how many ways in Hindi Short Stories by Dr Sandip Awasthi books and stories PDF | कितनी राहें 

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कितनी राहें 

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"अरे यह बिल तो पिछले माह भी पास होने को आया था। तब जो दिक्कतें बताई बताई थीं ,वह दूर हुई या नहीं?" अतिरिक्त अधिशाषी अभियंता ने अर्थपूर्ण ढंग से अपने निजी सहायक की तरफ देखा ।

निजी सहायक,कोई और नहीं उनका ही भांजा था। इंजिनियरिंग अधूरी छोड़कर पिछले तीन वर्षों में मामा के साथ संविदाकर्मी के तौर पर लगा हुआ था। पूर्ण निष्ठा से काम सीख गया था और बचने के नए नए तरीके भी। दो तीन बार तो क्लाइंट के ही हाथ धुलवाके नोट पकड़वाकर लेता था। मामा, अ अ अ (अतिरिक्त अधिशाषी अभियंता ) बहुत खुश थे। जहां पिछले कुछ समय से दनादन अधिकारी पकड़े जा रहे थे,वहीं उनका रुतबा और धन लाभ बढ़ता ही जा रहा था। निवेश के भी नए नए रास्ते उन्होंने निकाले हुए थे। वह उनकी प्रिय पत्नी और साले साहब करता थे। खुद साहब एक पुरानी से ब्लेनो कार और सामान्य से सरकारी बंगले में रहते थे। इमेज सख्त थी। इससे दाम अच्छे मिलते थे। सज्जन व्यक्ति थे तो कोई सीधे ही एप्रोच करता तो दाम कम कर देते थे। लेकिन ऐसी संभावना कम ही होती थी क्योंकि भांजा और साले साहब किसी को भी सीधे आने ही नहीं देते थे। फिर भी एक नया बना ठेकेदार उन तक पहुंच ही गया।

"साहब ,यह बिल दो महीने से पास नहीं हो रहा। मैंने कर्जा लेकर जेसीबी और अन्य उपकरण लिए थे। मेरी उधारी पर ब्याज बढ़ रहा है। आप ही कुछ करो ।" 

 गम्भीर चेहरा बनाए साहब ने फाइल से सिर उठाया तो ठेकेदार से पहले निगाह पड़ी अपने भांजे पर जो ठीक पीछे खड़ा आश्वस्त होने का इशारा कर रहा था। अर्थात पार्टी तैयार है बस थोड़े रिश्वत के पैसे कम करवाने का चक्कर है।

    साहब मन ही मन मुस्कराए। ऐसे हजारों मौकों पर देश भर में रोज अफसर किस तरह हिंदी साहित्य और भाषा का कुशलता से उपयोग करते हैं यह कोई देखे जरा। 

" देखो आपकी फाइल मैंने देखी। उसमें कुछ जगह राशि अधिक है तो कुछ जगह पक्की रसीद नहीं। दो जगह बिल पर काउंटर साइन नहीं। तो फिर ? कैसे पास कर दें आपका बिल? आखिर ऊपर हमें भी जवाब देना पड़ता है।"

"साहब, आप कुछ करो न।आपकी दयालुता के बहुत किस्से सुने हैं। मुझे नुकसान से बचा लो।" कहते कहते नए बने ठेकेदार रामाधीर ने हाथ जोड़ लिए।

"अच्छा देखते हैं, करते हैं कुछ तुम्हारे लिए भी। कितने का है तुम्हारा बिल?" कहते हुए अच्छे से याद राशि के बिल को फाइल में उलट पलट कर निकालते रहे।

कुछ देर देखा फिर फाइल पलटी और फिर बोले," यह तो करीब नब्बे लाख का ही है। मेरे ही हाथ में है। आप जरूरी कागजात मेरे पीए से बात करके जमा करें। उम्मीद है जल्द हो जाएगा।"

     अब वह धीरे से बोला,"साहब ,साहब...।"

उन्होंने गंभीर चेहरा ऊपर उठाया, "क्या बात है, कुछ कहना है? बोलो?"

वह नजरे झुकाए हाथ जोड़ धीरे से बोला,"वह पंद्रह परसेंट बोल रहा जबकि मैं दस देने को तैयार हूं। आप कुछ करो।"

  वह कुछ देर फाइल में सिर झुकाए रहे। क्या करें? यह भांजा भी जब सभी को मेरे पास भेज देगा तो मैंने उसे क्यों रखा है? 

