मेरे शब्द मेरे गीत
सत्यदेव सिंह आजाद
उत्कर्ष प्रकाशन
प्ैठछरू 978.93.84312.42.8
सुरक्षित
मुद्रक एवं प्रकाशकःउत्कर्ष प्रकाशन
मुख्य कार्यालयः
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प्रथम संस्करणः2015
मूल्यः 180
रचयिताःसत्यदेव सिंह आजाद (अध्यापक)
बेसिक शिक्षा परिषद्, उ.प्र.
पताःग्राम अहिवरन पुरा, पोस्ट—समथर, तहसील— ताखा जिला— इटावा (उ0प्र0)— 206242
मो.ः7599260302, 9760117355
ई—मेलःेकं्रंक20/हउंपसण्बवउ
समर्पण
माता—पिता जगत में प्यारे हैं अनमोल खजाना ।
सेवा उनकी करो जगत में, ऊँचा शीश उठाना ।।
पग चरणों की रज को जो सुत, भालों पर मलते है।
जीवन की राहों में उनकों, फूलों पर है जाना ।।
मैंने इस संसार में जो कुछ भी सीखा है वह अपने माता—पिता के सहयोग अनुकम्पा और आशीर्वाद से सीखा है। जीवन जीने की क्षमता, जीवन जीने की कला और जीवन में संघर्ष करने की शक्ति भी मुझे अपने माता—पिता से ही प्राप्त हुई है। माता—पिता ने मुझे इतनी शक्ति, इतनी क्षमता और विषम परिस्थितियों में ऐसे शुभ आशीष दिये कि मुझे भगवान से मांगने की जरूरत ही नहीं हुई। मेरे माता—पिता ही इस संसार में भगवान हैं या भगवान के प्रतिरूप हैं। मेरा सम्पूर्ण जीवन, जीवन का एक—एक पल, एक—एक क्षण उनकी सेवा का कृतार्थ है। मैं उनको क्या दूँ। या क्या दे सकता हूँ, जिन्होंने कभी लेना नहीं सीखा। उनको हम भला क्या दे सकते हैं। हम सिर्फ समर्पित कर सकते हैं। मैं सत्यदेव सिंह आजाद दण्डवत होकर अपने माता—पिता को ‘मेरे शब्द मेरे गीत' सहृदय समर्पित करता हूँ। उनके आशीषों के प्रकाश से प्रकाशित एक—एक रचना का एक—एक शब्द आप सब पाठकों के दिलों को छू जायेगा। ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।
—आजाद
भूमिका
कवि सत्यदेव सिंह ‘आजाद' द्वारा रचित ‘मेरे शब्द मेरे गीत' छंद—बद्ध कविता, मन मोहक गीत, मुक्तक और दोहा मात्रक छंद में ‘गागर में सागर' भरने का प्रयास है। आपने श्रृंगार रस पर अधिक जोर दिया है। कृति के सृजनकार सत्यदेव सिंह आजाद ने नारी दमन, शोषण, अत्याचार के विरोधी आदि रचनाओं से अपनी लेखनी को धार प्रदान की है। आपने भ्रमर गीत में प्रतीक माध्यम से बिटिया के बारे में उद्गार प्रकट किये हैं जो मन मोहक हैं—
‘‘बिना कली मेरा घर सूना, कैसे कली खिलाये।
जब—जब इच्छा आये कली की, गेंदा घर आ जाये।।
हो चँचल निर्मल निर्झर सी, सुन्दर नीर शरीर।
प्रभु! अंग—अंग कोमल हो जिसका, चितवन हो गंभीर।।''
कवि की भावना है कि कन्या भ्रूण हत्या से बचो तभी सुन्दर कली को पाओगे। वह चाहते हैं जब व्यक्ति थका—हारा नौकरी से घर आये तो उसको खिलाने को ऐसी बिटिया अवश्य हो।
‘‘दिन भर काम से थक हारा, साँझ ढले घर आये।
गोद में जाकर नसिका खींचे, तृसित मन मेरा हरसाये।।''
कवि की छंदबद्ध अमृता में भावपक्ष प्रबल है और कलापक्ष सराहनीय। कवि का प्रकृति चित्रण भी अनूठा है—
‘‘तन भी सूखा, मन भी सूखा, कौन हमें समझाये।
भेष बदलते गर्जन करते, बादल क्यों नहीं आये।।
कोई संदेशा जाकर मेरा, बादल को दे आये।
तपती बंजर भूमि पर, बादल जल बरसाने आये।।''
प्यासी धरती रचना में आपने मनोहारी चित्रण किया है। बिना बरसात के किसान की क्या हालत होती है, बताने की कोशिश की है। आपकी कविता काफी लंबी और कई छंद की होती है। कवि विरह गीत में विहरनी के मनोवृत्ति को उजागर करता है।
मैं रो—रोकर जीती हूँ। फरियाद इतनी करती हूँ।।
ना कुछ खाती पीती हूँ। विरह की आहें भरती हूँ।।
विरहनी अपनी सखी को अपने मन की व्यथा बताती है। पूरी कविता में वियोग श्रृंगार और संयोग श्रृंगार का समावेश है। अलबेली प्रिया नामक कविता में प्राकृतिक चित्रण अनुपम है। मदहोश कविता के नाम से ही ज्ञात होता है कि कवि क्या कहना चाहता है—
‘‘जब छलके मेरा यौवन, हिल—हिल जाये हाला।
लचके मोरी कमरिया, झूम जाये बृजबाला।।
यमुना के इन तटों पर, ये प्रीति का है प्याला।
इन कुंज की गलियों में, तुमने कौन रंग डाला।।''
कवि माँ के आँचल की महिमा मनोहारी रूप से करता है जो सब के मन को आनन्दित करती है।कवि ने गरीब व अमीर बच्चों का तुलनात्मक चित्रण किया है—
आँचलों में थी दोनों की किलकारियाँ।
उनके अँगनों की रौनक, उर दुश्वारियाँ।।
इस तरह रब ने दोनों को सज़दा किया।
शूल—फूलों की राहों की फुलवारियाँ।।
एक शूलों के ग़म को ही भुलाता रहा।
जहाँ एक हँसता रहा, एक रोता रहा।।
राष्ट्रगीत भी आपका अच्छा है जिसमें आपने राष्ट्रगीत को दर्शाने की भरपूर चेष्टा की है। अतीत के मुसाफिर नामक रचना बड़ी पे्ररणादायक है। कवि देश वासियों को जगाने की प्रेरणा देता है कि अब सोने का वक्त नहीं है अब जगो और साहस करो।
‘‘उठो मेरे देश को लोगों ! माँ का कर्ज चुकाना है।
ग़र तुमने कुछ खोया है, तो अब सब कुछ लुटाना है।।
हमें इन देश लुटेरों को, नेस्तनाबूद कराना है।
उठो मेरे देश के लोगों, माँ का कर्ज चुकाना है।।''
कवि ने ‘निर्मल जीवन' में जड़ चेतन को स्पष्ट करने की कोशिश की है—
चेतन जड़ है, जड़ चेतन है, अवचेतन है तन।
जोड़ जुगत की माया सारी, श्वांसों का बंधन।।
सूनी करम डगर की चादर, सूना है दामन।
