सेवानिवृत्ति : जीवन की दूसरी पारी — सृजन का एक सुनहरा अवसर
सेवानिवृत्ति का दिन मेरे जीवन का कोई सामान्य दिन नहीं था। वर्षों तक नियमित समय पर दफ्तर जाना, जिम्मेदारियाँ निभाना और समय की पाबंदियों में बँधा रहना—सब कुछ जैसे एक ही दिन में पीछे छूट गया। उस दिन मन में अजीब-सा खालीपन था, पर उसी के साथ एक अनकहा प्रश्न भी—अब आगे क्या?
अक्सर लोग सेवानिवृत्ति को जीवन का विराम मान लेते हैं, जैसे अब कुछ शेष नहीं रहा। लेकिन मैंने सदैव जीवन को एक संघर्ष और साधना के रूप में देखा है। सेवा काल में भी मैं सामाजिक सरोकारों—जल, जंगल, जमीन, पर्यावरणीय समस्याओं तथा कला, संस्कृति और साहित्य—से जुड़ा रहा। सेवानिवृत्ति के बाद मुझे और गहराई से यह समझ आया कि यह कोई विराम नहीं, बल्कि जीवन को नए ढंग से समझने और जीने का अवसर है। नौकरी के वर्षों में समयाभाव के कारण जिन सपनों को हम टालते रहे, वे अब हमारे सामने साकार होने की प्रतीक्षा में खड़े थे।
मेरे जीवन में एक और कठिन मोड़ तब आया, जब ब्रेन हैमरेज के कारण मेरे दाहिने शरीर में पक्षाघात हो गया। यह केवल शरीर की असहायता नहीं थी, बल्कि आत्मबल की गहरी परीक्षा थी। अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए कई बार लगा कि शायद अब जीवन सीमित हो गया है। पर समय के साथ यह समझ आया कि कमजोरी अंत नहीं होती, बल्कि स्वयं को नए रूप में पहचानने, संवारने और जीवन को और अधिक गहराई से समझने का अवसर भी देती है।
आज जब मैं छड़ी के सहारे चलता हूँ, तो शायद लोग इसे मेरी मजबूरी समझते हैं। पर मेरे लिए यह मेरी शक्ति का प्रतीक है। इसने मुझे धैर्य सिखाया, आत्मसम्मान बनाए रखना सिखाया और हर छोटे कदम के लिए जीवन के प्रति कृतज्ञ होना सिखाया। स्वास्थ्य संतुलित है, दृष्टि स्पष्ट है और मेरी सोच पहले से अधिक संवेदनशील हो गई है। सामाजिक सरोकारों, जीवन संघर्ष, कला, संस्कृति और साहित्य के प्रति मेरा लगाव और गहरा हुआ है। सोच, समझ और दृष्टि—तीनों में सकारात्मक परिवर्तन आया है।
सेवानिवृत्ति के बाद जीवन में खालीपन नहीं होना चाहिए। यही वह समय है, जब हम स्वयं से संवाद कर सकते हैं। लेखन, पठन, समाज से जुड़ाव और आत्ममंथन—ये सब जीवन को नया अर्थ देते हैं। उम्र बढ़ने के साथ अनुभव भी बढ़ता है और उन अनुभवों को बाँटने की जिम्मेदारी भी। जब यह बात मन में उतर जाती है कि मनुष्य जीवन अत्यंत दुर्लभ है और दूसरों के हित के लिए जीना ही सच्चा जीवन है, तब व्यक्ति समाज और राष्ट्र की अमूल्य धरोहर बन जाता है। तब जीवन की छोटी-बड़ी समस्याएँ स्वतः ही बौनी लगने लगती हैं और जीवन का सच्चा आनंद प्राप्त होता है।
आज ब्रेन हैमरेज और पक्षाघात के बाद, छड़ी पकड़कर लड़खड़ाते हुए चलने तथा दाहिना हाथ पूर्ण रूप से कार्य न करने के बावजूद, मैं उन्हीं सामाजिक सरोकारों—जल, जंगल, जमीन, पर्यावरण तथा कला, संस्कृति और साहित्य—से जुड़ा हुआ हूँ। यह सतत सक्रियता मुझे आत्मबल, आत्मसम्मान और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने की अदम्य जिजीविषा प्रदान करती है।
आज मैं पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जीवन की दूसरी पारी, पहली से कम नहीं होती। यदि हम साहस और सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ें, तो यह पारी और भी अधिक मूल्यवान बन सकती है। सेवानिवृत्ति वास्तव में अंत नहीं, बल्कि सृजन का सुनहरा अवसर है—बस उसे पहचानने और समझने की आवश्यकता है।
— गणेश कछवाहा
काशीधाम, रायगढ़ (छत्तीसगढ़)