अब करते हैं कुछ।

उधर ठेकेदार भी मन में जोड़ बाकी कर रहा था।उसे भी सब देने के बाद भी शुद्ध बीस लाख का लाभ था इस एक ही कॉन्ट्रैक्ट से। आगे वह दो जगह टेंडर और भर चुका था। नया था पर उसे धीरे धीरे सारे दांवपेंच मालूम हो गए थे। 

दरअसल जो भी सड़क,पुल,पुलिया आदि निर्माण कुछ भी हो उसमें एक हजार प्रतिशत तक मुनाफा होता है।सारा कार्य मजदूर मिस्त्री करते हैं जिन्हें ठेके पर और भी कम कीमत में रखा जाता है। फिर सामग्री सीमेंट से लेकर गिट्टी बजरी,औजार फिर ट्रैक्टर,जेसीबी खुद का ही ले लेते हैं तो एक साल के किराए से ही मूल लागत आ जाती है।सबसे निर्माण वैसे ही होता है जैसे आपके हमारे घरों में किफायत से होता है। अर्थात छह सौ मीटर की सड़क करीब करीब बन गई पंद्रह लाख में। लेकिन उसका टेंडर प्रचलित भाव,कुछ बाबू और इंजीनियर तो उसमें हर साल दस प्रतिशत वृद्धि भी लगाते हैं,लगभग बैठता है अस्सी लाख!! जी हां,अस्सी लाख। तो यह जो पंद्रह से अस्सी लाख का अंतर है यह बंटता है पूरी ईमानदारी से ठेकेदार,बाबू,वित्त अधिकारी, जूनियर,उससे बड़ा और अधिशाषी अभियंता और आगे विभाग के सचिव और मंत्री तक। स्थानीय विधायक दमदार हुआ तो उसका भी हिस्सा। तो उसी में यह वारे न्यारे पूरी निष्ठा और हक से होते हैं। हर शहर में हजार पंद्रह सौ करोड़ और जिले में पांच हजार करोड़ के निर्माण हर वर्ष होते हैं।जिनकी मूल लागत हजार करोड़ के करीब ही होती है। पैसा आपका हमारा ही है जो टैक्स से जाता है पर है हिम्मत किसी की जो चू भी कर जाए?

       क्या कभी इस देश में वाजिब और उचित कीमत पर कार्य होने के दिन आएंगे? क्या कभी मुहल्ले के सार्वजनिक निर्माण कार्यों को वहीं के निवासियों की समिति से एक चौथाई दाम में करवाने का प्रस्ताव पास होगा?

  तो इसी अंधाधुंध कमाई में अपना हिस्सा नहीं मिलने या कम होने पर एसीबी को शिकायत और सत्यापन का प्रावधान है। वह आती है और झपट्टा मार अपना हिस्सा ले जाती।

   "अच्छा ऐसा होता है? मैं दिखवाऊंगा तुम जरा बाहर जाके बैठो।" 

     वह वापस बाहर बैठ गया।भांजा उर्फ पीए अंदर गया।  

"कितनी बार कहा है ऑफिस में यह सब मत किया करो। कौन क्या छुपाए बैठा हो? तुम तो निकल जाओगे फंस मैं जाऊंगा। फिर सब ठीक करने के चक्कर में जितना इस साल कमाया नहीं वह सब भी निकल जाएगा।"

अब इसे बारह पर सेट करके आज ही विदा करो।"

भांजा सिर हिलाता बाहर की तरफ मुड़ा। 

"और सुनो,पैसे आज मत लेना।कहना फोन करे।"

       वह अनुभवी थे तो जानते थे कौन कब क्या कर दे इससे अंजान नहीं थे।

  कुछ देर बाद रामाधीर बाहर निकला तो खुश था कि उसकी थोड़ी से मेहनत से तीन प्रतिशत यानी लगभग पौने तीन लाख रुपए बच गए थे। वह गुमकता हुआ अपनी मारुति वैन में सवार हुआ तब उसे पता नहीं था कि आगे एक बड़ी मुसीबत उसके इंतजार में है।

                दरअसल विभाग का एक बाबू अपना हिस्सा बढ़ाए जाने की मांग कर रहा था और भांजा उसे महीनों से टरका रहा था। आधे प्रतिशत से भी कम में वह फ़ाइलों को सुव्यवस्थित करता और मोटी आसामी को ताड़कर उसे तैयार भी करता की किस तरह उसके मोटे बिल पास हो सकते हैं। 

 यह नींव की वह ईंट थी जिस पर ऊपर तक की बुनियाद टिकी थी। जिसकी किसी को परवाह नहीं थी। तो एसीबी के पास पहुंच गई अधिशाषी अभियंता के पूरे सिस्टम पर एक गुमनाम चिट्ठी।

      एसीबी वालों ने अब ताड़ना शुरू किया कि कौनसा ठेकेदार शिकायत दे सकता है? क्योंकि कोई कैसे भी तैयार नहीं होता।पूरा काम व्यवस्थित और राजी खुशी चल रहा। जनता को काम होते दिख रहा और उधर अफसर भी मौज कर रहे। अभी नए नए बने तीन किमी के पांच सौ करोड़ के पुलों में घटिया सामग्री से पहले ही साल में गड्ढे हो गए। तो शिकायत पर जांच करने मंत्री जी खुद आए,पूरा मीडिया आया और एक किमी की पूरी भुजा नए सिरे से जांचने और बनाने के आदेश दिए। आप पूछेंगे इसके पैसे तो ठेकेदार ही देगा जिसने मोटा बिल पास करवा भी लिया।

