Boon - 2 in Hindi Mythological Stories by Renu Chaurasiya books and stories PDF | वरदान - 2

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वरदान - 2

दिन ढल रहा था और महल की ओर जाने वाले मार्ग पर हल्की धूप बिखरी हुई थी।

तभी समाचार आया कि राज्य के द्वार पर एक अजीबोगरीब भिखारी पड़ा है,


जिसकी दशा अत्यंत दयनीय है।


यह सुनते ही राजा का हृदय विचलित हो उठा।

वे नंगे पाँव ही सिंहासन से उठ खड़े हुए और तेज़ी से भागते हुए द्वार तक पहुँचे।


जैसे ही उनकी नज़र उस भिखारी पर पड़ी, वे स्तब्ध रह गए।

उसके कपड़े चिथड़ों में बदल चुके थे, शरीर पर जगह-जगह बड़े-बड़े फोड़े-फुंसियाँ थीं,
जिनसे मवाद टपक रहा था।

दुर्गंध से चारों ओर वातावरण दूषित हो रहा था।

उसका एक पैर गहरे घाव से सड़ चुका था और उसमें  उठने तक की ताक़त नहीं बची थी।

लोग उसे घृणा और क्रोध से पीट-पीटकर भगा देना चाहते थे। 

परंतु राजा का हृदय करुणा से भर उठा।

उन्होंने तनिक भी घृणा न की और तुरंत आगे बढ़कर उस भिखारी को अपनी बाँहों में थाम लिया।

उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।

बिना देर किए उन्होंने उसे पालकी में बैठाया और आदर सहित महल ले जाने का आदेश दिया।

वहाँ खड़े सैनिक और प्रजा राजा की इस करुणा और दया को देखकर विस्मय से भर उठे।

"**राजा का स्वरूप राजसी होते हुए भी करुणा से भरा था।

उनका कद ऊँचा और व्यक्तित्व गरिमामय था।

जब वे दरबार में बैठते तो सबकी नज़रें स्वतः ही उनकी ओर खिंच जातीं।

उनका मुख तेजस्वी था, पर आँखों में सदैव दया और विनम्रता झलकती थी।

वे सादा परंतु शालीन वस्त्र पहनना पसंद करते थे।

उनके माथे पर हल्की झुर्रियाँ और बालों में चाँदी-सी सफ़ेदी उनकी वृद्धावस्था का संकेत देती थीं,

पर उनके हृदय की शक्ति और धर्मपरायणता अब भी उतनी ही प्रबल थी।

वे न्याय के लिए कठोर और प्रजा के लिए पितृतुल्य स्नेही थे।

जब वे किसी गरीब या दुखी को देखते,

तो उनके भीतर का कठोर राजा तुरंत एक कोमल पिता में बदल जाता था।

यही कारण था कि उनकी प्रजा उन्हें देवता समान पूजती थी।"

राजमहल का भव्य द्वार मानो स्वर्ग के द्वार की छवि प्रतीत होता था।

ऊँचे-ऊँचे स्तंभों पर सुन्दर नक्काशी की गई थी,
जिन पर दिव्य आकृतियाँ और पौराणिक कथाएँ उकेरी गई थीं।

द्वार पर गाढ़े सोने की परत चढ़ी थी, जिस पर सूर्य की किरणें पड़ते ही वह चमक उठता,
मानो आकाश में स्वयं सूर्योदय हो गया हो।


विशाल दरवाज़े के किनारों पर कीमती रत्न जड़े थे, जिनकी झिलमिलाहट रात के अंधकार में भी प्रकाश फैलाती थी।

द्वार के दोनों ओर विशालकाय सिंहों की मूर्तियाँ रखी थीं,
जिनकी आँखें ऐसे चमकतीं जैसे वे जीवित होकर राज्य की रक्षा कर रहे हों।

ऊपर की मेहराब पर कलश,
पुष्पमालाएँ और घंटियाँ टंगी थीं, जो हवा के झोंकों से मधुर ध्वनि उत्पन्न करतीं।


जब यह दरवाज़ा खुलता,

तो उसकी ध्वनि गर्जन जैसी प्रतीत होती और भीतर से आती शंखध्वनि,

वीणा और नगाड़ों की गूँज उसके वैभव को और भी महान बना देती।

यह द्वार न केवल राजमहल का प्रवेश था,
बल्कि राज्य की महिमा,
वैभव और शक्ति का प्रतीक भी था।

"**राजमहल का वैभव देखते ही बनता था।

दूर से ही उसकी ऊँची-ऊँची मीनारें बादलों को छूती प्रतीत होती थीं।

दीवारें श्वेत संगमरमर से बनी थीं, जिन पर रंगीन पत्थरों और सुनहरी नक्काशी की अद्भुत कारीगरी थी।

दिन में सूर्य की किरणें इन पर पड़कर महल को मानो सोने का बना हुआ दिखातीं और रात में चाँदनी उसकी दीवारों पर चाँदी-सा आभास बिखेर देती।


महल के प्रांगण में प्रवेश करते ही विशाल आँगन था,

जहाँ संगमरमर की फर्श पर जड़ाऊ डिज़ाइन बने थे।

चारों ओर फूलों से सजे बगीचे, बीच में फव्वारे जिनसे मधुर ध्वनि निकलती थी,
और पक्षियों का कलरव उस वातावरण को और भी मनोहारी बना देता था।


