1. सभी देवी-देवताओं की वंदना
जय श्री राम
जय श्री गणेशाय नमः
ओम् नमः शिवाय
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
श्री गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित और साक्षात् भगवान शिवजी ने स्वयं जिस महाग्रन्थ पर “सत्यम् शिवम् सुन्दरम्” लिखकर अपने हाथ से हस्ताक्षर किया है। उस “श्रीरामचरितमानस” का स्थान सिर्फ हिंदी साहित्य में ही नहीं, बल्कि जगत के साहित्य में भी निराला है। यह साहित्य काव्य कला की दृष्टि से सर्वोच्च कोटि का तथा आदर्श गृहस्थ जीवन, आदर्श राजधर्म, आदर्श पारिवारिक जीवन, आदर्श पतिव्रतधर्म, आदर्श भ्रातृधर्म के साथ-साथ सर्वोच्च भक्ति, ज्ञान, त्याग, वैराग्य तथा सदाचार की शिक्षा देनेवाला, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध और युवा - सब के लिये समान उपयोगी एवं सर्वोपरि सगुण-साकार भगवान की आदर्श मानवलीला तथा उनके गुण, प्रभाव, रहस्य तथा प्रेम के गहन तत्त्व को अत्यन्त सरल, रोचक एवं ओजस्वी शब्दों में व्यक्त करनेवाला कोई दूसरा ग्रन्थ हिंदी-भाषा में ही नहीं, कदाचित् संसार की किसी भी भाषा में आज तक नहीं लिखा गया। यही कारण है कि गरीब-अमीर, शिक्षित-अशिक्षित, गृहस्थ-संन्यासी, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध- सभी श्रेणी के लोग इस ग्रन्थ को बड़े चाव से पढ़ते हैं,
“श्रीरामचरितमानस” एक दिव्य मनोहर ग्रन्थ है। इसका श्रद्धापूर्वक पाठ करने से लौकिक एवं पारमार्थिक अनेक कार्य सिद्ध होते हैं। इसमें बताए हुए उपदेशों का विधिवत आचरण करने से तथा इसमें वर्णित भगवान की मधुर लीलाओं का चिन्तन एवं कीर्तन करने से मोक्षरूप परम पुरुषार्थ एवं उससे भी बढ़कर भगवत प्रेम की प्राप्ति आसानी से की जा सकती है। और ऐसा क्यों न हो, जिस ग्रन्थ की रचना स्वयं श्री रामजी के परमभक्त गोस्वामी तुलसीदासजी के द्वारा की गई हो, जिन्होंने भगवान श्री सीतारामजी की कृपा से उनकी दिव्य लीलाओं का प्रत्यक्ष अनुभव करके यथार्थ रूप में वर्णन किया है, वर्तमान समय में जब सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है, सारा संसार दुःख एवं अशान्ति की भीषण ज्वाला में जल रहा है, जगत् के कोने-कोने में मार-काट मची हुई है और प्रतिदिन हजारों मनुष्यों का संहार हो रहा है, करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति एक-दूसरे के विनाश के लिये खर्च की जा रही है, विज्ञान की सारी शक्ति पृथ्वी को श्मशान के रूप में परिवर्तित करने में लगी हुई है, संसार के बड़े-से-बड़े मस्तिष्क संहार के नये-नये साधनों को ढूँढ़ निकालने में व्यस्त हैं, ऐसे जगत में सुख-शान्ति एवं प्रेम का प्रसार करने तथा भगवत्कृपा का जीवन में अनुभव करने के लिये “श्रीरामचरितमानस” का पाठ एवं अनुशीलन परम आवश्यक है।
और इसी उद्देश्य से हम आपके लिए लाए हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित संपूर्ण “श्रीरामचरितमानस” सरल हिंदी भाषा में, जैसे उस युग में तुलसीदास जी ने संस्कृत के स्थान पर जनमानस की सरल भाषा अवधी में, श्री रामजी के पावन चरित्र का चित्रण किया था। ताकि हर कोई सहजता से श्री रामजी के आदर्शों को आत्मसात कर सके, उसी भावना के साथ, हमने भी संपूर्ण “श्रीरामचरितमानस” को हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी में, अत्यंत सरल और संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। हमें पूर्ण विश्वास है कि श्री रामजी के चरणों में अर्पित यह छोटी सी सेवा आप सभी रामभक्तों के हृदय में स्थान पाएगी।
तो आइए, इस दिव्य यात्रा का शुभारंभ करते हैं —
श्री गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित, “श्रीरामचरितमानस” के प्रथम सोपान — बालकांड — से।
|| जय श्रीराम ||
“श्रीरामचरितमानस” के बालकाण्ड सोपान का विधिपूर्वक पाठ शुरू करने से पूर्व श्री तुलसीदास जी, श्री वाल्मीकि जी, श्री भोलेनाथ और श्री हनुमान जी का आहवान करना जरूरी है। आईए मेरे साथ आप भी बोलिए।
ॐ तुलसीदासाय नमः
ॐ वाल्मीकाय नमः
ॐ गौरीपतये नमः
ॐ हनुमते नमः
"श्री गणेशाय नमः"
श्रीरामचरितमानस
प्रथम सोपान
बालकाण्ड
“श्रीरामचरितमानस” के प्रथम सोपान को शुरू करने से पूर्व गोस्वामी तुलसीदासजी सभी देवी देवताओं की वंदना करते है।
* अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छंदों की रचयिता मां सरस्वती और श्री गणेशजी की वंदना करता हूँ।
* श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वती जी और शंकर जी की वंदना करता हूँ।
* ज्ञानमय, नित्य, शंकररूपी गुरु की वंदना करता हूँ। जिनके आश्रित होने से टेढ़े चंद्रमा की भी सर्वत्र वंदना होती है।
* श्री सीतारामजी के गुण रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न कविश्वर श्री वाल्मीकिजी और कपिश्वर श्री हनुमानजी की वंदना करता हूँ।
* उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणो को करनेवाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा मां सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ।
* जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जो नील कमल के समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागर में शयन करते हैं, जिनके केवल चरण स्पर्श से भवसागर पार हो जाता हैं, वे भगवान श्री हरि विष्णु की मैं वन्दना करता हूँ।
* जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुन्दर हाथी के मुखवाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम श्री गणेश जी मुझ पर कृपा करें।
* पृथ्वी पर रहने वाले देवता स्वरूप ब्राह्मणों और सर्वगुण संत समाज की में वंदना करता हूँ।
* संतों का चरित्र कपास के चरित्र के समान शुभ है, कपास उज्ज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पापरूपी अन्धकार से रहित होता है, कपास में गुण (तन्तु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भण्डार होता है, इसलिये वह गुणमय है। जैसे कपास का धागा सूई के किये हुए छेद को अपना तन देकर ढक देता है, चरखे से काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढकता है उसी प्रकार संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के दोषों को ढकता है, जिसके कारण उसने जगत में वन्दनीय यश प्राप्त किया है।
* अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ। दोनों संत और असंत जगत में एक साथ पैदा होते हैं; लेकिन फिर भी कमल और जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। “कमल” दर्शन और स्पर्श से सुख देता है, किन्तु “जोंक” शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगता है। साधु अमृत के समान मृत्युरूपी संसार से उबारने वाला और असाधु मदिरा के समान मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करनेवाला है, दोनों को उत्पन्न करने वाला जगरूपी अगाध समुद्र एक ही है। शास्त्रों में समुद्र मन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बतायी गयी है।
* जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरण कमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ।
* देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गन्धर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। आप सब मुझ पर कृपा कीजिये.
* अब मैं आदरपूर्वक श्री शिवजी को सिर नवाकर श्री रामचन्द्रजी के गुणों की निर्मल कथा कहता हूँ। श्री हरि विष्णु के चरणों पर सिर रखकर चैत्र मास की नवमी तिथि मंगलवार को श्री अयोध्याजी में संवत् 1631 में इस कथा का आरम्भ करता हूँ।
* श्री महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था। और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा था। इसी से शिवजी ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुन्दर “श्रीरामचरितमानस” नाम रखा.
* मैं उसी सुख देनेवाली सुहावनी रामकथा को कहता हूँ, हे सज्जनो! आदरपूर्वक मन लगाकर इसे सुनिये।
2. महर्षि याज्ञवल्क्य और मुनि भारद्वाज संवाद व माता सती की कथा
भारद्वाज मुनि प्रयागराज में बसते है। वे महा तपस्वी, दयालु और श्री रामचंद्रजी के परम भक्त है। माघ में जब सूर्यदेव मकर राशि पर जाते है। तब देवता, दैत्य, संत ऋषि मुनि, किन्नर और साधारण मनुष्य सभी लोग प्रयागराज में त्रिवेणी संगम में पवित्र स्नान करते है। भारद्वाज मुनि का आश्रम बड़ा ही पवित्र और श्रेष्ठ मुनियों के ठहरने और सत्संग के लिए उत्तम है। तीर्थराज प्रयाग के त्रिवेणी में स्नान करके सभी ऋषि मुनि और संत समाज भारद्वाज जी के आश्रम में एकत्रित होकर भगवान के गुणों की कथाएं, धर्म का विधान, तथा ज्ञान वैराग्य से युक्त भगवान की भक्ति का कथन करते है। और माघ के पूरे महीने स्नान करके सभी ऋषि मुनि अपने अपने आश्रम लौट जाते हैं। एक बार की बात है। जब सभी संत समाज पवित्र स्नान करके अपने अपने आश्रम को वापस लौट रहे थे। तभी भारद्वाज जी ने परम ज्ञानी महर्षि याज्ञवल्क्य जी को उनके चरण पकड़ कर रोक लिया, बड़े ही आदर के साथ उनके चरण धोकर उन्हें पवित्र आसन पर बिठाकर उनके भोजन सत्कार की व्यवस्था की। फिर बड़े ही कोमल वाणी से भारद्वाज जी महर्षि याज्ञवल्क्य जी से बोले - हे नाथ मेरे मन में एक बड़ा संदेह है। आप तो वेद पुराण के महा ज्ञाता है, भूत भविष्य सब जानने वाले है, और इस संसार में सिर्फ आप ही हैं जो मेरे इस संदेह का निवारण कर सकते है, किंतु इस संदेह को कहते हुए मुझे भय और लाज आती है, भय इसलिए की आप ये न सोचे की में अज्ञानी आपकी परीक्षा ले रहा हूँ और लाज इसलिए आती है कि इतनी उम्र बीत जाने पर भी मुझे इस बात का ज्ञान न हुआ, और यदि आप से नहीं कहता तो बड़ी हानि होगी मेरा संदेह कभी दूर न होगा। कृपया आप अपने ज्ञान से मेरे इस संदेह और अज्ञानता का नाश कीजिए।
संत, पुराण और उपनिषदों ने राम नाम की महिमा का बहुत गुणगान किया है। स्वयं भगवान शिवजी भी निरंतर राम नाम का जप करते रहते हैं, और काशी में मरने वाले जीवों को राम नाम का उपदेश देकर परमपद प्राप्त करवाते हैं। कृपया आप बताईए कि क्या यह वही राम हैं जो दशरथ के पुत्र हैं, जिनका चरित्र जग प्रसिद्ध है? जिन्होंने पत्नी विरह में अपार दुख उठाया और क्रोध में परम शक्तिशाली दैत्यराज लंकापति रावण का वध कर डाला। या कोई और राम? इस पर महर्षि याज्ञवल्क्य जी मुस्कराकर कहते हैं कि हे भारद्वाज मुनि आप स्वयं मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के अनन्य भक्त हैं और उनके गुणों का रहस्य जानने की इच्छा से यह प्रश्न कर रहे हैं,
हे भारद्वाज मुनि तुम मन लगाकर आदर पूर्वक सुनो में तुम्हे श्री रामजी की सुंदर कथा सुनाता हूँ। तुम्हारी ही भांति माता पार्वती को भी इस बात का संदेह था फिर शिवजी ने विस्तार से जगज्जननी भवानी को समझाया था।
त्रेतायुग में एक बार भगवान शिव, माता सती के साथ अगस्त्य ऋषि के आश्रम गए। ऋषि ने उन्हें संपूर्ण जगत का ईश्वर मानकर श्रद्धा से उनकी पूजा की और श्री रामजी की कथा सुनाई, जिसे शिवजी ने आनंदपूर्वक सुना। ऋषि ने शिवजी से भक्ति का रहस्य पूछा, जिसे शिवजी ने विस्तार से बताया। कुछ दिन रामकथा सुनते हुए बिताकर शिवजी माता सती के साथ कैलाश लौट गए।
उसी समय भगवान विष्णु ने पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री रामजी के रूप में रघुवंश में अवतार लिया था। वे उस समय पिता के वचन से राज्य त्याग करके तपस्वी वेष में दंडकवन में विचरण कर रहे थे। शिवजी सोचने लगे कि श्री रामजी के दर्शन कैसे हों क्योंकि उनका अवतार गुप्त था। वे डरते थे कि अगर वे स्वयं शिवजी के रूप में मिलने गए, तो लोग पहचान जाएंगे। लेकिन प्रभु श्री रामजी के दर्शन की लालसा उन्हें विचलित कर रही थी।
रावण ने उस समय कपटी मारीच को मृग बना कर माता सीता को छल से हर लिया। श्री रामजी जब सीता को अपनी कुटिया में न पाकर व्याकुल हो गए, उनके नेत्रो से आंसू बहने लगे। और छोटे भाई लक्ष्मणजी के साथ वन में सीताजी की खोज कर रहे थे तब शिवजी ने मार्ग में ही श्री रामजी के नेत्र भरकर दर्शन किए। उनके हृदय में भारी आनंद उत्पन्न हुआ। किंतु अवसर ठीक न जानकर अपना परिचय न दिया। कृपा निधान शिवजी बार बार आनंद से पुलकित होते हुए पत्नी सती के साथ चले जा रहे थे।
माता सती को यह सब देखकर संदेह हुआ कि जो शिवजी स्वयं परमब्रह्म है, सारा जगत जिसकी वंदना करता है, देवता, मनुष्य, मुनि सब जिनके प्रति सर नवाते है। उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परमधाम समझकर प्रणाम किया और उनकी शोभा देखकर इतने प्रेममग्न हो गए कि अभी तक मन ही मन पुलकित हुए जा रहे है, क्या वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति, असुरों के शत्रु भगवान विष्णु थे? जो शिवजी के भांति सर्वज्ञ है और यदि वे भगवान विष्णु है तो क्या वे एक अज्ञानी की तरह स्त्री को वन में खोजेंगे? किंतु शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। माता सती के मन में इस तरह का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ।
यद्यपि भवानी जी ने मुख से कुछ न कहा लेकिन अंतर्यामी शिवजी उनके मन की सब बात जान गए और सती से कहा कि स्त्रियों जैसा संदेह मन में न लाओ। श्री रामजी ही मेरे इष्टदेव आराध्य हैं। ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरन्तर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतन्त्र ब्रह्मरूप भगवान श्री रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिये रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है।
लेकिन फिर भी जब सती का संदेह नहीं मिटा तो शिवजी ने उन्हें स्वयं जाकर परीक्षा लेने को कहा। सती माता सीता का रूप धारण कर श्री रामजी के पास पहुँचीं। सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले, देवताओं के स्वामी श्री रामचन्द्रजी सती के कपट को जान गये। पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में उनके बिना अकेली किसलिये फिर रही हैं? सती जी को बड़ा आश्चर्य हुआ और संकोच भी, कि वह श्री रामचन्द्रजी को कैसे पहचान न सकी। फिर उसके बाद उनकी आंखों पर माया का प्रभाव पड़ गया और उन्हें सब जगह हजारों देवता दिख रहे थे जो श्री रामचन्द्रजी की वंदना कर रहे थे। इस तरह सती जी का भ्रम दूर हो गया और तुरंत शिवजी के पास दौड़ी चली गई। शिवजी ने हंसकर कुशल प्रश्न किया कि तुमने किस प्रकार से श्री रामजी की परीक्षा ली। सारी बात मुझसे सच सच कहो। सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डरके मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा-हे स्वामी! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, आप की ही तरह सिर्फ उन्हें प्रणाम किया। शिवजी ने ध्यान करके देखा और सती जी ने जो माता सीता का रूप लेकर चालाकी की थी वह सब जान लिया। सती जी ने सीता जी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा दुख हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो मेरा भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है। सती परम पवित्र हैं, इसलिये इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा ही सन्ताप है। और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से अब पति-पत्नी रूप में भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में उन्हें त्यागने का संकल्प कर लिया। फिर एक आकाश वाणी हुई।
आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है? आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा- हे कृपालु! कहिये, आपने कौन-सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा। सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गये। मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती हैं।
शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। लेकिन अपना पाप समझकर वह कुछ कह न पाई। वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिये सुन्दर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ पत्नी सहित कैलास जा पहुँचे। कैलाश पहुंचते ही शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बरगद के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गये। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप सँभाला। और उनकी अखण्ड, अपार समाधि लग गयी सती जी के हृदय में नित्य नया और भारी अपार चिन्ता हो रही थी। मैंने जो श्री रघुनाथजी का अपमान किया और फिर अपने पति के वचनों को झूठ जाना। यही सोचकर सती जी ने हाथ जोड़कर मन में श्री रामजी का स्मरण करके विनती करने लगी कि मेरा शिवजी के चरणों में अनंत प्रेम है और यदि यह प्रेम मन, कर्म, वचन से सत्य है तो हे प्रभु शीघ्र ही वह उपाय कीजिए जिससे मेरा मरण हो। मेरी यह देह जल्दी छूट जाय।
सतासी हजार वर्ष बाद शिवजी ने अपनी आँखें खोली। तब सती जी ने उनके चरणों को प्रणाम किया, शिवजी ने भी सती जी को अपने सामने आसन पर बिठाया और भगवान श्री हरि विष्णु की रहस्यमई कथा सुनाने लगे। उसी समय दौरान धरती लोक पर ब्रह्मा जी ने सती जी के पिता दक्ष को प्रजापतियो का नायक बना दिया। इतना बड़ा अधिकार पाकर दक्ष के हृदय में अत्यंत अभिमान आ गया। दक्ष ने बड़े यज्ञ का आयोजन किया जिसमें तीनों लोक के महान ऋषी मुनि, किन्नर, सिद्ध, नाग, गंधर्व और सभी देवी देवता को अपनी स्त्रियों के साथ आमंत्रित किया। यह देख सती जी ने भी शिवजी से कहा, हे प्रभो! मेरे पिता के घर बहुत बड़ा उत्सव है। यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपाधाम! मैं आदरसहित उसे देखने जाऊँ?