इच्छाओं के भँवर जाल में छल इन्द्रधनुष है मन।।
मन की आशा रहे अधूरी, प्यासा रहे हर दम।
जीवन सुन्दर निर्मल पल है, पल—पल अपनाये हम।।
राही को अपनी जीवन डगर पर अविरल गति से चलते रहने की प्रेरणा देता है चाहे कितनी ही परेशानियाँ आयें उन बाधाओं को पार करता चल लक्ष्य अवश्य मिलेगा। ‘माँ' कविता में बच्चा अपनी माँ को भूख लगने पर ऐसे कहता है—
माँ ऐ माँ ! कुछ दे दे, कुछ दे दे न माँ ।
भूख लग रही है, आग जल रही है ।
भूख से माँ मेरी, जान जा रही है ।
कविता मार्मिक है। अपनेपन का महत्व समझाने की भरपूर कोशिश की है कविता मन को झकझोर देती है शिक्षाप्रद हैै।
कवि सत्यदेव सिंह आजाद निश्चय ही अपने विचारों में अपने नामानुसार द्वंद्वों में आजाद हैं अपने—अपने मन की वेदना को ‘दिल को मसलकर' रचना में इस तरह प्रकट किया है—
अब ग़म को छिपाने की आदत नहीं,
हम विष का प्याला ही पी जायेंगे।
न जाने कैसी लगेगी ये बगिया,
जब खिले हुए गुल भी बिखर जायेंगे।
माँ की वन्दना सराहनीय कविता है। कवि आजाद ने 51 दोहे नीतिगत, श्रृंगार रस से सराबोर और अध्यात्मिक हैं, जिनमें दिशा निर्देश देने की चेष्टा की है—
कलियाँ खिली बहार में, गुलशन करे दुलार।
नेता निकला पास से, उजड़ गया संसार।।
आपने अनेक विधाओं में रचना की हैं। आपने पुस्तक में 27 मुक्तकों की रचना की है। जिनसे ऐसा लगता ही नहीं है यह आपकी प्रथम काव्य कृति है।
‘‘माँ के चरण छूकर, जो बेटे बड़े हो जायें।
खुदा कसम वे संसार के खुदा हो जायें।।
आपकी अनेक कविताएँ ‘परप्रिया', ग़ज़ल अन्जानी ख़्ाता, कविता आसमां रो उठा, दीवानगी, मेरा देश, अलवेली, नेता, मजबूर, कर्म, गरीब का घर, शर्म, सभी रचनाएँ हृदयगामी, शिक्षाप्रद, मनमोहक और प्रेरणादायक हैं।
‘मेरे शब्द मेेरे गीत' में भाव पक्ष, कला पक्ष का सुन्दर समन्वय स्थापित हुआ है। अनेक पदों में रस, छंद, अलंकार की छटा देखने को मिलती है। वास्तव में कवि काव्य लेखन में कुशल व प्रवीण हैं। जगह—जगह अलंकारों की भरमार है। श्रृंगार रस तो अनूठा है। अन्त में कवि सत्यदेव सिंह आजाद को इस अनुपम व अद्वितीय कृति रचने के लिए साधुवाद देता हूँ। मुझे विश्वास है कि ‘मेरे शब्द मेरे गीत' काव्य संग्रह कवियों, साहित्यकारों, पाठकों को प्रेरित व भावविभोर करेगा। मैं आपकी दीर्घायु की कामना करता हूँ और आशा करता हूँ कि आप काव्य साधना में निरन्तर प्रगति करते रहेंगे, मेरी यह कामना है।
महाकवि डोरीलाल भास्कर
18, डॉ. अम्बेडकर नगर,
(मेहन्दी मौहल्ला) कंकरखेड़ा, मेरठ (उ.प्र.)
मो. 9410860508
कवि की कलम से
‘मेरे शब्द मेरे गीत' के विचारों मनो—भावों से प्रफुल्लित होने वाले मेरे सभी साथियों इस पुस्तक में समायत सहज, सरल, सुबोध, सुगम शब्दों में गीत, दोहे, मुक्तक, कविताओं को रूचिकर बनाने में आप सब लोगों के स्नेह की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मैं जो शब्द अपने गीतों मुक्तकों, दोहों में पिरोता रहा, हर शब्द में आपका साथ मिलता रहा। आपका यही सहयोग, स्नेह और आशीष आज ‘मेरे शब्द मेरे गीत' के रूप में उद्वित हुआ है। जिसके लिये मैं आपके प्यार और स्नेह का प्रतिपल आभारी हूँ। इस खूबसूरत संसार में खूबसूरत विचारों का उदय ‘मेरे शब्द मेरे गीत' है, जिसके विकास, विस्तार स्थापन की जिम्मेदारी आप समस्त प्रबुद्ध जनों के सहयोग के बिना सम्भव न थी। मुझे कदम—कदम पर आप समस्त सुविचारक सदाचारी, आदर्श जनों का साथ मिलता रहा और मैं जिम्मेदारी से गीतों की लड़ियाँ पिरोता रहा जो पुस्तक के रूप में किसी खूबसूरत हीरे के हार की तरह चमचमाता हुआ आपके गले और कण्ठ की शोभा सजाने के लिये आतुर है।
मैं अदना, नादान कवि साहित्य पथ की यात्रा की मीमांशा के लिये अपने घर से निकल आया हूँ आपके अनवरत स्नेह आशीष की प्रत्याशा मेंं। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि मुझे प्रतिपल माँ सरस्वती का साथ और कदम—कदम पर आपका स्नेह मिलता रहे जिससे ‘मेरे शब्द मेरे गीत' और मेरे कण्ठ से निकला हुआ हर शब्द आपके कण्ठ की शोभा बढ़ाता रहेे।
मैं आपसे पुनः निवेदन करता हूँ कि इस नादान साहित्य पथिक को इतना प्यार दो कि मैं आप सबके हजारों दिलों की आवाज बन सकूं, शान बन सकूं।
श्री अमित कुमार सत्यार्थी, अध्यापक बेसिक शिक्षा परिषद् शेखपुर जैनपुर उ0प्र0, श्री अरविन्द कुमार अहिरवार, अध्यापक बेसिक शिक्षा परिषद छिरौरा बुजुर्ग झाँसी उ0प्र0, अविनाश मिश्रा जी अध्यापक बेसिक शिक्षा परिषद इलाहाबाद उ0प्र0, सुभाष चन्द्र बोस जी अध्यापक बेसिक शिक्षा परिषद जरहौली इटावा उ0प्र0, हरिओम जी, अध्यापक बेसिक शिक्षा परिषद आगरा, पुष्पेन्द्र सिंह जी, अध्यापक बे.शि. परिषद्, हरवंश विहार, मेरठ उ0प्र0, हरेन्द्र पाल सिंह चौहान लेक्चरर गहलवार इटावा उ0प्र0, गौतम सिंह शाक्य लेक्चरर सरस्वती विहार इटावा उ0प्र0, कमलेश कुमार अहिवरन जी इंजीनियर निर्माण निगम विनपुरापुर औरैया उ0प्र0, ललित मोहन पाल खण्ड शिक्षाधिकारी आगरा उ0प्र0, सतीश कुमार जी नायब तहसीलदार विश्रामपुर गाजीपुर उ0प्र0, इन्द्रपाल जी, डॉ. राजेश कुमार गौतम, प्रदेश महासचिव डॉ. भीमराव अम्बेडकर मोर्चा उ.प्र., जबर सिंह जी मैनेजर दलित उत्थान शिक्षण एवं ग्राम विकास समिति अहिवरनपुरा इटावा उ0प्र0, आप समस्त प्रबुद्ध जनों को ‘मेरे शब्द मेरे गीत' के प्रकाशन में प्रेरणा मार्गदर्शन उत्साहवर्धन आदि के अनेक रूपों में विशेष योगदान है।