क्योंकि उसके काम में ही गुणवत्ता नहीं निकली। साल भर भी नहीं हुआ। पर नहीं साहब ,उन ठेकेदारों को तो कुछ नहीं कहा बल्कि इस नए काम के लिए छोटा सा एक पचास करोड़ का बजट उन्हीं मंत्री ने पास कर दिया। इस बार फिफ्टी प्रतिशत एक जगह पहुंचने के इंतज़ाम के साथ। जनता भले ही धक्के खाती रही,रोड जाम होते गए पर उससे क्या? चुने हुए जन प्रतिनिधि तो आपके ही हैं न।

    तो एसीबी को रामाधीर जमा जो नया नया था और कुछ हिम्मती दिखता था।

  सुनसान सड़क आते ही एक सफेद इनोवा तेजी से आई और वैन को छैक लिया।

      रामाधीर जो दादा पीर का भजन सुनते जा रहे थे कुछ देर गाड़ी में ही बैठे रहे।कोई दुश्मनी तो उनकी थी नहीं। सभी को उनका हिस्सा बराबर भेजते थे। होली दीपावली गिफ्ट अलग से देते थे। फिर यह क्या? 

दो आदमी उतरे सफाई सूट में जिन्हें देखते ही वह समझ गए कि यह सरकारी आदमी हैं।

           कुछ देर बाद बेहद गंभीर और चिंतित रामाधीर को वहीं उतारकर इनोवा चली गई। अब उन्हें एसीबी का काम करना था,अपनी साख भी बचानी थी और कुछ ऐसा करना था कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।

     इसी के तहत अनजाने में एक कोशिश तो वह कर चुके थे। सिस्टम तोड़कर सीधे साहब से बिल पास करवाने की। पर साहब घुटे हुए थे तो कहां माने?

 अब क्या करें?यह तो हड्डी ही गले में फंस गई। इन्हें मना किया तो बोल गए कि चौबीस घंटे मुझ पर निगाह और सारे फोन नंबर टेप रखेंगे जब तक मुझे पकड़ कर जेल में नहीं डाल देंगे।

अब आगे कुआं पीछे खाई के साथ बड़े परेशान हाल ठेकेदार ने गाड़ी आगे बढ़ाई।

      अगले दिन शाम को न जाने कैसे चाय की टपरी पर साले साहब मिल गए और सब बता गए।

   "टपरी वाला भी अपना आदमी है इसे जब कहें पैकेट दे देना।" ऐसी चाय की टपरी हर सरकारी दफ्तर के बाहर खुली रहती हैं देर शाम तक। कोई साहब नहीं आता पर कई कारे,टैक्सी वहां जरूर रुकती हैं...चाय जो पीनी होती है। फिर दिन में कई बार दफ्तर का चपरासी या बाबू आते जाते रहते हैं। कुछ दफा टपरी का छोकरा चाय फ्लाक्स के साथ अंदर हो आता है,किसी नए क्लाइंट की पर्ची लेकर। देश की प्रगति में जितना योगदान यह टपरी दे रही हैं वह अप्रतिम है।

         दिन आ गया । उसके फोन पर अंजान नंबर से फोन आया अमुक जगह पहुंचे। वहां से कहीं और बुलाया। वहां से फिर ऊपर फ्लाईओवर पर। उसे पीछे दूर गाड़ी आती दिख रही थी। 

कॉल आया रुको।वह रुका फ्लाईओवर के बीचों बीच। "बैग फेंक दो नीचे।" बिना हिचकिचाए वह उतरा पीछे मुड़े बिना उसने बैग नीचे फेंक दिया। तभी गाड़ी तेजी से उसके पास रुकी। तीन लोग उतरे नीचे झांका।कोई नहीं था...बैग भी गायब था। दूर एक धुंधली सी आकृति किसी दोपहिया पर जाती दिख रही थी।

इतनी अक्ल तो रामाधीर में थी तो वह तुरंत बोल पड़ा," साहब जैसा आपने कहा मैंने वैसा ही किया। ऑफिस में न देकर बाहर दिए। आपको पीछे लगा देखकर भी किसी को कुछ न बताया। मेरी कोई गलती नहीं। "

अफसर हाथ मलते खड़े थे। 

" निकल गया हाथ से पर कब तक? अगली बार फिर घेरेंगे। चलो अब।"

गाड़ी जाने के बाद रामधीर ने जेब से दूसरा पंच फोन निकाला और धीरे से कहा, " भांजे जी,जैसा आप कल कहे थे वैसा ही मैंने किया। अपने भतीजे को नकली बैग देकर भगा दिया। असली बैग यहीं पुल के पास खंभे के पीछे लिए खड़ा हूं। साहब को मेरी राम राम बोलना।" 

 

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(डॉ.संदीप अवस्थी, कथाकार,आलोचक, कुछ पुस्तकें और देश विदेश से पुरस्कृत

804,विजय सरिता एनक्लेव, बी ब्लॉक,पंचशील,अजमेर,305004

मो 8289272900)