शिवजी ने कहा-तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मन को भी पसंद आयी। पर उन्होंने न्योता नहीं भेजा, यह अनुचित है। दक्ष ने अपनी सब लड़कियों को बुलाया है; किन्तु हमारे वैर के कारण उन्होंने तुमको भी भुला दिया। एक बार ब्रह्मा की सभा में हमसे अप्रसन्न हो गये थे, उसी से वे अब भी हमारा अपमान करते हैं। हे भवानी! जो तुम बिना बुलाये जाओगी तो न शील स्नेह ही रहेगा और न ही मान-मर्यादा रहेगी। यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाये भी जाना चाहिये। तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता। शिवजी ने बहुत प्रकार से समझाया, पर सती जी नहीं मानी। फिर शिवजी ने कहा कि यदि बिना बुलाये जाओगी, तो हमारी समझ में अच्छी बात न होगी। शिवजी ने बहुत प्रकार से कहकर देख लिया, किन्तु जब सती किसी प्रकार भी नहीं रुकीं, तब त्रिपुरारि महादेव जी ने अपने मुख्य गणों को साथ देकर उनको विदा कर दिया।
भवानी जी जब पिता दक्ष के घर पहुंचीं, तब दक्ष के डर के मारे घर में किसी ने उनकी आवभगत नहीं की, केवल एक माता ही ने उनसे हाल पूछा।
पिता दक्ष तो सती को देखकर ही जल उठे। जब सती ने यज्ञस्थल पर जाकर देखा, तो वहाँ दक्ष ने अपने सभी दामाद सहित अन्य देवी-देवताओं को स्थान और आसन प्रदान किया था, किंतु भगवान शिव के लिए कहीं कोई स्थान नहीं था। तब सती को शिवजी द्वारा पूर्व में कही गई बात समझ में आ गई। अपने स्वामी का ऐसा अपमान देखकर उनका हृदय क्रोध से भर उठा। माता ने सती को शांत करने का प्रयास किया, किंतु प्रजापति दक्ष ने भगवान शिव के विषय में अनेक अपमानजनक बातें कहीं। यह अपमान माता सती से सहन नहीं हुआ और वे सभा में उपस्थित सभी लोगों को क्रोधित स्वर में संबोधित करते हुए बोलीं। हे सभासदो और मुनीश्वरो! सुनो। जिन लोगों ने यहाँ शिवजी की निन्दा की है या सुनी है उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भली भाँति पछतायँगे। जहाँ संत, शिवजी और लक्ष्मीपति विष्णु भगवान की निन्दा सुनी जाय वहाँ ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस निन्दा करने वाले की जीभ काट ले और नहीं तो कान मूंदकर वहाँ से तुरन्त भाग जाय। त्रिपुर दैत्य को मारने वाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण जगत के आत्मा हैं, वे जगत पिता और सबका हित करनेवाले हैं। मेरा मन्दबुद्धि पिता उनकी निन्दा करता है। और मेरा दुर्भाग्य है कि यह शरीर भी उसी के रक्त से बना है।
इसलिये चन्द्रमा को ललाट पर धारण करने वाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरंत ही त्याग दूँगी। ऐसा कहकर सती ने यज्ञ की आग में अपना शरीर भस्म कर डाला। सारी यज्ञ शाला में हाहाकार मच गया।
सती की मृत्यु देखकर शिवजी के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे। ये सब समाचार सुनते ही शिवजी अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने गुस्से से वीरभद्र को वहां भेजा। वीरभद्र ने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और वहां जिन जिन लोगों ने शिवजी की निंदा की या सुनी सबको वीरभद्र ने मृत्यु के घाट उतार दिया।
3. माता पार्वती का जन्म और उनकी कठोर तपस्या
माता सती ने मरते समय भगवान श्री हरि विष्णु से यह वर मांगा था कि मेरा जन्म-जन्म में सिर्फ शिवजी के चरणों में ही अनुराग रहे। इसी कारण कुछ युग बाद उन्होंने हिमाचल पर्वतराज के घर जाकर पार्वती के रूप में अगला जन्म लिया। पार्वती के जन्म के बाद वहां सभी नगरवासी खुशी से झूमने लगे, पशु पक्षी, पेड़ पौधे सब खुश हो गए, नदियों में पवित्र जल तेजी से उमड़ने लगा। पार्वतीजी के घर आ जाने से पर्वत शोभायमान हो रहा था है। उस पर्वतराज के घर नित्य नए नए मंगल उत्सव होने लगे।
जब नारदजी ने ये सब समाचार सुना तो वे भी उत्साह से हिमाचल के घर पधारे। पर्वतराज ने उनका बड़ा आदर किया और चरण धोकर उनको उत्तम आसन दिया। और पुत्री को बुलाकर नारद जी के चरणों पर रख दिया।
और कहा- हे मुनिवर! आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ हैं, आपकी सर्वत्र पहुँच है। अतः आप हृदय में विचार कर कन्या के दोष - गुण कहिये नारद मुनि ने हँसकर कोमल वाणी से कहा तुम्हारी कन्या सब गुणों की खान है। यह स्वभाव से ही सुन्दर, सुशील और समझदार है। उमा, अम्बिका और भवानी इसके नाम है। कन्या सब गुणों से सम्पन्न है, यह अपने पति को सदा प्यारी होगी। इसका सुहाग सदा अचल रहेगा यह सारे जगत में पूज्य होगी और संसार में स्त्रियाँ इसका नाम स्मरण करके पतिव्रता का यश पाएगी। यह शुभ गुण सुनकर पिता पर्वतराज हिमाचल और माता मैना बहुत खुश हुई।
किंतु इतने शुभ नक्षत्र, राजपरिवार में और इतने गुणों के साथ जन्म लेने वाली इस कन्या का विवाह एक योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, और अमंगल वेष वाले व्यक्ति से होगी। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है। नारद मुनि की वाणी सुनकर और उसको हृदय में सत्य जानकर माता पिता को बड़ा दुःख हुआ। लेकिन पार्वती जी प्रसन्न हुईं। यह देख नारद जी को भी बड़ा आश्चर्य हुआ, सारी सखियाँ, पार्वती, पर्वतराज हिमवान और मैना सभी के शरीर पुलकित थे और सभी के नेत्रों में जल भरा था। देवर्षि नारद मुनि के वचन असत्य नहीं हो सकते, यह सोचकर पार्वती ने उन वचनों को हृदय में धारण कर लिया। हिमवान और मैना चिन्ता करने लगीं। फिर हृदय में धीरज धरकर पर्वतराज ने कहा- हे नाथ! कहिये, अब क्या उपाय किया जाय?
नारद मुनी ने कहा- हे हिमवान! सुनो, विधाता ने ललाट पर जो कुछ लिख दिया है, उसको देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी नहीं मिटा सकता। तो भी में एक उपाय मैं बताता हूँ। यदि दैव सहायता करें तो वह सिद्ध हो सकता है। उमा को वर तो निःसन्देह वैसा ही मिलेगा जैसा मैंने तुम्हारे सामने वर्णन किया है परन्तु मैंने वर के जो-जो दोष बतलाये हैं, मेरे अनुमान से वे सभी दोष शिवजी में हैं। यदि शिवजी के साथ विवाह हो जाय तो दोषों को भी समस्त संसार गुणों के समान ही कहेंगे। जैसे विष्णु भगवान शेषनाग की शय्या पर सोते हैं, तो भी पण्डित लोग उनको कोई दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते हैं, परन्तु उनको कोई बुरा नहीं कहता। गंगा जी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उसे अपवित्र नहीं कहता। शिवजी सहज ही समर्थ हैं, क्योंकि वे भगवान हैं। इसलिये इस विवाह में सब प्रकार से कल्याण है। परन्तु महादेव जी को प्राप्त करना इतना आसान नहीं है और उनकी आराधना भी बड़ी कठिन है, फिर भी तप करने से वे बहुत जल्द सन्तुष्ट हो जाते है। यदि तुम्हारी कन्या तप करे, तो त्रिपुरारि महादेव जी अनहोनी को मिटा सकते हैं। यद्यपि संसार में वर अनेक हैं, पर पार्वती के लिये शिवजी को छोड़कर दूसरा कोई वर योग्य नहीं है। शिवजी वर देनेवाले, शरणागतों के दुःखों का नाश करने वाले, कृपा के समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करने वाले हैं। शिवजी की आराधना किये बिना करोड़ों योग और जप करने पर भी मनवांछित फल नहीं मिलता। ऐसा कहकर भगवान का स्मरण करके नारद जी ने पार्वती को आशीर्वाद दिया। और कहा कि- हे पर्वतराज! तुम सन्देह का त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही होगा। यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गये।
अब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनो। पति को एकान्त में पाकर मैना ने कहा- हे नाथ! मैंने मुनि के वचनों का अर्थ नहीं समझा जो हमारी कन्या के अनुकूल घर, वर और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिये। नहीं तो लड़की चाहे कुमारी ही रहे किन्तु मैं अयोग्य वर के साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती क्योंकि हे स्वामी पार्वती मुझको प्राणों के समान प्यारी है। यदि पार्वती को योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेंगे कि पर्वत स्वभाव से ही जड़ मूर्ख होते हैं। हे स्वामी! इस बात को विचारकर ही विवाह कीजियेगा, जिसमें फिर पीछे हृदय में सन्ताप न हो।
इस प्रकार कहकर मैना अपने पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर पड़ीं। तब हिमवान ने प्रेम से कहा-चाहे चन्द्रमा में अग्नि प्रकट क्यों न हो जाय, किंतु नारदजी के वचन झूठे नहीं हो सकते। हे प्रिये! सब सोच छोड़कर भगवान का स्मरण करो। जिन्होंने पार्वती को रचा है, वे ही कल्याण करेंगे। अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे जिससे उसे शिवजी मिल जायें। दूसरे उपाय से यह क्लेश नहीं मिटेगा। नारदजी के वचन रहस्य से युक्त हैं। और शिवजी समस्त सुन्दर गुणों के भण्डार हैं। यह विचारकर तुम सन्देह को छोड़ दो। शिवजी सभी तरह से निष्कलंक हैं। पति के वचन सुन मन में प्रसन्न होकर मैना उठकर तुरंत पार्वती के पास गयीं। पार्वती को देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आये। उसे स्नेह के साथ गोद में बैठा लिया। फिर बार-बार उसे हृदय से लगाने लगीं। प्रेम से मैना का गला भर आया, कुछ कहा नहीं जाता। जगज्जननी मा भवानीजी तो सर्वज्ञ ठहरीं। माता के मन की दशा को जानकर वे माता को सुख देने वाली कोमल वाणी से बोलीं मा! तुम चिंता न करो नारद मुनिजी ने जैसा कहा है। में उसी पूरी निष्ठा और श्रद्धा के साथ तप करूंगी और शिवजी को प्रसन्न करके उन्हें अपना स्वामी बनने के लिए वर मांगूंगी।
प्राणपति शिवजी के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वती जी वन में जाकर तप करने लगीं।
पार्वतीजी का अत्यन्त सुकुमार शरीर तप के योग्य नहीं था, तो भी पति के चरणों का स्मरण करके उन्होंने सब भोगों को छोड़ दिया। स्वामी के चरणों को याद कर पार्वतीजी के मन में नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा और तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की सारी सुध बिसर गयी। कई हजार वर्षों तक तप करने के बाद पार्वतीजी का शरीर क्षीण होते देखकर आकाश से गम्भीर ब्रह्मवाणी हुई हे पर्वतराज की कुमारी! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य कठिन तप को त्याग दे। अब तुझे शिवजी ज़रूर मिलेंगे। हे भवानी! धीर, मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, पर ऐसा कठोर तप किसी ने नहीं किया। अब तू इस श्रेष्ठ ब्रह्मा की वाणी को सदा सत्य और निरन्तर पवित्र जानकर अपने हृदय में धारण कर। जब तेरे पिता बुलाने को आवें, तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें तब इस वाणी को सही समझना। आकाश से कही हुई ब्रह्मा की वाणी को सुनते ही पार्वती जी प्रसन्न हो गयीं और हर्ष के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया।
याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजी से बोले कि मैंने पार्वती का सुन्दर चरित्र सुनाया, अब शिवजी का सुहावना चरित्र भी सुनो। जब से सतीने जाकर शरीर त्याग किया, तब से शिवजी के मन में वैराग्य हो गया। वे सदा श्री रघुनाथजी का नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ श्री रामचन्द्रजी के गुणों की कथाएँ सुनने लगे चिदानन्द सुख के धाम, मोह, मद और काम से रहित शिवजी सम्पूर्ण लोकों को आनन्द देनेवाले भगवान श्री हरि को हृदय में धारण कर पृथ्वी पर विचरने लगे वे कहीं मुनियों को ज्ञान का उपदेश देते, तो कहीं श्री रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन करते। यद्यपि सुजान शिवजी निष्काम हैं, तो भी वे भगवान अपनी पत्नी सती के वियोग के दुःख से दुःखी हैं। इस प्रकार बहुत समय बीत गया। एक दिन श्री हरि ने बहुत तरह से शिवजी की सराहना की और कहा कि आपके अतिरिक्त ऐसा कठिन व्रत कोई नहीं निभा सकता है। श्री हरि ने बहुत प्रकार से शिवजी को समझाया और पार्वतीजी का जन्म सुनाया। कृपानिधान श्री हरि ने विस्तार पूर्वक पार्वती जी की अत्यन्त कठोर तप का वर्णन किया। फिर उन्होंने शिवजी से कहा- हे शिवजी! यदि मुझ पर आपका थोड़ा भी स्नेह है तो अब आप मेरी विनती सुनिये। और जाकर पार्वती के साथ विवाह कर लिजिए। शिवजी ने कहा - यद्यपि यह उचित नहीं है मेरे मन में आज भी सती का ही रूप बसा है। किंतु हे नाथ में आपकी बात को टाल नहीं सकता, क्योंकि माता-पिता, गुरु और अपने स्वामी की बातों को बिना विचारे ही शुभ समझना चाहिए। फिर आप तो मेरे परम हितकारी है। हे नाथ आपकी आज्ञा मेरे सिर पर हैं। उसी समय शिवजी के दर्शन हेतु सप्तर्षि आए। तब शिवजी ने उन सप्तर्षि को पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लेने के लिए कहा और हिमाचल से कहकर पार्वती को वापस घर ले जाने को कहा।
सप्तर्षि ने वहाँ जाकर पार्वती को मूर्तिमान तपस्या में लीन देखा, फिर पार्वती को तपस्या से उठाकर बोले, सुनो तुम किस कारण वश इतना कठोर तप कर रही हो? तुम किसकी आराधना कर रही हो और क्या चाहती हो? पार्वती जी बोली “बात कहते मन बहुत सकुचाता है। आप लोग मेरी मूर्खता सुनकर हँसेंगे” नारदजी ने जो कह दिया उसे सत्य जानकर मैं बिना पंख के ही उड़ना चाहती हूँ। में शिवजी को अपना स्वामी बनाने के लिए यह कठोर तप कर रही हूँ। पार्वती जी की बात सुनते ही सप्तर्षि लोग हँस पड़े और बोले- तुम्हारा शरीर पर्वत से ही तो उत्पन्न हुआ है! भला, कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है। जो स्त्री-पुरुष नारद की सीख सुनते हैं, वे घर-बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी बन जाते हैं। उनका मन तो कपटी है, उनके वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नंगा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है। ऐसे वर के मिलने से कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग नारद के बहकावे में आकर खूब भूलीं। पहले पंचों के कहने से शिव ने सती से विवाह किया था, परन्तु फिर उसे त्याग कर मरवा डाला। अब शिव को कोई चिन्ता नहीं रही, भीख माँगकर खा लेते हैं और सुख से सोते हैं। ऐसे स्वभाव से ही अकेले रहने वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं? हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिये अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुन्दर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसकी यश और लीला वेद गाते है। वह दोषों से रहित, सारे सगुणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और वैकुण्ठ पुरी का रहनेवाला है। हम ऐसे वर को लाकर तुमसे मिला देंगे। यह सुनते ही पार्वती जी हँसकर बोलीं “आपने यह सत्य ही कहा कि मेरा यह शरीर पर्वत से उत्पन्न हुआ है। इसलिये हठ नहीं छूटेगा, शरीर भले ही छूट जाय। सोना भी पत्थर से ही उत्पन्न होता है, सो वह जलाये जाने पर भी अपना रंग नहीं छोड़ता”
अतः मैं नारद जी के वचनों को नहीं छोडूंगी चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती। जिसको अपने गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्र में भी सुगम नहीं होती।
माना कि महादेव जी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्गुणों के धाम हैं; पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से काम है। मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी से विवाह करूंगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें, तो भी नारद जी के उपदेश को न छोडूंगी।
शिवजी के प्रति पार्वती जी का ऐसा प्रेम देखकर ज्ञानी मुनि बोले- हे जगज्जननी! हे भवानी! आपकी जय हो! जय हो !