और ‘मेरे शब्द मेरे गीत' के विकास विस्तार, स्थापन में भी आपका विशेष योगदान रहेगा। ‘मेरे शब्द मेरे गीत' के शब्दों को अलंकृत करने में श्रीमती रूबी देव का भी प्रशंसनीय योगदान रहा है। —सत्यदेव सिंह आजाद
अनुक्रम
षीर्शक पृश्ठ सं0
1. वन्दना09—10
2. भृमर गीत11—13
3. दो प्रेमी14—16
4. प्यासी धरती17—20
5. विरह गीत21—23
6. अलबेली प्रिया24—26
7. मदहोष 27—28
8. मंजिलें29—30
9. आँचल31—32
10. राश्ट्र संगीत33—34
11. अतीत के मुसाफिर35—36
12. उठो! मेरे देष के लोगों37—38
13. निर्मल—जीवन39—40
14. चल राही41—43
15. न तुम्हें कोई44—46
16. माँ46—50
17. पल51—52
18. दिल को मसल कर53—54
19. देव के दोहे55—63
20. देव के मुक्तक64—70
21. परप्रिया71
22. अन्जानी ख़्ाता72
23. आसमाँ रो उठा73
24. दीवानगी74—75
25. मेरा देष76—77
26. अलबेली78—80
27. नेता81—84
28. मजदूर85—88
29. कर्म89—91
30. गरीब का घर92—93
31. षर्म94—96
वन्दना
जिसने जीवन के पग—पग, पर दे दी हमको खुशियाँ।
उनसे उऋण होने में, लग जायेंगी मुझको सदियाँ।।
जिसने दामन में मेरे, भर दी संसार की खुशियाँ।
जिसके आँचल के बिन ये, सूनी हो जायें रतियाँ।।
कैसे उनको मानूँ मैं, कैसे उनको पूजूँ मैं।
जिनके मृदु शब्दों से ही, खिल जायें भोर की कलियाँ।।
कलियों की इस बगिया में, नित मिल जायें सब खुशियाँ।
उनसे उऋण होने में, लग जायेंगी मुझको सदियाँ।।
जिसने हमको सींचा है, जिसने खोली ये अंखियाँ।
जिसकी गोदी में हमने, सीखी संसार में बतियाँ।।
कैसे उनको मानूँ मैं, कैसे उनको पूजूँ मैं।
जिनके छूने पर से ही, कट जायें रोग निदनियाँ।।
रोगों को दफन करा के, जो देती जीवन घड़ियाँ।
उनसे उऋण होने में, लग जायेंगी मुझको सदियाँ।।
जिसने जीवन में मेरे, सब कुछ अर्पण कर डाला।
जिसकी गोदी में मैंने, पाया अमृत का प्याला।।
कैसे उनको मानूँ मैं, कैसे उनको पूजूँ मैं।
जिनकी पग धूलों से ही, हो जाये सुत मतवाला।।
सुत के निज जीवन पथ में, भर दी सब सुख की नदियाँ।
उनसे उऋण होने में, लग जायेंगी मुझको सदियाँ।।
जिसने जीवन में मेरे, हर रंग का आंचल डाला।
जिसने राहों में मेरे, सब शूलों को हर डाला।।
कैसे उनको मानूँ मैं, कैसे उनको पूजूँ मैं।
जिनकी पग छाया से ही, ये जीवन बना निराला।।
जीवन की सद्गलियों में, भर दी ज्ञानों की डलियाँ।
उनसे उऋण होने में, लग जायेंगी मुझको सदियाँ।।
जिनकी पल हिचकी से ही, खुल जाती है वह हथकड़ियाँ।
जिनके पावन चरणों से, मिल जायें कुँज की गलियाँ।।
कैसे उनको मानूँ मैं, कैसे उनको पूजूँ मैं।
जिनके पग दर्शन से ही, खिल जाती हैं फुलझड़ियाँ।।
जिनकी पग रज से ही, खुल जायें राहों की कड़ियाँ।
उनसे उऋण होने में, लग जायेंगी मुझको सदियाँ।।
भ्रमर गीत
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।
तुम जाओगे जितने दूर, उतने पास आओगे।।
जब एक कली कलियों में खिलती, एक कली अलबेली।
गुलशन की कलियाँ मिलकर, सब करती हैं अठखेली।।
जब घर में कोई कली खिले, शोभा हो न्यारी प्यारी।
प्रेम दया से दिल भर आये, गूँज उठे किलकारी।।
पर तुम अपने आँगन में तुलसी, कैसे बोओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
तुम जाओगे जितने दूर, उतने पास आओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
बिना कली मेरा घर सूना, कैसे कली खिलायें।
जब—जब इच्छा आये कली की, गेंदा घर आ जाये।।
हो चँचल निर्मल निर्झर सी, सुन्दर नीर शरीर।
प्रभु! अंग—अंग कोमल हो जिसका, चितवन हो गम्भीर।।
तुम इतनी प्यारी कली मधुरसी, कैसे पाओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
तुम जाओगे जितने दूर, उतने पास आओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
दिन भर काम से थका हारा, साँझ ढले घर आये।
गोद में जाकर नसिका खींचे, तृसित मन हरसाये।।
है चँचल और शरारत मन की, मधुर—मधुर मुस्काये।
परियों के गुलशन की रानी, आँगन में आ जाये।।
इतनी प्यारी मनुहारी परी, कहाँ से लाओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
तुम जाओगे जितने दूर, उतने पास आओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
वनिता है अनमोल धरा की, चित्र बिम्ब भरती है।
मानो! घर की फुलवारी में, सप्त रंग भरती है।।
आसमान के चन्दा तारे, सब अर्पण करती है।
मानों भोर के दिवा सन्ंध में, कली—कली खिलती है।।
है सबसे अनमोल खजाना, कैसे पाओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
तुम जाओगे जितने दूर, उतने पास आओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
जीवन में साँसों की लड़ियाँ, जो नित—नित बुनती हैं।
हाँ मानों! ज्वाला के पर्वत से, चन्द्रमुखी चुनती है।।
और हिमालय से निकली जो, गंगा सी लगती है।
सात जन्म के पाप काटती, नित दुर्गम पथ चुनती है।।