भीतर के कक्ष अत्यंत भव्य थे।

दीवारों पर चित्रकारों द्वारा बनाई गई पौराणिक कथाओं की झलक दिखती थी।

छतों से झूलते हुए झूमर, जिनमें जड़े रत्न और शीशे हज़ारों रंगों की आभा फैलाते थे।

राजसिंहासन जिस कक्ष में था,

वह सबसे भव्य था—सिंहासन शुद्ध सोने का बना हुआ था, जिस पर माणिक, हीरे और पन्ने जड़े थे।

उसके चारों ओर रेशमी परदे लटकते थे और फर्श पर मखमली गलीचे बिछे थे।

पूरा राजमहल न केवल शिल्पकला का अद्वितीय नमूना था, बल्कि वह राज्य की समृद्धि,

वैभव और गौरव का प्रतीक भी था।

इसे देखकर हर आने वाला व्यक्ति यही सोचता कि यह स्थान वास्तव में धरती पर स्वर्ग के समान है।"**


महल पहुँचते ही राजा ने अपने वैद्यों और सेवकों को आदेश दिया,
कि उस फकीर की तुरंत चिकित्सा की जाए।

उन्होंने स्वयं उसके पास बैठकर उसकी देखभाल की,

और उसके घावों पर मरहम लगाने में तनिक भी संकोच नहीं किया।


महल के लोग यह दृश्य देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि जहाँ प्रजा ने उसे तिरस्कृत कर दूर धकेल दिया था,

वहीं स्वयं महाराज ने उसे करुणा और स्नेह से अपनाया।

""राजा ने बिना किसी झिझक के स्वयं अपने हाथों से फकीर के घावों को साफ किया।

रक्त और मवाद से भीगे उसके शरीर को वे ऐसे स्पर्श कर रहे थे मानो कोई पिता अपने असहाय पुत्र की सेवा कर रहा हो।

घावों पर मरहम लगाते हुए उनकी आँखों से आँसू बह निकले, और वे मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगे

—'हे प्रभु, इस दीन-हीन प्राणी का दुख मुझमें समा जाए,

पर इसे कष्ट न सहना पड़े।'"

"राजा ने जैसे ही उसकी सेवा करनी शुरू की, वे तनिक भी घृणा किए बिना उसके मल-मूत्र तक अपने हाथों से साफ करने लगे।

फिर उन्होंने उस फकीर को स्नान कराया, उसे नए वस्त्र पहनाए और सम्मानपूर्वक अपने ही सिंहासन पर बैठा ।

राजा स्वयं उसके चरणों के पास जाकर बैठ गए।

यह दृश्य देखकर महल के सेवक, सैनिक और रानियाँ स्तब्ध रह गईं—

सारा राजमहल मानो दया और करुणा की जीवंत मूर्ति बन चुकेथे ,
अपने राजा को देखकर नतमस्तक हो उठा।"

"लेकिन कुछ लोग राजा के इस व्यवहार को देखकर उनके पीछे बुराई भी करते,

वे कहते—‘एक महाराज होकर किसी गंदे और रोगी भिखारी की सेवा करना,

उसके मल–मूत्र तक साफ करना,

यह राजा के पद की शोभा के विरुद्ध है।

’ उनके मन में ईर्ष्या और तिरस्कार का ज़हर भरा हुआ था।"

राजा इन सब बातों से अनजान थे।

उन्हें न किसी की निंदा की परवाह थी, न ही पीछे की चर्चाओं की।

उनका समस्त ध्यान तो बस उस बीमार भिखारी पर केंद्रित था।

वे पूरी लगन और श्रद्धा के साथ उसकी सेवा करते रहे, मानो वही उनका कर्तव्य और धर्म हो।

उनके हृदय में केवल एक ही चिंता थी—इस असहाय प्राणी का दुःख किसी तरह कम हो जाए।"

जैसे-जैसे राजा उसकी सेवा में लीन होते गए,

वैसे-वैसे वे अपनी ही चिंता और तकलीफ़ों को भूल बैठे।

अब उन्हें न भूख की परवाह रही, न आराम की।

उनका मन तो बस उसी असहाय प्राणी के लिए धड़कता था।

दिन-रात वे ईश्वर से यही प्रार्थना करते—‘हे प्रभु, इसके कष्ट मेरे हिस्से में आ जाएँ,

पर इसे और दुःख न सहना पड़े।’

राजा का समर्पण और करुणा देखकर मानो समूचा राजमहल मौन हो गया हो।"

"और तभी एक अद्भुत चमत्कार हुआ।

जिस भिखारी की सेवा राजा पूरे समर्पण से कर रहे थे,

वह अचानक तेजोमय हो उठा।

फटे कपड़ों और घावों से भरा उसका शरीर क्षणभर में बदल गया।

उसकी त्वचा से दिव्य आभा निकलने लगी,

उसके चेहरे पर अलौकिक प्रकाश छा गया और देखते ही देखते वह भिखारी एक देवता के रूप में प्रकट हो गया।

महल में उपस्थित सभी लोग विस्मय और श्रद्धा से भर उठे।

किसी को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि जिसके मल-मूत्र को राजा ने स्वयं अपने हाथों से साफ किया,

वही दीन-हीन प्राणी वास्तव में एक देवता था।।।।