आप माया हैं और शिवजी भगवान हैं। आप दोनों समस्त जगत के माता-पिता हैं। हम तो सिर्फ आपके प्रेम की परीक्षा लेने आए थे। यह कहकर मुनि पार्वती जी के चरणों में सिर नवाकर चल दिये।
मुनियों ने जाकर हिमवान को पार्वती जी के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए।
4. शिव-पार्वती विवाह
फिर सप्तर्षियों ने शिवजी के पास जाकर उनको पार्वती जी की सारा वृत्तांत सुनाया। पार्वती जी का प्रेम सुनते ही शिवजी आनन्दमग्न हो गये। सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर ब्रह्मलोक को चले गये। तब सुजान शिवजी मन को स्थिर करके श्री रघुनाथजी का ध्यान करने लगे। उसी समय दौरान तारक नाम का असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था। उसने सब लोक और लोकपालों को जीत लिया था, सब देवता सुख और सम्पत्ति से रहित हो गये थे। वह अजर-अमर था, इसलिये किसी से जीता नहीं जाता था। देवता उसके साथ बहुत तरह की लड़ाइयाँ लड़कर हार गये थे। तब उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर गुहार लगाई। ब्रह्माजी ने सब देवताओं को दुःखी देखा।
ब्रह्माजी ने सबको समझाकर कहा- इस दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिवजी के पुत्र का जन्म होगा, इसको युद्ध में वही जीत सकता है। सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचल के घर जाकर पार्वती के रूप में जन्म लिया है। उन्होंने शिवजी को पति बनाने के लिये तप किया है, इधर शिवजी सब छोड़-छाड़कर समाधि लगा बैठे हैं।
तुम जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो, वह शिव जी की समाधि भंग करे और उनके मन में काम वासना को जगाए। तब हम जाकर शिवजी के चरणों में सिर रख देंगे और उन्हें राजी करके विवाह करा देंगे ।
फिर देवताओं ने बड़े प्रेम से स्तुति की, तब पाँच बाण धारण करने वाला और मछली के चिह्न युक्त ध्वजा वाला कामदेव प्रकट हुआ। सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर अपने सहायकों के साथ चला। चलते समय कामदेव ने हृदय में ऐसा विचार किया कि शिवजी के साथ विरोध करने से मेरा मरण निश्चित है।
फिर उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय उस मछली के चिह्न की ध्वजा वाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षणभर में ही वेदों की सारी मर्यादा मिट गयी।
ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गयी।
जगत में स्त्री-पुरुष, जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश हो गये।
सबके हृदय में कामवासना की इच्छा हो गयी। लताओं, बेलों को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़ उमड़कर समुद्र की ओर दौड़ी।
सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान योगी भी काम के वश होकर स्त्री के विरही हो गये।
जब योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो गये, तब सदाहरण मनुष्यों की तो क्या बात। स्त्रियाँ सारे संसार को पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ीतक सारे ब्रह्माण्ड के अंदर कामदेव का रचा हुआ यह तमाशा चलता रहा। जब कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। तब शिवजी के रूप को देखकर कामदेव डर गया, तब सारा संसार फिर जैसा-का-तैसा स्थिर हो गया।
तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गये जैसे मतवाले नशा पिये हुए लोग नशा उतर जाने पर सुखी होते हैं। जिनको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन है और जिनका पार पाना कठिन है सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्यरूप छः ईश्वरीय गुणों से युक्त रुद्र शिवजी को देखकर कामदेव भयभीत हो गया। किंतु खाली हाथ लौट जाने में लज्जा महसूस हो रही थी और शिवजी के भयानक रूप के आगे कुछ करते नहीं बनता। आखिर मन में निश्चय करके उसने उपाय किया। और तुरंत ही सुन्दर ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया।
वन-उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुन्दर हो गये। जहाँ-तहाँ मानो प्रेम उमड़ रहा है, जिसे देखकर मरे हुए मन में भी कामदेव जाग उठा। वन की सुन्दरता कही नहीं जा सकती। सरोवरों में अनेकों कमल खिल गये, जिनपर सुन्दर भौंरों के समूह गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर नाचने लगीं।
कामदेव अपनी सेना समेत करोड़ों प्रकार की सब कलाएँ करके हार गया, पर शिवजी की अचल समाधि न टूटी। तब कामदेव क्रोधित हो उठा। आम के वृक्ष की एक सुन्दर डाली देखकर मन में क्रोध से भरा हुआ कामदेव उसपर चढ़ गया। उसने पुष्प-धनुष पर अपने पाँचों बाण चढ़ाये और अत्यन्त क्रोध से लक्ष्य की ओर ताककर उन्हें अपने कान तक तान लिया कामदेव ने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े, जो शिवजी के हृदय में लगे। तब उनकी समाधि टूट गयी और वे जाग गये। शिवजी के मन में बहुत क्रोध भर आया। उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा। जब आम के पत्तों में छिपे हुए कामदेव को देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ, जिससे तीनों लोक काँप उठे। तब शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला, उनके देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया।
जगत में बड़ा हाहाकार मच गया। देवता डर गये, दैत्य सुखी हुए। कामदेव की पत्नी रति अपने पति की यह दशा सुनते ही मूर्छित हो गयी। रोती-चिल्लाती और भाँति-भाँति से करुणा करती हुई वह शिवजी के पास गयी। अत्यन्त प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गयी। शीघ्र प्रसन्न होनेवाले कृपालु शिवजी असहाय स्त्री को देखकर सुन्दर सान्त्वना देनेवाले वचन बोले।
हे रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना ही शरीर के सबको व्यापेगा। और जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिये यदुवंश में श्रीकृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र प्रद्युम्न के रूप में उत्पन्न होगा।
शिवजी के वचन सुनकर रति खुश होकर चली गयी। ब्रह्मा सहित देवताओं ने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठ को चले।
फिर वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गये जहाँ कृपा के धाम शिवजी विराजमान थे। उन सब ने शिवजी की अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गये।
कृपाके समुद्र शिवजी बोले- हे देवताओ! कहिये, आप किसलिये आये हैं? ब्रह्माजी ने कहा-हे प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं, तथापि हे स्वामी! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ। हे शंकर! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं। हे कामदेव के मद को चूर करने वाले! आप ऐसा कुछ कीजिये जिससे सब लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें। हे कृपा के सागर! कामदेव को भस्म करके आपने रति को जो वरदान दिया सो बहुत ही अच्छा किया।
हिमाचल पुत्री पार्वती ने आपको पति रूप में प्राप्त करने के लिए अपार कठोर तप किया है, अब उन्हें स्वीकार कीजिये।
ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्री हरि के वचनों को याद करके शिवजी ने प्रसन्नता पूर्वक कहा- 'ऐसा ही हो।' तब देवताओं ने नगाड़े बजाये और फूलों की वर्षा करके 'जय हो! जय हो!' ऐसा कहने लगे।
उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आये और ब्रह्माजी ने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया। वे पहले वहाँ गये जहाँ पार्वती जी थीं और उनसे मीठे वचन बोले।
नारदजी के उपदेश के कारण तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेवजी ने काम को ही भस्म कर डाला।
यह सुनकर पार्वती जी मुस्कराकर बोलीं- हे विज्ञानी मुनिवरो! आपने उचित ही कहा। आपकी समझ में शिवजी ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे विकारयुक्त कामी ही रहे!
किन्तु हमारी समझ से तो शिवजी सदा से ही योगी, अजन्मा, कामरहित और भोगहीन हैं और मैंने शिवजी को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेम सहित उनकी सेवा की है।
तो हे मुनीश्वरो! सुनिये, वे कृपानिधान भगवान मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करेंगे। आपने जो यह कहा कि शिवजी ने कामदेव को भस्म कर दिया, यही आपका बड़ा भारी अविवेक है
हे तात! अग्नि का तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके समीप कभी जा ही नहीं सकता और जाने पर वह अवश्य नष्ट हो जायगा। महादेवजी और कामदेव के सम्बन्ध में भी यही न्याय समझना चाहिए।
पार्वती के वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा विश्वास देखकर मुनि हृदय में बड़े प्रसन्न हुए। वे भवानी को सिर नवाकर चल दिये और हिमाचल के पास पहुँचे।
उन्होंने पर्वतराज हिमाचल को सब हाल सुनाया। कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुखी हुए। फिर मुनियों ने रति को मिले वरदान की बात कही, उसे सुनकर हिमवान बहुत खुश हुए।
शिवजी के प्रभाव को मन में विचार कर हिमाचल ने श्रेष्ठ मुनियों को आदरपूर्वक बुला लिया और उनसे शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी निकलवा कर वेद की विधि के अनुसार शीघ्र ही लग्न निश्चय कराकर लिखवा लिया।
फिर हिमाचल ने वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियों को दे दी और चरण पकड़कर उनकी विनती की। उन्होंने जाकर वह लग्नपत्रिका ब्रह्माजी को दी। उसको पढ़ते समय उनके हृदय में प्रेम समाता न था।
ब्रह्माजी ने लग्न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुनि और देवताओं का सारा समाज हर्षित हो गया। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी, बाजे बजने लगे और दसों दिशाओं में मङ्गल-कलश सजा दिये गये।
सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मङ्गल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं।
शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुण्डल और कमण्डल पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया। शिवजी के सुन्दर मस्तक पर चन्द्रमा, सिरपर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु लग रहे थे।
एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में डमरू सुशोभित है। शिवजी अपने नंदी बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवांगनाए मुस्करा रही हैं और कहती हैं कि इस वर के योग्य दुल्हन संसार में नहीं मिलेगी।
विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों सवारियों पर चढ़कर बारात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम परम सुन्दर था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी।
तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर बोले - सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो।
हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराये नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुस्कराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गये।
महादेव जी यह देखकर मन-ही-मन मुसकराते हैं कि विष्णु भगवान के व्यङ्गय-वचन नहीं छूटते। अपने प्यारे विष्णु भगवान के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृङ्गी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया।
शिवजी की आज्ञा सुनते ही सब चले आये और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी खुश हुए।
बारात में कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है। कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किये हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिये हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमातें हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।
भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं। देखने में बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंग से बोलते हैं। जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गयी है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक तमाशे होते जाते हैं।
इधर हिमाचल ने ऐसा सुंदर मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता। जगत में जितने छोटे-बड़े पर्वत थे, जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचल ने सबको आमंत्रण भेजा।
वे सब अपने इच्छानुसार रूप धारण करने वाले सुन्दर शरीर धारण कर सुन्दरी स्त्रियों और समाजों के साथ हिमाचल के घर गये। सभी स्नेह सहित मंगल गीत गाते हैं।
हिमाचल ने पहले ही से बहुत-से घर सजवा रखे थे। यथायोग्य उन-उन स्थानों में सब लोग उतर गये। नगर की सुन्दर शोभा देखकर ब्रह्मा की रचना-चातुरी भी तुच्छ लगती थी।
नगर की शोभा देखकर ब्रह्मा की निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है। वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुन्दर हैं उनका वर्णन कौन कर सकता है? घर-घर बहुत-से मङ्गलसूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं। वहाँ के सुन्दर और चतुर स्त्री-पुरुषों की छबि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो जाते हैं।
जिस नगर में स्वयं जगदम्बाने अवतार लिया, क्या उसका वर्णन हो सकता है? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित नये बढ़ते जाते हैं।
बारात को नगर के निकट आते देख नगर में चहल-पहल मच गयी, जिससे उसकी शोभा बढ़ गयी। अगवानी करने वाले लोग श्रृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले।
देवताओं के समाज को देखकर नगरवासी और अतिथि लोग मन में अति प्रसन्न हुए और विष्णुभगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी और खुश हुए। किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि डरकर भाग चले।
कुछ बड़ी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। बच्चे तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं।
“क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैलपर सवार है। दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं। बच्चों ने घर-घर यही बात कही।
शिवजी का समाज समझकर सब बच्चों के माता-पिता मुस्कराते हैं। उन्होंने बहुत तरह से बच्चों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं है। कन्यापक्ष के लोग बारात को लिवा लाये, उन्होंने सबको सुन्दर कमरों में ठहरने को दिये। मैना ने शुभ आरती सजायी और उनके साथ की स्त्रियाँ उत्तम मङ्गलगीत गाने लगीं।
सुन्दर हाथों में सोने का थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं। किंतु जब महादेवजी को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया। वे सब डरके मारे भागकर अपने घर में घुस गयीं और शिवजी जहाँ बारात ठहरी थी, वहाँ चले गये। मैना के हृदय में बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने पार्वती जी को अपने पास बुला लिया। और अत्यन्त स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नील कमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा-जिस विधाता ने तुमको ऐसा सुन्दर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को ऐसा बावला कैसे बनाया? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिये, वह जबर्दस्ती बबूल में लग रहा है। मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से कूद जाऊंगी, आग में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद पडूंगी। चाहे घर उजड़ जाय और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाय, पर अपने जीते-जी मैं इस बावले वर से तुम्हारा विवाह नहीं करूँगी।
मैना को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ सखियां भी व्याकुल हो गयीं। मैना अपनी कन्या के स्नेह को याद करके विलाप करती, रोती और कहती थीं कि
मैंने नारदजी का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती-को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिये कठोर तप किया।
सचमुच उनको न किसी का मोह है, न माया, न उनके पास धन है, न घर है और न स्त्री ही है; वे सबसे उदासीन हैं। इसी से वे दूसरे का घर उजाड़ते रहते हैं। उन्हें न किसी की लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीड़ा को क्या जाने।
माता को रोते देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी से बोलीं- हे माता! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं ऐसा विचार कर तुम चिंता मत करो। यदि मेरे भाग्य में बावला पति ही लिखा है तो भला किसी ओर को क्यों दोष दूं?
हे माता! रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है। मेरे भाग्य में जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी! पार्वतीजी के ऐसे विनय भरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ दुखी हुई और भाँति-भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने लगीं।
इस समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारदजी और सप्तर्षियों को साथ लेकर अपने घर गये। तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया और कहा कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात् जगज्जननी भवानी है। ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति हैं। सदा शिवजी की अर्धांगिनी के रूप में साथ रहती हैं। ये जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली हैं और अपनी इच्छा से ही नया शरीर धारण करती हैं।
पहले ये दक्ष के घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका नाम सती था, बहुत सुन्दर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शंकर जी से ही ब्याही गयी थीं। एक बार इन्होंने शिवजी के साथ आते हुए राह में रघुकुलरूपी कमल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी को देखा, तब इन्हें मोह हो गया और इन्होंने शिवजी का कहना न मानकर भ्रमवश सीताजी का वेष धारण कर लिया। सतीजी ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शंकरजी ने उनको त्याग दिया। फिर शिवजी के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भस्म हो गयीं। अब इन्होंने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति के लिये कठिन तप किया है ऐसा जानकर सन्देह छोड़ दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजी की प्रिया हैं।
तब नारद के वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभर में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया। तब मैना और हिमवान आनन्द में मग्न हो गये और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वन्दना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए।
नगर में चारों और मङ्गलगीत गाये जाने लगे और सब ने भाँति-भाँति के सुवर्ण के कलश सजाये। हिमाचल ने आदरपूर्वक सब बरातियों को विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति के देवताओं को बुलवाया। भोजन करने वालों की बहुत-सी कतारे लगी। चतुर रसोइये भोजन परोसने लगे। सब सुन्दरी स्त्रियाँ मीठे स्वर में गीत गाने लगीं और व्यंग्य भरे वचन सुना कर सबका मनोरंजन करने लगीं। देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिये भोजन करने में बड़ी देर लगा रहे हैं। भोजन के समय जो आनन्द बढ़ा, वह करोड़ों मुँह से भी नहीं कहा जा सकता। भोजन के बाद सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिये गये। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गये।
फिर मुनियों ने लौटकर हिमवान को लग्नपत्रिका सुनायी और विवाह का समय निकट देखकर देवताओं को बुलावा भेजा। सब देवताओं को आदर सहित बुला लिया और सबको यथा योग्य आसन दिये। वेद की रीति से मंडप सजाया गया और स्त्रियाँ सुन्दर श्रेष्ठ मङ्गलगीत गाने लगीं।
विवाह मंडप में एक अत्यन्त सुन्दर दिव्य सिंहासन था, जिस की सुन्दरता का वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह स्वयं ब्रह्माजी का बनाया हुआ था। ब्राह्मणों को सिर नवाकर और हृदय में अपने स्वामी श्री रघुनाथजी हरि का स्मरण करके शिवजी उस सिंहासन पर बैठ गये।
फिर मुनीश्वरों ने पार्वतीजी को बुलाया। सखियाँ शृंगार करके उन्हें ले आयीं। पार्वतीजी के रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गये। संसार में ऐसा कवि कौन है जो उस सुन्दरता का वर्णन कर सके?
पार्वतीजी को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन-ही-मन प्रणाम किया। जगज्जननी पार्वती जी की महान शोभा का वर्णन करोड़ों मुखों से भी करते नहीं बनता। सुन्दरता और शोभा की खान माता भवानी मण्डप के बीच में, जहाँ शिवजी थे, वहाँ गयीं। वे संकोच के मारे पति शिवजी के चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मनरूपी भौंरा तो वहीं था।
वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गयी है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवायी। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी शिवपत्नी जानकर शिवजी को समर्पण किया।
जब महेश्वर शिवजी ने पार्वती का पाणिग्रहण अर्थात उनकी हथेली अपने हाथों पर रखा, तब इन्द्रादि सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमन्त्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी का जय-जयकार करने लगे। अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्रह्माण्ड में आनन्द भर गया।
बहुत प्रकार का दान दक्षिणा देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा- हे शंकर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? इतना कहकर वे शिवजी के चरणकमल पकड़कर रह गये। तब कृपा के सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैना जी ने शिवजी के चरणकमल पकड़े और कहा - हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान प्यारी है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइयेगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहियेगा। आप प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिये।
शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिवजी के चरणों में सिर नवाकर घर गयीं। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बैठाकर यह सुन्दर सीख दी - हे पार्वती! तू सदा शिवजी के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिये पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आये और उन्होंने कन्या को छाती से चिपका लिया।
फिर बोलीं कि विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। मैना बार-बार पार्वती को गले से लगाती है। और पार्वती के चरणों को पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं।
सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिये। पार्वती जी फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गयीं। महादेवजी सब याचकों को सन्तुष्ट कर पार्वती के साथ अपने घर कैलास को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुन्दर नगाड़े बजने लगे।
पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आये और उन्होंने अपने सभी अतिथि पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मान पूर्वक सबकी विदाई की। जब शिवजी कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता भी अपने-अपने लोकों को चले गये।
शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नये विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया। तब छः मुखवाले पुत्र स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ, जिन्होंने बड़े होने पर युद्ध में राक्षस तारकासुर का वध किया। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामि कार्तिकेय के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है।
5. भगवान श्रीरामजी के अवतार का उद्देश्य (शिवजी द्वारा वर्णित)
शिवजी के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भरद्वाजजी ने बहुत ही सुख पाया। कथा सुनने की उनकी लालसा बहुत बढ़ गयी। नेत्रों में जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गयी। वे प्रेम में मुग्ध हो गये, मुख से वाणी नहीं निकलती। उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए और बोले- हे मुनीश! तुम्हारा जन्म धन्य है; तुम्हें गौरीपति शिवजी प्राणों के समान प्रिय है।
शिवजी के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे श्री रामचन्द्रजी को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ श्री शिवजी के चरणों में निष्कपट विशुद्ध प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है।
शिवजी के समान रघुनाथजी की भक्ति का व्रत धारण करने वाला कौन है? जिन्होंने बिना ही पाप के सती-जैसी स्त्री को त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके श्री रघुनाथजी की भक्ति को दिखा दिया। हे भाई! श्री रामचन्द्रजी को शिवजी के समान कोई प्यारा नहीं है?