तुम ऐसी पतित पाविनी वनिता, कैसे पाओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
तुम जाओगे जितने दूर, उतने पास पाओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओ।।
जीवन की है डोर डगर में, जहाँ पुरुष थक जाये।
ममतामयी हृदय वनिता का, कदम वहीं रुक जाये।।
गोद में रख के शीश पूछती, नैन क्यों भर आये।
शूलों के हों फूल पथों पर, और कदम बढ़ जाये।।
तुम ऐसी पथों की पथ राही, कहाँ से लाओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
तुम जाओगे जितने दूर, उतने पास पाओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
सूखे—सूखे पतझड़ वन में, कोई काम न आये।
और पथों की धूल छन्दों सी, आँखों में छा जाये।।
पग द्वन्द्व निशा के घोर अन्ध में, दीपों सी जल जाये।
फिर तिमिर पुँज को नष्ट करे, पथ फूलों से भर जाये।।
हैं आनन्द से खुशियाँ बढ़कर, तुम कैसे पाओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
तुम जाओगे जितने दूर, उतने पास आओगे।
भ्रमर ने सुनाया गीत, गीत तुम किसे सुनाओगे।।
दो प्रेमी
तुम सुन्दर निर्मल सागर हो,
जैसे हो जसुलाला।
तुम सुन्दर सी पुष्प कली हो,
जैसे हो मधुशाला।।
हम अपनों से हुए पराये,
क्या अपनाओगे।
हम दोनों ने प्यार किया है,
उसे निभाओगे।।
झीलों, झरनों और तटों पर,
कल—कल ध्वनि गरजती।
बागों में कोयल की बोली,
विकल रागिनी बजती।।
दोनों स्वरों का हो समागम,
क्या रचाओगे।
हम दोनों ने प्यार किया है,
उसे निभाओगे।।
डाल—डाल पे फिरता देखो,
पपीहा करे तमाशा।
पनघट की पनिहारी से है,
दो बूँद की आशा।।
कदली सी बदली बन जाऊँ,
क्या बरसाओगे।
हम दोनों ने प्यार किया है,
उसे निभाओगे।।
वर्ण धर्म में बटा मनुष्य है,
सुन मेरे ओ यारा।
नारी जगत की श्रद्धा है,
सुन मेरी ओ बाला।।
मिटे वर्ण रहे देश धर्म,
फिर क्या बसाओगे।
हम दोनों ने प्यार किया है,
उसे निभाओगे।।
हँसते—हँसते तुम भी देखो,
हो जाते मतवाले।
सुर्ख धरा की दिव्य ज्योति पर,
अधरों के हैं प्याले।।
अधरों की मदिरा बन जाऊँ,
क्या छलकाओगे।
हम दोनों ने प्यार किया है,
उसे निभाओगे।।
आतँकी हिंसा करते हैं,
मरते अहिंसावादी।
सब खूनों को ढाँक रही है,
गांधी जी की खादी।।
जन मिटे ईर्ष्या, बन जायें प्रेमी,
क्या सिखाओगे।
हम दोनों ने प्यार किया है,
उसे निभाओगे।।
सागर की रेतों पर देखो,
झूठे हैं सब वादे।
उच्च गगन को वही चूमते,
जिनके नेक इरादे।।
गहरे हैं सीपों के मोती,
क्या दे पाओगे।
हम दोनों ने प्यार किया है
उसे निभाओगे।।
सूरज, चन्दा, तारे प्रियवर,
सब कुछ तुम पर अर्पण।
सोना, चाँदी, हीरा, मोती,
कोहिनूर का दर्पण।।
कुछ नहीं चाहिये, केवल खुशियाँ,
क्या दे पाओगे।
हम दोनों ने प्यार किया है,
उसे निभाओगे।।
प्यार की राहों में देखो तुम,
पड़ती बहुत दरारें।
विरोधाभाष के उच्च शिखर पर,
आकर तुम्हें पुकारें।।
जीवन की फिर राहें न बदलें,
क्या दिखाओगे।
हम दोनों ने प्यार किया है,
उसे निभाओगे।।
प्यासी धरती
तन भी सूखा, मन भी सूखा, कौन हमें समझाये।
भेष बदलते गर्जन करते, बादल क्यों नहीं आये।।
कोई संदेशा जाकर मेरा, बादल को दे आये।
तपती बँजर भूमि पे बादल, जल बरसाने आये।।
आँख में आँसू भर आये, जब चातक बोल सुनाये।
शायद भूमि पर बादल फिर से, जल बरसाने आये।।
जहाँ नृत्य के लिए मोर व्याकुल, भँवरा गीत न गाये।
झिंगुरी का तो पता नहीं, मेंढक न बोल सुनाये।।
पंछी को छाया नहीं मिलती, तरुवर सूखे पाये।
कलियों ने खिलना छोड़ा है, फूल गये मुरझाये।।
कोई संदेशा जाकर मेरा, बादल को दे आये।
तपती बँजर भूमि पे बादल, जल बरसाने आये।।
खेतों में अन्न नहीं उपजा है, कैसे कर्ज चुकाये।
सुन्दर बेटी घर में बैठी, कैसे विवाह रचाये।।
बीस बरस सावन के बीते, ये सावन भी जाये।
है मजबूर पिता पुत्री का, धीरज कौन बँधाये।।
अब तो राजा जनक स्वयँ हल, ले धरती पर आये।
भूमि जोतकर इक सीता का, फिर से विवाह रचाये।।
कोई संदेशा जाकर मेरा, बादल को दे आये।
तपती बँजर भूमि पे बादल, जल बरसाने आये।।
नथनी बाला गिरवी रख गये, खेत बचा न पाये।
कोई बसन न आँचल ढाँके, कैसे लाज बचाये।।
भूख के मारे पूत व्याकुल, उससे रहा न जाये।
माँ के आँचल से लिपटा शिशु, कैसे भूख मिटाये।।
घरों में तिल भर जौ के लाले, अन्न कहाँ से आये।
है माँ की ममता की मूरत, कौन उसे समझाये।।
कोई संदेशा जाकर मेरा, बादल को दे आये।
तपती बँजर भूमि पे बादल, जल बरसाने आये।।
कोयल कूँक भरे बागों में, बादल जल भर लाये।
पपीहा हूँक भरे जब प्यासा, इन्द्र मेघ बरसाये।।
मेघ बरसते, सब हरसाते, धरती प्यास बुझाये।
जहाँ रंग बिरंगी कलियाँ लेकर, बसन्त ऋतु आ जाये।।
पीली सरसों, मटर निराली, खेत चना लहराये।
सोलह बरस बेटी के बीते, कृषक ब्याह रचाये।।
कोई संदेशा जाकर मेरा, बादल को दे आये।
तपती बँजर भूमि पे बादल, जल बरसाने आये।।
जहाँ आवारा भँवरा चँचल, कलियों पे ललचाये।
हर मतवाली कली निराली, यौवन पे बलखाये।।
हरी—भरी धरती अनुहारी, आँचल उड़—उड़ जाये।
मन मयूरा का हुआ बावरा, पंछी गीत सुनाये।।
कोमल प्यारी हरियाली, खरगोश चूमता जाये।
शायद राधा बरसाने में, कृष्ण से मिलने आये।।
