जीवन की मुसीबतों एवं चुनौतियों से डर कर भागता नहीं है बल्कि उनका सामना करता है और अपने तथा अपने समाज के लिये राह बनाता है, क्योंकि उसके लिये जीवन का मूल मंत्र है — ”जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहां।''
वर्शो बीत जाने के बाद भी राजकपूर की फिल्में प्रासंगिक हैं क्योंकि भले ही देष और समाज में काफी कुछ बदल गया हो, जीवन जीने के तरीके बदल गये हों, संवाद और अभिव्यक्ति के माध्यम बदल गये हो, प्यार जताने और प्यार करने के तरीके बदल गये हों और यहां तक कि प्यार के मायने बदल गये हों लेकिन आम आदमी की कठिनाइयां, उसकी हसरतें और सपने नहीं बदले। आवारा का नायक गाता है, ‘‘मुझको यह नरक ना चाहिए, मुझको चाहिए बहार''— आज भी आम आदमी उस ‘बहार' का इंतजार कर रहा है।
अगर राजकपूर आवारा के क्लाइमैक्स में झोपड़पट्टी के पास बहते नाले में अपराध के कीटाणु की बात करते हैं तो आज भी नाले बह रहे हैं, इस तरह राजकपूर का सिनेमा एक काल खंड से दूसरे में छलांग लगाता है। श्री 420 में प्रस्तुत मकान का सपना आज भी कायम है और जागते रहो का प्यासा नायक मंजिल दर मंजिल भ्रश्टाचार देख रहा है, वह सांस्कृतिक प्यास आज भी कायम है। संगम का नायक कहता है कि फिर वही ऊंची टेकड़ी पर खड़े रहकर गरीब को दान देने का अहंकार तो आज भी सरकारी सहूलियतों के उस दान की तरह हैं जिससे हालात नहीं बदलते। प्रेमरोग और गंगा की नायिकाओं पर आज भी जुल्म हो रहा है। श्री 420 में सेठ सोनाचंद धर्मानंद चुनावी भाशण दे रहे हैं तो नायक मजूबत देष, मजबूत दांत और रोटी तथा भूख की बात करते हुए मंजन बेच रहा है।
सोनाचंद का आदमी नायक से पूछता है कि मंजन में हड्डियों का चूरा तो नहीं और धर्म के कोड़े से रोटी और भूख की बात करने वाले की पिटाई हो जाती है। यह आज भी हो रहा है। जब तक भारत में आम आदमी भूख से जूझता रहेगा तब तक राजकपूर का सिनेमा प्रासंगिक रहेगा, जब तक आम आदमी के नाम पर तमाषे होते रहेंगे तब तक राजकपूर का जोकर अवाम के हृदय में आंसू और मुस्कान की तरह कायम रहेगा।
सिनेमा के पर्दे पर आम आदमी को प्रस्तुत करने और उसे जीने वाले राजकपूर हालांकि भारतीय सिनेमा के सर्वाधिक प्रभावशाली शख्सियत की संतान थे जिसके इशारे पर दुनिया भर की सुख—सुविधायें पल भर में हासिल हो सकती थी इसके बाद भी उन्होंने अपने वास्तविक जीवन में बिल्कुल आम आदमी का जीवन जीया।
राजकपूर के परिवार में गाड़ियों की कमी नहीं थी लेकिन इसके बाद भी वह हमेशा सामान्य बच्चों की तरह ट्राम से ही स्कूल जाते थे।
उन्होंने जब रणजीत स्टूडियो में काम शुरू किया तो वह सामान्य कर्मचारियों की तरह ही काम करते थे। उन्होंने जब अपने पिता के पृथ्वी थियेटर में काम शुरू किया तो वह सेट की प्रकाष व्यवस्था से लेकर कला निर्देषन तक के छोटे—बड़े सभी प्रकार के काम करते थे। वह सेट पर फर्नीचर सेट के हिस्सों को इधर—उधर उठाते और रखने के अलावा सेट पर झाडू देने का काम भी करते थे।
उन्होंने आम आदमी के इस संस्कार, सहजता, सादगी एवं जज्बे को उस समय भी बरकरार रखा जब वह पहले दर्जे के निर्माता, निर्देशक एवं अभिनेता में शुमार हो चुके थे। राजकपूर ताउम्र सीधे—सादे और सरल व्यक्ति बने रहे थे। वह हमेशा जमीन पर सोते थे। यहां तक कि लंदन के हिल्टन होटल में गद्दे को जमीन पर खींचकर सोने के लिए उन्हें फटकार मिली। लेकिन इसके बाद भी आगे उन्होंने ऐसा ही किया और जिसके लिये दंड भरना पड़ा लेकिन अपने पूरे प्रवास में वह प्रतिदिन दंड भरकर नीचे सोते रहे।
राजकपूर को हमेशा लोक जीवन आकर्शित करता था। पूना के पास अपने लोनी फॉर्म में वह सबसे खुष रहते थे। किसानों में अनेक उनके दोस्त थे। वे सब इकट्ठे खाना बनाते, खाते और मराठी में बात करते थे। राज खुद रसोई में पारंगत थे। बिरयानी और चिकन उनके खास व्यंजन थे। वह हालांकि खाने के शौकीन थे लेकिन इससे अधिक वह मेहमानों को खिलाने के शौकीन थे। वह मेहमानों के लिये अपने हाथों अपने पसंद के व्यंजन बनाते थे। उनका आग्रह होता था कि खाने की मेज पर तरह—तरह के व्यंजन रखें जायें लेकिन वह इन व्यंजनों को खाते बहुत कम थे — अक्सर वह इनमें से अधिकतर व्यंजनों को केवल चखते थे और फिर अपनी हमेषा प्रिय पाव, अंडा और जरा सी दाल लेकर बैठ जाते थे। हालांकि वह खाने के शौकीन थे लेकिन खाना बहुत कम खाते थे लेकिन पसंद की चीजें चटखारे लेकर खाते थे। वर्शों तक उन्होंने दोपहर का भोजन नहीं किया, लिया तो केवल रात का भोजन। पार्टियों में वे खाने का महज अभिनय करते और अलसुबह घर लौटकर अंडे का आमलेट खाते थे।
उन्होंने चेंबूर स्थित अपने मकान में मुर्गियां पाली थी और इन मुर्गियों को वह नियम से दाने खिलाते थे। इन मुर्गियों के अंडे राजकपूर ही खाते थे जबकि घर में अगर मेहमान आ जायें तो उनके लिये बाजार से खरीदे गये अंडे पेश किये जाते थे। यही नहीं जब राजकपूर बाहर जाते थे तो घर की मुर्गियों के अंडे अपने साथ ले जाते थे।
हालांकि वह अक्सर पांच सितारा होटल के सबसे मंहगे कमरे में ठहरते थे लेकिन वह बाजार से नमकीन और चने आदि मंगाकर खाते थे। उन्हें इन चीजों के लिये होटल को बहुत अधिक कीमत देना गवारा नहीं था। वह चाहे दुनिया के किसी भी होटल में ठहरते लेकिन उनके लिए खाने—पीने की साधारण चीजें हमेशा छोटी दूकानोंं से ही खरीदी जाती थी। भले ही इन चीजों के लिये टैक्सी से आने जाने पर सौ रुपये खर्च हो जायें। छोटी दुकानों से इस तरह की चीजें लाने का काम उनके करीबी मित्र विश्वा मेहरा करते थे।
आम आदमी की तरह राज कपूर ईष्वर में आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। वे लगभग हर मंदिर में जाते थे। एक बार वह हिमालय की कन्दराओं में बसे अमरनाथ की कश्टप्रद यात्रा पर चले गये जिसके बारे में घर वालों को उनके लौटने पर ही पता चला। उन्होंने बताया था कि वे कुछ दिन कष्मीर में छुट्टी बिताने जा रहे हैं। लेकिन कभी उन्होंने अपनी आस्था का सार्वजनिक प्रदर्षन नहीं किया।
अपने परिवार और बच्चों से उन्हें गहरा लगाव था। जब षादी के बाद उनकी बेटी रितु दिल्ली रवाना होने लगी तो सभी की रुलाई फूट पड़ी, लेकिन राजकपूर ने अपने को संभाले रखा। विदाई के बाद वह कार में बैठकर स्टूडियो चले गये। एक घंटे के बाद जब उनके निजी सेवक ने कुटिया का दरवाजा खोला तो देखा कि राजकपूर की आंख आंसुओं से लबरेज थी। यह था राज कपूर के पिता का रूप। परन्तु ऐसे क्षणों में दूसरों द्वारा देखा जाना उन्हें पसंद नहीं था। डब्बू (रणधीर) और चिन्टू (ऋशि) के पार्टियों में देर से घर आने तक वे जगे रहते। पर उन्होंने अपनी यह व्यग्रता उनसे छिपाई और अगली सुबह भी उनसे कभी कुछ नहीं कहा।
रविवार को पारिवारिक चिकित्सक डॉ. घाटी घर आया करते थे। दोनों में जिगरी दोस्ती थी। वे सटोरियो को फोन करना षुरू करते। राजकपूर जी के फोन में ‘दस' बोलने पर दूसरों को दस हजार लगेगा लेकिन उनका आषय दस रुपये से ही होता था, पांच उनके और पांच उनके दोस्त के। और जब कभी वे पंद्रह या बीस रुपये जीत जाते तो दोनों उत्तेजना से पागल हो जाते — फोन बजता तो राज जी कूद कर वहां पहुंचते, सिरिंज उनकी बांह में लटकता रहता और डॉ. घाटी उनके पीछे भागते जाते। वर्शों रविवार की यही दिनचर्या रही। साथ होते ही उनका बचपन लौट आता।
राजकपूर ने अपने जीवन का ज्यादातर हिस्सा किराये के मकान में ही गुजारा लेकिन उन्हें इसका कोई गम नहीं था। प्रेम रोग के निर्माण के दरम्यान उन्होंने अपनी पत्नी के आग्रह पर मकान बनाना स्वीकार किया, जबकि उन्होंने वर्षों पहले 1960 में आवारा में अपने पसंदीदा दृश्यों के फिल्मांकन के लिये लाखों रुपये खर्च किये थे। वह अपने सपनों को साकार करने के लिये लाखों रुपये खर्च कर सकते थे लेकिन भौतिकवादी जरूरतों को पूरा करने की तरफ उनका ध्यान कभी नहीं गया।
राजकपूर ने कहा था, ‘‘मैं आम आदमी के लिए फिल्म बनाता हूं और इसलिए उनके बीच समय बिताना चाहता हूं। यहां सड़क के किनारे आम आदमी की चाय की दुकानों और ढाबों में बहुत से लोगों से मिलना हो जाता है और जिंदगी को नजदीक से देखने का अवसर भी मिलता है। लोग बड़े प्यार और गर्मजोषी से मिलते हैं। उनके मन में कटुता नहीं है, मिथ्या गर्व भी नहीं है। इन छोटी दुकानों पर मुझे उतना ही स्नेह मिलता है जितना कि उस समय मिलता था जब मैं बच्चा था — अंतर केवल इतना है कि उन दिनों उधार खाता था और अब नगद बिल अदा करता हूं।''
संगीत की आत्मा
राजकपूर की फिल्मों का एक प्रमुख और सर्वाधिक आकर्षक पक्ष संगीत रहा है। राजकपूर ऐसे निर्माता—निर्देशक थे जिनके दिमाग में सबसे पहले संगीत का जन्म होता था और उसके बाद दृश्यों का संयोजन एवं कथा का जन्म होता था। मिसाल के तौर पर राम तेरी गंगा मैली फिल्म बनाने के मामले में सबसे पहले उनके दिमाग में एक गीत का सृजन हुआ। उसके बाद फिल्म का नाम ध्यान आया और फिर फिल्म की कथा लिखी गयी। महत्वपूर्ण यह है कि इस फिल्म की पटकथा पूरी होने से पूर्व ही फिल्म के सभी गीत रेकार्ड किये जा चुके थे।