मैंने पहले ही शिवजी का चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया। तुम श्री रामचन्द्रजी के पवित्र सेवक हो और समस्त दोषों से रहित हो। मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं श्री रघुनाथजी की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि! सुनो, आज तुम्हारे मिलने से मेरे मन में जो आनन्द हुआ है, वह कहा नहीं जा सकता।
हे मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यन्त अपार है। सौ करोड़ शेषजी भी उसे नहीं कह सकते। तथापि जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणी के स्वामी और हाथ में धनुष लिये हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके कहता हूँ। सरस्वती जी कठपुतली के समान हैं और अन्तर्यामी स्वामी श्री रामचन्द्रजी सूत पकड़कर कठपुतली को नचाने वाले सूत्रधार हैं। उन्हीं कृपालु श्री रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता हूँ। कैलास, पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वती जी सदा निवास करते हैं। सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह भी उस पर्वत पर रहते हैं। वे सब बड़े पुण्यात्मा हैं और आनन्द कन्द श्री महादेवजी की सेवा करते हैं। उस पर्वत पर एक विशाल बरगद का पेड़ है, जो नित्य नवीन और सब काल (छहों ऋतुओं) में सुन्दर रहता है। वहाँ तीनों प्रकार की शीतल, मन्द और सुगन्ध वायु बहती रहती है और उसकी छाया बड़ी ठंडी रहती है। वह शिवजी के विश्राम करने का वृक्ष है,
एक बार अपने हाथ से बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी वहाँ बैठ गए। कुन्द के पुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियों जैसा वस्त्र धारण किये हुए थे।
उनके सिरपर जटाओं का मुकुट और गंगा जी शोभायमान थीं। कमल के समान बड़े-बड़े नेत्र थे। उनका कण्ठ नीला और वे सुन्दरता के भण्डार लग रहे थे। उनके मस्तक पर द्वितीया का चन्द्रमा शोभित था। अच्छा मौका जानकर शिवपत्नी माता पार्वती जी उनके पास गयीं। और उनकी बायीं ओर प्रसन्न होकर शिवजी के पास बैठ गयीं। उन्हें पिछले जन्म की कथा स्मरण हो आयी। और बोली - हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याण स्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भण्डार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिये कल्पवृक्ष है। है प्रभो! आप श्री रघुनाथजी की नाना प्रकार की कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिये।
हे प्रभो! जो परमार्थतत्त्व ब्रह्म के ज्ञाता और वक्ता मुनि हैं, वे श्री रामचन्द्रजी को अनादि ब्रह्म कहते हैं; और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सभी श्री रघुनाथजी का गुण गाते हैं।
आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं। ये राम वही अयोध्या के राजा के पुत्र हैं? या अजन्मा, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं?
यदि वे राजपुत्र हैं तो ब्रह्म कैसे? और यदि ब्रह्म हैं तो स्त्री के विरह में उनकी मति बावली कैसे हो गयी?
फिर शिवजी कोमल वाणी में बोले "वेदों ने श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनन्त हैं। श्री रामचन्द्रजी सच्चिदानन्द स्वरूप सूर्य हैं, जो पुराण पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाश के भण्डार हैं, सब रूपों में प्रकट हैं, जीव, माया और जगत सबके स्वामी हैं, वे ही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश रघुकुलमणि श्री रामचन्द्र जी मेरे स्वामी हैं।
पार्वतीजी बोली हे प्रभो! यह सत्य है कि श्री रामचन्द्रजी ब्रह्म हैं, चिन्मय हैं, अविनाशी हैं, सब के हृदय रूपी नगरी में निवास करने वाले हैं। फिर हे नाथ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया? यह मुझे समझाकर कहिये।
तब कामदेव के शत्रु, स्वाभाविक ही सुजान, कृपानिधान शिवजी मन में बहुत ही हर्षित हुए और बहुत प्रकार से पार्वती की बड़ाई करके फिर बोले- हे पार्वती! निर्मल “श्रीरामचरितमानस” की वह मङ्गलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुण्डि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरुड़ जी ने सुना था।
हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रों ने श्री हरि विष्णु के सुन्दर, विस्तृत और निर्मल चरित्रों का गान किया है। जब-जब धरती पर धर्म का नाश होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते है। और ब्राह्मण, गौ, देवता और पृथ्वी के साथ अन्याय करते हैं। तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के दिव्य शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं।
वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं, अपने वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं और जगत में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। श्री रामचन्द्रजी के जन्म लेने के अनेक कारण हैं, जो एक से बढ़कर एक विचित्र हैं।
हे भवानी! मैं उनके दो जन्मों का वर्णन करता हूँ, श्री हरि विष्णु के जय और विजय दो प्यारे द्वारपाल थे, उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण सनकादि के शाप से असुरों का तामसी शरीर पाया था। एक का नाम था हिरण्यकशिपु और दूसरे का हिरण्याक्ष।
वे दोनों युद्ध में विजय पाने वाले विख्यात वीर थे। इनमें से एक हिरण्याक्ष को भगवान ने वराह का शरीर धारण करके मारा फिर दूसरे हिरण्यकशिपु का नरसिंह रूप धारण करके वध किया और अपने भक्त प्रहलाद का सुन्दर यश फैलाया।
वे ही दोनो अगले कल्प में जाकर सभी देवताओं को जीतने वाले बड़े योद्धा, रावण और कुम्भकर्ण नामक बड़े बलवान और महावीर राक्षस हुए, जिन्हें सारा जगत जानता है। भगवान विष्णु के द्वारा मारे जाने पर भी वे हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु इसलिये मुक्त नहीं हुए कि ब्राह्मण के वचन शाप का प्रमाण तीन जन्मों के लिये था। अतः एक बार उनके कल्याण के लिये भक्त प्रेमी भगवान ने फिर अवतार लिया। दूसरे अवतार में कश्यप और अदिति उनके माता-पिता हुए, जो दशरथ और कौसल्या के नाम से प्रसिद्ध थे। एक कथा यह भी है जब उस कल्प में सब देवताओं को जलन्धर दैत्य से युद्ध में हार जाने के कारण दुःखी देखकर मैने (शिवजी) उसके साथ बड़ा घोर युद्ध किया पर वह महाबली दैत्य मारे नहीं मरता था.
उस दैत्यराज की स्त्री परम सती पतिव्रता थी। उसी के प्रताप से त्रिपुरासुर जैसे अजेय शत्रु का विनाश करने वाले शिवजी भी उस दैत्य को नहीं जीत सके।
प्रभु श्री हरि विष्णु ने छल से उस स्त्री का व्रत भंग कर देवताओं का काम किया। जब उस स्त्री ने यह भेद जाना, तब उसने क्रोध करके भगवान को शाप दिया। और प्रभु श्री हरि ने उस श्राप को स्वीकार किया। वहीं जलन्धर दैत्य आगे चलकर रावण बना।
श्री हरि विष्णु का श्री रामचंद्रजी के मनुष्य रूप में जन्म लेने का कारण यही भी की उन्हें एक बार मुनि नारदजी ने श्राप दिया था। यह सुन पार्वती आश्चर्य चकित हो गई और बोली नारद जी तो बड़े ज्ञानी और विष्णु भक्त है। उन्होंने भगवान को किस अपराध के लिए श्राप दिया। कृपया मुझे विस्तार से बताइए।
शिवजी ने सुंदर कथा कही - हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुन्दर गंगाजी बहती थीं पर्वत, नदी और वन के सुन्दर विभागों को देखकर नारदजी का लक्ष्मीकान्त भगवान के चरणों में प्रेम हो गया। भगवान का स्मरण करते ही उन नारद मुनि के शाप की जो शाप उन्हें दक्ष प्रजापति ने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थान पर नहीं ठहर सकते थे उनकी गति रुक गयी और मन के स्वाभाविक ही निर्मल होने से उनकी समाधि लग गयी।
नारद मुनि की समाधि देखकर देवराज इन्द्र डर गया। उसने कामदेव को बुलाकर नारदजी की समाधि भंग करने को भेजा। इन्द्र के मन में यह डर हुआ कि देवर्षि नारद मेरी पुरी अमरावती का राज्य चाहते हैं। जगत में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की तरह सबसे डरते हैं।
जैसे मूर्ख कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डी को सिंह छीन न ले, वैसे ही इन्द्र को नारदजी मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते लाज नहीं आयी।
जब कामदेव उस गुफा में गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसन्त ऋतु को उत्पन्न किया। तरह-तरह के वृक्षों पर रंग-बिरंगे फूल खिल गये, उन पर कोयलें कूकने लगीं और भौरे गुंजार करने लगे।
कामाग्नि को भड़काने वाली तीन प्रकार की शीतल, मन्द और सुगन्ध सुहावनी हवा चलने लगी। रम्भा आदि नवयुवती देवांगनाए, जो सब-की-सब कामकला में निपुण थीं, परन्तु कामदेव की कोई भी कला मुनिपर असर न कर सकी। तब तो पापी कामदेव अपने नाश के भय से डर गया। और मुनि के चरणों को जा पकड़ा। नारदजी के मन में कुछ भी क्रोध न आया। उन्होंने प्रिय वचन कहकर कामदेव का समाधान किया। तब मुनि के चरणों में सिर नवाकर और उनकी आज्ञा पाकर कामदेव लौट गया। फिर नारदजी शिवजी के पास गये। और शिवजी से वह सारी बात कह दी। उनके मन में इस बात का अहंकार हो गया कि हमने कामदेव को जीत लिया। महादेवजी ने नारदजी से कहा - हे मुनि! जिस तरह यह बात तुमने मुझसे कही है, वह भगवान श्री हरि को कभी न कहना।
फिर मुनि नारदजी हाथ में वीणा लिये हरिगुण गाते हुए क्षीरसागर पहुंचे। जहाँ लक्ष्मीनिवास भगवान श्री हरि नारायण रहते हैं। जगत स्वामी भगवान श्री हरि हँसकर बोले- हे मुनि! आज आपने बहुत दिनों बाद अपने दर्शन दिए। यद्यपि शिवजी ने उन्हें पहले ही मना कर रखा था, तो भी नारदजी ने कामदेव का सारा सारांश भगवान को कह सुनाया। श्री रघुनाथजी की माया बड़ी ही प्रबल है। जगत में ऐसा कौन जन्मा है जिसे वे मोहित न कर दे। भगवान रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले- हे मुनिराज! आपका स्मरण करने से दूसरों के मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं। हे मुनि! मोह तो उसके मन में होता है जिसके हृदय में ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्य व्रत में तत्पर और बड़े धीरबुद्धि वाले हैं। भला, आपको कामदेव तो क्या कोई भी मोहित नहीं कर सकता।
नारदजी ने अभिमान के साथ कहा- भगवन! यह सब आपकी कृपा है। करुणा निधान भगवान मन में विचार कर देखा कि नारद जी के मन में अभिमान का भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है।
तब नारदजी भगवान के चरणों में सिर नवाकर चले। उनके हृदय में अभिमान और भी बढ़ गया था। तब लक्ष्मीपति भगवान ने अपनी माया को प्रेरित किया। और नारदजी के मार्ग में सौ योजन अर्थात चार सौ कोस का एक नगर रच दिया। उस नगर की भाँति-भाँति की रचनाएँ लक्ष्मीनिवास भगवान विष्णु के वैकुण्ठ से भी अधिक सुन्दर थीं।
उस नगर में ऐसे सुन्दर नर-नारी बसते थे मानो बहुत-से कामदेव और उसकी स्त्री रति ही मनुष्य-शरीर धारण किये हुए हों। उस नगर में शीलनिधि नाम का राजा रहता था, जिसके यहाँ असंख्य घोड़े, हाथी और सेना की टुकड़िया थी।
उसका वैभव और विलास सौ इन्द्रों के समान था। वह रूप, तेज, बल और नीति का घर था। उसकी विश्वमोहिनी नाम की एक ऐसी रूपवती कन्या थी, जिसके रूप को देखकर लक्ष्मीजी भी मोहित हो जायँ। वह सब गुणों की खान भगवान की माया ही थी। उसकी शोभा का वर्णन कैसे किया जा सकता है। वह राजकुमारी स्वयंवर करना चाहती थी, इससे वहाँ अगणित राजा आये हुए थे। मुनि नारदजी उस नगर में गये और नगरवासियों से उन्होंने सब हाल पूछा। सब समाचार सुनकर वे राजा के महल में आये। राजा ने पूजा करके मुनि को आसन पर बैठाया।
फिर राजा ने राजकुमारी को लाकर नारदजी को दिखलाया और पूछा कि हे नाथ! आप अपने हृदय में विचारकर इसके सब गुण-दोष कहिये। उसके गुण देखकर मुनि अपने-आपको भी भूल गये और हृदय में हर्षित हुए। उसके लक्षणों को सोचकर वे मन में कहने लगे कि जो इस कन्या से विवाह करेगा, वह अमर हो जाएगा और रणभूमि में कोई उसे जीत न सकेगा। सब लक्षणों को विचार कर मुनि ने अपने हृदय में रख लिया और राजा से कुछ अपनी ओर से बनाकर कह दिया। राजा से लड़की के सुलक्षण कहकर नारद जी चल दिये। पर उनके मन में यह चिन्ता थी कि ऐसा कौन सा उपाय करूँ, जिससे यह कन्या मुझसे ही विवाह करे। इतनी जल्दी जप-तप से भी कुछ नहीं हो सकता। इस समय तो बड़ी भारी शोभा और विशाल सुन्दर रूप चाहिये, जिसे देखकर राजकुमारी मुझ पर रीझ जाय और तब जयमाल मेरे गले में डाल दे।
एक काम करूँ कि भगवान श्री हरि से सुन्दरता मांगू पर भाई! उनके पास जाने में तो बहुत देर हो जायगी। किन्तु श्री हरि के समान मेरा हितैषी भी कोई नहीं है, इसलिये इस समय वे ही मेरी मदद करेंगे। उस समय नारदजी ने भगवान की बहुत प्रकार से विनती की। तब लीलामय कृपालु प्रभु वहीं प्रकट हो गये। स्वामी को देखकर नारदजी बड़े प्रसन्न हुए। नारद जी ने उस नगर की सब कथा कह सुनायी और प्रार्थना की कि हे प्रभो! आप अपना रूप मुझको दीजिये मेरे हृदय में उस राजकुमारी के लिए अत्यंत प्रेम उमड़ आया है। मेरा विवाह उस राजकुमारी से करवा दीजिए।
हे नाथ! जिस भी तरह से मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिये। मैं आपका दास हूँ। अपनी माया को सफल होते देख दीनदयालु भगवान मन-ही-मन प्रसन्न होकर बोले। हे नारदजी! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेंगे, दूसरा कुछ नहीं। हम तुम्हे वचन देते हैं। हे मुनि! सुनिए, अति भयंकर रोग से पीड़ित रोगी यदि विष माँगे तो भी वैद्य उसे विष नहीं देता। सिर्फ उसके रोग के उपचार के लिए औषधी देता है। इसी प्रकार मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये।
भगवान की माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे पागल हो गये कि वे भगवान की स्पष्ट बात को भी न समझ सके। नारदजी तुरंत वहाँ गये जहाँ स्वयंवर की भूमि बनायी गयी थी।
विभिन्न नगरों के राजा लोग खूब सज-धजकर समाज सहित अपने-अपने आसन पर बैठे थे। नारद मुनि मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे कि मेरा रूप तो श्री हरि का है और इस मुख से सुंदर तो जगत में दूसरा कोई मुख हो ही नहीं सकता। मुझे छोड़ राजकन्या भूलकर भी दूसरे को न वरेगी। किंतु कृपानिधान भगवान ने मुनि के कल्याण के लिये उन्हें ऐसा कुरूप बना दिया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता पर यह चरित्र कोई भी न जान सका। सबने उन्हें नारदजी जानकर ही प्रणाम किया। वहाँ दो शिवजी के गण भी थे। वे ये सब भेद जानते थे और ब्राह्मण का वेष बनाकर सारी लीला देख रहे थे। वे भी बड़े मौजी थे।
नारदजी अपने हृदय में रूप का बड़ा अभिमान लेकर जिस पंक्ति में जाकर बैठे थे, ये शिवजी के दोनों गण भी वहीं बैठ गये। ब्राह्मण के वेष में होने के कारण उनकी इस चाल को कोई जान न सका।
वे नारदजी को सुना-सुनाकर व्यंग्य वचन कहते थे- भगवान इनको अच्छी सुन्दरता दी है। इनकी शोभा देखकर राजकुमारी सिर्फ इन्हें ही वरेगी।
पूरी सभा में सब नारद जी को उनके असली रूप में ही देख रहे थे सिर्फ राजकन्या को छोड़कर, नारदजी का बंदर सा कुरूप रूप और विशाल शरीर देखते ही कन्या के हृदय में क्रोध उत्पन्न हो गया। जिस ओर नारदजी रूप के गर्व में फूले बैठे थे, उस ओर राजकुमारी ने भूलकर भी नहीं देखा। और मुंह टेढ़ा कर आगे निकल गई। नारद मुनि ये देख बार-बार उचकते और छटपटाते हैं। उनकी दशा देखकर शिवजी के गण बहुत हंसते हैं
राजकुमारी अपने कमल-जैसे हाथों में जयमाला लिये सब राजाओं को देखती हुई घूमने लगी! कृपालु भगवान श्री हरि भी एक तेजस्वी राजा का शरीर धारण कर वहाँ उपस्थित थे। राजकुमारी ने हर्षित होकर उनके गले में जयमाला डाल दी। और लक्ष्मीनिवास भगवान दुल्हन को ले गये। सारी राजमण्डली निराश हो गयी।
मोह के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गयी थी, इससे वे राजकुमारी को जाते देख बहुत ही बेचैन हो गये। तब शिवजी के गणों ने मुस्कराकर कहा पहले जाकर दर्पण में अपना मुँह तो देखिये मुनि जी!