कोई संदेशा जाकर मेरा, बादल को दे आये।
तपती बँजर भूमि पे बादल, जल बरसाने आये।।
रिमझिम—रिमझिम मेघ बरसते, पुष्कर जल भरलाये।
जल मँजनि ने नीले स्यामल, प्यारे फूल खिलाये।।
ऐसे प्यारे प्रकृति अनुहारी, बादल भी शरमाये।
प्यारी—प्यारी छटा निरखने, देव भूमि पर आये।।
चहुँ ओरों के बिम्ब देखकर, प्रकृति मान बढ़ाये।
सबसे प्यारे स्याम सलोने, माखन चोर कहाये।।
कोई संदेशा जाकर मेरा, बादल को दे आये।
तपती बँजर भूमि पे बादल, जल बरसाने आये।।
पानी जीवन, पानी अमृत, पानी साँस बचाये।
गहरे कुअटा नीर समाये, कैसे प्यास बुझाये।।
मटकी गागर, सिर पर धर कर, गोरि जल भर लाये।
भूखे प्यासे अकुलाते पशु, पीकर प्यास बुझाये।।
बूँद—बूँद को पक्षी व्याकुल, कैसे प्यास बुझाये।
हाय! विधाता छायी बीरानी, अब जिया न जाये।।
कोई संदेशा जाकर मेरा, बादल को दे आये।
तपती बँजर भूमि पे बादल, जल बरसाने आये।।
पानी की कुछ कदर करो तुम, पानी जीवन पाये।
पानी के है सागर प्यासे, पानी प्यास बुझाये।।
पानी से बदली बनती है, पानी से नहलाये।
पानी से बानी होती है, पानी गीत सुनाये।।
पानी से कलियाँ खिलती है, पानी सरसों पाये।
पानी है अनमोल खजाना, पानी घर—घर आये।।
कोई संदेशा जाकर मेरा, बादल को दे आये।
तपती बँजर भूमि पे बादल, जल बरसाने आये।।
पानी उमड़ परे धरती पर, हरियाली उग जाये।
शीतल पानी पर्वत से चल दे तो, एक नदी बन जाये।।
पानी की सागर में लहरें, झरना झरता जाये।
पानी की बदली उठे तो, मयूरा नाचा जाये।।
पानी की गर बूँद गिरे तो, इक पौधा उग जाये।
पानी हवा के संग चले तो, मन की प्यास बुझाये।।
कोई संदेशा जाकर मेरा, बादल को दे आये।
तपती बँजर भूमि पे बादल, जल बरसाने आये।।
है पर्वत पर बर्फो की चादर, सूरज जलता जाये।
उगता हुआ तारापति देखो, मधुर—मधुर मुस्काये।।
तारापति तारों की नगरी, नभ में सजती जाये।
और वृक्ष की डाल के नीचे, बहता पानी पाये।।
रतियाँ ऐसी हुयी बावरी, निंदिया को ले आये।
तब जीवन प्यारा लगता था, अद्भुत रूप बनाये।।
कोई संदेशा जाकर मेरा, बादल को दे आये।
तपती बँजर भूमि पे बादल, जल बरसाने आये।।
विरह गीत
सजन! आग बरसे न बरसे, सावन में।
भींग गयी चुनरी मोरी, आंगन में।।
न जाने क्यूँ नहीं आये, सजन सखी।
सूख जाये न जवानी, सुहागन में।।
अब नयन तरसते हैं।
आके गले लगा ले।।
मैं नित—नित जलती हूँ।
पथ में फूल खिला ले।।
मेरे फूलों के दु्रभदल कहते हैं।
कब आयेंगे सजन सखी, सावन में।।
न जाने क्यूँ नहीं आये, सजन सखी।
सूख जाये न जवानी, सुहागन में।।
मैं रो—रोकर जीती हूँ।
फरियाद इतनी करती हूँ।।
न कुछ खाती—पीती हूँ।
विरह की आहें भरती हूँ।।
साँझ ढले विरहन के नयन कहते हैं,
कब आयेंगे सजन सखी सावन में।
न जाने क्यूँ नहीं आये, सजन सखी।
सूख जाये न जवानी, सुहागन में।।
जब पक्षी आकाश में उड़ते।
प्रियतम् के सपने हैं सजते।।
जलद गरजते, घनद बरसते।
गुलशन के सब गुल हैं खिलते।।
महकते गुलशन के सुमन कहते हैं,
कब आयेंगे सजन सखी, सावन में।।
न जाने क्यूँ नहीं आये, सजन सखी।
सूख जाये न जवानी, सुहागन में।।
नित—नित सेजें सजतीं हैं।
तितली छत पर उड़तीं हैं।।
सर्द हवायें, गर्म फिज़ायें।
नित मुझे व्यथित करतीं हैं।।
सुनो! विरहन के व्यथित मन कहते हैं,
कब आयेंगे सजन सखी, सावन में।।
न जाने क्यूँ नहीं आये, सजन सखी।
सूख जाये न जवानी, सुहागन में।।
मीठे—मीठे बोल सुनाओ।
सागर के मोती बन जाओ।।
मेरी आँखों में बस जाओ।
दीपों की ज्योति बन जाओ।।
सजन रे! पलकों के नयन कहते हैं,
कब आयेंगे सजन सखी, सावन में।।
न जाने क्यूँ नहीं आये, सजन सखी।
सूख जाये न जवानी, सुहागन में।।
झिंगुरी को कोई प्रीति नहीं है।
रतिओं की कोई मीत नहीं है।।
मेरे सूखे श्रृंगारों अधर पर।
मीतों का कोई गीत नहीं है।।
मीतों के गीत नित—नित कहते हैं,
कब आयेंगे सजन सखी, सावन में।।
न जाने क्यूँ नहीं आये, सजन सखी।
सूख जाये न जवानी, सुहागन में।।
भरे हैं रूप सौम्य के अर्ध, कली भृमर से सहम गयी।
कुछ यौवन का है जोर, भोर प्रियतम् से रूठ गयी।।
कलियाँ ऐसी हुयी बावरी, मधुकर से पूछ रही।
न लगे चुनरी में दाग, नाथ ये कैसी भूल भयी।।
भूल की राहों के निशा कहते हैं,
कब आयेंगे सजन सखी, सावन में।।
न जाने क्यूँ नहीं आये, सजन सखी।
सूख जाये न जवानी, सुहागन में।।
अलबेली प्रिया
अरे ! सुन्दर—सुन्दर काया तेरी, सुन्दर नयना।
बोली दूर रहना, अभी जरा दूर रहना।।
शाम सवेरे घर में मेरे, क्यूँ मुझको तड़पाये।
सुन्दर और छरहरी काया, मायके क्यूँ तू जाये।।
फूलों की सेजों को चूमूँ, फूल नहीं मुरझाये।
तेरा आँचल जो पकडूँ तो, और नशा छा जाये।।
चलो प्रिय तुम्हें प्यार करुँ तो, आये चैना।
बोली दूर रहना, अभी जरा दूर रहना।।
साँझ सवेरे पनघट द्वारे, जल भरने तू जाये।
गली—गली के लड़के क्वारे, मिलकर बोले हाये।।
कोई देखे, कोई सोचे, कोई सीटी मारे।
बैरिन मेरी भयी डगरिया, नैना नहीं मिलाये।।
साथ चमन के सहर करुँ तो, आये चैना।
बोली दूर रहना, अभी जरा दूर रहना।।
साँझ ढले तू दर्पण देखे, माथे बैंदी रचाये।
ओंठ लिपस्टिक हाथों में चूड़ी, बादल क्यूँ फैलाये।।
