doom in Hindi Short Stories by Deepak sharma books and stories PDF | शामत

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शामत

 

                    नंदू मुझे कस्बापुर में मिला था।

अपने तेरहवें और मेरे ग्यारहवें वर्ष में।सन उन्नीस सौ बासठ में।

                    जब सरकारी स्कूल की अपनी अध्यापिकी की एक बदली के अंतर्गत मेरे पिता को वहां जाना पड़ा था। लखनऊ का अपना पुश्तैनी मकान छोड़ कर। वहीं किराए के एक मकान में रहने। 

                    उन की जगह बदल रहे अध्यापक ही ने वह मकान हमें सुझाया था : यहां घर बैठे ट्यूशन मिलेगी। खालिस दूध मिलेगा और परिवार जैसा व्यवहार। 

                   वह नहीं जानते थे उन की यह सलाह हमारे पक्ष में थी। नंदू के पक्ष में नहीं।

                    सच पूछें तो मेरे पिता को अपने अहाते में मकान देते ही नंदू के पिता,चौधरी छत्रपाल ने जैसे ही नंदू की ट्यूशन उन्हें सौंपी थी, नंदू की मुश्किल उसी दिन से शुरू हुई थी।

                   कारण, पढ़ाई में नंदू की रुचि शून्य थी।उसे केवल तीन चीज़ें भाती थीं : कंचे, पतंग व फ़िल्म।

                   जो ट्यूशन दे रहे उस के पहले वाले अध्यापक जानते रहे थे और उसे पढ़ने के लिए दिक न करते रहे थे।

                 उन के ठीक विपरीत मेरे पिता घोर अनुशासन- प्रिय थे। बात के पक्के। समय के पक्के। ट्यूशन के समय आने में नंदू तनिक भी देरी कर देता तो वह तत्काल चौधरी छत्रपाल के पास जा शिकायत कर देते, “नंदू का पता लगाइए। मेरे पास अभी तक पहुंचा नहीं…..”

                  और चौधरी अपने अहाते के सभी बच्चों को उस का पता लगाने दौड़ा देते। बेटे की पढ़ाई में उन की गहरी दिलचस्पी थी। सनक की सीमा लांघती हूई।

               

                  सन उन्नीस सौ तिरसठ की उस फ़रवरी के दिन चौधरी छत्रपाल रिक्शे से अपनी खरीद के नए कनस्तर उतरवा रहे थे जब मेरे पिता उन के पास लपक लिए, “नंदू ने आज मुझे अपने पहाड़े सुनाने थे और वह गायब है…..”

                  “दिखवाता हूं, अभी दिखवाता हूं,” चौधरी छत्रपाल ने अहाते में खेल रहे कुछ बच्चों को संकेत से बुलाया और बोले, “जाओ नंदू को ढूंढ कर लाओ…..”

                  कुछ लड़के आंगन को छान डालने चले गए तो कुछ दुकानों पर उसे ढूंढ निकालने। तो कुछ ऊपर की मंज़िल की छत से उसे नीचे उतारने।

                   अहाता चार भाग में बंटा था। एक भाग में यह डयोढ़ी थी जहां उन की तीन गाय और दो भैंसे रहती थीं। जिन का दूध वह बेचते थे।

                    ड्योढ़ी के सामने वाले भाग में दोनों तरफ़ दो- दो दुकानें थीं। ठोस और मज़बूत। किराए पर उठी हुई। 

                    दुकानों के दोनों सिरों पर सीढ़ियां थीं जो ऊपर खड़ी की गई मंज़िल पर ले जाती थीं– एक सोपान- पंक्ति मज़िल के एक हिस्से में और दूसरी दूसरे हिस्से में।

एक हिस्सा किराएदार का और दूसरा चौधरी छत्रपाल का।

                    “नंदू तो फ़िल्म देखने गया है,” तभी एक लड़का दौड़ता हुआ आया और बोला,    “जंगली…..”

                    वह फ़िल्म उसी दिन कस्बापुर में दोबारा रिलीज़ हुई थी। उस के प्रचार में उस के रंगीन होने पर बल दिया ही जा रहा था, साथ में उस का एक गाना भी बार- बार सुनने को मिल रहा था। गली- गली। मुहल्ले- मुहल्ले। लाउडस्पीकर पर : 

                   “चाहे कोई मुझे जंगली कहे,        कहता है तो कहता रहे…..”