ऐसा कहकर वे दोनों बहुत भयभीत होकर भागे। मुनि ने जल में झाँक कर अपना कुरूप बंदर सा मुँह देखा। अपना रूप देखकर उनका क्रोध सातवें आसमान तक पहुंच गया। उन्होंने शिवजी के उन गणों को अत्यन्त कठोर श्राप दिया। तुम दोनों कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ। तुमने हमारी हँसी की, उसका फल चखो। अब फिर किसी मुनि की हँसी मत करना।
मुनि ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना असली रूप प्राप्त हो गया, तब भी उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। उनके ओंठ फड़क रहे थे और मन में क्रोध भरा था। तुरंत ही वे भगवान कमलापति के पास चले।
मन में सोचते जाते थे। जाकर या तो श्राप दूँगा या प्राण दे दूँगा। उन्होंने जगत में मेरी हँसी करायी। दैत्यों के शत्रु भगवान श्री हरि उन्हें बीच रास्ते में ही मिल गये। साथ में लक्ष्मी जी और वह राजकुमारी भी थीं। भगवान ने मीठी वाणी में कहा- हे मुनि! इतने बेचैन और गुस्से में कहा चले जा रहे हो? ये शब्द सुनते ही नारद जी का क्रोध सातवें आसमान पहुंच गया। माया के वशीभूत होने के कारण उनके मन में सुध बुध न रही।
मुनि ने भगवन से कहा- तुमसे दूसरों का सुख देखा नहीं जाता। तुम्हारे मन में जलन और कपट बहुत है। समुद्र मथते समय तुमने शिवजी को बावला बना दिया और उन्हें विषपान कराया। असुरों को मदिरा और शिवजी को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुन्दर कौस्तुभ मणि ले ली। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का व्यवहार ही करते हो। तुम परम स्वतन्त्र हो, तुम्हे तो कोई रोकने वाला है नहीं, इससे जब जो मन को करता है, वही करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो।
अब तक तुमको किसी ने ठीक नहीं किया था। किंतु इस बार तुमने मेरे जैसे जबर्दस्त आदमी से छेड़खानी की है। अतः अपने किये का फल अवश्य पाओगे। जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही शरीर धारण करो, यह मेरा श्राप है।
तुमने मेरा रूप बन्दर का बनाया था, इससे बन्दर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। मैं जिस स्त्री को चाहता था, उससे मेरा वियोग कराकर तुमने मेरा बड़ा अहित किया है, इससे तुम भी स्त्री के वियोग में दुःखी होगे।
श्राप को सिर पर चढ़ाकर, हृदय में हर्षित होते हुए प्रभु ने नारदजी से पूरी बात कह दी और कृपानिधान भगवान ने अपनी माया की प्रबलता खींच ली। जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहाँ न लक्ष्मी ही रह गयीं, न राजकुमारी ही। तब मुनि ने अत्यन्त लज्जित और भयभीत होकर श्री हरि के चरण पकड़ लिये और कहा- हे शरणागत के दुःखों को हरने वाले! मेरी रक्षा कीजिये। हे कृपालु! मेरा श्राप मिथ्या हो जाय।
तब दीनों पर दया करने वाले भगवान ने कहा कि यह सब मेरी ही इच्छा से हुआ है। मुनि ने कहा- मैंने आपको अनेक खोटे वचन कहे हैं। मेरे पाप कैसे मिटेंगे? भगवान ने कहा जाकर शिवजी के नाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शान्ति होगी। शिवजी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोड़ना। हे मुनि! शिवजी जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता। हृदय में ऐसा निश्चय करके जाकर पृथ्वी पर भ्रमण करो अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आएगी।
बहुत प्रकार से मुनि को समझा बुझाकर तब प्रभु अन्तर्धान हो गये और नारदजी श्री रामचन्द्रजी के गुणों का गान करते हुए ब्रह्मलोक को चले। शिवजी के गणों ने जब मुनि को मोह रहित और मन में बहुत प्रसन्न होकर मार्ग में जाते हुए देखा तब वे अत्यन्त भयभीत होकर नारद जी के पास आये और उनके चरण पकड़कर दीन वचन बोले।
हे मुनिराज! हम ब्राह्मण नहीं हैं, शिवजी के गण हैं। हमने बड़ा अपराध किया, जिसका फल हमने पा लिया। हे कृपालु! अब श्राप दूर करने की कृपा कीजिये। दीनों पर दया करने वाले नारदजी ने कहा तुम दोनों भविष्य में राक्षस रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्म लोगे, तुम्हें महान ऐश्वर्य, तेज और बल की प्राप्ति होगी। तुम अपनी भुजाओं के बल से जब सारे विश्व को जीत लोगे, तब भगवान विष्णु मनुष्य शरीर में श्री रामचंद्रजी का रूप धारण करेंगे
युद्ध में श्री हरि के हाथ से तुम्हारी मृत्यु होगी, जिससे तुम मुक्त हो जाओगे और फिर संसार में जन्म नहीं लोगे। वे दोनों मुनि के चरणों में सिर नवाकर चले और समय पाकर राक्षस हुए।
शिवजी ने मां पार्वती से कहा - पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने एक कल्प में इसी कारण मनुष्य के रूप में अवतार लिया था।
श्री हरि अनन्त हैं। और उनकी कथा भी अनन्त है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते सुनते हैं। श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर चरित्र करोड़ कल्पों में भी गाये नहीं जा सकते।
शिवजी कहते हैं कि हे पार्वती! मैंने यह बतलाने के लिये इस प्रसंग को कहा कि ज्ञानी मुनि भी भगवान की माया से मोहित हो जाते हैं। देवता, मनुष्य और मुनियों में ऐसा कोई नहीं है जिसे भगवान की महान बलवती माया मोहित न कर दे।
हे गिरिराजकुमारी! अब भगवान के अवतार का वह दूसरा कारण सुनो- मैं उसकी सुन्दर कथा विस्तार से कहता हूँ। जिस कारण से श्री हरि विष्णु अयोध्या पूरी में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्रजी के रूप में जन्म लिया।
जिन प्रभु श्री रामचन्द्रजी को तुमने भाई लक्ष्मणजी के साथ मुनियों का वेष धारण किये वन में अपनी स्त्री को ढूंढते हुए देखा था और हे भवानी! जिनके चरित्र को देखकर सती के शरीर में तुम ऐसी बावली हो गयी थीं कि अब भी तुम्हारे उस बावले पन की छाया नहीं मिटती, उन्हीं के भ्रमरूपी रोग के हरण करने वाले चरित्र सुनो। उस अवतार में भगवान ने जो-जो लीला की, वह सब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार तुम्हें कहूँगा।
स्वयंभु मनु और उनकी पत्नी शतरूपा, जिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति-पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे।
राजा उत्तानपाद उनके पुत्र थे, जिनके पुत्र प्रसिद्ध हरिभक्त ध्रुवजी हुए। उन मनुजी के छोटे लड़के का नाम प्रियव्रत था, और देवहूति उनकी कन्या थी, जो करदम मुनि की पत्नी हुई और जिन्होंने आदिदेव, दीनों पर दया करनेवाले समर्थ एवं कृपालु भगवान कपिल को जन्म दिया था।
मनु जी ने लंबे समय तक पृथ्वी पर राज्य किया और भगवान की आज्ञाओं का पूर्ण रूप से पालन किया। गृहस्थ जीवन में रहते हुए उन्हें बुढ़ापा आ गया, किंतु संसारिक जीवन के मोह से नहीं छुटे। इस बात को सोचकर उनके मन में गहरा दुःख उत्पन्न हुआ कि श्री हरि की भक्ति के बिना ही जीवन व्यर्थ चला गया। तब मनुजी ने अपने पुत्र को जबरदस्ती राज्य सौंप दिया और स्वयं पत्नी सहित वन की ओर प्रस्थान कर गए। अत्यंत पवित्र और साधकों को सिद्धि देने वाला, तीर्थों में श्रेष्ठ नैमिषारण्य वन अत्यंत प्रसिद्ध है।
वहाँ मुनियों और सिद्धों के समूह बसते हैं। राजा मनु हृदय में हर्षित होकर वहीं चले। चलते-चलते वे गोमती नदी के किनारे जा पहुँचे। वहां उन्होंने गोमती मैया के निर्मल जल में स्नान किया। फिर कई दिनों तक अनेक सुन्दर तीर्थों के दर्शन किए। उनका शरीर दुर्बल हो गया था, वे मुनियों के वस्त्र धारण करते और संतों के समाज में नित्य पुराण सुनते थे। और "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" का प्रेमसहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरण कमलों में उन राजा-रानी का मन बहुत ही लग गया। फिर दोनों ने आहार - जल का त्याग कर श्री हरि के प्रत्यक्ष दर्शन हेतु कठोर तप करने की ठानी। उन्होंने एक पैर पर खड़े होकर कई वर्षों तक तपस्या की। उनका अपार तप देखकर ब्रह्माजी कई बार मनुजी के पास आये। उन्होंने इन्हें अनेक प्रकार से ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो। पर ये परम धैर्यवान राजा-रानी अपने तप से किसी के डिगाये नहीं डिगे। यद्यपि उनका शरीर हड्डियों का ढाँचामात्र रह गया था, फिर भी उनके मन में जरा भी पीड़ा नहीं थी।
फिर एक दिन गम्भीर और कृपारूपी अमृत से सनी हुई आकाशवाणी हुई कि 'वर माँगो' यह सुन्दर वाणी सुनते ही राजा-रानी के शरीर ऐसे सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट हो गये, मानो अभी घर से आये हो। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि यह उन्हीं भगवान श्री हरि विष्णु के स्वर हैं जिनके दर्शन हेतु वे दोनों कई वर्षों से कठोर तप कर रहे थे। कानों में अमृत के समान लगने वाले वचन सुनते ही उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। तब मनुजी दण्डवत प्रणाम करके बोले
हे प्रभो! सुनिये, आप भक्तों के लिये कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपकी चरण-रज की सभी देवी देवताओं वन्दना करते हैं। हे अनाथों का कल्याण करने वाले! यदि हम लोगों पर आपका थोड़ा भी स्नेह है, तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिये कि आपका जो स्वरूप शिवजी के मन में बसता है और जिस की प्राप्ति के लिये मुनि लोग कठोर तपस्या करते हैं। जो काकभुशुण्डि के मनरूपी मानसरोवर में विहार करनेवाला हंस है, सगुण और निर्गुण कहकर वेद जिसकी प्रशंसा करते हैं, हे शरणागत के दुःख मिटाने वाले प्रभो! ऐसी कृपा कीजिये कि हम आपके उसी चतुर्भुज रूप के दर्शन कर सके।
राजा-रानी के कोमल, विनययुक्त और प्रेमरस भरे हुए वचन भगवान को बहुत ही प्रिय लगे। भगवान, जो अपने भक्तों पर अत्यंत कृपालु हैं, सारी सृष्टि में व्याप्त हैं और जिनके पास सब कुछ करने की शक्ति है। वे स्वयं प्रकट हो गए। उनका शरीर नीले कमल, नीलमणि और जल से भरे नीले बादलों जैसा कोमल, चमकदार और मन को सुख देने वाला था। उनकी यह दिव्य श्याम मूरत इतनी सुंदर थी कि करोड़ों कामदेव भी लज्जित हो जाएँ।
उनका मुख पूर्णिमा के चाँद की तरह सुंदर था। उनके गाल और ठोड़ी अत्यंत सुंदर थे, और उनका गला शंख के आकार जैसा सुंदरता से भरा था। लाल होठ, दाँत और नाक अत्यन्त सुन्दर थे। उनकी मुस्कान ऐसी थी कि चाँद की किरणें भी फीकी पड़ जाएँ। उनकी आँखें खिले हुए कमल जैसी सुंदर थीं और उनकी मनोहर दृष्टि हृदय को बहुत प्रिय लगती थी। उनकी मुड़ी हुई भौंहें कामदेव के धनुष की शोभा को भी मात देती थीं। उनके माथे पर चमकदार तिलक था जो तेज से भरा हुआ था। कानों में मछली के आकार के सुंदर कुण्डल थे और सिर पर सुशोभित सुवर्ण मुकुट विराजमान था। उनके घुँघराले, काले बाल ऐसे घने थे जैसे भौंरों का समूह हो। उनके हृदय पर श्रीवत्स चिन्ह, सुंदर वनमाला, रत्नों से जड़े हार और बहुमूल्य आभूषण सुशोभित थे।
उनकी गर्दन सिंह जैसी मजबूत और सुंदर थी। उनके पास जनेऊ था और भुजाओं में भी सुंदर आभूषण थे। उनकी भुजाएँ हाथी की सूंड जैसी बलशाली और सुंदर थीं। उनकी कमर में तरकस बाणों की पेटी था और हाथ में धनुष-बाण शोभा पा रहे थे। उनका पीतांबर पीला वस्त्र स्वर्ण जैसा चमकदार था, जो बिजली की चमक को भी पीछे छोड़ दे। उनके पेट पर सुंदर तीन रेखाएँ थीं और उनकी नाभि इतनी सुंदर थी कि मानो वह यमुना नदी के भँवरों को भी मात देती हो।
भगवान के चरणकमल इतने दिव्य हैं कि उनका वर्णन करना कठिन है वहाँ मुनियों के मन रूपी भौंरे सदा मग्न रहते हैं। भगवान के बाईं ओर श्री जानकी जी स्थित हैं, जो सौंदर्य की मूर्ति, संसार की मूल शक्ति और सदा भगवान के अनुरूप रहती हैं। चतुर्भुज श्री हरि के सुंदर रूप को देखकर मनु और शतरूपा दोनों मोहित हो गए। उस अनुपम रूप को वे आदरसहित देख रहे थे। फिर वे भगवान के चरण पकड़कर भूमि पर गिर पड़े। फिर करुणानिधान प्रभु ने अपने कर कमलों से उनके मस्तकों का स्पर्श किया और उन्हें उठा लिया।
फिर कृपानिधान भगवान बोले- तुम दोनों की कठोर तपस्या से हम अति प्रसन्न है। और यदि तुम्हारे हृदय में कोई वर मांगने की अभिलाषा हो तो नि:संकोच मांग लो।
प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर कोमल वाणी से बोले - हे नाथ! आपके चरण कमलों को देखकर अब हमारी सारी मनोकामनाएं पूरी हो गयीं। फिर भी मन में एक बड़ी लालसा है। उसका पूरा होना सहज भी है और अत्यन्त कठिन भी, इसीसे उसे कहते नहीं बनता। हे स्वामी! आपके लिये तो उसका पूरा करना बहुत सहज है, पर मुझे अपनी दीनता के कारण वह अत्यन्त कठिन मालूम होता है।
जैसे कोई दरिद्र कल्पवृक्ष को पाकर भी अधिक धन माँगने की चेष्टा करता हो क्योंकि वह उसके प्रभाव को नहीं जानता, वैसे ही मेरे हृदय में संशय हो रहा है। हे स्वामी! आप तो अन्तर्यामी हैं, आप सबके मन की बात जानते हैं। भगवान ने कहा - हे राजन्! संकोच छोड़कर मुझसे माँगो। तुम्हें न दे सकूँ ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है।
राजा ने कहा- हे दानियों के शिरोमणि! हे कृपानिधान! हे नाथ! मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ। राजा के अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान बोले- ऐसा ही हो। हे राजन्! मैं अपने समान दूसरा कहाँ जाकर खोजूँ। अतः में स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा।