पायल की छम—छम से गौरी, यौवन को छलकाये।
सप्त श्रृंगारों में निकले तो, छोरा जान से जाये।।
देव झूम के प्रीति करे तो, आये चैना।
बोली दूर रहना, अभी जरा दूर रहना।।
याें श्रृंगारों के रूप दर्प में, सावन घुलता जाये।
मानों कुमुदिनी की सूरत पर, चन्दा भी ललचाये।।
अर्द रात में नींद खुले तू, गहरी नींद सो जाये।
आधा तन ढका वसनों से, आधा खुल गया हाये।।
पास में जाके संग परे तो, खुल गये नैना।
बोली दूर रहना, अभी जरा दूर रहना।।
पीली—पीली सरसों में, वीणा सी बजती जाये।
सूनी—सूनी रही डगरिया, मोती बिछता जाये।।
चूड़ी खनकी पायल बजती, पल—पल मुझे बुलाये।
अधरों पर सरगम का फिर से, नया गीत सज जाये।।
लहर चुनरिया कर से खीचूँ, आये चैना।
बोली दूर रहना, अभी जरा दूर रहना।।
गुलशन की कलियों में मिलकर, तारों सी लगती हो।
फूल सँवरते, मेघ गरजते, झरनों सी झरती हो।।
ज्यों चपला गगनों की रानी, खामोशी हरती हो।
चाँद झाँकती सेज चूमती, परियों सी लगती हो।।
चल परी तुझे सहर करा दूँ, आये चैना।
बोली दूर रहना, अभी जरा दूर रहना।।
भरी बजरिया में देखो तुम, यौवन छलका जाये।
फिर दीवानों की टोली में, दिल भी जलता जाये।।
तुम हो मेरी छैल छबीली, मन भोला तड़पाये।
एक जुगनिया बैरिन बन गयी, निंदिया ले गयी हाये।।
आओ नभ की सहर करा दूँ, आये चैना।
बोली दूर रहना, अभी जरा दूर रहना।।
कैसी हो अलबेली रानी, सागर से डरती हो।
तुम अल्हड़ मस्त जवानी मेरी, गागर से भरती हो।।
छूने से ही छुई—मुई की, रूप शिखा हरती हो।
इतनी हो नादान, प्रेमिका सी, आहें भरती हो।।
चलो प्रीति के पट खोलूँ तो, आये चैना।
बोली दूर रहना, अभी जरा दूर रहना।।
मदहोश
मधुशाला तुम न पीते, जो हम गुलाब होते।
मदहोश हो जाते तुम, जो हम शबाब होते।।
उड़ जाता कोई पंछी, है पिंजरों की निशानी।
जाने बहार आयी, थी कच्ची मेरी जवानी।।
फिर सागर के तटों पर, अद्भुत मेरी कहानी।
होंठ हुए मधुशाला, और यौवन छलका पानी।।
तुम यौवन पर बलखाते, जो हम कली न होते।
मधुशाला तुम न पीते, जो हम गुलाब होते।।
जब छलके मेरा यौवन, हिल—हिल जाये हाला।
लचके मौरी कमरिया, झूम जाये बृज ग्वाला।।
यमुना के इन तटों पर, ये प्रीति का है प्याला।
इन कुँज की गलियों में, तुमने कौन रंग डाला।।
तुम बाहों में भर लेते, जो राधिका हम न होते।
मधुशाला तुम न पीते, जो हम गुलाब होते।।
तुम कोयल की कूँक से, किसी रूप पे न जाना।
यहाँ दिल के अन्दर है, मोती का इक खजाना।।
हर होंठ पर मुरली के, नहीं स्वरों को मिलना।
कुदरतों ने बक्शी है, जिंदगी का आना—जाना।।
तुम अन्जाने में हमसे, इकरार कर लेते।
मधुशाला तुम न पीते, जो हम गुलाब होते।।
ये कैसी उड़ती धूलें, पूछो न! क्या बतायें।
बस! इक प्यार की डगर है, कहीं हम खो न जायें।।
राधा ने पिया प्याला, उर मीरा गीत गाये।
मैं पूछता हूँ सबसे, ये दिल कहां से लाये।।
गर दर पे जाते हम, तुम बाहों में भर लेते।
मधुशाला तुम न पीते, जो हम गुलाब होते।।
जिन साँझों के पंछी से, सीखा है दिल लगाना।
अन्जानी सी दुनिया में, तुम दूर नहीं जाना।।
तुम प्यार की राहों में, कोई भेद न छुपाना।
हर मोड़ पर जगत में, जिन्दगी का आना—जाना।।
अरे राहों के मुसाफिर, तुम साथ—साथ आते।
मधुशाला तुम न पीते, जो हम गुलाब होते।।
मंजिलें
चले चलो गुरूर से बड़ी दूर हैं ये मंजिलें।
इन मंजिलों की राह में, कुछ और भी हैं मुश्किलें।।
घोर अंधेरी रातों में, बेबशी का तम हुआ।
तम में बढ़ते कारवाँ पर, जाने क्या सितम हुआ।।
थे रास्ते बिखरे हुए, थी मोड़ों पर ये सुर्खियाँ।
जाने वाले पथगरों का, शूल पर कदम हुआ।।
शूलों पर जो पग धरें, वे फूलों पर भी चलें।
चले चलो गुरूर से बड़ी दूर हैं ये मंजिलें।।
हर गरीब के नसीब में, न एक ही करम हुआ।
मुसीबतों के ढेर में, न जाने क्या सितम हुआ।।
फिर हारे हुए लोगों को, हार का भी गम हुआ।
पर हार से विश्वास का, न जोश कुछ भी कम हुआ।।
जोशों की बुनियादियों पर मंजिलों के पट खुलें।
चले चलो गुरूर से बड़ी दूर हैं ये मंजिलें।।
इक ज्वलित हुआ चिराग है, रोशनी का साथ है।
न कल कुछ हमारे साथ था, न आज कुछ साथ है।।
बस ! मंजिलों की तलाश में, मंजिलों की आस है।
ख्वाबों की दहलीज पर, हौसलों का साथ है।।
हौसलों की उड़ान से, इन मंजिलों को चूम लें।
चले चलो गुरूर से बड़ी दूर हैं ये मंजिलें।।
न लता है, न ललाट है, फूला हुआ कपास है।
अब न रात है, न दिन है, केवल श्रम का लिवास है।।
फिर मन की है ये आरजू, मन्नतों का घर मिले।
न हास है न परिहास है, कर्म की ये परास है।।
कर्म की इस परास से, तुझे मंजिलों के दर मिलें।
चले चलो गुरूर से बड़ी दूर हैं ये मंजिलें।।
अपनों की हमसे बेरुखी, कौन सी रजा रही।
बाधाओं के लिवास में, कदम—कदम सजा रही।।
सजा के सब महकमों से, मंजिलों का सफर हुआ।
सफर की अब ये रौशनी और किसे लजा रही।।
लजाती हुयी परछाइयाँ, लक्ष्य भेदी को मिलें।
चले चलो गुरूर से बड़ी दूर हैं ये मंजिलें।।
हमें ज़िंदगी की राहों में, दर्द का अहसास है।
इन माटियों के वास में, और ये वनवास है।।
हैं रास्ते कांटों भरे, सिर पे ग़म का ताज है।
कहीं भूख की परछाई में, कर्म का लिवास है।।
