पलक हर सुबह आईने के सामने खड़ी होती और अपने चेहरे को घंटो ध्यान से देखती उसे सब कुछ ठीक लगता—आँखें, होंठ, माथे की शिकन।
फिर भी कुछ तो था जो उसे हर बार अधूरा छोड़ देता था वह आईने से नहीं, खुद से नज़र चुराती थी।
लोग उससे कहते थे,
“तुम तो बहुत मज़बूत हो बेटा।”
उसे समझ नहीं आता था कि मज़बूती कब उसकी आदत बन गई या उसका वहम या फिर कब उसकी मजबूरी।
वह जानती थी—
कुछ टूटना आवाज़ नहीं करता और उसके अंदर ही अंदर बहुत कुछ टूट चुका था।
जीवन मे कुछ हादसे शरीर पर नहीं, चेतना पर निशान छोड़ते हैं और सबसे गहरे ज़ख़्म वही होते हैं, जिन पर समाज मरहम नहीं, चुप्पी चढ़ा देता है या यूं कहें मज़बूती का प्लास्टर कर देता है।
वह…
उसके जीवन में हमेशा “वह” ही रहा।
सामने नहीं—पर पास।
जैसे कोई ऐसा विचार जो दबा दिया गया हो, पर मिटाया न जा सका हो।
वह पलक से कभी अपने बारे में ज़्यादा नहीं पूछता था, शायद इसलिए कि उसे पलक के जवाब से डर लगता था।
या शायद इसलिए कि वह जानता था—
कुछ सवाल पूछे नहीं जाते, सिर्फ समझे जाते हैं।
जब वह हँसती, वह देखता—हँसी कहाँ रुक जाती है।
जब वह चुप होती, वह सुनता—उस चुप्पी में क्या बोल रहा है।
उसके भीतर दो आवाज़ें थीं।
एक कहती—
“जो हुआ, वह बीत गया। आगे बढ़ो।”
दूसरी फुसफुसाती—
“जो अनकहा है, वही सबसे ज़्यादा जीवित है।”
पलक हर रिश्ते में खुद को साबित करती रही—कि वह ठीक है, सामान्य है, पूर्ण है पर उसके भीतर एक हिस्सा था जो हर स्पर्श से पहले सिमट जाता, हर अपनापन मिलने से पहले हिसाब लगाने लगता।
वह जानती थी — यह डर नहीं है।
यह स्मृति है, स्मृति जो समय नहीं देखती।
जो अचानक किसी गंध, किसी शब्द, किसी खामोशी में लौट आती है।
वह कभी उसका हाथ नहीं पकड़ता।
बस अपने हाथ खुले रखता है—
अगर कभी उसे यक़ीन हो जाए कि थामे जाने से टूटन नहीं बढ़ेगी।
एक दिन उसने पलक से कहा, “तुम बदल गई हो।”
वह मुस्कुरा दी।
क्योंकि बदल जाना आसान था,
पर खुद को फिर से महसूस करना सबसे कठिन।
उस रात उसने पहली बार स्वीकार किया—
यह कहानी तेरी नहीं थी।
यह कहानी मेरी भी नहीं थी।
यह उन दोनों के बीच की थी—
जहाँ समझ प्रेम से पहले आती है,
और साथ रहना ज़रूरी नहीं,
पर सुरक्षित महसूस करना ज़रूरी होता है।
सुबह फिर आईना था।
वही चेहरा।
पर आज वह उससे नज़र नहीं चुराती।
क्योंकि अब वह जान चुकी थी—
ठीक होना एक प्रक्रिया है,
और प्रेम…
कभी-कभी सिर्फ यह जान लेना होता है
कि कोई तुम्हारे भीतर के टूटे हिस्सों से डरता नहीं।
पलक एक दिन मुझसे पूछ बैठी,
“अगर मैं कभी ठीक न हो पाई तो?”
उसने बिना देखे कहा,
“तो भी तुम पूरी रहोगी।”
उस वाक्य ने उसे रुलाया नहीं।
उसने उसे डरा दिया।
क्योंकि पहली बार
उससे ठीक होने की शर्त नहीं रखी गई थी।
उस रात उसने अपने भीतर झाँका।
वहाँ कोई टूटी हुई लड़की नहीं थी।
वहाँ एक थकी हुई चेतना थी
जो लगातार खुद को समझाने की कोशिश कर रही थी
कि सब ठीक है।
उसने पहली बार खुद से कहा—
“जो हुआ, वह मेरी गलती नहीं थी।”
यह वाक्य छोटा था।
पर इसके पीछे सदियों की चुप्पी खड़ी थी।
सुबह जब वह आईने के सामने खड़ी हुई,
तो उसने खुद को नया नहीं पाया।
पर उसने खुद को छोड़ा हुआ भी नहीं पाया।
यही शुरुआत थी।
वह उसके साथ चली या नहीं,
यह कहानी नहीं बताती।
क्योंकि यह कहानी प्रेम की नहीं थी।
यह कहानी स्वीकृति की थी।
और कभी-कभी,
स्वीकृति ही सबसे सुरक्षित संबंध होती है—
तेरी और मेरी के बीच में.......