ट्रिपलेट्स भाग 1
अमर – प्रेम – राज
अध्याय 1 : अंधेरी रात, एक माँ और अधूरा सच
बरसात की वह रात जैसे पूरे शहर पर बोझ बनकर उतरी थी।
आसमान में बादल नहीं, बल्कि काले इरादे तैर रहे थे।
कभी तेज़ बिजली चमकती, कभी डरावनी खामोशी फैल जाती।
शहर के पुराने हिस्से में एक बदनाम इलाका था — काला चौक।
यह इलाका दिन में भी उजाड़ लगता था, रात में तो जैसे मौत का बसेरा बन जाता।
उसी गली में एक औरत तेज़ कदमों से चल रही थी।
उसकी साड़ी भीगी हुई थी, बाल चेहरे से चिपके हुए थे।
गोद में एक नवजात बच्चा — रो नहीं रहा था, बस साँस ले रहा था…
जैसे हालात को समझ रहा हो।
औरत की आँखों से आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
वह खुद से बुदबुदाई —
“भगवान… मैंने क्या पाप किया है… तीन-तीन बच्चों को जन्म दिया… और आज…”
उसकी आवाज़ काँप गई।
वह एक नुक्कड़ पर रुकी।
चारों तरफ सन्नाटा।
सिर्फ बारिश की आवाज़।
उसने बच्चे के चेहरे को देखा।
बिल्कुल अपने बाकी दो बच्चों जैसा।
वह फूट-फूटकर रो पड़ी।
“मुझे माफ कर दे बेटा… मैं चाहकर भी तुझे साथ नहीं रख सकती…”
उसने बच्चे के कंधे पर देखा।
वहाँ तीन तिल एक सीधी रेखा में थे।
वह तिल… जैसे किस्मत की मुहर।
औरत ने काँपते हाथों से बच्चे को ज़मीन पर लिटाया,
अपनी साड़ी का पल्लू उसके ऊपर रखा और पीछे हट गई।
अचानक बच्चे ने हल्की सी आवाज़ निकाली।
औरत दौड़कर वापस आई, उसे गोद में उठा लिया।
“नहीं… नहीं… मैं पत्थर नहीं हूँ…”
फिर खुद को संभालते हुए बोली —
“अगर तुझे अपने पास रखा, तो तीनों मारे जाएँगे…”
उसने आख़िरी बार बच्चे को चूमा।
“तू मजबूत बनेगा… तू जिएगा…”
और अँधेरे में खो गई।
सालों बाद…
सुबह की हल्की धूप।
शांति नगर — शहर का एक साधारण, शांत इलाका।
एक छोटे से घर में चाय की खुशबू फैली हुई थी।
“अमर! प्रेम! जल्दी उठो, ऑफिस नहीं जाना क्या?”
यह आवाज़ थी शारदा देवी की।
दो कमरे से एक साथ आवाज़ आई —
“आ रहे हैं माँ!”
अमर और प्रेम एक साथ बाहर आए।
दोनों का चेहरा, कद, आवाज़ — सब एक जैसा।
शारदा देवी मुस्कराईं।
“भगवान ने भी क्या जोड़ी बनाई है…”
प्रेम हँसते हुए बोला —
“माँ, भगवान खुद कन्फ्यूज़ हो गया होगा।”
अमर ने चाय लेते हुए कहा —
“आज फिर रास्ते में लोग हमें देखकर रुक गए थे।”
माँ का चेहरा थोड़ा गंभीर हो गया।
“आजकल शहर में जो हो रहा है… उससे डर लगता है।”
प्रेम ने अख़बार दिखाया।
अख़बार की हेडलाइन थी —
“एक ही शक्ल का अपराधी? पुलिस उलझन में”
अमर ने अख़बार मोड़ा।
“माँ, हमने कुछ नहीं किया…”
शारदा देवी ने प्यार से उसके सिर पर हाथ रखा।
“मुझे तुम पर भरोसा है… लेकिन दुनिया भरोसा नहीं करती।”
ऑफिस के बाहर
कंपनी के बाहर पुलिस की गाड़ी खड़ी थी।
इंस्पेक्टर शेखर राठौड़ अमर और प्रेम को घूरकर देख रहा था।
“आप दोनों को कुछ सवालों के जवाब देने होंगे।”
प्रेम ने शांत स्वर में कहा —
“हम हर सवाल का जवाब देने को तैयार हैं, सर।”
इंस्पेक्टर ने फाइल बंद की।
“सबूत नहीं है… लेकिन शक ज़रूर है।”
अमर ने सख्त लहजे में कहा —
“सर, हमारी शक्ल अगर किसी और से मिलती है, तो इसमें हमारी क्या गलती?”