दरअसल न केवल राजकपूर की फिल्में बल्कि उनका पूरा जीवन संगीत से प्रभावित था। बचपन से ही राजकपूर की संगीत के प्रति रूचि थी। राजकपूर के बचपन से ही संगीत की तरफ आकृष्ट होने का कारण यह था कि उनकी माता रमासरणी देवी को गीत गाने का बहुत शौक था। उनका गला अत्यंत सुरीला था और अक्सर वह गाती—गुनगुनाती रहती थी। उनकी माता के पास लोक गीतों का खजाना था। यही कारण है कि न केवल राजकपूर बल्कि भाई शम्मी कपूर भी अपनी फिल्मों में संगीत पक्ष पर खास ध्यान देते थे और अपने उपर फिल्माये जाने वाले गीतों की रेकार्डिंग के समय हमेशा मौजूद रहते थे और अपने सुझाव देते थे।
दरअसल राजकपूर की महत्वाकांक्षा संगीतकार बनने की थी। उनके पिता को हमेशा इस बात का मलाल रहा कि राजकपूर ने गीत—संगीत को अपना पेशा नहीं बनाया। लक्ष्मीकांत—प्यारेलाल कहते थे अगर राजकपूर संगीतकार बनते तो वह सर्वश्रेष्ठ संगीतकार साबित होते। राजकपूर ने अपनी आरंभिक फिल्मों में गीत भी गाये हैं — मिसाल के तौर पर चितचोर, जेल यात्रा, चित्तौड़ विजय और गोपीनाथ जैसी फिल्मों में। संगीत के प्रति उनकी गहरी रूचि उसी समय जाग गयी थी जब पृथ्वीराज कपूर कलकत्ता में नाटक प्रस्तुत करते थे। कलकत्ता के न्यू थियेटर में रायचंद बोराल का संगीत कक्ष उन्हें आकर्शित करता था। वह वहां नियमित रूप से जाते थे और रायचंद बोराल तथा के.एल. सहगल को रियाज करते हुये देखते—सुनते थे। उसी दौरान उन्हें कई बार तबला बजाने का भी मौका मिल जाता था। संगीत कक्ष में मौजूद लोग भी उनकी हौसला आफजाई करते थे। उसी संगीत कक्ष में राजकपूर ने रवीन्द्र संगीत सीखा और कवि रविन्द्र नाथ टैगोर की कई कविताओं को याद किया। उसी दौरान राजकपूर को बंगला का ज्ञान हुआ।
पृथ्वीराज कपूर भी जब संगीत सभाओं में जाते थे तो राजकपूर को भी ले जाते थे। इस तरह से राजकपूर का संगीत से लगाव बढ़ता गया। बाद में जब उनका परिवार बम्बई आया तब पृथ्वीराज कपूर ने मटुंगा स्थित नारायण राव व्यास की संगीत अकादमी में राजकपूर को तीन वर्श तक राश्ट्रीय संगीत की षिक्षा लेने भेजा जहां उन्होंने तबला, सितार और हारमोनियम बजाना सीखा। उन्होंने बाद में प्रख्यात संगीतकार अनिल विष्वास से भी कुछ समय संगीत षिक्षा प्राप्त की। इसी दौरान उनकी मुलाकात मुकेश से हुयी और यह रिश्ता दोनों के बीच ताउम्र साथ रहा।
उन्हें संगीत से इस कदर लगाव था कि जब बॉम्बे टॉकीज में वे क्लैप देने की नौकरी करते थे तब निर्देषक रामसे ने उनकी षिकायत की थी कि उनका ध्यान संगीत कक्ष में रहता है। उनकी शिकायत के बाद उन्हें सात दिन के लिए निकाल दिया गया था।
पृथ्वी थियेटर में अक्सर शास्त्रीय संगीत की महफिलें लगती थी और राजकपूर उनमें जाते थे। पृथ्वी थियेटर्स में नाटक के बाद अपने सहयोगियों के साथ बैठकर धुनें बनाते थे। उन्होंने कुछ धुनें राम गंगोली के साथ बनाई और षंकर जयकिषन के साथ काम किया। ये दोनों पृथ्वी थियेटर्स में हारमोनियम और तबला बजाते थे। उसी दौरान आर.के. की संगीत टीम का जन्म हुआ।
राजकपूर के लिये न केवल स्वर बल्कि गीत भी महत्वपूर्ण होते थे। सिनेमा के पर्दे पर मुख्य तौर पर मुकेश उनकी आवाज बने लेकिन उनकी फिल्मों को संगीत लहरियों से समृद्ध करने में मुकेश के अलावा लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी और मन्ना डे जैसे गायकों के अलावा गीतकार षैलेन्द्र और हसरत जयपुरी तथा संगीतकार राम गांगुली, षंकर जयकिषन, लक्ष्मीकांत — प्यारेलाल और रवीन्द्र जैन ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।
राजकपूर कीे अक्सर फिल्मों के विशय से ही संगीत की कल्पना जन्म लेती थी। राजकपूर का मानना था कि फिल्म के विषय ही विधा या प्रणाली सुझा देते हैं जो विशय के अनुरूप हो और इस स्वाभाविक चयन में कभी गलती नहीं होती और इसी कारण फिल्म के अंतिम स्वरूप में दृष्य विधान के साथ संगीत षैली पूरी तरह घुलमिल जाती है। फिल्म की संगीत षैली के लिए आवष्यकता होती है विषेश तेजी और उत्तेजना की, लय और गति की।
राजकपूर की फिल्मों के गीतों में केवल लय एवं सुर ही नहीं होते थे बल्कि अर्थ भी होते थे और छंद भी और वो भी कुछ इस तरह की सुनते ही वे दिल को छू जाते थे। दरअसल राजकपूर के मन में किसी फिल्म की जो कल्पना उभरती थी उसके साथ ही संगीत की कल्पना उभरती थी। उन्होंने फिल्मों में संवाद की जगह भी संगीत का प्रयोग किया है।
राजकपूर कहते थे कि उनका जो दृश्टिकोण जीवन के प्रति है, वही दृश्टिकोण फिल्म के प्रति भी है और इसकी सबसे बड़ी मिसाल है फिल्म मेरा नाम जोकर का गीत ‘‘जीना यहां मरना यहां।'' संगीत का हर टुकड़ा सीधे दिल से निकला है। वह मधुरता के स्थान पर षोर षराबा नहीं पसंद कर सकते थे।
उन्होंने कभी इस बात का दावा नहीं किया कि वह संगीत रचना स्वयं करते थे लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि संगीत रचना का संचालन करते थे। पूरा संगीत संचालन उनके मन में बैठे दृष्य विधान के अनुरूप होता था — किस जगह, किस क्षण, कौन सा वाद्य किस गति और लय से बजेगा। इसका संचालन खुद करते थे। यही कारण थे कि उनकी फिल्मों के संगीत को अलग से पहचाना जा सकता था।
फिल्म बरसात के रिलीज होने के साथ ही संगीत फिल्म की बुनावट का आवष्यक और अविभाज्य अंग बन गया। राजकपूर मानते थे कि गरीब विकासषील देष में संगीत करोड़ों लोगों का मनोरंजन करता है क्याेंकि मनोरंजक होते हुए यह सबसे सस्ता और सुलभ भी है। आवाम को गीत संगीत, जादू, सर्कस, उत्तेजना इत्यादि सब चाहिए। संगीत भारतीय जीवन का अविभाज्य अंग है। इसलिए जागते रहो जैसी फिल्म, जिसकी परिकल्पना बिना गीत संगीत के की गई थी, में भी उन्होंने गीत संगीत के लिए कुछ स्थितियां रच लीं। वह हमेषा फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने वाले गीतों में यकीन करते थे। यही कारण है कि कई बार गीत रिकार्ड भी हुये और उन गीतों का फिल्मांकन भी हुआ लेकिन अगर लगता कि ये गीत फिल्म की बुनावट का हिस्सा नहीं है तो उन गीतों को फिल्म में नहीं रखते थे। उन्होंने संगम और सत्यम् षिवम् सुंदरम का एक—एक गीत फिल्म की बुनावट का हिस्सा नहीं होने के कारण हटा दिए।
हालांकि उनके फिल्मी कैरियर में कई गायकों ने उनका साथ दिया एवं उनकी फिल्मों में आवाज दी लेकिन मुकेश के बारे में राजकपूर का कहना था कि मुकेष उनकी आवाज थे, उनकी आत्मा थे और उनके बिना वह सिर्फ षरीर मात्र थे। वह आवाज जो दुनिया वालों के दिल तक पहुंची मुकेष की थी, उनकी नहीं। राज कपूर तो बस एक छवि था — हाड़—मांस का एक ढांचा मात्र।
मुकेश के निधन से राजकपूर के जीवन में एक शून्य पैदा हो गया। उन्होंने कहा था, ''जब मुकेष की मृत्यु हुई तो सब कुछ समाप्त हो गया। मुझे लगा कि मेरी सांस और मेरी आत्मा चली गई है। मैं ही जानता हूं कि मैंने क्या खो दिया। उनकी मृत्यु के बाद सूनापन और खालीपन था, ऐसा षून्य जो भरा नहीं जा सकता था परन्तु मुझे तो दुख से उबरना ही था और अपना काम करना था। यही मजबूरी वह कीमत है जो एक कलाकार को चुकानी पड़ती है।''
सपनों का सौदागर
राजकपूर ने 1968 में सपनों का सौदागर में अभिनय किया था। इस फिल्म में उनका अभिनय करना संयोग हो सकता है लेकिन यह कोई संयोग नहीं कि वह भारतीय सिनेमा में सपनों के सबसे बड़े सौदागर बने। उन्होंने न केवल अपने लिये बल्कि आम आदमी के लिये सपने बुने और उन्हें उन सपनों को साकार करने के लिये मेहनत करने के लिये प्रेरित किया। सपने बेचने वाले अन्य लोगों की तरह राजकपूर ने न तो अपने लिये अमीर बनने के और न ही शोहरत पाने के सपने देखे और न ही उन्होंने आम लोगों को इसके सपने दिखाये बल्कि उन्होंने तमाम मुश्किलों और संकट में भी मुस्कुराने और ईमानदारी के पथ पर चलने के सपने दिखाये — आवारा के नायक की तरह जिसने दुनिया को संदेश दिया — ‘‘जख्मो से भरा सीना है मगर, हंसती है मेरी मस्त नजर।''
राजकपूर को भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा शो मैन भी कहा जाता है। दरअसल इस षब्द का प्रयोग सबसे पहले अमेरिकन फिल्म निर्माता सिसिल बी, डिमिल के लिए किया गया था। ऐसा इसलिये क्योंकि उन्होंने जो भी फिल्में बनाई उन्हें बड़े पैमाने पर और पूरी भव्यता के साथ बनायी और उनके फलक भी व्यापक रखे — चाहे ‘किंग ऑफ किंग्स' हो या ‘द ग्रेटेस्ट षो ऑन अर्थ' हो। राजकपूर ने भी सिसिल बी, डिमिल की तरह भव्य फिल्में बनाई और फिल्मों में भव्यता को बरकरार रखने के जुनून में कई बार कर्ज में डूब गये, लेकिन साथ ही साथ उन्होंने अपनी फिल्मों के जरिये व्यापक दृष्टिकोण भी पेश किया और यही कारण है कि उनकी फिल्में न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय हुयी। एक बार राजकपूर से पूछा गया था कि उन्हें महानतम षो—मैन क्यों कहा जाता है। राजकपूर ने जवाब में कहा, ‘‘मैं खुद भी यह समझने की कोषिष कर रहा हूं कि मुझे षो—मैन क्यों कहते हैं। हालांकि मेरी फिल्मों का कैनवास बड़ा होता है। जब मैंने आवारा बनाई, तो सिर्फ एक गाने के लिए विषाल हवेली का सेट लगाया और स्वप्न दृष्य के लिए भव्य सेट लगाया था। लोगों ने मुझे षो—मैन के विष्लेशण से पुकारना आरंभ कर दिया। धीरे—धीरे सभी लोग षो—मैन कहने लगे परंतु महानतम षो—मैन सीसिल बी. डिमिल ही थे।''