शतरूपाजी को हाथ जोड़े देखकर भगवान ने कहा- हे देवि! तुम्हारी भी जो इच्छा हो, सो वर माँग लो। शतरूपा ने कहा- हे नाथ! मेरे स्वामी ने जो वर माँगा, हे कृपालु! वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा। राजा रानी दोनों वर माँगकर भगवान के चरणों में गिर गए। तब दया के निधान भगवान ने कहा - अब तुम मेरी आज्ञा मानकर देवराज इन्द्र की राजधानी अमरावती में जाकर वास करो। वहाँ स्वर्ग में कुछ समय सुख से बिताओ, फिर कुछ काल बीत जाने पर, तुम अवध के राजा बनोगे। तब मैं तुम्हारे पुत्र रूप में जन्म लूंगा।
याज्ञवल्क्यजी कहते हैं- हे भारद्वाज! इस अत्यन्त पवित्र इतिहास को शिवजी ने पार्वती से कहा था। अब श्री राम के अवतार लेने का दूसरा एक और कारण सुनो।
हे मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिवजी ने पार्वती से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश है। वहाँ सत्यकेतु नाम का राजा रहता था। वह राजा धर्म की रीति को अपनाने वाला, नीति का भंडार, तेजस्वी, प्रतापी, विनम्र और बलवान था। उसके दो वीर पुत्र हुए, जो सभी गुणों से भरपूर और बहुत ही पराक्रमी थे।
राजा का बड़ा बेटा, जो राज्य का उत्तराधिकारी था, उसका नाम प्रतापभानु था। छोटे बेटे का नाम अरिमर्दन था, जिसकी भुजाओं में अत्यधिक बल था। और जो युद्ध में पर्वत की तरह अडिग खड़ा रहता था। दोनों भाइयों में बहुत प्रेम था। उनके बीच सच्ची और निष्कलंक मित्रता थी। राजा ने अपने बड़े बेटे को राज्य सौंप दिया और स्वयं भगवान के भजन के लिए वन को चले गए।
जब प्रतापभानु राजा बना, तो उसके यश की चर्चा पूरे देश में फैल गई। वह वेदों में बताए गए नियमों के अनुसार उत्तम तरीके से प्रजा की सेवा और शासन करने लगा। उसके राज्य में पाप और अन्याय का नामो-निशान नहीं था। प्रतापभानु का मंत्री धर्मरुचि था, जो शुक्राचार्य की तरह बुद्धिमान और राजा का हितचिंतक था। इस तरह बुद्धिमान मंत्री, बलवान और वीर भाई और स्वयं प्रतापी राजा – इन सबके साथ मिलकर राज्य बहुत शक्तिशाली हो गया।
उसके पास अपार चतुरंगिणी सेना थी, जिसमें अनगिनत योद्धा थे, जो युद्ध में वीरगति प्राप्त करने को तैयार रहते थे। अपनी विशाल सेना को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और नगाड़े बजने लगे। राजा ने विजय यात्रा के लिए शुभ मुहूर्त में सेना सजाई और ढिंढोरा पिटवाकर दिग्विजय के लिए निकला। रास्ते में कई युद्ध हुए, लेकिन उसने सभी राजाओं को पराजित कर लिया। अपनी शक्ति के बल पर उसने सातों द्वीपों को अपने अधीन कर लिया और राजाओं से कर लेकर उन्हें छोड़ दिया। उस समय पूरी पृथ्वी पर प्रतापभानु ही एकमात्र सम्राट था।
दुनिया को अपने बाहुबल से जीतकर जब वह अपने नगर लौटा, तो राजा ने धर्म, अर्थ और काम के सुखों का यथासमय आनंद लिया। राजा प्रतापभानु की शक्ति के प्रभाव से धरती मानो कामधेनु (इच्छित फल देने वाली गाय) जैसी हो गई थी। उसके राज्य में प्रजा पूरी तरह सुखी और दुखों से मुक्त थी। सभी स्त्री-पुरुष सुंदर, सदाचारी और धर्म का पालन करने वाले थे।
राजा का मंत्री धर्मरुचि भगवान श्री हरि के चरणों में प्रेम रखता था। वह हमेशा राजा को नीति और धर्म की बातें समझाता और उसका हित करता था। राजा सदा गुरु, देवता, संत, पितरों और ब्राह्मणों की सेवा करता था।
वेदों में राजाओं के लिए जो कर्तव्य बताए गए हैं, राजा उन्हें आदरपूर्वक और प्रसन्न होकर पालन करता था। वह प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता और श्रेष्ठ शास्त्र, वेद और पुराणों को सुनता था। राजा ने तीर्थ स्थलों में अनेक बावलियाँ, कुएँ, तालाब, सुंदर बाग-बगिचे, ब्राह्मणों के लिए निवास-स्थान और देवताओं के लिए भव्य मंदिर बनवाए। वेद और पुराणों में जितने भी यज्ञ बताए गए हैं, राजा ने उन सबको श्रद्धा और प्रेम से हजारों बार किया। राजा के मन में किसी भी फल की इच्छा नहीं थी। वह अत्यंत ज्ञानी और बुद्धिमान था। जो भी धार्मिक कार्य वह करता—चाहे वह मन, वाणी या कर्म से हो—वह सब कुछ भगवान वासुदेव को समर्पित करके करता था।
एक बार राजा अपने शक्तिशाली घोड़े पर सवार होकर, शिकार खेलने विंध्याचल के घने जंगल में गया। वहाँ उसने कई सुंदर और अच्छे हिरनों का शिकार किया। वन में घूमते हुए राजा ने एक भयानक सूअर को देखा। जिसके लंबे नुकीले घुमावदार दाँत थे। उसका शरीर भी बहुत विशाल और भारी-भरकम था। जब उसने घोड़े की आहट सुनी, तो वह गुर्राता हुआ, कान खड़े करके सतर्क हो गया।
एक विशालकाय सूअर, जो नील पर्वत की चोटी के समान लग रहा था, उसे देखकर राजा ने घोड़े को चाबुक मारा और तेजी से उसकी ओर बढ़ा। उसने सूअर को ललकारते हुए कहा “अब तेरे बचने का कोई रास्ता नहीं है।” राजा के घोड़े को अपनी ओर आते देख, वह सूअर जोर से चिल्लाया और फिर पवन की गति से भागने लगा। राजा ने तुरंत धनुष पर बाण चढ़ाया, लेकिन जैसे ही सूअर ने बाण को आते देखा, वह जमीन में दुबक गया।
राजा बार-बार तीर चलाता, लेकिन चालाकी से सूअर हर बार बच निकलता। वह कभी दिखता, कभी छिपता, और भागता जाता। राजा भी क्रोध में उसके पीछे लगा रहा। सूअर भागते-भागते एक ऐसे घने जंगल में पहुँचा जहाँ न तो हाथी टिक सकता था, न घोड़ा। राजा वहाँ अकेले था, जंगल कठिन और कष्टकारी था, लेकिन उसने पीछा नहीं छोड़ा।
राजा की दृढ़ता देखकर सूअर भागकर एक पहाड़ की गहरी गुफा में जा छिपा। गुफा में प्रवेश कठिन था, इसलिए राजा को निराश होकर लौटना पड़ा। लेकिन वापसी में वह जंगल में रास्ता भूल गया।
भूख-प्यास और थकान से परेशान होकर राजा और उसका घोड़ा पानी की खोज में भटकते रहे। नदी-तालाब न मिलने के कारण राजा बहुत व्याकुल हो गया। घूमते-घूमते उसे एक आश्रम दिखाई दिया। वहाँ एक राजा, जो अब मुनि का वेष धारण किए हुए था, निवास करता था। उसका राज्य राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था, और वह सेना को छोड़कर युद्ध से भाग आया था। प्रतापभानु का भाग्य चमकता देखकर और अपने दुर्भाग्य का विचार कर उस राजा को बड़ी ग्लानि हुई थी। इसलिए वह न तो अपने राज्य लौटा और आत्मगर्व के कारण न ही प्रतापभानु से मेल किया।
अब वह एक साधु का रूप धारण कर जंगल में रह रहा था, जैसे कोई दरिद्र अपने क्रोध को भीतर ही दबाकर जी रहा हो। राजा प्रतापभानु जैसे ही उस आश्रम में पहुँचा, उस मुनि-वेषधारी राजा ने उसे तुरंत पहचान लिया।
राजा बहुत प्यासा था, इसलिए वह उस कपटी तपस्वी को पहचान नहीं सका। सुंदर और शांत वेश देखकर राजा ने उसे कोई महान मुनि समझा। वह घोड़े से उतरकर आदरपूर्वक प्रणाम करता है, लेकिन उसे अपना नाम नहीं बताता।
राजा को व्याकुल देखकर उस मुनि-वेषधारी व्यक्ति ने एक सरोवर दिखाया। राजा बहुत प्रसन्न हुआ और घोड़े सहित स्नान और जलपान किया। इससे उसकी सारी थकान मिट गई और वह फिर से स्वस्थ और शांत हो गया।
फिर वह कपटी मुनि राजा को अपने आश्रम में ले गया। जब सूर्य अस्त हो गया, तो उसने राजा को बैठने के लिए आसन दिया और फिर मधुर वाणी में पूछा "तुम कौन हो? इतने सुंदर और तेजस्वी युवक होकर भी, जीवन की चिंता किए बिना इस भयानक वन में अकेले क्यों घूम रहे हो? तुम्हारे शरीर और स्वरूप में चक्रवर्ती सम्राट के लक्षण हैं, इसलिए तुम्हें देखकर मुझे करुणा आती है।"
राजा ने अपनी असली पहचान छुपाते हुए उत्तर दिया- "हे मुनिवर! सुनिए, प्रतापभानु नाम के एक महान राजा हैं, मैं उनका मंत्री हूँ। शिकार खेलते हुए मैं रास्ता भूल गया। सौभाग्य से आपके पावन चरणों का दर्शन मिला है।"
राजा ने आगे कहा - "आपका दर्शन अत्यंत दुर्लभ है। ऐसा लगता है कि कुछ शुभ होना निश्चित है।"
मुनि ने कहा —
"हे तात! अब अंधेरा हो गया है। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन दूर है। रात घनी और अंधेरी है, चारों ओर जंगल है और कोई सुरक्षित रास्ता भी नहीं है। इसलिए तुम आज रात यहीं मेरे आश्रम में विश्राम करो। सुबह होते ही लौट जाना।"
राजा ने कहा —
"हे नाथ! बहुत अच्छा।" ऐसा कहकर उसने उस मुनि की आज्ञा को स्वीकार किया, घोड़े को एक वृक्ष से बाँधा और स्वयं बैठ गया। राजा ने उस मुनि की अनेक प्रकार से प्रशंसा की, चरण वंदना की और स्वयं को भाग्यशाली माना।
फिर उस राजा ने मधुर और विनम्र वाणी में कहा - "हे प्रभु! मैं आपको पिता के समान मानकर यह बातें कर रहा हूँ। हे मुनिश्रेष्ठ! कृपया मुझे अपना पुत्र और सेवक समझकर, अपना नाम और निवास स्थान विस्तार से बताइए।"
राजा उसे पहचान नहीं पाया, पर वह कपटी मुनि राजा को भली-भांति पहचान गया था। राजा तो निष्कपट और पवित्र हृदय वाला था, लेकिन वह मुनि छल-कपट में निपुण था। वह न केवल राजा का पुराना शत्रु था, बल्कि स्वयं भी क्षत्रिय और राजा रह चुका था। अब वह धोखे और चालाकी से अपना काम बनाना चाहता था। राज्य सुख खो देने की पीड़ा से वह भीतर-ही-भीतर जल रहा था, जैसे कुम्हार की भट्टी अंदर से सुलगती है। राजा के भोले और सीधे वचनों को सुनकर, उसने अपने पुराने वैर को याद किया और मन-ही-मन प्रसन्न हुआ।
फिर उसने बड़ी चतुराई से, छल में डुबोकर, कोमल वाणी में उत्तर दिया - "अब तो हमारा नाम ‘भिखारी’ है, क्योंकि हम निर्धन और घर-द्वार से रहित हैं।"
राजा ने आदरपूर्वक उत्तर दिया —
"जो आपकी तरह ज्ञान के भंडार होते हैं और जिन्हें अहंकार छू भी नहीं पाता, वे सदा अपने स्वरूप को छिपाकर ही रखते हैं। क्योंकि साधु-वेष में रहकर, अपने आप को छिपा लेना ही सच्चा कल्याण लाता है।”
इसीलिए संत और वेद बार-बार कहते हैं कि वही व्यक्ति भगवान को प्रिय होता है जो पूरी तरह से निस्वार्थ, अहंकार रहित, ममता रहित और मान (अहं) रहित हो। जब ब्रह्मा और शिव भी आप जैसे गरीब, भिखारी और घर से रहित व्यक्ति को देखते हैं, तो उन्हें भी भ्रम हो जाता है कि आप कोई सच्चे संत हैं या साधारण भिखारी।
आप जो भी हों, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा कीजिए। राजा को मुनि पर स्वाभाविक प्रेम और गहरा विश्वास हो गया। उस कपटी तपस्वी ने राजा को हर प्रकार से अपने वश में करके, अधिक स्नेह दिखाते हुए कहा - "हे राजन्! सुनिए, मैं आपसे सच कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते हुए बहुत समय बीत गया है। अब तक न तो कोई मुझसे मिलने आया और न ही मैंने अपने आप को किसी के सामने प्रकट किया, क्योंकि दुनिया में नाम और प्रतिष्ठा ऐसी अग्नि के समान है जो तपस्या रूपी वन को जला देती है।
तुलसीदासजी कहते हैं - सुंदर वेशभूषा देखकर केवल मूर्ख ही नहीं, बल्कि समझदार लोग भी धोखा खा जाते हैं। जैसे मोर दिखने में सुंदर होता है, उसकी बोली अमृत जैसी लगती है, लेकिन वह साँपों को खाता है।
तपस्वी ने कहा - इसी कारण मैं दुनिया से छिपकर रहता हूँ। मैं भगवान श्री हरि को छोड़कर किसी से कोई संबंध नहीं रखता। भगवान तो बिना कहे ही सब कुछ जान लेते हैं, फिर दुनिया को दिखावा करके क्या मिलेगा? तुम पवित्र और बुद्धिमान हो, इसलिए मुझे बहुत प्रिय हो और तुम्हें भी मुझ पर स्नेह और विश्वास है। हे तात! अब यदि मैं तुमसे कुछ छिपाऊँ तो वह मेरे लिए बहुत बड़ा दोष होगा।
जैसे-जैसे वह तपस्वी वैराग्य की बातें कर रहा था, वैसे-वैसे राजा का विश्वास उस पर बढ़ता जा रहा था। जब उस ध्यान करने वाले, बगुले जैसे कपटी मुनि ने राजा को मन, वचन और कर्म से अपने वश में कर लिया, तब वह बोला -“हे भाई! मेरा नाम ‘एकतनु’ है।”
यह सुनकर राजा ने फिर सिर झुकाकर कहा – “मुझे अपना अत्यन्त विनीत सेवक समझकर अपने नाम का अर्थ समझाइए।
कपटी मुनि ने राजा को मोहित करने हेतु कहा- जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तब से मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी से मेरा नाम एकतनु है।
हे पुत्र! मन में आश्चर्य मत करो, तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, तप के बल से ब्रह्मा जगत को रचते हैं। तप ही के बल से श्री हरि संसार का पालन करने वाले बने हैं। तप ही के बल से रुद्र संहार करते हैं। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके। यह सुनकर राजा को बड़ा अनुराग हुआ। तब वह तपस्वी पुरानी कथाएँ कहने लगा।
कर्म, धर्म और अनेकों प्रकार के इतिहास कहकर वह वैराग्य और ज्ञान का निरूपण करने लगा। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन स्थिति और संहार प्रलय की अपार आश्चर्य भरी कथाएँ उसने विस्तार से कहीं।
राजा यह सब सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना सही नाम बताने लगा। तपस्वी ने कहा- राजन्! मैं तुमको जानता हूँ।
तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा। हे राजन्! सुनो, ऐसी नीति है कि राजा लोग जहाँ-तहाँ अपना नाम नहीं कहते। तुम्हारी वही चतुराई समझकर तुम पर मेरा बड़ा प्रेम हो गया है। तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन्! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं।
हे तात! तुम्हारा स्वाभाविक सीधापन (सरलता), प्रेम, विश्वास और नीति में निपुणता देखकर मेरे मन में तुम्हारे ऊपर बड़ी ममता उत्पन्न हो गयी है। इसीलिये मैं तुम्हारे पूछने पर अपनी कथा कहता हूँ। अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें सन्देह न करना। हे राजन्! जो मन को भावे वही माँग लो। सुन्दर (प्रिय) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और मुनिके पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकार से विनती की।
हे दया के सागर मुनि! आपके दर्शन मात्र से ही मुझे चारों पुरुषार्थ – अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष – सहज ही प्राप्त हो गए। फिर भी जब आप जैसे स्वामी मुझ पर प्रसन्न हैं, तो क्यों न मैं यह दुर्लभ वर माँग लूँ और हमेशा के लिए शोक से मुक्त हो जाऊँ?