इंस्पेक्टर कुछ पल चुप रहा।
“सावधान रहिए… शहर में कोई खेल खेल रहा है।”
रात — छत पर
अमर और प्रेम छत पर बैठे थे।
प्रेम बोला —
“अमर… क्या हो अगर हमारी तरह दिखने वाला कोई और भी हो?”
अमर ने आसमान की तरफ देखा।
“तो फिर हमारी ज़िंदगी आसान नहीं रहेगी…”
प्रेम ने गहरी साँस ली।
“मुझे डर नहीं लग रहा… मुझे गुस्सा आ रहा है।”
अमर ने उसका कंधा थपथपाया।
“तो तय रहा… हम सच ढूँढेंगे।”
उसी समय — शहर के नीचे
एक लिफ्ट ज़मीन के नीचे जा रही थी।
दरवाज़ा खुला।
सामने थी एक विशाल अंडरग्राउंड लैब।
सफेद कोट में एक आदमी खड़ा था —
डॉक्टर एन. चंद्रन।
उसके सामने कई गुंडे लाइन में खड़े थे।
डॉक्टर ठंडी आवाज़ में बोला —
“याद रखो… इस दुनिया से बाहर जाने का रास्ता सिर्फ एक है…”
उसने मुस्कराकर कहा —
“मौत।”
एक कोने में खड़ा एक युवक —
अमर और प्रेम की हूबहू शक्ल।
उसकी आँखों में नफरत थी।
उसका नाम था —
राज।
अध्याय 2 : एक जैसी शक्लें, अलग-अलग किस्मत
भाग 1 : शांति नगर — माँ की गोद में पलते दो सितारे
सुबह का सूरज शांति नगर की गलियों में फैल चुका था।
छोटा-सा घर, लेकिन उसमें सुकून था।
आँगन में तुलसी का पौधा, दीवार पर भगवान की तस्वीर और अंदर बच्चों की किलकारियाँ।
अमर और प्रेम—तब सिर्फ पाँच साल के थे।
एक जैसे कपड़े, एक जैसे बाल, एक जैसी शरारत।
शारदा देवी रसोई से चिल्लाईं—
“अमर! प्रेम! दूध पीकर बाहर खेलना!”
दोनों एक साथ बोले—
“माँ… पहले खेल, फिर दूध!”
शारदा देवी हँस पड़ीं।
“भगवान! दो नहीं, चार बच्चे पाल रही हूँ क्या?”
पास बैठी पड़ोसन कमला ताई बोली—
“शारदा, सच बोलूँ… तेरी किस्मत बहुत अच्छी है।”
शारदा देवी ने प्यार से बच्चों को देखा।
“हाँ… लेकिन दिल में कहीं एक खालीपन भी है…”
कमला ताई चौंक गईं।
“खालीपन? क्यों?”
शारदा देवी पलभर चुप रहीं, फिर बोलीं—
“कभी-कभी लगता है… जैसे कोई और भी होना चाहिए था…”
वह खुद ही चुप हो गईं।
स्कूल का पहला दिन
सरकारी स्कूल की इमारत पुरानी थी, लेकिन बच्चों की आवाज़ों से ज़िंदा थी।
क्लास टीचर मिसेस जोशी रजिस्टर में नाम लिख रही थीं।
“अमर…”
“जी मैडम।”
“प्रेम…”
“जी मैडम।”
मिसेस जोशी ने चश्मा उतारकर ध्यान से देखा।
“अरे… तुम दोनों जुड़वाँ हो?”