हालांकि राजकपूर को केवल शो मैन कहना गलत है क्योंकि जिस निर्माता—निर्देषक की फिल्मों में सिर्फ भव्यता हो, उन्हें षो—मैन कहा जाता है लेकिन उनकी फिल्मों में आम आदमी के दुख दर्द की बात होती है। उनकी फिल्मों में केंद्रीय विचार बहुत महान होता था और उन्होंने कभी तकनीक या भव्यता को अपनी कथा पर हावी होने नहीं दिया। इसलिये राजकपूर को केवल षो—मैन कहकर उनके निर्देषन की क्षमता तथा उनके जनोन्मुखी दृष्टिकोण की अनदेखी नहीं कर सकते।
फिल्म जागते रहो के ज्यादातर दृश्य बहुमंजिला इमारत में घटित होते है इसलिए राजकपूर ने भव्य सेट लगाया। इमारत के पिछले हिस्से का भी भव्य सेट लगाया। फिल्म का एक दृश्य है कि नायक पाइप पकड़कर लटका है और लोग पत्थर मार रहे हैं। एक पत्थर क्राइस्ट की छवि पर लगता है और पूरा दृष्य करुणा में बदल जाता है। जो लोग एक कथित चोर को दंड दे रहे होते हैं वे नोटों को बटोरने के लिये जानवर की तरह व्यवहार करने लगते हैं और यही दृश्य सामाजिक विरोधाभास पर करारा चोट करता है। ऐसे में फिल्म के सेट की विषालता और भव्यता पीछे चली जाती है और वह विचार प्रमुखता से सामने आते हैं जिसे राजकपूर सामने लाना चाहते हैं। जाहिर है कि आवारा के दृष्य के भव्य सेट महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि पानी के लिये तड़पते लाचार आदमी का संघर्ष, अंतर्द्वंद एवं आर्तनाद महत्वपूर्ण है। इसी तरह प्रेमरोग में बड़े राजा ठाकुर की हवेली को पूरी भव्यता के साथ पेश किया गया लेकिन इस हवेली की भव्यता विधवा मनोरमा की त्रासदी के सामने फीकी पड़ जाती है।
राजकपूर ने अपने फिल्म कैरियर की शुरूआत सबसे निचले दर्जे से की लेकिन अपनी फिल्मों के कारण वह सबसे उंचे दर्जे के फिल्मकार की श्रेणी में आ गये। उन्होंने सरदार चंदूलाल की रणजीत मूवीटोन से अपना फिल्मी कैरियर तीसरे दर्जे के सहायक से षुरू किया था। थोड़ी तरक्की हुयी तो दो सौ रुपए का मासिक वेतन पाने लगे। किदार षर्मा ने जब उन्हें नीलकमल में नायक की भूमिका दी तब भी उन दृष्यों में वे सहायक निर्देषक रहते थे जिनमें बतौर नायक उनका काम नहीं था। इस फिल्म में नायक की भूमिका निभाने के पूर्व तक क्लैप ब्यॉय के रूप में काम करते रहे। जब पृथ्वी थिएटर में नौकरी की तब महबूब खान, वी. षांताराम, कारदार, एस. मुखर्जी और सरदार चंदूलाल जैसे दिग्गज निर्देशकों की तूती बोलती थी लेकिन अपनी निर्देशन में बनी पहली फिल्म आग से ही वह चोटी के निर्देशकों में शुमार हो गये। सबसे नीचे के पायदान से अपना कैरियर शुरू करने के कारण हो सकता है कि राजकपूर के दिल में ऐसी ख्वाहिश रही हो कि फिल्म जगत में अपना उंचा स्थान बनाएं और शायद यही कारण रहा हो कि वे लगभग हर फिल्म में भव्य सेट लगाने से नहीं चूके, क्योंकि मुकाबला महान और स्थापित लोगों से था। दरअसल उनके सारे भव्य सेट उनकी महत्वाकांक्षा के प्रतीक थे। कम उम्र में ही राजकपूर ने यह भी सीख लिया था कि सेट का पूरा इस्तेमाल कैसे किया जाता है। उन्होंने यह भी जान लिया था कि लगाया हुआ धन पर्दे पर नजर आना चाहिए। सेट की भव्यता के कारण कोई पात्र बौना नहीं होना चाहिए। सजावट की चकाचौंध से किसी पात्र की आंखें नीची नहीं होने देना है। आवारा में जेल का गलियारा लंबा लगाया गया ताकि जज रघुनाथ के प्रवेष के पहले उनकी विषाल छाया उस गलियारे में नजर आए। लंबा गलियारा भव्यता के लिए लगाया गया था। जोकर में भारतीय सरकस के साथ रूसी सरकस भी जोड़ा गया, क्योंकि विदेषी नायिका का चरित्र स्थापित करना था। रूसी सरकस के करतब की खातिर जोकर के आंसू व्यर्थ नहीं गए। राजकपूर को अपनी प्राथमिकता का अहसास हमेषा था।
राजकपूर जितने अच्छे फिल्मकार थे, उतने ही बढ़िया मेजमान भी थे और उनके सेट्स की तरह उनकी पार्टियां भी भव्य होती थीं। अपने बच्चों की षादियां भी उन्होंने बड़ी षान—षौकत से की परंतु इसके पीछे भी जिंदगी को भरपूर जीने की लालसा थी। इन सब कारणों से अखबार वालों ने उन्हें षो—मैन कहना षुरू किया और यह गलत विषेशण उनके नाम के साथ सदैव के लिए चस्पां हो गया।
उनके सिनेमा व्यापार के कुछ नियम थे जिसका निर्वाह उन्होंंने अंत तक किया। उन्होंने जिस फिल्म वितरक के साथ अपनी पहली फिल्म को बेचा उसका साथ अंत तक निभाया। अंतिम समय में वे जिन वितरकों के साथ काम कर रहे थे उनमें से ज्यादातर पुराने वितरक थे और उन सबको परिवार का हिस्सा माना। हमारे देश में ज्यादातर निर्माताओं ने अपनी फिल्में पहले से तय किए दामों से अधिक में बेचीं। प्रदर्षन के समय वितरक मजबूर होता है, क्योंकि उसने सिनेमा वालों से अग्रिम राषि ली होती है और प्रदर्षन की तिथि घोशित कर दी गई होती है। मजबूर वितरक से निर्माता ज्यादा पैसे वसूल करता है। लेकिन राजकपूर ने अपने जीवन में कभी तयषुदा कीमत से एक रुपए ज्यादा नहीं लिया और उनकी हर फिल्म में बजट से अधिक खर्च हुआ। उन्हें अपने काम पर विष्वास रहा। संगम की कीमत आठ लाख रुपए प्रति क्षेत्र थी परंतु राजकपूर ने विदेष में षूटिंग के लिए भारत सरकार से विदेषी मुद्रा की आज्ञा ली थी। इसलिए प्रदर्षन के चार महीने पहले ही राजकपूर ने वितरकों से दो लाख रुपए प्रति क्षेत्र कीमत बढ़ाने की प्रार्थना की। सोचने के लिए उन्हें महीनों का समय भी दिया। यह एक ही अवसर था जब मूल्य बढ़ाया गया था। आर.के. ने षो—बिजनेस में स्वस्थ परंपराएं डालीं और उनका निर्वाह भी किया। बीवी ओ बीवी के घाटे की रकम को प्रेमरोग में कीमत घटाकर राजकपूर ने वितरकों के नुकसान की भरपाई की यद्यपि अनुबंध में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। राजकपूर ने पैसे के लालच में कभी वितरक नहीं बदले।
आम तौर पर निर्माता प्रदर्षन के थोड़े से दिन पहले वितरक को फिल्म दिखाते हैं। राजकपूर अपने वितरकों को निर्माण के दौरान ही कई बार फिल्म दिखाते थे, क्योंकि उनका विष्वास था कि निर्माता और वितरक, दोनों भागीदार हैं। जो माल करोड़ों के सामने जाने वाला है, उसे उन वितरकों से छुपाकर क्यों रखें। हर महत्वपूर्ण मोड़ पर उन्हें विष्वास में लें। इस तरह से राजकपूर को विभिन्न क्षेत्रों से आए वितरकों की प्रतिक्रिया भी मालूम पड़ जाती थी। वह करते मन की थे परंतु सुनते सबकी थे। हर वितरक से उसके परिवार की कुषल पूछते थे और उनके क्षेत्रों की सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं की जानकारी भी लेते थे। आम आदमी से संपर्क का कोई भी सूत्र राजकपूर कभी नहीं छोड़ते थे।
राजकपूर का कलाकार व्यापारी राजकपूर पर हमेषा हावी रहा है। हंसी—मजाक के मूड में राजकपूर कहते थे, ‘‘विस्की में सोडा नहीं, प्यार में सौदा नहीं'' लेकिन व्यापार में राजकपूर ने लिहाज बहुत रखा इसलिए वे ठगे गए। आंखें खुली रखकर ठगे गए। उनका विचार था कि जिन्हें स्नेह किया है, उन्हें रंगे हाथों पकड़कर, अपनी लज्जा को बढ़ाना है। राजकपूर को व्यापार का ज्ञान अधिक नहीं था और वे अच्छे प्रषासक भी नहीं थे। अपने परंपरा बोध के कारण उन्होंने बहुत पैसा खोया। जब उन्होंने उद्योग में कदम रखा था, तब स्टूडियो श्रेश्ठता का प्रतीक था। कम उम्र में ही राजकपूर स्टूडियो के मालिक बन गए। छठवें दषक के मध्य में ही बाबूराम इषारा ने सेट लगाने के बदले बंगलों में षूटिंग की परंपरा षुरू की जिसे बढ़ती हुई कीमतों ने बढ़ावा दिया। धीरे—धीरे सभी स्टुडियो घाटे में जाने लगे। पेट्रोल के बढ़ते दामों ने चेंबूर जाना और महंगा कर दिया।
पिछले कई वर्षों से आर.के. स्टूडियो घाटे में चल रहा है और फिल्मों के निर्माण से कमाया सारा पैसा स्टुडियो को चलाए रखने के खाते में जा रहा है। राजकपूर की जिद्द रही है कि न स्टाफ के लंबे—चौड़े काफिले को कम करेंगे और स्टुडियो को बंद करेंगे। आर.के. में चार साल में एक फिल्म बनती है, जिसकी षूटिंग के लिए इनडोर षिफ्ट एक सौ पचास लगती है। बाकी समय इक्का—दुक्का बाहरी निर्माताओं की षूटिंग आर.के. में होती है। चार वर्श में लगभग आठ सौ षिफ्ट काम होना चाहिए तब घाटा नहीं होता। सन् 1986 में राजकपूर ने अपना मूल स्टुडियो अपने पास रखा। 1965 में पड़ोस का जो छोटा स्टुडियो खरीदा था, वह बेच दिया। उनकी मृत्यु के बाद षादीलाल ने खरीदे हुए हिस्से को अपने अधिकार में लिया और गैर जिम्मेदार पत्रकारों ने षोर मचाया कि आर.के. को राजकपूर के पुत्रों ने बेच दिया। मूल स्टुडियो आज भी कायम है। तीनों पुत्र समझदार हैं और आर.के. की परंपरा निभा रहे हैं।