सब मुसीबतों को भूलकर, कर्म पथ को चूम लें।
चले चलो गुरूर से बड़ी दूर हैं ये मंजिलें।।
आँचल
एक बचपन गलियों में, खेला ही नहीं,
एक गलियों का मैला ही, ढोता रहा।
फिर ज़िंदगी का सफ़र, इस कदर से हुआ,
जहाँ एक हँसता रहा, एक रोता रहा।।
आँचलों में थी दोनों की, किलकारियाँ।
उनके अँगनों की रौनक, उर दुश्वारियाँ।।
इस तरह रब ने दोनों को सजदा किया।
शूल फूलों की राहों की, फुलवारियाँ।।
एक शूलों के ग़म को ही, भुलाता रहा।
जहाँ एक हँसता रहा, एक रोता रहा।।
जिं़दगी ने भी ये कैसा, अचम्भा किया।
मुझे तख्त भी न दिया, ताज उसको दिया।।
दूर तक थी अंधेरों की, वैशाखियाँ।
आँसुओं से चिरागों को, रोशन किया।।
मैं चिरागों की ज्योति, जलाता रहा।
जहाँ एक हँसता रहा, एक रोता रहा।।
ऊँचे गगन में चाँद, सितारे दिये।
सब नदियों के दो—दो, किनारे दिये।।
ज़िंदगी का अब कोई, भरोसा नहीं।
मेरे घर भी दरिया, किनारे दिये।।
दरिया में ही आँचल डुबोता रहा।
जहाँ एक हँसता रहा, एक रोता रहा।।
हम तो यों ही बदनाम, होते गये।
अपने जख्मों को रोकर, सीते गये।।
माटियों के घरौंदों सी, है ज़िन्दगी।
तुम बरसते गये, हम बिखरते गये।।
बिखर कर भी गमों को, भुलाता रहा।
जहाँ एक हँसता रहा, एक रोता रहा।।
आशाओं के सपनों सी, है जिं़दगी।
कर्म पथ में रंग भरने की, है ज़िंदगी।।
हम अपने ही फ़न को, तरसते रहे।
सदन से शमशान तक की, है ज़िंदगी।।
फिर शमशान में वह तन, जलाता रहा।
जहाँ एक हँसता रहा, एक रोता रहा।।
राष्ट्र संगीत
जन—गण—मन अधिनायक जय हो।
भू, अंतरिक्ष भी भारत मय हो।।
ऐसा भारत भाग्य जगा दो।
आओ! भ्रष्टाचार मिटा दो।।
पंजाब, सिंधु, गुजरात, मराठा।
सब मिल जुलकर खायें पराठा।।
मिटे गरीबी, हँसे रुलासा।
कहीं कोई न रहे प्यासा।।
चलो! ऐसी अलख जगा दो।
आओ! भ्रष्टाचार मिटा दो।।
द्राविड़, उत्कल बंग।
भारत माँ के अंग।।
जो देखे सो दंग।
खुशियों की हो भंग।।
तुम ऐसा गुलशन महका दो।
आओ! भ्रष्टाचार मिटा दो।।
विंध्य हिमाचल यमुना गंगा।
नीति, सत्य, अहिंसा वृत्तं चंगा।।
क्षमा दया विनय का बंधा।
कौशल, तर्क, विवेक का फन्दा।।
तुम ऐसा आखण्ड बना दो।
आओ! भ्रष्टाचार मिटा दो।।
जहाँ उच्छल जलधि तरंग।
सभ्यता तेरे विविध रंग।।
सब धर्मों का हो संग।
हर सदन बजे मृदंग।।
तुम ऐसा कानून बना दो।
आओ! भ्रष्टाचार मिटा दो।।
तब शुभ नामे जागे।
तब शुभ आशिष मांगे।।
जो सीमा पर जागे।
उनको बांधे धागे।।
तुम देश का मान बढ़ा दो।
आओ! भ्रष्टाचार मिटा दो।।
गाये तब जय गाथा।
यश का चूमें माथा।।
शिखरों की सेजों पर।
भारत का है नाता।।
अब तिरंगा की शान बढ़ा दो।
आओ! भ्रष्टाचार मिटा दो।।
जन गण मंगलदायक तब है।
भारत माँ का सेवक तब है।।
गरीब गुनी कृषक का भोजन।
फिर से थाली में लौटा दो।।
भारत माँ की लाज बचा लो।
आओ! भ्रष्टाचार मिटा दो।।
प्रण है, प्रण है, प्रण है, प्रण है
प्रण प्रण प्रण है।।
अतीत के मुसाफिर
जमीं से उठाया गोदी में मुझे,
हम शाखों के पत्ते भी छू न सके।
वक्त ने बदली करवटें इस तरह,
तुम मेरे पास भी आ न सके।।
फिर ऐसी उड़ी धूलों की रेतियाँ,
हम तुम्हारे पास भी आ न सके।
ख्यालों में उतरी रहमतें इस तरह,
शाम के चिराग भी बुझा न सके।।
चांदनी से फैले, यादों के आँचल,
पत्तों में भी खुद को, छुपा न सके।
जिं़दगी की राहों में, मिले इस तरह,
दो कदम भी पीछे, हम आ न सके।।
ढलती हुयी शामों को, क्या बताये हम,
नजरों से परिन्दे भी छुपा न सके।
और थके हुये पंछी कुछ उड़े इस तरह,
झीलों का किनारा भी पा न सके।।
हिचकियों की डोरों ने, खींचा जब मुझे,
उजड़े हुए घर फिर, बसा न सके।
आँखों में उतर आये, तुम इस तरह,
पलकों से भी तुमको छुपा न सके।।
कुन्ठाओं में चूमता रहा, शूलियाँ उम्र भर,
तेरे आग़मन की आस पर लगा न सके।
मन को जलाते रहे, तेरी यादों में इस तरह,
तन को भी आग में, फिर जला न सके।।
घनघोर बरसते रहे, बादल कब्र पर,
आग चिता की पर वह, बुझा न सके।
शाखों से टूटी, कुछ पत्तियाँ इस तरह,
हम चाहकर भी आपके, हो न सके।।
आज भी ढूँढती है, आँगन में मेरी माँ,
हम मरने के हादसे, बता न सके।
रोती है तस्वीर से, पागलों की तरह,
मेरे लाल, मेरे चाँद, तुम आ न सके।।
रोज देखती है माँ, मेरे आने के रास्ते,
हम धूलचक्र से, भी बता न सके।
पूँछती है पथिकों से, आगमन इस तरह,
तुम मेरे लाल को साथ, क्यों ला न सके।।
सिसकती है रुह मेरी, माँ की दशा पर,
बेटे का फर्ज़ भी, निभा न सके।
होती है ग्लानि बहुत कुछ इस तरह,
दो फूल भी चरणों में चढ़ा न सके।।
उठो ! मेरे देश के लोगों
उठो! मेरे देश के लोगों, माँ का कर्ज चुकाना है।
गर कुछ तुमने खोया है, तो अब सब कुछ लुटाना है।।
पागल वे नहीं होते, जो भूखे नंगे सोते हैं।
पागल वे होते हैं, जो तकदीरों पे रोते हैं।।
घायल वे नहीं होते, जो हवेली में सोते हैं।
घायल वे होते हैं, जो फुटपाथों पर सोते हैं।।
घातक वे नहीं होते, जो नस्तर को चुभोते हैं।
घातक वे होते हैं, जो नौका को डुबोते हैं।
भिखारी वे नहीं होते, जिन्हें हम भीख देते हैं।
भिखारी वे होते हैं, जिन्हें हम वोट देते हैं।।
हमें इन देश गद्दारों को, फाँसी पर लटकाना है।