अमर बोला—
“नहीं मैडम… हम दोस्त हैं।”
पूरी क्लास हँस पड़ी।
प्रेम ने फुसफुसाकर कहा—
“अमर… आज फिर डाँट पड़ेगी।”
अमर मुस्कराया—
“डाँट भी एक जैसी ही पड़ेगी।”
भाग 2 : उसी शहर का दूसरा चेहरा — काला चौक
अब दृश्य बदलता है।
गंदी गलियाँ।
नशे की बदबू।
चीख-पुकार।
एक कबाड़खाने के पीछे कुछ बच्चे लड़ रहे थे।
बीच में एक दुबला-पतला बच्चा—आठ साल का।
चेहरा मासूम, लेकिन आँखों में गुस्सा।
वह बच्चा था — राज।
एक बड़ा लड़का चिल्लाया—
“ए सड़कछाप! तुझे किसने सिखाया पलटकर मारना?”
राज ने खून भरी आँखों से देखा।
“जिसने सिखाया, वो तुझसे बड़ा है।”
लड़का आगे बढ़ा, लेकिन राज ने पत्थर उठाकर उसके सिर पर दे मारा।
खून बहने लगा।
तभी एक भारी आवाज़ आई—
“बस!”
सब लड़के पीछे हट गए।
सफेद कपड़ों में एक आदमी खड़ा था।
चेहरे पर नकाब, आँखों में ठंडापन।
डॉक्टर एन. चंद्रन।
उसने राज को देखा।
“नाम क्या है?”
राज हाँफते हुए बोला—
“राज।”
डॉक्टर मुस्कराया।
“आज से तू मेरा है।”
भाग 3 : दो दुनिया, दो परवरिश
अमर–प्रेम का बचपन
शाम का वक्त।
घर के बाहर खेलते अमर और प्रेम।
प्रेम बोला—
“अमर… बड़ा होकर क्या बनेगा?”
अमर ने बिना सोचे—
“पुलिस।”
प्रेम चौंक गया।
“क्यों?”
अमर—
“ताकि बुरे लोगों को पकड़ सकूँ।”
शारदा देवी दूर से सुन रही थीं।
उनकी आँखें नम हो गईं।
राज की परवरिश
अंडरग्राउंड लैब।
राज को मुक्के मारना सिखाया जा रहा था।
एक गुंडा हँसते हुए बोला—
“डॉक्टर साहब, ये लड़का तो जानवर है!”
डॉक्टर चंद्रन ठंडे स्वर में—
“नहीं… ये हथियार है।”
राज ने पूछा—
“आप मुझे ये सब क्यों सिखा रहे हैं?”
डॉक्टर ने झुककर कहा—
“क्योंकि दुनिया सिर्फ ताकत समझती है।”
भाग 4 : किशोरावस्था — फर्क साफ़ दिखने लगा
अमर–प्रेम
कॉलेज का फेस्ट।
प्रेम स्टेज पर कविता पढ़ रहा था।
“हम एक जैसे दिखते हैं,
लेकिन हमारी आत्मा अलग है…”
तालियाँ।
अमर नीचे से चिल्लाया—
“भाई! कमाल!”
राज
अंधेरी गली।
राज ने पहली बार चाकू पकड़ा।
सामने एक आदमी काँप रहा था।
राज के हाथ काँप रहे थे।
डॉक्टर की आवाज़ पीछे से—
“हिचकिचाहट मौत होती है, राज।”
राज ने आँख बंद की…
और वार किया।
भाग 5 : किस्मत की रेखाएँ पास आती हुई
रात।
शांति नगर।
शारदा देवी नींद में बड़बड़ाईं—
“मेरा… तीसरा बेटा…”
उसी वक्त—
राज आईने में खुद को देख रहा था।
उसने आईने पर हाथ रखा।
“मैं कौन हूँ?”
आईना जवाब नहीं देता।