राजकपूर को षायद 1970 में मालूम हुआ कि उनकी ष्वेत—ष्याम फिल्मों के एक हजार से अधिक प्रिंट अवैध तरीके से देष—विदेष में चल रहे हैं और इसका एक पैसा उन्हें नहीं मिल रहा है। राजकपूर ने 1973 में बॉबी की सफलता के साथ अपनी कंपनी को प्राइवेट लिमिटेड में बदला। इसके पूर्व कंपनी राजकपूर की मालिकी हक की कंपनी थी जिसमें सौ रुपए की कमाई में से नब्बे रुपए से अधिक टैक्स—योजना बनाई होती, तो करोड़ों की बचत होती। राजकपूर का कलाकार आंकड़ों के लिए कभी वक्त नहीं निकाल पाया। तिजारत के सवाल में वे बचपन से कमजोर थे। उन्हें लगता था कि ठगने से बेहतर है ठगे जाना। राजकपूर की निर्माण व्यवस्था में भी राजे—रजवाड़ों का अंदाज रहा है और सामंतवादी प्रवृत्तियां पनपी है। यह हैरानी की बात है कि आम आदमी के चितेरे की नाक के नीचे सामंतवादी और तौर—तरीके पनपे और बहुत नुकसान हुआ। दरअसल राजकपूर व्यक्तिगत जीवन में बहुत सादगी पसंद आदमी थे। वे सारी उम्र एमबेसडर कार ही प्रयोग करते रहे। उन्हें फिल्म पर खर्च करना पसंद था।
वह फिल्म पर पैसा खर्च करने से कभी नहीं चूकते थे बल्कि अक्सर अतिरिक्त पैसे खर्च करते थे जिसके लिये उन्हें बाद में मलाल भी होता था। खुद राजकपूर ने कहा था कि उन्होंने प्रेमरोग का एक भव्य सेट लगाया। पहली बार सेट पर सब कुछ नया—नया सा लगा। षॉट ऐसा लगाया कि दर्षक सेट से पूरी तरह परिचित हो जाये..........ये हॉल है, ये षानदार सीढ़ियां हैं, ये आर्च है......ये पोर्टिकों है......दर्षक को सब दिखाने के जोष में उन्होंने वह षॉट लिया। बहुत समय लगा, पैसा भी खर्च हुआ। जब फिल्म पूरी हो गई और संपादन दिया तो वह षॉट निकालना पड़ा क्योंकि पिछले सीन और अगले सीन के बीच वह जमता नहीं था। संपादन के समय किसी षॉट के व्यक्तिगत मोह से बचना पड़ता है और केवल समग्र प्रभाव आपका उद्देष्य होता है। हमारे यहां सैट का मॉडल बनाने के तरीके प्रचलित नहीं है और न ही कैमरे का पूरा संचालन पूर्व नियोजित रहता है। पहले दिन उन्होंने षॉट पूरे सैट से परिचित कराने के लिए लिया था। परंतु सैट का कोना—कोना विभिन्न दृष्यों के लिए फिल्म में इस्तेमाल किया जा चुका था, अतः ये पहले दिन लिया पहला षॉट किसी काम का नहीं रहा।
उन्होंने बताया कि जब प्रेमरोग का अंतिम तौर पर संपादन कर रहे थे तो उन्हें कांट—छांट बहुत कश्टकारी लगते थे क्याेंकि कटे हुए दृष्यों के लिए की गई मेहनत और खर्च याद आते थे और तब वह खुद से कहते थे — ‘मूर्ख राज कपूर........तुम कभी नहीं सीखोगे........तुम हमेषा अति कर जाते हो।' लेकिन इसके बाद भी वह मानते थे कि अगर षूटिंग में किफायत कर दी जाये और अंतिम संपादन के समय किसी षॉट की आवष्यकता होती तो फिर क्या किया जा सकता है। ऐसे में भले ही ज्यादा खर्च हो, ज्यादा षॉट्स लेने का तरीका ही ठीक है। षाट्स के खजाने से आप मोंताज रच सकते हैं.— आपके पास उड़ते परिंदे हैं, अठखेली करती लहरें हैं, लहलहाते दरख्त हैं। आप सबका इस्तेमाल न कर सकें, कुछ अंषों का ही प्रयोग कर सकें परन्तु उनका होना संपादन में आपका आत्मविष्वास बढ़ाता है। अतिरिक्त षॉट्स की मदद से आप आने वाले तूफान की भूमिका रच सकते हैं।
शो मैन बनाम ट्रेजडी किंग
हिन्दी सिनेमा में कई बातें अक्सर संयोगवष होती है। यह संयोग था कि पेषावर की किस्सागो गली में दो पड़ोसी मकानों में दो वर्श के फासले से दिलीप कुमार और राज कपूर का जन्म हुआ और दोनों ने हिन्दी सिनेमा पर वर्षों तक राज किया। इन दोनों के बीच पेशेवर प्रतिस्पर्धा के बावजूद दोस्ती में कभी कमी नहीं आयी। इन दो दोस्तों में समानताएं कम थीं और मिजाज के निहायत ही अलग—अलग होने के बावजूद उनके बीच मोहब्बत में कभी कमी नहीं हुई और वे एक—दूसरे के जबर्दस्त प्रतिद्वंद्वी होते हुए भी कभी पूरी तरह दुष्मनी नहीं निभा पाए। यहां तक कि जीवन में दो बार प्रेम तिकोन में फंसे और उन औरतों को खोकर जब मिले तो ठहाकों में उस गम को गलत किया।
प्रेम तिकोन पर बनी मेहबूब खान की फिल्म अंदाज में दोनों ने अभिनय किया लेकिन राजकपूर के लाख मनाने के बावजूद दिलीप कुमार ने संगम में काम नहीं किया और इसका कारण यह था कि दिलीप कुमार को हालांकि अभिनय के मामले में राज कपूर से कोई खौफ नहीं था, परंतु निर्देषक राज कपूर से उन्हें भय लगता था। सिनेमा माध्यम के गहरे जानकार दिलीप कुमार जानते थे कि सिनेमा दरअसल अभिनेता का नहीं, निर्देषक का माध्यम है। राजकपूर ने दिलीप कुमार की हां सुनने के लिये वर्षों तक इंतजार किया आखिरकार उन्होंने राजेन्द्र कुमार को लेकर यह फिल्म बनायी।
राजकपूर भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े शो मैन बने तो दिलीप कुमार पर्दे पर दर्द को जीवंत करने वाले ट्रेजडी किंग। दिलीप कुमार अंतर्मुखी हैं और जबकि राज कपूर एक खुली किताब की तरह थे, जिनके हर पृश्ठ पर कभी न मुरझाने वाला गुलाब खिला होता था। दिलीप कुमार एक अलिखित कविता की तरह हैं — दर्द की ऐसी गांठ जो कभी खुल ही नहीं सकती। ग्यारह बहन—भाई के परिवार वाले दिलीप ने कई जनाजों को कंधा दिया और सुपुर्दे खाक करके भी वे अपने मजबूत कंधों पर किसी अदृष्य चीज का भार महसूस करते रहे हैं।
राजकपूर के साथ अपने संबंध के बारे में दिलीप कुमार कहते हैं, ‘‘राजकपूर के साथ मेरे निजी संबंध बहुत ही खास थे क्योंकि हम दोनों पेषावर में बचपन से ही एक दूसरे को जानते थे और खालसा में कालेज के दिनों में भी हमारी दोस्ती थी जहां हम दोनों आर्ट्स विशयों के छात्र थे। हम कॉलेज फुटबाल टीम में थे और हम बहुत ही जुनून के साथ मैच खेला करते थे। राज बहुत ही अच्छा गोलकीपर एवं रेफरी था। वह इतना हैंडसम था कि लड़कियां उसे देखकर चिल्लाती थी और उसे अपने प्रति लड़कियों के आकर्शण से मजा आता था। बम्बई टाकीज में बाद में हमारी मुलाकात हुयी और राज को इस बात से खुषी हुयी कि मैं भी उसी पेषे
में आ गया जिसमें वह मुझे ले जाना चाहता था। हम भाई की तरह थे। हमने पत्रकारों को जो मर्जी हो, हमारे बारे में लिखने की छूट दे रखी थी लेकिन हमारे संबंध मधुर बने रहे।
राज कपूर और दिलीप एक और तिकोन के सदस्य थे। दोनों के पंडित जवाहरलाल नेहरू से गहरे संबंध थे। दिलीप कुमार को नेहरू की धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता पर यकीन था और राज कपूर उनकी भारतीयता, उनकी डिस्कवरी अॉफ इंडिया के भक्त थे। राज कपूर उस नेहरू के निकट थे, जिन्होंने गंगा को कविता माना था और अपनी अस्थियों को भारत के खेतों में बिखराने की हिदायत देकर गए थे।
एक बार राज कपूर त्रिवेंद्रम में षूटिंग कर रहे थे। दिलीप ने फोन पर कहा — कल बंबई पहुंच जाओ। क्या काम है, यह नहीं बताया तो राज कपूर ने कहा — ‘‘तू क्या मछलेवाल (पेषावर का खतरनाक गुंडा, उस जमाने में जब दोनों पेषावर में थे) दा पुत्तर है, जो तुम हुक्म दो और मैं आ जाऊं।'' अगले दिन राजभवन में नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित की मौजूदगी में समारोह था। राज कपूर दौड़ते—दौड़ते पहुंचे और हांफ रहे थे, पंडितजी ने पूछा — क्या बात है? राज कपूर ने कहा कि ये (दिलीप) अपने को मछलेवाल का बेटा समझता है और जहां—तहां मुझे बुला लेता है। पंडितजी ने पूछा कि ये मछलेवाल कौन? जब उन्हें पूरी बात बताई गई तो वे उन दोनों के दोस्ताने और उसके इस तरह बयां होने के अंदाज पर मुस्करा दिए। नेहरू क्या, राज कपूर ने तो क्राइस्ट को भी हंसा दिया था। स्कूल के एक नाटक में अपनी साइज से बड़ा गाउन पहने राज कपूर स्टेज पर गिर पड़े तो क्राइस्ट की भूमिका करने वाला लड़का हंस पड़ा था। बचपन की इसी घटना में जोकर का बीज पड़ा था।
उनकी मित्रता की एक बानगी और देखिए। दोनों छुट्टियां मनाने लंदन गए। एक बंगला किराए पर लिया। बावर्ची नहीं मिला तो दिलीप किचन में कीमा बना रहे थे और राज कपूर मुर्गा बना रहे थे। एक मेहमान ने कहा कि कीमा अच्छा पका है तो राज कपूर ने कहा — कीमा खानदानी बावर्ची ने पकाया है और मुर्गा एक्टर ने। उनके बीच हमेषा नोंक—झोंक चलती थी। बचपन के दोस्त जो ठहरे। वे एक—दूसरे के मन में बसा बचपन का कुटैव थे।
दिलीप कुमार मेहबूब खान की अंदाज में काम कर रहे थे और आदत के अनुरूप अपने किरदार में डूबे थे। उन दिनों राज चार फिल्में कर रहे थे, इस कारण थके—मांदे सेट पर आते और षॉट देकर सेट के किसी तन्हा कोने में सो जाते। षॉट तैयार होता तो उन्हें जगाया जाता। दिलीप हैरान थे कि बिना किसी तैयारी के कोई व्यक्ति अभिनय में इतना स्वाभाविक कैसे हो सकता है। जो दोस्ती, दुष्मनी और मोहब्बत तक में प्रतिद्वंद्विता का रिष्ता राज—दिलीप ने निभाया, वो आज के षिखर सितारे कहां निभा पाते हैं। 50 और 60 के दषक में हिन्दी सिनेमा पर राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद की त्रिमूर्ति का वर्चस्व था लेकिन आज के फिल्मी सितारों के विपरीत इन तीनों के बीच पेषेगत प्रतिद्वंद्विता के बावजूद जो सदभाव और सौहार्द्र था, उसकी मिसाल मिलनी कठिन है।
अंतर्राष्ट्रीय फिल्मकार
राजकपूर उन फिल्मकारों में संभवतः पहले नम्बर के फिल्मकार थे जो अपने देश के साथ—साथ विदेशों में भी लोकप्रिय थे। राज कपूर की गिनती भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े फिल्मकारों में होती है। उनके अभिनय और निर्देशन का जादू उनके निधन के दो दशक से अधिक समय के बाद आज भी कायम है। उनकी फिल्म आवारा और श्री 420 फिल्म सोवियत संघ और चीन जैसे साम्यवादी देशों में भारत की तरह ही लोकप्रिय हुयी। दुसरे विश्व युद्ध के बाद जब सोवियत संघ गरीबी और तंगहाली के दौर से गुजर रहा था तब राजकपूर की फिल्म आवारा का गीत ‘‘जख्मों से भरा है सीना लेकिन हंसती है मेरी मस्त नजर'' रूसी लोगों के सीनों पर मरहम साबित हुआ। सिर्फ सोवियत नहीं, बल्कि लैटिन अमेरिकी देश, चीन और अफगानिस्तान में भी राजकपूर की फिल्में खूब सराही गयीं। वह अंतर्राष्ट्रीयता के मापदंडों पर खरे उतरने वाले पहले फिल्मकार थे।