मैं चाहता हूँ कि मेरा शरीर कभी वृद्ध न हो, मृत्यु और दुःख से रहित रहे। युद्ध में कोई मुझे पराजित न कर सके, और सौ कल्पों तक पृथ्वी पर मेरा ही अधिकार बना रहे।
तपस्वी ने कहा – हे राजन्! ऐसा ही हो, लेकिन एक बात कठिन है, वह भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मणों को छोड़कर काल (मृत्यु) भी तुम्हारे चरणों में सिर झुकाएगा।
तपस्या के बल से ब्राह्मण सदा शक्तिशाली रहते हैं। उनके क्रोध से कोई भी रक्षा नहीं कर सकता। हे राजन्! यदि तुम ब्राह्मणों को अपने वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएंगे। ब्राह्मणकुल पर बलपूर्वक कोई शासन नहीं कर सकता। मैं अपने दोनों हाथ उठाकर सत्य कहता हूँ – हे नरेश! सुनिए, यदि तुम्हारा किसी दिन नाश होगा, तो वह ब्राह्मणों के श्राप से ही होगा, अन्य किसी कारण से नहीं।
राजा यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और बोला – हे स्वामी! अब मेरा नाश नहीं होगा। हे कृपानिधान प्रभु! आपकी कृपा से मेरा हर समय कल्याण ही होगा।
"एवमस्तु" (ऐसा ही हो) कहकर वह कपटी और चालाक मुनि फिर बोला – लेकिन एक बात ध्यान रखना, हमारे इस मिलन और अपने रास्ता भटकने की बात किसी से भी मत कहना। अगर तुम यह बात किसी को बता दोगे, तो इसके लिए हम जिम्मेदार नहीं होंगे।
हे राजन्! मैं तुम्हें इसलिए मना कर रहा हूँ क्योंकि अगर यह प्रसंग किसी को पता चला, तो तुम्हें भारी नुकसान होगा। यदि यह बात तीसरे कान तक भी पहुँच गई (यानी किसी और ने सुन ली), तो तुम्हारा विनाश निश्चित है। मेरी यह बात सच मानो।
"हे प्रतापभानु! सुनो, यदि यह बात किसी और को पता चल गई या ब्राह्मणों का शाप मिल गया तो तुम्हारा नाश निश्चित है। इसके अतिरिक्त चाहे स्वयं ब्रह्मा और महेश भी क्रोधित क्यों न हो जाएं — तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी।”
राजा ने मुनि के चरण पकड़कर कहा, "हे स्वामी! यह बात बिल्कुल सत्य है कि ब्राह्मण और गुरु के क्रोध से कोई नहीं बच सकता । यदि ब्रह्मा भी नाराज़ हों, तो गुरु बचा सकते हैं; लेकिन यदि गुरु ही रूठ जाएँ, तो संसार में कोई भी रक्षा नहीं कर सकता।
यदि मैं आपके कहे अनुसार नहीं चलूँगा, तो मेरा नाश हो जाए, मुझे इसकी परवाह नहीं। परंतु प्रभो! मुझे एक ही डर सता रहा है — ब्राह्मणों का शाप बहुत ही भयानक होता है। कृपया बताइए कि ब्राह्मणों को किस प्रकार वश में किया जा सकता हैं। आप ही मेरे सच्चे हितैषी हैं।
मुनि ने कहा, "हे राजन्! उपाय तो बहुत हैं, लेकिन कठिन हैं और उनमें सफलता निश्चित नहीं होती। एक उपाय है जो सरल तो है, पर उसमें भी एक कठिनाई है।"
"वह उपाय मेरे हाथ में है, लेकिन मैं तुम्हारे नगर नहीं आ सकता। मैंने जन्म से आज तक किसी घर या गाँव में कदम नहीं रखा है।और यदि मैं न गया, तो तुम्हारा काम बिगड़ जाएगा। अब बड़ी दुविधा है।" यह सुनकर राजा ने विनम्रता से कहा, "हे नाथ! वेदों में कहा गया है कि बड़े लोग छोटे लोगों पर स्नेह करते हैं। जैसे पर्वत घास को, समुद्र झाग को और पृथ्वी धूल को अपने ऊपर धारण करती है।"
राजा ने मुनि के चरण पकड़कर कहा, "आप दयालु संत हैं, कृपा कीजिए और मेरे लिए थोड़ा कष्ट सह लीजिए।"
राजा को अपने वश में देखकर वह कपटी मुनि बोला, "हे राजन्! सुनो, मैं सत्य कहता हूँ, मुझे संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। मैं तुम्हारा काम ज़रूर करूँगा, क्योंकि तुम मन, वाणी और शरीर से मेरे भक्त हो। परंतु योग, तप और मंत्र तब तक फल नहीं देते जब तक वे गुप्त न रखे जाएँ।"
"हे राजन्! यदि मैं रसोई बनाऊँ और तुम भोजन परोसों, और कोई मुझे पहचान न पाए, तो जो मानव उस भोजन को खाएगा, वह तुम्हारा आज्ञाकारी बन जाएगा। यहाँ तक कि जो लोग उन लोगों के घर भोजन करेंगे, वे भी तुम्हारे वश में हो जाएँगे।"
"हे राजन्! तुम एक वर्ष के लिए संकल्प कर लो। रोज़ एक लाख ब्राह्मणों को परिवार सहित बुलाओ। मैं प्रतिदिन उनके लिए रसोई बनाऊँगा।"
"इससे थोड़े ही प्रयास में ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे, और वे हवन-यज्ञ करेंगे, जिससे देवता भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे।"
"मैं तुम्हें एक और बात बता दूँ — मैं इस रूप में फिर कभी नहीं आऊँगा। मैं तुम्हारे पुरोहित को अपने मायाजाल से उठा लाऊँगा और उसका रूप धारण करके तुम्हारे लिए कार्य करूँगा।"
"हे राजन्! तीसरे दिन मेरी तुमसे फिर भेंट होगी। मैं तप के बल से तुम्हें घोड़े सहित नींद में ही घर पहुँचा दूँगा। जब मैं पुरोहित के रूप में आऊँ, तब एकांत में तुम्हें सारी बात बताऊँगा — तभी पहचान लेना।"
राजा ने आज्ञा मान ली और सो गया। पर वह कपटी मुनि नहीं सोया, उसे बहुत चिंता थी। उसी समय वहाँ कालकेतु राक्षस आया — वही जिसने सूअर का रूप लेकर राजा को भ्रमित किया था। वह मुनि का ही मित्र था और बड़ा कपटी था।
उसके सौ पुत्र और दस भाई थे जो बड़े ही पापी और दुर्जेय थे। राजा प्रतापभानु ने उन्हें पहले ही युद्ध में मार डाला था। अब वह राक्षस मुनि से मिलकर प्रतिशोध की योजना बना रहा था। राजा नियति के वश में होकर कुछ समझ न सका।
मुनि अपने राक्षस मित्र को देखकर प्रसन्न हुआ और सारी योजना बताई। राक्षस बोला, "तुम्हे जो करना था कर लिया, अब बाकी मैं संभाल लूँगा। चार दिन में हमारा शत्रु समाप्त हो जाएगा।"
वह राक्षस राजा को घोड़े सहित घर पहुँचा आया, रानी के पास सुला दिया, और घोड़े को घुड़साल में बाँध दिया। फिर वह राजा के पुरोहित को अगवा कर एक पहाड़ी गुफा में बंद कर आया और उसका रूप धारण कर उसकी जगह सो गया।
राजा सुबह उठकर हैरान रह गया, घर देखकर वह मुनि की महिमा से चकित हो गया। चुपचाप घोड़े पर सवार होकर फिर वन चला गया।
दो-पहर बाद राजा लौटा। नगर में उत्सव होने लगा। जब उसने पुरोहित (जो वास्तव में राक्षस था) को देखा, तो उसे आश्चर्य हुआ, लेकिन योजना के अनुसार प्रसन्न हुआ।
फिर राजा ने एक लाख ब्राह्मणों को परिवार सहित आमंत्रित किया। राक्षस ने वेदों के अनुसार रसोई बनाई, लेकिन उसमें मायाजाल से ब्राह्मणों का मांस मिला दिया।
ब्राह्मणों को सम्मान से बिठाया गया। जैसे ही राजा परोसने लगा, आकाशवाणी हुई — "हे ब्राह्मणों! यह अन्न मत खाओ। इसमें ब्राह्मणों का मांस मिला है।"
ब्राह्मण उठ खड़े हुए और राजा पर क्रोधित होकर बोले, "हे मूर्ख! तूने हमारे साथ छल किया है, हमारा धर्म भ्रष्ट करने की कोशिश की है, हम तुम्हे श्राप देते है - तू परिवार सहित राक्षस बन जा। तेरा वंश नष्ट हो जाएगा।"
राजा भय से व्याकुल हो गया, तभी दूसरी आकाशवाणी हुई "हे समस्त ब्राह्मण लोग - राजा निर्दोष है।"
राजा ने जाकर रसोई देखी - न भोजन था, न ही रसोइया। तब उसने ब्राह्मणों को सब कुछ बताया। वे बोले, "हे राजन्! दोष तुम्हारा नहीं हैं, लेकिन ब्राह्मणों का श्राप टल नहीं सकता।"
नगरवासी दुखी होकर विधाता को कोसने लगे। राक्षस ने पुरोहित को उसके घर छोड़ दिया और मुनि को सारा समाचार बताया। मुनि ने शत्रुओं को बुलाकर युद्ध करवा दिया।
राजा प्रतापभानु की समस्त सेना मारी गई, वह स्वयं भी भाई सहित युद्ध में मारा गया। सत्यकेतु का वंश समाप्त हो गया। ब्राह्मणों का श्राप झूठा नहीं गया।
6. रावण का अत्याचार और श्रीरामजी का जन्म (अयोध्या में)
हे भरद्वाज! सुनो, जब ईश्वर किसी के विपरीत हो जाते हैं, तो उसके लिए धूल भी सुमेरु पर्वत के समान भारी और कुचल देने वाली बन जाती है। पिता यमराज जैसे भयावह लगते हैं और साधारण रस्सी भी साँप जैसी डरावनी प्रतीत होती है।
हे मुनि! प्रतापभानु नामक जो राजा था, वही आगे चलकर रावण नामक राक्षस बना। उसके दस सिर और बीस भुजाएँ थीं, और वह अत्यंत शक्तिशाली और पराक्रमी योद्धा था।
राजा का छोटा भाई अरिमर्दन, आगे चलकर बलशाली कुम्भकर्ण बना। उसका जो मंत्री था, जिसका नाम धर्मरुचि था – वही रावण का सौतेला छोटा भाई विभीषण बना, जिसे सारा संसार जानता है। वह विष्णु का भक्त था और ज्ञान तथा विज्ञान का भंडार था। राजा के जो पुत्र और सेवक थे, वे सब भयानक राक्षसों के रूप में उत्पन्न हुए।
वे सब अलग-अलग जातियों के, इच्छानुसार रूप बदलने वाले, दुष्ट, कुटिल, भयानक, विवेकहीन, निर्दयी, हिंसक, पापी और दुनिया को दुख देनेवाले थे। उनका वर्णन करना संभव नहीं।
हालाँकि वे सब पुलस्त्य ऋषि के पवित्र, निर्मल और अद्वितीय कुल में उत्पन्न हुए थे, फिर भी ब्राह्मणों के श्राप के कारण वे पापी बन गए।
तीनों भाइयों ने अत्यंत कठोर और विविध प्रकार की तपस्या की, जिसका वर्णन भी कठिन है। उनकी भयंकर तपस्या को देखकर स्वयं ब्रह्माजी उनके पास आए और बोले – "हे तात! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, वर माँगो।
रावण ने विनम्रता से ब्रह्माजी के चरण पकड़कर कहा – "हे जगत के स्वामी! कृपा करके ऐसा वर दीजिए कि वानर और मनुष्य को छोड़कर मैं किसी और से न मरूँ।
ब्रह्माजी ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर कहा – "तथास्तु! ऐसा ही होगा। तुमने बहुत कठिन तप किया है।"
इसके बाद ब्रह्मा जी कुम्भकर्ण के पास गए। उसे देखकर वे बहुत चकित हुए और सोचा—अगर यह दुष्ट प्रतिदिन इतना अधिक भोजन करेगा, तो पूरा संसार ही तबाह हो जाएगा। यह सोचकर ब्रह्मा जी ने सरस्वती जी को प्रेरित किया, जिन्होंने कुम्भकर्ण की बुद्धि को बदल दिया। इस कारण कुम्भकर्ण ने वरदान में छः महीने की नींद माँग ली।
फिर ब्रह्मा जी विभीषण के पास गए और बोले—"हे पुत्र! कोई वर माँगो।"
विभीषण ने भगवान के चरणों में निष्काम (स्वार्थरहित) और अनन्य प्रेम की प्रार्थना की।
ब्रह्मा जी ने उसे भी वरदान दिया और फिर वहाँ से चले गए। तीनों भाई बहुत प्रसन्न होकर अपने घर लौट आए। मय दानव की एक कन्या थी – मन्दोदरी, जो अत्यंत सुंदर और स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ थी। मय दानव ने उसका विवाह रावण से करा दिया, क्योंकि उसने जान लिया था कि रावण राक्षसों का राजा बनेगा। रावण सुंदर पत्नी पाकर प्रसन्न हुआ और फिर उसने अपने दोनों भाइयों का भी विवाह करवा दिया।
समुद्र के बीच स्थित त्रिकूट नामक पर्वत पर ब्रह्मा जी ने एक विशाल और अद्भुत किला बनवाया था।
उस किले को मायावी और कुशल शिल्पकार मय दानव ने फिर से सुंदरता से सजाया। इस किले में मणियों से जड़े हुए सोने के अनेक भव्य महल थे।
वह किला इतना सुंदर और भव्य था कि उसकी तुलना पाताल की भोगावती और स्वर्ग की अमरावती से की जाती थी, बल्कि वह उन दोनों से भी अधिक आकर्षक और अनुपम था। इस अद्भुत दुर्ग का नाम ही "लंका" पड़ा, जो पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हुआ।
इस किले को चारों ओर से बहुत गहरी समुद्र-खाई ने घेरा हुआ था। इसके चारों ओर सोने का बना हुआ, मणियों से जड़ा और बेहद मजबूत परकोटा था, जिसकी कारीगरी का वर्णन करना भी कठिन है।
भगवान की कृपा से, जब भी किसी युग (कल्प) में रावण राक्षसों का राजा बनता है, तो वही महान योद्धा अपनी सेना सहित इस लंका नगरी में निवास करता है। पहले इस किले में अनेक शक्तिशाली राक्षस रहते थे, जिन्हें देवताओं ने युद्ध में मार गिराया। उसके बाद इन्द्र की प्रेरणा से वहाँ कुबेर के एक करोड़ यक्ष रक्षक के रूप में रहने लगे।
जब रावण को इस लंका नगरी के बारे में पता चला, तो उसने अपनी सेना सजाकर वहाँ चढ़ाई कर दी। उसकी विशाल सेना और बलशाली रूप को देखकर यक्ष अपना जीवन बचाकर भाग खड़े हुए।
रावण ने लंका नगर को चारों ओर से घूमकर देखा। उसके सौंदर्य और सुरक्षा को देखकर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसे यह स्थान प्राकृतिक रूप से सुंदर और बाहरी आक्रमण से सुरक्षित लगा, इसलिए उसने इसे अपनी राजधानी बना लिया।
फिर उसने योग्यतानुसार घर बाँटकर सभी राक्षसों को वहाँ बसाया और उन्हें सुखी किया। एक बार वह कुबेर से युद्ध करने गया और उससे पुष्पक विमान जीतकर ले आया। एक बार खेल-खेल में उसने कैलास पर्वत को भी उठा लिया। यह मानो उसकी भुजाओं की ताकत का परीक्षण था।
रावण की सुख-समृद्धि, पुत्र, सेना, सहयोगी, विजय, प्रताप, बल, बुद्धि और यश - ये सभी चीज़ें प्रतिदिन वैसे ही बढ़ती गईं जैसे लाभ मिलने पर लोभ बढ़ता है।
उसका भाई कुम्भकर्ण अत्यंत बलशाली था। ऐसा योद्धा संसार में दूसरा नहीं था। वह छह महीने तक मदिरा पीकर सोता रहता था, और जब जागता था, तो तीनों लोकों में हलचल मच जाती थी। अगर वह प्रतिदिन भोजन करता, तो पूरा संसार जल्द ही खाली हो जाता। उसकी वीरता का वर्णन करना भी कठिन है। लंका में उसके जैसे अनगिनत वीर राक्षस रहते थे।
लंकापति रावण का ज्येष्ठ पुत्र मेघनाद था, जो युद्ध विद्या में अत्यंत निपुण और अपराजेय था। वह इतना शक्तिशाली था कि रणभूमि में कोई भी योद्धा उसका सामना नहीं कर पाता। उसका नाम सुनते ही स्वर्ग के देवता भी भय से थर्राने लगते थे।
उसकी सेना में और भी कई महाबली राक्षस थे — जैसे दुर्मुख, अकम्पन, वज्रदंत, धूमकेतु और अतिकाय। ये सभी अकेले-ही समस्त पृथ्वी को जीतने का सामर्थ्य रखते थे।
एक दिन रावण अपनी सभा में बैठा था। जब उसकी दृष्टि अपनी विशाल सेना और अपने परिवार पर पड़ी, तो वह अहंकार और क्रोध से भर गया। वह अभिमान से कहने लगा - "हे समस्त राक्षसों के वीरों! ध्यान से सुनो। देवता हमारे शत्रु हैं। वे रणभूमि में सामने से युद्ध नहीं करते — वे हमसे डरते हैं और भाग जाते हैं। उनका विनाश केवल एक उपाय से संभव है। देवताओं को शक्ति देने वाले यज्ञ, हवन, ब्राह्मण-भोजन और श्राद्ध आदि में तुम विघ्न डालो। जब ये कर्म रुके रहेंगे, तो देवता दुर्बल और बलहीन हो जाएँगे, और फिर वे स्वयं हमारे सामने आ जाएँगे। तब हम उन सबको मृत्युलोक पहुंचा देंगे।"
इसके बाद रावण ने मेघनाथ को बुलवाया और उसे युद्ध के लिए तैयार किया। उसे देवताओं के प्रति वैर और वीरता की प्रेरणा दी। रावण बोला - "हे पुत्र! वे देवता जो युद्ध में बलवान और वीर कहलाते हैं, जिन्हें अपने पराक्रम पर घमंड है — उन्हें युद्ध में हराकर जीवित पकड़ कर मेरे पास लाओ।"
मेघनाथ ने अपने पिता की आज्ञा सिर झुकाकर स्वीकार की और युद्ध के लिए निकल पड़ा। रावण ने भी अपनी विशाल गदा हाथ में ली और युद्ध के लिए चल पड़ा। जैसे ही रावण चला, सारी पृथ्वी कांप उठी। उसकी भयानक गर्जना से देवता भयभीत हो गए, और उनकी गर्भवती स्त्रियों के गर्भ तक गिरने लगे। देवता भयभीत होकर सुमेरु पर्वत की गुफाओं में छिप गए।
रावण जब देवताओं के लोक में पहुँचा, तो उसने वहाँ सब जगह सूना पाया। वह बार-बार गरजकर देवताओं को ललकारता और उनका उपहास करता। रावण, युद्ध के अहंकार में चूर होकर, अपने समान योद्धा की खोज में पूरे संसार में भटकता फिरा, परंतु उसे कोई ऐसा वीर नहीं मिला जो उसका सामना कर सके। सूर्य, चंद्रमा, वायु, वरुण, कुबेर, अग्नि, काल और यम— सभी शक्तिशाली देवताओं को भी उसने चुनौती दी।
किन्नर, सिद्ध, मनुष्य, देवता और नाग — कोई भी उसके आतंक से बच नहीं पाया। ब्रह्माजी की रचना में जहाँ-जहाँ भी शरीरधारी स्त्री-पुरुष थे, वे सब रावण के अधीन हो गए। भय के कारण सभी उसकी आज्ञा का पालन करते थे और प्रतिदिन आकर नम्रता से उसके चरणों में सिर झुकाते थे।
अपनी भुजाओं के बल पर रावण ने पूरे संसार को अपने वश में कर लिया। उसने किसी को भी स्वतंत्र नहीं छोड़ा। देवता, यक्ष, गंधर्व, मनुष्य, किन्नर, नाग और अन्य लोकों की सुंदर कन्याओं को भी उसने अपने बल से जीतकर विवाह कर लिया।
मेघनाथ उसका अत्यंत आज्ञाकारी पुत्र था। रावण जो भी कहता, मेघनाथ उसे तुरंत बिना किसी विलंब के पूरा करता। रावण ने जिन राक्षसों को पहले से आदेश दिए थे, उन्होंने संसार में भारी उत्पात मचाया।