उठो! मेरे देश के लोगों, माँ का कर्ज चुकाना है।।
कहीं पर झोपड़ी टूटी, कहीं पर पानी चूता है।
मुनासिब मूल नहीं मिलता, किसान सब रोता है।।
दूर कहीं जुल्म होते हैं, कहीं शोषण होता है।
गरीब रो नहीं सकता, घुटन का जहर पीता है।।
कहीं घर से उठाते हैं, कहीं पर कत्ल होता है।
कहीं जिंदा जलाते हैं, कहीं पर रेप होता है।।
देव कुछ नहीं पूछो, मुझे अफसोस होता है।।
कल गौरों ने लूटा था, फिर अपनों ने लूटा है।
हमें इन देश लुटेरों को, नेस्तनाबूद करना है।
उठो! मेरे देश के लोगों, माँ का कर्ज चुकाना है।।
नहीं बस्ती बसायी है, केवल बस्ती उजारी है।
चलो! आँखों से देखो, वही भूखा भिखारी है।।
गलियों में भरा कीचड़, घरों की छत अधूरी है।
रास्ते गाँव के कच्चे, शायद बिजली जरूरी है।।
गाँव में नल नहीं मिलते, केवल जी हुजूरी है।
चिकित्सा भी नहीं अच्छी, भवन गाड़ी सरकारी है।।
घरों में छायी लाचारी, नहीं शिक्षा पूरी है।
दुर्दशा गाँव की करके, भरी अपनी तिजोरी है।।
लुटेरों की तिजोरी को, हर गाँव में लाना है।
उठो! मेरे देश के लोगों, माँ का कर्ज चुकाना है।।
चुनाव सिर पे आये हैं, ये दर—दर पे आये हैं।
भलाई कुछ नहीं इनकी, जेलों से छुटकर आये हैं।।
देखो रहीस शहजादे, बहरूपी बनकर आये हैं।
अकड़ सब जन ने ठानी, चले घुटनों पे आये हैं।।
ऊँचे सपने दिखाकर के, सिर्फ आँसू बहाये हैं।
लूट जनता जनार्दन को, महल अपने बनवाये हैं।।
टटोल दुखती रंगों से, वोट हम सबका पाये हैं।
नहीं फिर घूम के देखा, शीश पे ताज पाये हैं।।
अब इन ताज भूषण को, सिर्फ खरदूषण बनाना है।
उठो! मेरे देश के लोगों, माँ का कर्ज चुकाना है।।
निर्मल—जीवन
जीवन सुन्दर निर्मल पल है, पल—पल अपनायें हम।
सबसे ऊँचा नील गगन है, छूकर आयें हम।।
चेतन जड़ है, जड़ चेतन है, अवचेतन है तन।
जोड़ जुगत की माया सारी साँसों का बँधन।।
सूनी करम डग़र की चादर, सूना है दामन।
इच्छाओं के भँवर जाल में, छल इन्द्रधनुष है मन।।
मन की आशा रहे अधूरी, प्यास रहे हरदम।
जीवन सुन्दर निर्मल पल है, पल—पल अपनायें हम।।
जीवन की घाटों को चूमता, है सूना दर्पन।
चोटी पाने के लालच में, पाये केवल धन।।
अपने—अपनों के संग नहीं जन, है अद्भुत निर्धन।
जगत् में ऐसे कर्म करें हम, महके घर आंगन।।
आँगन में फूलों की लड़ियाँ, जुड़ी रहे हरदम।
जीवन सुन्दर निर्मल पल है, पल—पल अपनायें हम।।
कोई किसी से बैर करो मत, कहिता है दर्पन।
इक दिन धरती की माटी में, मिल जायेगा तन।।
माया की गठरी छुट जाये, बुलबुल सा दामन।
भवन कोठियाँ पड़ी रहें सब, काहे की उलझन।।
तुम भवन कोठियों के लोभ में, न जीना हरदम।
जीवन सुन्दर निर्मल पल है, पल—पल अपनायें हम।।
एक भूख है, एक पेट है, एकै है काया कंचन।
एक धरा है, एक गगन है, एकै है धारा बंधन।।
एक घाट से आये जग में, एक घाट से जायें।
एक रीति है, एक प्रीति है, एकै है शीतल चन्दन।।
चन्दन की श्वाँसों में खुशबू, घुली रहे हरदम।
जीवन सुन्दर निर्मल पल है, पल—पल अपनायें हम।।
एक सपेरा, करे तमाशा, खेल अनोखा दिखाये।
एक बीन की लहर पे देखो, सारा जगत नचाये।।
गजों सा सीधा बलशाली, शेरों सा दिखता है।
तन का तन से मेल करें फिर, जोगी रमता जाये।।
जोगी की ललसायें न टूटें, ऐसा हो संगम।
जीवन सुन्दर निर्मल पल है, पल—पल अपनायें हम।।
जहाँ सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया का, सुन्दर पथ दिखता है।
भूखा, प्यासा, राहों में कहीं, निर्धन जन मिलता है।।
पहले उनके आँसू पोंछो, फिर हँसना सीखो तुम।
दान, दया, परहितों से भाई, नया रंग खिलता है।।
रंगों के उपवनों से प्यारे, जुड़े रहो हरदम।
सबसे ऊँचा नील गगन है, छूकर आयें हम।।
माता—पिता जगत में प्यारे, है अनमोल खजाना।
सेवा उनकी करो जगत में, ऊँचा शीश उठाना।।
पग चरणों की रज को जो सुत, भालों पर मलते हैं।
जीवन की राहों में उनको, फूलों पर है जाना।।
फूलों में खुशबू की लड़ियाँ, जुड़ी रहें हरदम।
सबसे ऊँचा नील गगन है, छूकर आयें हम।।
चल राही
चल राही, राहों के पथ जोड़कर।
अवरोधों को कदमों से रौंदकर।।
दर्द तुमको मिलें, तो तड़प लीजिए।
हौंसलों को न माहिया, कम कीजिए।।
घाव तुमको मिलें, तो सह लीजिए।
कदमों को राह पर, बढ़ा दीजिए।।
कुन्ठाओं के गट्ठर, न सिर कीजिए।
मन मन्दिर से अपने अलग कीजिए।।
रात—दिन डूबकर, परिश्रम कीजिए।
अपनी मंज़िल को एक, दिशा दीजिए।।
सब रंगों के परिश्रम को जोड़कर।
अवरोधों को कदमों से रौंदकर।।
साहिल से अधूरी है, सरिता नहीं।
और बादल से सागर भरता नहीं।।
उन नदियों की धारा में बहना नहीं।
सिर्फ बहना है, जिनका किनारा नहीं।।
कभी भँवरों में कश्ती फँसाना नहीं।
डूबकर भी कदम डगमगाना नहीं।।
शूल पर भूलकर लड़खड़ाना नहीं।
अंधेरों के पथ से घबराना नहीं।।
घबराहटों की सांसों को भूलकर।
अवरोधों को कदमों से रौंदकर।।
गंदगियों के ढेरों में, सोना नहीं।
ये ज़िन्दगी है कोई, खिलौना नहीं।।
भूखे रहकर कभी तुम, रोना नहीं।
फुटपाथों पे कोई, बिछौना नहीं।।
बाधाओं का कोई, पैमाना नहीं।
कर्म पथ से कदम, डगमगाना नहीं।।
अपने सपनों को तुम, मिटाना नहीं।
रात के बाद होगा, सवेरा कहीं।।
तूँ सवेरों के स