राजकपूर मानते थे कि सिनेमा सर्वाधिक प्रभावषाली जन माध्यमों में एक है और करोड़ों के दिल को छू सकता है क्याेंकि सिनेमा एक ही समय में श्रव्य और दृष्य का माध्यम है। यह आपको सोचने के लिए विवष करता है और भावनात्मक स्तर पर झिंझोड़ देता है। विभिन्न भाशाओं में होने के बावजूद भी सभी फिल्मों में व्यापक प्रभाव होता है। फिल्म माध्यम से संदेष हृदय तक पहुंचता है। फिल्में रूसी या तुर्की या पाकिस्तानी — किसी भी भाशा की हो कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि यह माध्यम भौगोलिक सरहदों से उपर है। एक मां के आंसू सभी को द्रवित करते हैं चाहे वह अमेरिकन मां हो या रूसी मां हो। इसी तरह लोगों के मुस्कुराते चेहरे एक जैसे होते हैं। आंसू और मुस्कान किसी भाशा के मोहताज नहीं होते। इनका अनुभव दुनिया में कहीं भी समान अर्थ के साथ किया जा सकता है।
एक बार ख्वाजा अहमद अब्बास ने निकिता खु्रष्चेव से रूस में राजकपूर की अपार लोकप्रियता के कारण पूछे थे। निकिता खु्रष्चेव का विचार था कि रूस के लोगों ने दूसरे विष्वयुद्ध में अनेक कश्ट सहे और युद्ध की बहुत कीमत चुकाई। देष जबर्दस्त गरीबी और आर्थिक संकटों से गुजर रहा था। रूस के सभी स्टुडियो युद्ध से संबंधित फिल्में बना रहे थे। इस वातावरण में राजकपूर की आवारा आनंद के प्रतीक के रूप में आई जिसका फटेहाल नायक हमेषा हंसता—हंसाता है और प्रेम के गीत गाता है। जख्मों से भरा सीना है परंतु होंठों पर प्यार के नगमे हैं। आवारा आनंद और प्रेम की लहर की तरह पूरे रूस पर छा गई। युद्ध की विभीशका में जले हुए देष के जख्मों पर आवारा मरहम सिद्ध हुई। आवारा मानवता का आषावादी दस्तावेज कहलाई।
यह सच है कि भारत में राजकपूर की लोकप्रियता का कारण था उसका आम आदमी से रागात्मक तादात्म्य स्थापित होना। राजकपूर को भारतीय सभ्यता, संस्कृति और संगीत का अद्भुत ज्ञान था। वह रस के महत्व को समझते थे। इस ज्ञान के कारण ही राजकपूर सामूहिक अवचेतन में पैठने की कला जान गए थे। राजकपूर की स्वाभाविकता और मन के बच्चे को हर उम्र में सही सलामत रखने की योग्यता के कारण आम दर्षक से उनका अनाम रिष्ता विकसित हुआ। ये सारी चीजें जो भारतीय संदर्भ में सटीक थीं, क्या विदेषी दर्षकों को भी पसंद आई? रूस के विशय में निकिता ख्रुष्चेव का अवलोकन सही हो सकता है परंतु गल्फ के मुल्कों में राजकपूर की अपार लोकप्रियता का क्या कारण हो सकता है? अफगानिस्तान, चीन, मॉरीषस और लैटिन अमेरिका के लोगों को भी राजकपूर की फिल्मों में कोई चीज बहुत पसंद आई होगी। अमेरिका के फिल्म उद्योग ने राजकपूर पर अपनी पसंदगी की मोहर 1986 में लगाई जब वहां के अनेक षहरों में राजकपूर की फिल्में दिखाई गई और आर.के. ‘रिट्रास्पेक्टिव' आयोजित किया गया। क्या राजकपूर का गीत—संगीत उन्हें दसों दिषाओं में लोकप्रिय कर गया? राजकपूर की फिल्मों में सार्वकालिकता और सार्वभौमिकता के कौन से तत्व थे। आवारा, श्री चार सौ बीस और जोकर क्लासिक फिल्में होने की परीक्षा में पास हो चुकी हैं क्योंकि निर्माण के इतने वर्शों बाद भी उनमें पहले जैसी ताजगी है। वे आज भी आधुनिक हैं और सौ साल बाद भी वक्त की धूल उन पर नहीं जमेगी, क्योंकि पिछले चालीस सालों में उनका कुछ नहीं बिगड़ा। दरअसल आवारा, श्री 420 और जोकर मनुश्य की कमजोरी का महाकाव्य है। इनके पूर्व के महाकाव्य बड़े लोगों की जीवन गाथाएं हैं। सूर्यवंषी, चंद्रवंषी, योद्धा और वीर पुरुशों के जीवन के महाकाव्य बहुत रचे गए, लेकिन राजकपूर की इन फिल्मों के नायक आम आदमी हैं और बड़े कमजोर से लोग हैं। वे जेब काटते हैं, चोरी करते हैं और ‘षांति से गुजारा हो सके' जैसी मामूली महत्वाकांक्षा इनके दिल में है। ये नायक नियति की जेब से अपने लिए मुट्ठी भर प्यार चुराना चाहते हैं। इस प्यार के सहारे जिंदगी गुजार देना चाहते हैं। नन्हीं—सी महत्वाकांक्षा और प्यार के लिए अदनी—सी जेबकटी ही राजकपूर की फिल्मों को सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता प्रदान करती है। बीसवीं सदी में साधारण जीवन जितना कठिन हो गया है उतना ही राजकपूर की फिल्मों का महत्व बढ़ गया है। राजकपूर ने कलियुग में इंसान पर सेल्युलाइड के महाकाव्य लिखे हैं। षम्मी कपूर ने राजेष खन्ना को नायक लेकर एक फिल्म बनाई थी (बंडलबाज), जिसमें षम्मी बोतल में बंद जिन्न हैं। फिल्म के एक भाग में उसकी दैवी षक्ति समाप्त हो जाती है और उसे साधारण इंसान की तरह जीना पड़ता है। वहां एक संवाद है। ‘मामूली इंसान बनकर जीना कितना कठिन है यह मुझे आज मालूम पड़ा।' राजकपूर की फिल्मों के नायक ऐसे ही मामूली इंसान हैं पर उनके पास अभूतपूर्व सपने देखने की दैवी ताकत है। राजकपूर के पास सपने देखने की ताकत थी और उसके पात्रों के पास भी सपने देखने का माद्दा है। दुनिया भर के गरीब लोग जीवन के कड़वे यथार्थ के बीच मोहक सपने देखते हैं। राजकपूर की फिल्में उन्हें दिलासा देती रही है कि सपने देखना गलत नहीं है, गरीब होना गुनाह नहीं है और इस असमान समाज में थोड़ा—सा चोर होना अपराध नहीं है। दुनिया भर के दर्षकों को राजकपूर के नायक के साथ यह ‘आइडेंटिफिकेषन' मिला।
सात साल पहले राजकपूर की छोटी बेटी रीमा, न्यूयार्क में ‘रेंबो' फिल्म देखने के लिए टिकट खिड़की के सामने लंबी कतार में खड़ी थी। सिनेमा के एक कर्मचारी ने उनसे पूछा कि क्या वह राजकपूर की बेटी हैं। रीमा की षक्ल पिता से काफी मिलती है। उस कर्मचारी ने डॉलर का टिकट और पॉपकार्न अपनी तरफ से रीमा को उपहार में दिए और राजकपूर को सलाम कहा। उसने बताया कि वह अफगानिस्तान का रहने वाला है और न्यूयार्क में नौकरी करता है। उसने अपने वतन में राजकपूर की फिल्में देखी हैं और वह उनका अनन्य भक्त है। संगम ने ईरान के बड़े षहरों में आय के रिकॉर्ड कायम किए थे। हिंदूजा के मूल व्यावसायिक संस्थान का नाम आज भी संगम इंटरनेषनल है, क्योंकि हिंदूजा, संगम के वितरक थे, ओवरसीज सर्किट के लिए। हिंदूजा की विषाल अंतर्राश्ट्रीय व्यापारिक सफलता में संगम का बहुत हाथ है, क्योंकि इसमें उन्हें न केवल धन मिला वरन महत्वपूर्ण लोगों से परिचय भी प्राप्त हुआ। बाद की सफलता उनकी अपनी होषियारी का परिणाम है। आज भी हिंदूजा घराना राजकपूर की बहुत इज्जत करता है।
राजकपूर की फिल्मों के संगीत में आधार तत्व के रूप में षुद्ध भारतीय ‘मेलोडी' रही है, परंतु वाद्य यंत्रों का नियोजन एवं मुखड़े और अंतरे के बीच इंटरल्यूड पाष्चात्य क्लासिकल षैली के रहे हैं। इस कारण विदेषी दर्षकों को उनका संगीत अटपटा नहीं लगा। गीतों के छायांकन में भावना की तीव्रता के कारण भाशा विदेषी दर्षकों के लिए बाधा नहीं बनी, बल्कि गीतों की वजह से उन्हें कहानी समझने में आसानी हुई और वैसे भी प्रेम की भाशा अंतर्राश्ट्रीय होती है।
राजकपूर की फिल्मों की तकनीकी तथा गुणवत्ता भी लगभग अंतर्राश्ट्रीय स्तर की रही है। हालांकि उनकी प्रारंभिक फिल्में — आग, बरसात, आवारा अमेरिकन फिल्मों की तकनीक से प्रभावित थीं। राजकपूर को इटली के तीन निर्देषकों ने काफी प्रभावित किया — रोबर्टो रोजेलिनी, विटारियो डी सिका और सीजेरे जावाटिनी। इनकी फिल्में भारत के पहले अंतर्राश्ट्रीय महोत्सव सन् 1952 बॉम्बे में दिखाई गयी थी। ये तीनों इटली के सिनेमा में नव यथार्थवाद के प्रमुख अग्रणी फिल्मकार थे। विटारियो डी सिका की फिल्मों ने राजकपूर को खास तौर पर प्रभावित किया विषेशकर — बायसिकल थीफ, मिरेकल इन मिलान और षू षाइन बॉय। इस महोत्सव में फ्रेंक कैपरा भी आये थे और राजकपूर को उनके साथ समय बीताने का मौका मिला। फ्रेंक कैपरा की ‘इट हैपन्ड वन नाइट' और ‘मि. डीड गोज वाषिंगटन' ने उन्हें प्रभावित किया। इसके अलावा उन्हें सीसिल बी डीमिल की फिल्में पसंद थीं विषेशकर टैन कमांडमेंट, रीप द वाइल्ड विंड और द ग्रेटेस्ट षो ऑन अर्थ।
विटारियो डी सिका और जावाटिनी ने जो यथार्थ जीवन में देखा और महसूस किया, उसे परदे पर प्रस्तुत किया। सब कुछ यथार्थ। जीवन की परतें जस की तस प्रस्तुत थीं। अमेरीकन फिल्म में बच्चे को सू—सू करते हुये नहीं दिखाया जाता लेकिन ‘बायसिकल थीफ' में बच्चा सड़क के किनारे सू—सू कर रहा है और पिता सड़क पर खड़ा उसका इंतजार कर रहा है। राजकपूर को यथार्थ के साथ जुड़े जमीनी और सांस्कृतिक मूल्यों ने बहुत प्रभावित किया।
भारत में पहले स्टूडियो के भीतर फिल्मों की शूटिंग होती थी लेकिन राजकपूर फिल्मों की शूटिंग सूर्य की रौशनी में करने के पक्षधार थे। असल में उन्हें कुछ विदेषी फिल्मकारों ने कहा, ‘‘आप कितने भाग्यवान हैं, आपके यहां बारह मास सूर्य उपलब्ध रहता है। इसकी दिव्य रोषनी में षूटिंग करो। स्टूडियो के भीतर नकली रोषनी में क्यों षूटिंग करते हो। विदेषों में आवष्यकता पड़ने पर ही स्टूडियो के भीतर जाते हैं।''