                    उस फ़िल्म को देखने की मेरे अंदर भी तीखी चाहना थी। एक अंसभव चाहना। मेरे पिता भी चौधरी छत्रपाल की तरह बच्चों के फ़िल्म देखने के घोर विरोधी थी। सच पूछें तो मैं ने अपनी पहली फ़िल्म, सन उन्नीस सौ सड़सड में देखी : तूफ़ान और दिया। घटे दरों पर। पहले रिलीज़ हो चुकी फ़िल्म होने के कारण।  राखी के त्योहार पर। अपने पिता,मां और तीन बहनों की तीन राखियों के साथ। 

                   “जंगली?” फ़िल्म का नाम सुनते ही रिक्शे का भाड़ा दे रहे चौधरी छत्रपाल ने अपने हाथ रोक लिए। 

                   “कहां लगी है?” ताव खाकर वह उसी खाली रिक्शे में सवार हो गए।

                    “रियाल्टो टाकीज़,” खींसें निपोर रहे उन लड़कों के साथ मैं भी चिल्ला पड़ा।

                     हम सब जानते थे नंदू के सिर पर शामत खेल रही थी।

                     पहले भी जब नंदू अहाते के अंदर तत्काल अपने पिता को नहीं मिलता था तो बाद में उस के प्रकट होते ही वह उस की पिटाई शुरू कर दिया करते।

                     खुल्ल्मखुल्ला। खुल कर।कभी हाथ से तो कभी लाठी से, तो कभी लात से।

असल में उस की पिटाई का अनुपात वह उस की अनुपस्थिति की अवधि और प्रकृति से किया करते। सब से कड़ा दंड उसे फ़िल्म देखने पर देते।

                     कभी उस के मुंह में गोबर भर कर। कभी अपनी थूक चटा कर।

                     “फ़िल्म देखता है?”

                     “फ़िल्म देखेगा?”

                      क्रोधोन्मत हो कर वह चिल्लाते और दर्शकों की भारी भीड़ जमा हो जाती।

                     मुफ़्त का तमाशा देखना किसे न भाता?

 

                     इधर चौधरी छत्रपाल की रिक्शा ओझल हुई, उधर सब की अटकलबाज़ी शुरू हो ली :

                     रियाल्टो टाकीज़ के अंदर नंदू को गेटकीपर खोजेगा? या चौधरी छत्रपाल?

                     नंदू को पहले डांट पिलाई जाएगी? या सीधी पिटाई शुरू हो जाएगी?

                     उधर रियाल्टो टाकीज़ ही में? अजनबियों के सम्मुख?

                     या रिक्शे में पहुंचने पर? चलती सड़क के बीच?

                     या फिर इधर ड्योढ़ी में रिक्शे से उतरने पर? या अपने लोगों के सामने?

                    जैसे ही कोई अटकल हवा में उछलती कुछ लड़के साथ ही उछल पड़ते। कुछ जोश में आकर आपस में गले मिल कर झूलने लगते तो कुछ ताली बजाने।

 

                     गाय- भैंसों के दोहन के समय तक भी चौधरी छत्रपाल नहीं लौटे तो ग्वालों ने हमें ड्योढ़ी छोड़ने को बोला।

                    दूध केवल ग्राहकों के सामने या अकेले में दुहा जाता था। हम बच्चों के सामने नहीं।

                    यह अलग बात थी कि कुछ ही महीने पहले जहां दोहन के दोनों वक्त ग्राहक उन की ड्योढ़ी में समय से पहले ही आन जमा हो जाते थे, अब ड्योढ़ी में ग्राहकों की जगह दूध जमा होने लगा था। नए, पैस्चराइज़ड, बोतलबंद सरकारी दूध के कस्बापुर में आ जाने से। ऐसे में चौधरी छत्रपाल उस जमा दूध को कनस्तरों में भर कर अपने ग्वालों के हाथ दूर- नज़दीक के हलवाइयों के पास औने- पौने दाम पर बेचने लगे थे।

                   हमारा समूह अब तितर-बितर होने पर मजबूर था।

                   हम में से कुछ लड़के मुहल्ले की नुक्कड़ पर जा खड़े हुए तो कुछ अपनी बाट पर निकल लिए। अपनी- अपनी ताक और आशंका के संग। 

                   मैं ने अपने कदम घर की ओर ही बढ़ाए।

                   घर पर मेरे पिता अपनी मेज़ पर अपनी किताब के साथ सिर झुकाए बैठे थे।

                   “नीचे इतनी देर क्यों लगा दी?” मुझे देखते ही वह चिल्लाए। 

                    चौधरी छत्रपाल की तरह मेरे पिता भी बहुत गुस्सैल थे मगर वह उन की तरह हट्टे- कट्टे नहीं थे। क्षीणकाय थे और शायद इसीलिए अपने गुस्से को प्रकट करने के लिए अपने हाथ- पांव से ज़्यादा अपनी ज़ुबान इस्तेमाल किया करते। गाली-गलौज के साथ। 

                    “नंदू अभी तक नहीं लौटा,” मैं ने कहा, “न ही उस के पिता ही अभी लौटे हैं…..”