ष्याम—ष्वेत फिल्मों में प्रकाष व्यवस्था से राजकपूर और राधू करमरकर ने गहरा प्रभाव उत्पन्न किया। कैमरे की भाशा भी भावों को अभिव्यक्त करने में सहायक सिद्ध हुई। ‘जागते रहो' का नायक केवल अंत में एक संवाद कहता है। पूरी फिल्म में राजकपूर का कैमरा ही बोलता है। संगम और जोकर की दृष्यावली संप्रेशण के मामले में संवाद की मोहताज नहीं है।
ट्रेज्यो—कॉमेडी साहित्य की बहुत कठिन विधा है। इसे साधना अर्थात रस्सी पर चलना है। जरा कदम लड़खड़ाए कि असफलता की निर्मम धरती पर चारों खाने चित्त। ट्रेज्यो—कॉमेडी में हल्का—सा उजाला होता है और हल्का—सा अंधेरा अर्थात अलसभोर के समय की तरह। दुख और सुख इसमें गले लगते नजर आते हैं। आंसू और मुस्कान एक साथ। राजकपूर की फिल्में ट्रेज्यो—कॉमेडी वर्ग की है और यह विधा पष्चिम के दर्षकों के लिए नई नहीं है। चार्ली चैप्लिन उन्हें इस विधा से परिचित करा चुके थे। राजकपूर पर चैप्लिन का प्रभाव स्पश्ट है। सारी दुनिया के दर्षक ट्रेज्यो—कॉमेडी के सुरमई उजाले और चंपई अंधेरे को पसंद करते हैं। राजकपूर के नायक इस कदर मानवीय और पहचाने से लगते हैं कि जब उनकी फिल्म पर्दे पर चलती है, तो पर्दा आईना बन जाता है और हर दर्षक उसमें अपनी छवि देखता है।
सिनेमा भौगोलिक और भाशाई सरहदों को नहीं मानता। विज्ञान की षताब्दी के आम आदमी की भाशा है सिनेमा। यह आधुनिक फोक—लोर का माध्यम है। राजकपूर इस माध्यम का अंतर्राश्ट्रीय गीतकार है।
राजकपूर सन् 1954 में पहली बार सोवियत देष पहुंचे जिसके बारे में कहा जाता था कि वह एक लौह आवरण के भीतर बसा देश है। राजकपूर को दरअसल सोवियत संघ आने के लिये आमंत्रित किया गया था। सोवियत संघ की यात्रा को राजकपूर खुषकिस्मती मानते थे। वहां जाकर उन्होंने वहां के लोगों से जो प्यार पाया उसे देखकर वह आश्चर्यचकित रह गये। हालांकि सोवियत संघ का फिल्म उद्योग बहुत बड़ा था और वहां एक से बढ़ कर एक फिल्मकार थे लेकिन वहां के लोगों ने जिस तरह से उनका स्वागत किया उससे वह अचंभित रह गये। सोवियत संघ के लोगों को आवारा बहुत ही पसंद आयी और उसमें राजकपूर का अभिनय उतना ही पसंद आया। रूस में राजकपूर की चमत्कारिक लोकप्रियता का कारण संभवतः यह था कि आवारा और श्री 420 का प्रदर्षन इत्तफाक से उस कालखंड में हुआ जब रूसी जनता खुद सांस्कृतिक क्रांति के दौर से गुजर रही थी। इसलिए लब पर तराने और हाथ में फूल लिए विशम आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों की कांटों भरी राह पर चलने वाला भारतीय युवक ‘‘आवारा'' उनकी स्वयं की क्रांति भावना का प्रतीक बन गया। भारतीय युवा की आषा, आकांक्षाओं और जद्दोजहद से उनका यह भावात्मक तादात्म्य दोनों देशों के लोगों को एक दूसरे के नजदीक खींच लाया।
सोवियत संघ की यात्रा से पूर्व राज कपूर ने 1952 में भारतीय फिल्म प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में पहली बार अमेरिका की यात्रा की थी। वहां उन्हें कोई नहीं जानता था। यहां तक कि जब हमारे तरफ की आधी दुनिया उन्हें महानतम कलाकार के रूप में सर आंखों पर बिठा रही थी तब तक वह आवारा भी प्रदर्षित कर चुके थे, अमेरिकी लोगों को न तो उनके, न उनके काम के बारे में कोई जानकारी थी, न ही वे जानने के इच्छुक लगे। पचास के दषक में जो कुछ राज कपूर के साथ नहीं हो सका वह अंततः अस्सी के दषक में होना बदा था। सन् 1985 में लॉस एंजेलिस और न्यूयार्क में भारतीय फिल्म विकास निगम और फिल्मोत्सव निदेषालय ने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी लॉस एंजेलिस तथा म्यूजियम ऑफ माडर्न आर्ट्स ‘मोमा' के साथ मिल कर राज कपूर की फिल्मों का एक पुनरावलोकन आयोजित किया। कैलिफोर्निया विष्वविद्यालय में फिल्म, ऑडियो तथा फिल्म संग्रहालय के कार्यक्रम निर्देषक ज्याफी गिल्मोर तथा मोमा की संग्रहालय अध्यक्ष एड्रियन मैन्सिया, दोनों जो हिंदी सिनेमा की जानकारी रखते थे, की बहुत इच्छा थी कि न्यूयार्क में आयोजित भारत महोत्सव के फिल्मोंद्घाटन के अवसर पर राज कपूर मुख्य अतिथि के रूप में पधारे। उन्होंने इसके लिए राज कपूर को किसी तरह राजी भी कर लिया लेकिन बारम्बार की अस्वस्थता के कारण जब उन्होंने अपनी यात्रा निरस्त करने का तार भेजा तो एंड्रियन मैन्सिया ने तुरंत जवाबी तार भेज कर आर.के. स्टूडियो से पूछा, ‘‘आखिर राज कपूर की जगह और कौन ले सकता है? या तो राज कपूर खुद आयेंगे या कोई नहीं।'' इस तार से वे मुदित भी हुए और अनुग्रहित भी और उन्हें अमेरिका की यात्रा करनी पड़ी।
जीना यहां मरना यहां
नई दिल्ली के सीरीफोर्ट सभागृह में 2 मई 1988 को पैतीसवें राश्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में राज कपूर को सिनेमा कला में अपने उल्लेखनीय योगदान के लिए दादा साहेब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया जाना था। उन्हें उसी दौरान दमे का दौरा पडा। इसके कारण वह मंच तक चल नहीं सके। एक कलाकार के सम्मान में भारत के राश्ट्रपति श्री आर. वेंकटरमण षिश्टाचार के नियमों के विरुद्ध मंच से दर्षकों के बीच प्रथम पंक्ति में बैठे अस्वस्थ राज कपूर तक पहुंचे और उन्हें पुरस्कार प्रदान किया। यह आखिरी बार था जब राज कपूर उठ कर अपने पैरों पर खड़े हुए।
महान तमाषगर के जीवन पर अंतिम पटाक्षेप तालियों की गड़गड़ाहट के बीच कुछ उसी ढंग से हुआ जैसा कि उन्होंने मेरा नाम जोकर के उस द्वितीय खंड के अंत के बारे में सोचा था जिसका कथानक लिखा तो गया लेकिन कभी बन नहीं पाया।
दादा साहब फाल्के सम्मान मिलने पर राज कपूर ने कहा, ‘‘मुझे यह सम्मान प्राप्त हुआ है, यह समाचार मिलने पर मुझे जो हर्श हुआ है उसे षब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। मैं आप सबका षुक्रगुजार हूं। मैं दो वजह से बहुत खुद खुष हूं। प्रथम मेरे पिता को भी दादा साहेब फाल्के पुरस्कार, हालांकि मरणोपरांत प्राप्त हुआ था और उनकी अनुपस्थिति में यह पुरस्कार प्राप्त करने का सौभाग्य व सम्मान मुझे भी प्राप्त हुआ। तब मैंने सोचा भी नहीं था कि एक दिन भाग्य से मुझे भी यह पुरस्कार प्राप्त होगा। और दूसरे, इससे मुझे याद आता है कि सहकर्मी, साथी, टीम, मेरा यूनिट, मेरा विचारक, संगीतकार, टैक्नीषियन, कलाकार — ये सब कितने सार्थक षब्द होते हैं। ऐसे ही क्षणों में आप महसूस करते हैं कि इस खास व्यवसाय में जिसमें हम सब हैं, इसमें किसी एक ने नहीं बल्कि इन सबने मेरे लिए यह संभव बनाया कि मैं उनकी तरफ से यह सम्मान प्राप्त करूं। उनमें से कुछ मेरे साथ अब भी हैं और कुछ जा चुके हैं। मुझे उम्मीद है कि वे भी मेरे इन षब्दों को सुन रहे होंगे। मैं आपका कृतज्ञ हूं।
राजकपूर उसी समारोह में मुर्छित हो गये थे और उन्हें राष्ट्रपति की एंबुलेंस से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान लाया गया। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में अनेक चिकित्सा के भरसक प्रयासों के बावजूद उनकी हालत दिनोंदिन गिरती गई और 27 मई 1988 को वे कभी न टूटने वाली मूर्च्छा में चले गये। अस्पताल में भर्ती होने के बाद से ही उन्हें एक ष्वास यंत्र के सहारे रखा गया था। दिल की जिस धड़कन को दवाओं के जरिये स्थिर रखा गया था, वह क्षीण होती चली गई। गुर्दों द्वारा काम करना बंद कर देने पर उन्हें डायलेसिस पर रखा गया। आखिरकार दो जून 1988 की रात नौ बजकर बीस मिनट पर भारतीय सिनेमा के उस महान शख्सियत ने अंतिम सांस ली। चौसठ वर्शीय अप्रतिम अदाकार पिछले एक महीने से मौत के खिलाफ जो जंग लड़ रहा था वह जंग आखिरकार समाप्त हुयी। उनकी मौत विभिन्न अंगों के निश्क्रिय हो जाने से और ष्वास अवरोध के कारण हृदय गति रूक जाने के कारण हो गई। अंतिम क्षणों में उनका पूरा परिवार उनके करीब था। राज कपूर अपने पीछे पत्नी, तीन बेटे तथा बेटियों का भरा—पूरा परिवार छोड़ गये। भारत सरकार ने एक विषेश विमान से उनके पार्थिव अवषेशों को बम्बई भिजवाने की व्यवस्था की।
जिस रोज उनकी षव यात्रा उनके निवास स्थान से आर.के. स्टूडियो होते हुए ष्मषान तक पहुंची, वह दिन पूरे फिल्म उद्योग के लिए मातम का दिन था। षुक्रवार, 3 जून 1988 को हिंदू रिवाज के मुताबिक फिल्म उद्योग की इस महान हस्ती के पार्थिव अवषेशों को अग्नि के सुपुर्द कर दिया गया और भारतीय सिनेमा का एक गौरवमयी अध्याय समाप्त हुआ। भारतीय रजत पट के इस चमत्कार का चंबूर के विद्युत ष्मषान घर में वैदिक मंत्रोच्चार के बीच अग्नि संस्कार हुआ। उनके सबसे बड़े बेटे रणधीर कपूर ने चिता को प्रज्वलित किया।
राजकपूर को अपनी मौत का पहले से आभास था। उन्होंने पहले ही परिवार के लोगों को कह रखा था कि उनकी जब मृत्यु हो उन्हें उनके स्टूडियो ले जाया जाए — क्याेंकि यह पूर्णरूपेण संभव है कि रोषनियों की चकाचौंध के बीच में मैं पुनः चिल्ला बैठूं ‘एक्षन! एक्षन....!'
पुरस्कार और सम्मान
1952
‘आवारा' विषेश योग्यता प्रमाणपत्र (भारत का अंतर्राश्ट्रीय फिल्मोत्सव, बम्बई)
1955
‘बूट पॉलिष' बेबी नाज के अभिनय के लिए विषेश उल्लेख (कानूस, अंतर्राश्ट्रीय फिल्मोत्सव, फ्रांस)
1955/56
‘श्री 420' सर्वोत्तम संपादन (फिल्मफेयर पुरस्कार)
1956
‘श्री 420' विषेश योग्यता के लिए क्षेत्रीय प्रमाणपत्र (राश्ट्रीय फिल्म पुरस्कार)
1957
‘जागते रहो' ग्रां प्री (अंतर्राश्ट्रीय फिल्मोत्सव, कारलोवी वेरी, चेकास्लोवाकिया)
1959
‘अनाड़ी' सर्वोत्तम अभिनेता (फिल्मफेयर पुरस्कार)
1961
‘जिस देष में गंगा बहती है' सर्वोत्तम अभिनेता, सर्वोत्तम कला निर्देषन (फिल्मफेयर पुरस्कार)
1964
‘संगम' सर्वोत्तम निर्देषक, सर्वोत्तम अभिनेत्री, सर्वोत्तम संपादक (फिल्मफेयर पुरस्कार) विषेश योग्यता प्रमाणपत्र, 1964 की सर्वोत्तम फिल्म के लिए पुरस्कृत (फिल्म संपादक संघ, बम्बई)
1969
राज कपूर पद्म भूशण — सर्वोत्तम गणतंत्र दिवस राश्ट्रीय सम्मान (जाकिर हुसैन, भारत के राश्ट्रपति)
1971
‘मेरा नाम जोकर' सर्वोत्तम निर्देषक, सर्वोत्तम संगीत, सर्वोत्तम छायांकन, सर्वोत्तम ध्वनि अंकन, सर्वोत्तम पार्ष्व गायक (पुरुश) (फिल्मफेयर पुरस्कार) सर्वोत्तम बाल कलाकार, सर्वोत्तम छायांकन (रंगीन) सर्वोत्तम पार्ष्व गायक (राश्ट्रीय फिल्म पुरस्कार)
1973
‘बॉबी' सर्वोत्तम अभिनेता, सर्वोत्तम अभिनेत्री, सर्वोत्तम कला निर्देषन (रंगीन), सर्वोत्तम पार्ष्व गायक (पुरुश) (फिल्मफेयर पुरस्कार), सर्वोत्तम निर्देषक (फिल्म प्रषंसक संघ, मद्रास) सर्वोत्तम निर्देषन के लिए विषेश योग्यता प्रमाण पत्र (भारतीय फिल्म निर्देषक संघ, बम्बई) उत्कृश्ट निर्देषन (‘षमा/सुशमा उर्दू फिल्म पत्रिका') सदाबहार सर्वोत्तम फिल्म (फिल्म गोअर्स संघ, बम्बई)
1974
‘राजकपूर' तीन दषकों से फिल्मों के माध्यम से भारतीय संस्कृति में राज कपूर द्वारा युवा चेतना के पुनर्जागरण हेतु उल्लेखनीय सेवा के मूल्यांकन के लिए (ज्वाइंट अंतर्राश्ट्रीय, बम्बई के नाना चुडासमा)
1975
‘दो जासूस' सर्वोत्तम चरित्र अभिनेता (आंध्रप्रदेष फिल्म पत्रकार संघ, विजयवाड़ा)
1978
‘सत्यम षिवम सुंदरम' सर्वोत्तम संगीत, सर्वोत्तम छायांकन (फिल्मफेयर पुरस्कार)
1979
‘राज कपूर' भारत के उप—राश्ट्रपति द्वारा षिरोमणि पुरस्कार (इंस्टीच्यूट ऑफ सिख स्टडीज, दिल्ली)
1981
‘राज कपूर' षांति एवं मैत्री के लिए असाधारण सेवा के मूल्यांकन के लिए विषेश योग्यता प्रमाणपत्र (द सोवियत लैंड—नेहरू पुरस्कार समिति, मॉस्को)
1982
‘प्रेमरोग' सर्वोत्तम निर्देषक, सर्वोत्तम अभिनेत्री, सर्वोत्तम गीतकार (फिल्मफेयर पुरस्कार)
1985
‘राम तेरी गंगा मैली' सर्वोत्तम फिल्म, सर्वोत्तम निर्देषक, सर्वोत्तम संगीत, सर्वोत्तम कला निर्देषन (फिल्मफेयर पुरस्कार)
1988
राज कपूर दादा साहेब फाल्के पुरस्कार (राश्ट्रीय फिल्म पुरस्कार)
फिल्मों की सूची
1935
‘इंकलाब'
निर्देषक : देबकी बोस, कलाकार : दुर्गा खोटे, पृथ्वीराज, नवाब, राज कपूर (बाल कलाकार)
1943
‘गौरी'
निर्देषक : किदार षर्मा, कलाकार : पृथ्वीराज, मोनिका देसाई, षमीम, राज कपूर
1943
‘हमारी बात'
निर्देषक : एम.आइ. धरमसी, कलाकार : देविका रानी, जयराज, डेविड षहनवाज, राज कपूर
1946
‘बाल्मिकी'
निर्देषक : भालाजी पेंढारकर, कलाकार : पृथ्वीराज, षांता आप्टे, नीला, बाबूराव पेंढारकार, राज कपूर (नारद की भूमिका)
1947
‘चित्तौड़ विजय'
निर्देषक : मोहन सिन्हा, कलाकार : मधुबाला, सुरेन्द्र, वास्ती, मोनिका देवी, राज कपूर
1947
‘दिल की रानी'
निर्देषक : मोहन सिन्हा, कलाकार : मधुबाला, ष्याम, बद्री प्रसाद, मुंषी खंजर, राज कपूर
1947
‘नील कमल'
निर्देषक : किदार षर्मा, कलाकार : राज कपूर (नायक के रूप में प्रथम फिल्म), मधुबाला, बेगम पारा
1947
‘जेल यात्रा'
निर्देषक : गजानन जागीरदार, कलाकार : राजकपूर, कामिनी कौषल, जागीरदार, विक्रम कपूर, बद्री प्रसाद
1948
‘आग'
निर्माता—निर्देषक : राज कपूर, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, निगार, कामिनी कौषल, प्रेम नाथ (पहली फिल्म)
1948
‘अमर प्रेम'
निर्देषक : एन.एम. केलकर, कलाकार : राज कपूर, मधुबाला, अल्का रानी, निम्बालकर, माधव काले
1948
‘गोपीनाथ'
निर्देषक : महेष कौल, कलाकार : राज कपूर, तृप्ती मित्रा, नंदकिषोर
1949
‘अंदाज'
निर्देषक : मेहबूब खान, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, दिलीप कुमार, कुक्कू, वी.एच. देसाई
1949
‘बरसात'
निर्माता—निर्देषक : राज कपूर, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, प्रेमनाथ, निम्मी (प्रथम), के.एन. सिंह
1949
‘परिवर्तन'
निर्देषक : एन. आर. आचार्य, कलाकार : राज कपूर, मोतीलाल, अंजली देवी, मोनी चटर्जी, वसंत मालिनी
1949
‘सुनहरे दिन'
निर्देषक : सतीष निगम, कलाकार : राज कपूर, रेहाना, निगार हारून, हीरा सावंत
1950
‘भंवरा'
निर्देषक : जी. रोकष, कलाकार : राज कपूर, निम्मी, ललिता पवार, के.एन. सिंह, हीरालाल, सुन्दर, रतन कुमार
1950
‘बांवरे नयन'
निदेषक : किदार षर्मा, कलाकार : राज कपूर, गीताबाली, विजय लक्ष्मी, जसवंत, पेसी पटेल
1950
‘दास्तान'
निर्देषक : ए. आर. कारदार, कलाकार : राज कपूर, सुरैया, अलनसीर, सुरेष, मुराद, प्रतिमा देवी, षकीला
1950
‘जान पहचान'
निर्देषक : फली मिस्त्री, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, जीवन, ष्यामा, दुलारी
1950
‘प्यार'
निर्देषक : वी. एम. व्यास, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, याकूब, नवाब, ष्यामा, नीला, केसरी, डब्ल्यू. एम. खान
1950
‘सरगम'
निर्देषक : पी. एल. संतोशी, कलाकार : राज कपूर, रेहाना, ओम प्रकाष, डेविड, बेबी तबस्सुम, पारो, राधाकिषन इत्यादि
1951
‘आवारा'
निर्माता—निर्देषक : राज कपूर, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, के. एन. सिंह, लीला चिटनिस, पृथ्वीराज इत्यादि
1952
‘अंबर'
निर्देषक : जयंत देसाई, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, आगा बेबी तनूजा, रमेष सिन्हा, विपिन गुप्ता इत्यादि
1952
‘अनहोनी'
निर्देषक : के. ए. अब्बास, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, आगा, ओमप्रकाष, डेविड, अचला सचदेव इत्यादि
1952
‘आषियाना'
निर्देषक : वी. त्रिलोचन, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, मोहना
1952
‘बेवफा'
निर्देषक : एम. एल. आनंद, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, अषोक कुमार, नीलम सिद्दीकी
1953
‘आह'
निर्माता : राज कपूर, निर्देषक : राज नवाथे, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, विजय लक्ष्मी, प्राण, मुकेष, रमेष सिन्हा, भूपेन्द्र कपूर, लीला मिश्रा
1953
‘धुन'
निर्देषक : कुमार, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, मोती लाल, कुमार, प्रमिला, कमल मेहरा इत्यादि
1953
‘पापी'
निर्देषक : चंदूलाल षाह, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, दुलारी, पी. कैलास, मारूती, रमेष ठाकुर इत्यादि
1954
‘बूट पालिष'
निर्माता : राज कपूर, निर्देषक : प्रकाष अरोड़ा, कलाकार : राज कपूर, बेबी नाज, रतन कुमार, डेविड, वीना इत्यादि
1955
‘श्री 420'
निर्माता—निर्देषक : राज कपूर, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, नादिरा, ललिता पंवार, भूदो आडवानी, एम. कुमार, हरि षिवदासानी, नाना पलसीकर इत्यादि
1956
‘चोरी—चोरी'
निर्देषक : अनंत ठाकुर, कलाकार : राज कपूर, नरगिस, जॉनी वाकर, प्राण, गोप, राज मेहरा, अमीर बानो इत्यादि
1956
‘जागते रहो'