                    अपने पिता के विरुद्ध मेरे अंदर खूब रोष जमा हो गया था।

                    जब नंदू नहीं चाहता वह उस की बाग अपने हाथ में खींच कर रखें तो वह उसे ढीली क्यों नहीं छोड़ सकते?

                   अपनी पढ़ाई का रोब सब पर बिठाएंगे?

                   “कपूत को आफ़त का परनाला यों ही नहीं कहा जाता,” मेरे पिता फिर चिल्लाए,  “अपने सिर भी आफ़त मोल लेते हैं और बाप के सिर पर भी आफ़त लाते हैं…..”

                    “किशोर,” तभी बगल वाली खिड़की से नंदू की चौथे नंबर की बहन ने मुझे आवाज़ दी। नंदू अपने पिता का इकलौता पुत्र था। और छः बहनों का अकेला भाई। उस की सब से बड़ी तीन बहनों की शादी हो चुकी थी और दोनों अपनी- अपनी ससुराल में थीं।

                   “जी,जीजी,” मैं ने अपना सिर अपनी खिड़की से बाहर निकाला।

                    हम दोनों परिवार इन खिड़कियों के माध्यम से एक दूसरे का हाल अक्सर पूछा करते, सुना करते। अपने दोनों पिता- जन को छोड़ कर।

                    “अब तो फ़िल्म का अगला शो भी शुरू हो गया होगा? क्यों?”

                    “आप लोग कहें तो मैं नीचे दुकानों में से किसी को बोल दूं,” मेरे पिता भी खिड़की में आन खड़े हुए, “उधर रियाल्टो टाकीज़ देख आए, पूछ आए…..”

                    “हम तो सोचती हैं, चाचा जी, आप ही चले जाते तो ज़्यादा ठीक था…..”

                    “अब इस अंधेरे में मैं क्या देख पाऊंगा?” मेरे पिता घर से बाहर निकलने से घबराया करते; वह भी किसी दूसरे के काम से, “नीचे ही किसी से पूछता हूं…..”

                    “वह तो हमीं पूछ लेंगी,” चौथे नंबर वाली वह बहन झल्लाई। 

                    “ठीक है,” मेरे पिता खिड़की से अलग छिटक लिए। 

                     अपनी मेज़ पर लौटने के वास्ते।

 

                     अगले ही दिन पूरे कस्बापुर ने जान लिया नंदू लापता था। शहर की दीवारों पर जगह- जगह उस की फ़ोटो के इश्तिहारों के ज़रिए । रेडियो पर ब्रौडकास्ट किए जा रहे उस के हुलिए के ज़रिए । अखबारों में छप रहे उस के नाम- पते के ज़रिए। 

                     सभी में उसे घर पहुंचाने वाले को 500 रुपए नकद देने का प्रलोभन दिया गया था। जो उस ज़माने में बहुत बड़ी रकम मानी जाती थी। साथ में नंदू के नाम एक अपील भी रखी जाती थी :

                     “गोपाल नंदन, फ़ौरन घर चले आओ। तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। तुम्हारी मां और जीजी लोग सभी निर्जल उपवास रखी हैं। सभी की हालत नाज़ुक है।”

                     इस घोर हड़बड़ी व दौड़- धूप के बीच जिस चीज़ ने हम लोगों को सब से ज़्यादा बेचैन किया, वह थी अहाते वालों की हमारे प्रति बदली नज़र। 

                    कोई भी हमारी किसी बात का जवाब न देता। बल्कि हमें देख कर लोग मुंह फेरने लगते। नंदू के परिवारजन समेत।

                    नंदू के लापता होने के लिए वे सभी चौधरी छत्रपाल के गुस्से से ज़्यादा मेरे पिता की शिकायत को ज़िम्मेदार ठहरा रहे थे।

                    उस महीने के पूरे होते ही मेरे पिता ने वह मकान छोड़ दिया। अगली पहली तारीख शुरू होते ही दूर के एक इलाके में एक दूसरा मकान किराए पर ले लिया।

                   कस्बापुर से अपनी बदली वापस लखनऊ करवाने में उन्हें दो साल और लग गए। 

                   जब तक नंदू घर नहीं लौटा था। उस की मां स्वर्ग सिधार चुकीं थीं।

                   चौथे नंबर वाली बहन अपना स्कूल छोड़कर घर देखने- संभालने लगी थी।   और चौधरी छत्रपाल के दूध के कारोबार की घटती और बढ़ गई थी।