निर्माता : राज कपूर, निर्देषक : एस. मित्रा तथा ए. मोइत्रा, कलाकार : राज कपूर, प्रदीप कुमार, सुमित्रा देवी, स्मृति विष्वास, पहाड़ी सान्याल, सुलोचना चटर्जी इत्यादि
1957
‘अब दिल्ली दूर नहीं'
निर्माता : राज कपूर, निर्देषक : अमर कुमार, कलाकार : रोमी, सुलोचना, याकूब, अनवर, माती लाल इत्यादि
1957
‘षारदा'
निर्देषक : एल. वी. प्रसाद, कलाकार : राज कपूर, मीना कुमार, ष्यामा, अनिता गुहा, आगा, राज मेहरा इत्यादि
1958
‘परवरिष'
निर्देषक : एस. बैनर्जी, कलाकार : राज कपूर, माला सिन्हा, महमूद, ललिता पंवार, राधा किषन इत्यादि
1958
‘फिर सुबह होगी'
निर्देषक : रमेष सहगल, कलाकार : राज कपूर, माला सिन्हा, रहमान, लीला चिटनिस, मुबारक इत्यादि
1959
‘अनाड़ी'
निर्देषक : ऋशिकेष मुखर्जी, कलाकार : राज कपूर, नूतन, ललिता पंवार, मोती लाल, षोभा खोटे, मुकरी इत्यादि
1959
‘चार दिल चार राहें'
निर्देषक : के. ए. अब्बास, कलाकार : राज कपूर, मीना कुमार, अजित, निम्मी, षम्मी कपूर, कुमकुम इत्यादि
1959
‘दो उस्ताद'
निर्देषक : तारा हरीष, कलाकार : राज कपूर, मधुबाला, षेख मुख्त्यार, सुलोचना, डेजी ईरानी इत्यादि
1959
‘कन्हैया'
निर्देषक : ओम प्रकाष, कलाकार : राज कपूर, नूतन, ओम प्रकाष, राज मेहरा, ललिता पंवार, राज कुमार
1959
‘मैं नषे में हूं'
निर्देषक : नरेष सहगल, कलाकार : राज कपूर, माला सिन्हा, मुबारक, निषि, धुमल, मारूति
1960
‘छलिया'
निर्देषक : मनमोहन देसाई, कलाकार : राज कपूर, नूतन, प्राण, रहमान, षोभना समर्थ, राजा
1960
‘जिस देष में गंगा बहती है'
निर्माता : राज कपूर, निर्देषक : राधू करमरकर, कलाकार : राज कपूर, पद्मिनी, प्राण तिवारी, नयमपल्ली, चंचल, राज मेहरा, ललिता पंवार इत्यादि
1960
‘श्रीमान सत्यवादी'
निर्देषक : एस.एम. अब्बास, कलाकार : राज कपूर, षकीला, महमूद, नाजिर हुसैन इत्यादि
1961
‘नजराना'
निर्देषक : श्रीधर, कलाकार : राज कपूर, वैजयंती माला, उशा किरण, आगा, सविता चटर्जी इत्यादि
1962
‘आषिक'
निर्देषक : ऋशिकेष मुखर्जी, कलाकार : राज कपूर, पद्मिनी, नंदा अभि भट्टाचार्य, मुकरी, लीला चिटनिस इत्यादि
1963
‘दिल ही तो है'
निर्देषक : पी.एल. संतोशी और सी.एल. रावल, कलाकार : राज कपूर, नूतन, आगा, प्राण, सविता चटर्जी इत्यादि
1963
‘एक दिल सौ अफसाने'
निर्देषक : आर.सी. तलवार, कलाकार : राज कपूर, वहीदा रहमान, ललिता पंवार, सुलोचना चटर्जी इत्यादि
1964
‘दूल्हा दुल्हन'
निर्देषक : रवीन्द्र दवे, कलाकार : राज कपूर, साधना, आगा, के.एन. सिंह इत्यादि
1964
‘संगम'
निर्माता — निर्देषक : राज कपूर, कलाकार : राज कपूर, वैजयंती माला, राजेन्द्र कुमार, राज मेहरा, नाना पलसीकर
1965
‘तीसरी कसम'
निर्देषक : बासु भट्टाचार्य, कलाकार : राज कूपर, वहीदा रहमान, दुलारी, इफि्तखार, असित सेन इत्यादि
1967
‘अराउंड द वर्ल्ड'
निर्देषक : पाछी, कलाकार : राज कपूर, राज श्री, प्राण, महमूद, ओम प्रकाष इत्यादि
1967
‘दीवाना'
निर्देषक : महेष कौल, कलाकार : राज कपूर, सायरा बानो, कन्हैया लाल, ललिता पंवार, कमल कपूर, उल्हास, रवीन्द्र कपूर इत्यादि
1968
‘सपनों का सौदागर'
निर्देषक : महेष कौल, कलाकार : राज कपूर, हेमा मालिनी, जयंत, तनूजा, अचला सचदेव इत्यादि
1970
‘मेरा नाम जोकर'
निर्माता — निर्देषक : राज कपूर, कलाकार : राज कपूर, पद्मिनी, क्सेनिया रेबिनकिना, सिम्मी ग्रेवाल, ऋशि कपूर इत्यादि
1971
‘कल आज और कल'
निर्माता : राज कपूर, निर्देषक : रणधीर कपूर, कलाकार : पृथ्वीराज कपूर, राज कपूर, रणधीर कपूर, बबीता
1973
‘बॉबी'
निर्माता—निर्देषक : राज कपूर, कलाकार : ऋशि कपूर, डिम्पल कपाडिया, प्राण, प्रेमनाथ, प्रेम चौपड़ा, अरूणा ईरानी
1973
‘मेरा देष मेरा धरम'
निर्देषक : दारा सिंह, कलाकार : मीना राय, राज कपूर
1975
‘धरम करम'
निर्माता : राज कपूर, निर्देषक : रणधीर कपूर, कलाकार : राज कपूर, रणधीर कपूर, रेखा
1975
‘दो जासूस'
निर्देषक : नरेष कुमार, कलाकार : राज कपूर, राजेन्द्र कुमार, षैलेन्द्र सिंह, भावना भट्ट
1976
‘खान दोस्त'
निर्देषक : दुलाल गुहा, कलाकार : राज कपूर, षत्रुघ्न सिन्हा, मिठू मुखर्जी
1977
‘चांदी सोना'
निर्देषक : संजय खान, कलाकार : राज कपूर, संजय खान, परवीन बॉबी
1978
‘नौकरी'
निर्देषक : ऋशिकेष मुखर्जी, कलाकार : राज कपूर, राजेष खन्ना, देवेन बर्मा
1978
‘सत्यम षिवम सुंदरम'
निर्माता—निर्देषक : राज कपूर, कलाकार : षषि कपूर, जीनत अमान, पद्मिनी कोल्हापुरे
1980
‘अब्दुल्लाह'
निर्देषक : संजय खान, कलाकार : राज कपूर, संजय खान, जीनत अमान
1981
‘बीवी—ओ—बीवी'
निर्माता : राज कपूर, निर्देषक : राहुल रवेल, कलाकार : संजीव कुमार, रणधीर कपूर, पूनम ढिल्लो
1982
‘गोपीचंद जासूस'
निर्देषक : नरेष कुमार, कलाकार : राज कपूर, जीनत अमान, प्रेम चोपड़ा, आई. एस. जौहर
1982
‘प्रेम रोग'
निर्माता—निर्देषक : राज कपूर, कलाकार : ऋशि कपूर, पद्मिनी कोल्हापुरे, षम्मी कपूर, रजा मुराद
1982
‘वकील बाबू'
निर्देषक : असित सेन, कलाकार : राज कपूर, षषि कपूर, जीनत अमान, राजेष रोषन
1985
‘राम तेरी गंगा मैली'
निर्माता : रणधीर कपूर, मंदाकिनी, दिव्या राणा, सईद जाफरी, रजा मुराद, कुलभूशण खरबंदा
1985
‘चोर मंडली'
निर्देषक : सी.एल. रावत, कलाकार : राज कपूर, अषोक कुमार, आषा पारिख। पूर्ण किन्तु अप्रदर्षित
1985
‘उम्मीद'
निर्देषक : नरेष सहगल, कलाकार : राज कपूर, षम्मी कपूर, पूजा सक्सेना। अपूर्ण
1990
‘हिना'
निर्देषक : रणधीर कपूर, कलाकार : ऋशि कपूर, जेबा बख्तयार (मरणोपरांत पूर्ण एवं प्रदर्षित)
लेखक परिचय
विनोद विप्लव फिल्म, मीडिया, कला—संगीत, विज्ञान एवं स्वास्थ्य आदि विशयों के जाने—माने लेखक हैं। बिहार के मगध विष्व विद्यालय से स्नातक। भारतीय जनसंचार संस्थान से स्नातकोत्तर पत्रकारिता डिप्लोमा। राश्ट्रीय संवाद समिति — यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया से सम्बद्ध यूनीवार्ता में समाचार संपादक एवं विषेश संवाददाता के रूप में काम किया।
स्कूल के दिनों से ही कहानी लेखन में विषेश दिचलस्पी रही। देष की प्रतिश्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कई कहानियां प्रकाषित। ‘‘अवरोध'' नामक कहानी को दिल्ली सरकार की हिन्दी अकादमी की ओर से प्रथम नवोदित लेखन पुरस्कार। हिन्दी अकादमी के वित्तीय सहयोग से पहला कहानी संग्रह ‘‘विभव दा का अंगूठा'' प्रकाषित। मीडिया और राजनीति पर लिखे व्यंग्य नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान और जनसत्ता जैसे अखबारों के अलावा वेबसाइटों में प्र्रकाषित हुए हैं। व्यंग्य संग्रह ‘‘ढिबरी चैनल‘‘ षीघ्र प्रकाषित होने वाला है।
महान पार्ष्व गायक मोहम्मद रफी की पहली जीवनी ‘‘मेरी आवाज सुनो‘‘ 2007 में प्रकाषित। इसके उर्दू, बंगला, मलयालयम एवं अंग्रेजी प्रकाषित होन वाले है। फिल्मी हस्तियों पर आधारित पुस्तक ‘‘हिन्दी सिनेमा के 150 सितारे‘‘ प्रकाषित। प्रसिद्ध अभिनेता दिलीप कुमार पर आधारित पुस्तक ‘‘दिलीप कुमार — अभिनय सम्राट'' लिखी। स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पर कई पुस्तकें प्रकाषित हो चुकी हैं जिनमें ‘‘चिकित्सा विज्ञान से नयी आषायें'' और ‘‘मानसिक रोग'' शामिल हैं।
विज्ञान को आम लोगों से जोड़ने तथा आम जनता में वैज्ञानिक चेतना कायम करने में भी सक्रियं। फोरम फॉर इंकलकेषन ऑफ रैषनल एंड साइंटिफिक टेम्परामेंट (फर्स्ट) का गठन किया जिसके वह संस्थापक अध्यक्ष हैं। मीडिया क्लब ऑफ इंडिया के सचिव तथा आर्थराइटिस केयर फाउंडेषन के महासचिव हैं। न्यूज पोर्टल ‘‘फर्स्ट न्यूज लाइव'' का संचालक कर रहे हैं।