उन सभी राक्षसों के समूह बड़े ही भयानक, पापी और देवताओं को पीड़ा देने वाले थे। वे असुर मायावी थे और अनेक रूपों में उत्पात फैलाते थे।
धर्म की जड़ को काटनेवाले, वे सभी वेद-विरुद्ध कार्य करते थे।
जहाँ-जहाँ उन्हें गौ, ब्राह्मण मिलते, वहाँ वे नगर, गाँव और पुरवे में आग लगा देते। उनके भय से कहीं भी धर्म-कर्म के कार्य — जैसे ब्राह्मण भोज, यज्ञ, श्राद्ध आदि — नहीं हो पाते थे।
देवता, ब्राह्मण और गुरु की कोई मान्यता नहीं थी।
न हरि भक्ति थी, न यज्ञ, न तपस्या, न ज्ञान।
वेद और पुराण तो जैसे संसार से लुप्त हो गए हों— उनका नाम लेना भी दुर्लभ हो गया था। रावण जब भी किसी स्थान पर जप, योग, वैराग्य, तप या यज्ञ में देवताओं के लिए भाग की बात सुनता, तो वह तुरंत वहाँ पहुँच जाता और सबकुछ नष्ट कर देता। उसे धर्म - साधना से कोई मतलब नहीं था, बल्कि वह इन सभी बातों का विरोधी था। जहाँ कहीं भी वेद या पुराण की बातें होतीं, वहाँ वह लोगों को कष्ट देता और उन्हें देश से निकाल देता।
राक्षसों का अत्याचार इतना बढ़ गया था कि उसका वर्णन करना कठिन है। वे हिंसा में ही आनंद पाते थे और उनके पापों की कोई सीमा नहीं थी। परायी स्त्रियों और धन पर बुरी दृष्टि रखने वाले, दुष्ट, चोर और जुआ खेलने वाले बहुत बढ़ गए थे। लोग अपने माता-पिता और देवताओं का सम्मान नहीं करते थे, और साधुओं से सेवा कराते थे,
भगवान शिव माता पार्वती से कहते हैं – हे भवानी! जिन लोगों के आचरण ऐसे हैं, उन्हें राक्षस ही समझना चाहिए। धर्म की इतनी उपेक्षा देखकर पृथ्वी बहुत भयभीत और दुखी हो गई थी। पृथ्वी सोचने लगी कि मुझे पर्वतों, नदियों और समुद्रों का भार इतना भारी नहीं लगता, जितना एक पापी और दूसरों का अहित करने वाला व्यक्ति लगता है। वह यह सब कुछ देख तो रही थी, लेकिन रावण के डर से कुछ कर नहीं पा रही थी। अंत में, बहुत सोच-विचार कर पृथ्वी ने गौ (गाय) का रूप धारण किया और वहाँ पहुँची जहाँ सभी देवता और मुनि छिपे हुए थे। वहाँ वह रोकर अपनी पीड़ा सुनाने लगी, लेकिन किसी के पास उसकी समस्या का समाधान नहीं था।
तब देवता, मुनि और गंधर्व मिलकर ब्रह्माजी के सत्यलोक में गए। भय और दुःख से व्याकुल पृथ्वी भी गौ के रूप में उनके साथ थी। ब्रह्माजी ने सब कुछ जान लिया, लेकिन उन्होंने मन में सोचा कि इस समय मेरी भी कोई शक्ति नहीं चल सकती।
ब्रह्माजी ने पृथ्वी से कहा, “जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी भगवान हमारे और तुम्हारे सच्चे सहायक हैं। वही अब इस संकट का समाधान करेंगे।”
ब्रह्माजी ने धरती से कहा – “हे धरती माता! अपने मन को शांत रखो और भगवान श्री हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने भक्तों की पीड़ा भली भाँति जानते हैं। वे ही तुम्हारे दुखों का अंत करेंगे।
फिर सभी देवता आपस में विचार करने लगे कि भगवान को कहाँ ढूंढा जाए, ताकि उनके सामने अपनी व्यथा कही जा सके। कोई कहता – "वैकुण्ठ चलो", तो कोई कहता – "प्रभु क्षीरसागर में रहते हैं।" परमेश्वर हर स्थान में समान रूप से विद्यमान हैं। वे वहाँ प्रकट होते हैं जहाँ सच्चा प्रेम और भक्ति होती है।
हे पार्वती! मैं (शिवजी) भी उसी सभा में उपस्थित था। मैंने अवसर पाकर सबके सामने यह बात कही। “मुझे विश्वास है कि प्रभु हर जगह हैं। जैसे अग्नि हर वस्तु में छिपी होती है लेकिन प्रकट तभी होती है जब उसे विधिपूर्वक रगड़ा जाए, वैसे ही भगवान भी प्रेम और भक्ति से ही प्रकट होते हैं। देश, काल या दिशा कोई बाधा नहीं है, जहाँ प्रेम है, वहाँ प्रभु हैं।”
मेरी यह बात सबको बहुत अच्छी लगी। ब्रह्माजी ने ‘साधु-साधु’ कहकर मेरी सराहना की। वे इतने प्रसन्न हुए कि उनके शरीर में रोमांच हो गया और आँखों से प्रेमाश्रु बहने लगे। फिर वे हाथ जोड़कर प्रभु की स्तुति करने लगे—
“हे देवों के देव, भक्तों को सुख देनेवाले, शरणागतों के रक्षक प्रभु! आपकी जय हो! हे गौ और ब्राह्मणों के हितकारी, असुरों के संहारक, लक्ष्मीजी के प्रियतम, आपकी जय हो! आपकी लीला अपार है, जिसे कोई जान नहीं सकता। आप ही सच में दयालु और दीनों पर कृपा करनेवाले हैं। हे सर्वव्यापक, सबके हृदय में वास करनेवाले, आनन्द स्वरूप प्रभु! आपकी जय हो! आपके चरणों की महिमा को वे ही जानते हैं जो मोह से रहित, ज्ञान और भक्ति में लीन मुनि हैं।
आपने बिना किसी सहायक के तीनों लोकों की रचना की। हम आपके भक्त - न पूजा जानते हैं, न कोई विधि-विधान। फिर भी मन, वचन और कर्म से हम पूरी तरह से आपकी शरण में हैं। आप संसाररूपी समुद्र को पार कराने के लिये मन्दराचल पर्वत के समान आधार हैं। देवता, मुनि, सिद्ध – सभी श्रद्धा से आपके चरणों में प्रणाम करते हैं।”
धरती माता और देवताओं के भय से व्याकुल वचनों को सुनकर एक गंभीर और मधुर आकाशवाणी हुई - “हे देवों, मुनियों और सिद्धों! भय मत करो। मैं तुम्हारी रक्षा के लिए स्वयं मनुष्यरूप में धरती पर अवतार लूँगा। मैं सूर्यवंश में जन्म लूँगा और तुम्हारे दुःखों का नाश करूंगा।
कश्यप और अदिति ने पहले महान तप किया था, और मैंने उन्हें वचन दिया था। वही अब दशरथ और कौसल्या के रूप में अयोध्या के राजा-रानी बनें हैं। मैं उनके घर जन्म लेकर रघुकुल में चार भाइयों के साथ प्रकट होऊँगा। नारद जी के वचन को भी मैं सत्य सिद्ध करूँगा और अपनी पराशक्ति सहित अवतार लूँगा।
भगवन ने कहा – “मैं स्वयं पृथ्वी का सारा भार उतार दूँगा। हे देवताओं! अब तुम सब निडर हो जाओ।” भगवान की यह आकाशवाणी सुनकर सभी देवताओं के मन में शांति आ गई, उनका डर दूर हो गया और वे प्रसन्न होकर अपने-अपने लोकों को लौट गए।
फिर ब्रह्माजी ने धरती माता को भी समझाया, जिससे उसके मन में भी भरोसा आ गया। ब्रह्माजी ने देवताओं को यह आदेश दिया कि वे वानर रूप में पृथ्वी पर जन्म लें और प्रभु श्री राम के चरणों की सेवा करें। यह सिखाकर ब्रह्माजी अपने लोक को लौट गए।
इसके बाद सभी देवता ब्रह्माजी की आज्ञा से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने बिना देर किए पृथ्वी पर वानर रूप में अवतार लिया। वे सब अत्यंत बलवान, तेजस्वी और पराक्रमी थे। उनके शस्त्र पर्वत, वृक्ष और नाखून ही थे। वे सब भगवान श्री राम के अवतार की प्रतीक्षा करने लगे। उन्होंने पर्वतों और वन-उपवनों में अपनी-अपनी सुंदर सेनाएँ बनाईं और वहाँ चारों ओर छा गए।
यह सुंदर प्रसंग मैंने तुम्हें सुनाया, अब उस कथा को फिर से आगे कहता हूँ, जिसे बीच में छोड़ा दिया था।
अवधपुरी (अयोध्या) में रघुकुल शिरोमणि राजा दशरथजी रहते है, जिनका नाम वेदों में भी प्रसिद्ध है। वे धर्म में निपुण, गुणों के भंडार और ज्ञानी राजा थे। उनके मन में भगवान श्री हरि के प्रति गहरा प्रेम था और उनकी बुद्धि भी हमेशा प्रभु के ध्यान में लगी रहती थी। उनकी पत्नी कौसल्या और अन्य रानियाँ भी पवित्र आचरण वाली थीं। वे सभी अत्यंत विनम्र, पतिव्रता और भगवान के चरणों में अटूट श्रद्धा रखने वाली थीं।
लेकिन राजा दशरथ के मन में यह सोचकर बड़ी पीड़ा होती थी कि उनके कोई संतान नहीं है। वे अपने गुरु वशिष्ठ जी के आश्रम पहुँचे और विनम्र भाव से चरणों में प्रणाम कर अपनी चिंता बताई।
राजा दशरथ ने अपने मन की सारी बात अपने गुरु वशिष्ठजी को बताई। गुरुजी ने उन्हें विश्वास दिलाया और कहा – "हे राजन्! चिंता मत करो। तुम्हें चार ऐसे पुत्र प्राप्त होंगे जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध होंगे और भक्तों के समस्त भयों का नाश करेंगे।" इसके बाद वशिष्ठजी ने शृंगी ऋषि को बुलवाया और उनके द्वारा पुत्रकामेष्टि नामक विशेष यज्ञ करवाया। जब ऋषि ने श्रद्धा और भक्ति से यज्ञ में आहुतियाँ दीं, तो अग्निदेव प्रकट हुए। उनके हाथ में दिव्य खीर था। अग्निदेव ने राजा से कहा – “हे राजन्! वशिष्ठ जी ने मन में जो यथार्थ विचार किया था, वह अब पूरा हो गया है। यह पायस की खीर लो और इसे अपनी रानियों को उचित प्रकार से बाँट दो।
इसके बाद अग्निदेव राजा दशरथ को समझाकर अंतर्धान हो गए। राजा अत्यंत प्रसन्न हो गए। उनके मन में आनंद भर गया। राजा ने तुरंत अपनी प्रिय रानियों को बुलवाया। कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा वहाँ आ गईं। राजा ने आधा पायस कौसल्या को दिया। शेष आधे के दो भाग करके एक भाग कैकेयी को दिया। जो थोड़ा-सा पायस बचा, उसके भी दो हिस्से करके राजा ने सुमित्रा को दे दिए।
इस प्रकार तीनों रानियाँ गर्भवती हुईं और सभी के मन में आनंद और शांति का संचार हो गया। जिस दिन श्री हरि ने अपनी लीला से गर्भ में प्रवेश किया, उसी दिन से सारे लोकों में सुख, शांति और संपत्ति फैल गई। रानियाँ सुशीलता, सौंदर्य और तेज की खान बन गईं। समय आनंदपूर्वक बीतता रहा और वह शुभ घड़ी आ गई, जब भगवान को जन्म लेना था।
योग, नक्षत्र, ग्रह, वार, तिथि—सब कुछ अनुकूल हो गया। जड़-चेतन, सभी प्राणी हर्षित हो गए, क्योंकि श्री रामजी का जन्म सभी सुखों का मूल है।
पवित्र चैत्र मास की नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और अभिजित मुहूर्त था, जो भगवान को अत्यंत प्रिय होता है। दोपहर का समय था—ना अधिक ठंड, ना अधिक गर्मी। वह समय पूरे संसार को शांति देने वाला था। शीतल, मंद और सुगंधित पवन बह रही थी। देवता आनंदित थे, संतों के हृदय पुलकित हो रहे थे। वन पुष्पों से खिले हुए थे, पर्वत मणियों से चमक रहे थे, और नदियाँ अमृत जैसे जल से लहरें भर रही थीं।
ब्रह्माजी ने जब इस विशेष समय को पहचाना, तो सभी देवताओं के साथ सुंदर विमानों में सवार होकर वहाँ पहुँचे। आकाश स्वच्छ और देवताओं से भरा हुआ था। गन्धर्व गुणगान करने लगे और सुंदर पुष्पों की वर्षा होने लगी। नगाड़ों की आवाज़ गूंज उठी। नाग, मुनि और देवता भगवान की स्तुति करने लगे और भेंट अर्पित करने लगे। सब देवता विनती करके अपने लोकों को लौट गए। और उसी समय – सभी लोकों को शांति देने वाले, समस्त संसार के आधार, प्रभु श्री रामजी शिशुरूप में प्रकट हुए।
कौसल्याजी की गोद में श्री राम जैसे कृपालु प्रभु का अवतरण हुआ। उनका रूप इतना मनोहर था कि मुनियों के मन को मोहित कर ले। उनका शरीर मेघ के समान श्यामवर्ण था, चार भुजाएँ थीं, और वे अपने दिव्य आयुधों से सुसज्जित थे। उन्होंने वनमाला और आभूषण पहने थे, और उनकी आँखें बड़ी-बड़ी और करुणा से भरी थीं। वे खर राक्षस का संहार करने वाले और शोभा के सागर थे।
कौसल्या माता ने दोनों हाथ जोड़कर विनम्रता से कहा – “हे अनंत प्रभु! मैं आपकी स्तुति कैसे करूँ? वेद और पुराण कहते हैं कि आप माया, गुण और ज्ञान से परे हैं। आप अनिर्वचनीय और अपरिमित हैं। श्रुति और संतजन आपकी तुलना दया, सुख और सभी गुणों के भंडार से करते हैं। वही आप, भक्तों से प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति, मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं।
वेदों में कहा गया है कि भगवान के प्रत्येक रोम में अनगिनत ब्रह्मांडों की रचना समाई हुई है, जो मायामयी हैं। ऐसे अनंत ब्रह्मांडों के स्वामी प्रभु मेरे गर्भ में रहे—यह बात सुनकर विवेकी और ज्ञानी लोगों की बुद्धि भी चकित हो जाती है।
जब माता कौसल्या को यह ज्ञात हुआ, तो प्रभु मुस्कराए। वे लीला करने के इच्छुक थे, इसलिए उन्होंने अपनी पूर्व जन्म की सुंदर कथा सुनाकर माता को समझाया ताकि माता को उनमें पुत्र-सा स्नेह हो सके और भगवान के प्रति वात्सल्य भाव उत्पन्न हो।
जब माता का वह दिव्य-ज्ञान बदल गया और ममता भाव जागा, तब उन्होंने निवेदन किया—"हे तात! अब यह दिव्य रूप छोड़कर बालक की लीलाएँ करो। मुझे वही सुख सबसे प्रिय और अनुपम लगेगा।" माता के इस भाव भरे वचन को सुनकर देवताओं के स्वामी, भक्तों के रक्षक प्रभु श्री रामजी ने बालरूप धारण कर रोना शुरू कर दिया।
तुलसीदासजी कहते हैं—जो भी इस बाललीला का भावपूर्वक गान करता है, वह श्री हरि के चरणों को प्राप्त करता है और संसार रूपी अंधेरे कुएँ में फिर कभी नहीं गिरता।
भगवान ने ब्राह्मणों, गायों, देवताओं और संतों के कल्याण के लिए मनुष्य रूप में अवतार लिया। वे न तो माया के अधीन हैं, न त्रिगुणों (सत, रज, तम) से बंधे हुए। उनका शरीर दिव्य और स्वेच्छा से प्रकट हुआ है—कोई कर्मबन्धन उन्हें नहीं बाँधता। प्रभु के रोने की मधुर ध्वनि सुनकर सभी रानियाँ प्रेमविह्वल होकर दौड़ीं। दासियाँ आनंद से इधर-उधर दौड़ने लगीं। सम्पूर्ण अयोध्या नगर में आनंद छा गया।
राजा दशरथ को जब पुत्र के जन्म का समाचार मिला, तो वे आनंद-सागर में डूब गए। उनके मन में अपार प्रेम उमड़ पड़ा, शरीर रोमांचित हो उठा। वे जैसे-तैसे शरीर को संभालते हुए उठने लगे। मन में यह विचार था कि—"जिसके नाम के स्मरण से कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर प्रकट हुए हैं।"
राजा ने तुरन्त बाजे वालों को बुलाया और नगर में उत्सव का आदेश दिया। गुरु वशिष्ठ जी को बुलाया गया। वे ब्राह्मणों को साथ लेकर राजमहल आए और उस अनुपम बालक के दर्शन किए, जो रूप, गुण और दिव्यता का समंदर था।
फिर राजा दशरथ ने नान्दीमुख श्राद्ध किया, जातकर्म और अन्य शास्त्रीय संस्कार सम्पन्न किए। उन्होंने ब्राह्मणों को सोना, गायें, वस्त्र और रत्नों का दान दिया। अयोध्या नगरी को ध्वजाओं, पताकाओं और तोरणों से सजाया गया, जिसकी शोभा का वर्णन करना भी कठिन है। आकाश से फूलों की वर्षा हो रही थी और सम्पूर्ण नगर ब्रह्मानंद में डूबा हुआ था।
स्त्रियाँ समूह बनाकर स्वाभाविक श्रृंगार में सजधज कर दौड़ती हुईं। वे सोने के कलश और मंगली सामग्री से भरे थालों के साथ गाते हुए राजमहल में पहुँचीं। उन्होंने बालक की आरती उतारी, निछावर की और बार-बार प्रभु श्रीराम के चरणों पर गिरकर वंदना करने लगीं।
मागध, सूत, चारण और गायक रघुकुल के स्वामी श्री राम के पावन गुणों का गान करने लगे। राजा ने सभी को भरपूर दान दिया। जिन्हें मिला, उन्होंने भी दूसरों को बाँट दिया। नगर की गलियाँ केसर, चंदन और कस्तूरी के लेप से सुवासित हो गईं। घर-घर मंगल गीत गूंज उठे, क्योंकि सौंदर्य और शुभता के मूल श्री राम स्वयं प्रकट हुए थे। नगर के नर-नारी जहाँ-तहाँ समूहों में उत्सव मनाने लगे।
कैकेयी और सुमित्रा ने भी सुंदर पुत्रों को जन्म दिया। उस समय का सुख, वैभव और दिव्यता का वर्णन स्वयं सरस्वती और शेषनाग भी नहीं कर सकते। अवधपुरी उस समय ऐसे शोभायमान हो रही थी मानो रात्रि प्रभु के दर्शन हेतु आई हो। प्रभु के रूप को देखकर वह लजाकर सन्ध्या बनकर रुक गई हो। अगरबत्ती का धुआँ मानो संध्या का अंधकार था और उड़ता हुआ अबीर मानो संध्या की ललाई। महलों की मणियाँ तारों की तरह चमक रही थीं और राजमहल का कलश मानो चन्द्रमा की तरह शोभा दे रहा था।
राजभवन में जब वेदों की मधुर ध्वनि गूंज रही थी, वह ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो समयानुकूल पक्षियों की मधुर चहचहाहट हो रही हो। यह अद्भुत दृश्य देखकर स्वयं सूर्यदेव भी जैसे अपनी चाल भूल गए। उन्हें यह एक महीना वहीं रुकते हुए बीत गया, और वे आगे नहीं बढ़े।
पूरा महीना केवल दिन ही बना रहा, रात आई ही नहीं। यह रहस्य किसी को भी समझ में नहीं आया कि रात क्यों नहीं हुई। सूर्य अपने रथ सहित वहीं ठहर गए थे। जब अंत में वे श्री रामजी के गुणों का गान करते हुए आगे बढ़े, तब देवता, मुनि और नाग भी यह उत्सव देखकर अपने भाग्य की सराहना करते हुए अपने-अपने लोकों को लौट गए।
भगवती पार्वती से भगवान शिव कहते हैं—"हे पार्वती! तुम्हारी बुद्धि श्री रामजी के चरणों में स्थिर है, इसलिए मैं तुम्हें एक और रहस्य की बात बताता हूँ। उस समय मैं और काकभुशुण्डि भी वहाँ उपस्थित थे। लेकिन मनुष्य रूप में होने के कारण हमें कोई पहचान न सका।
हम दोनों परम आनंद में डूबे हुए, प्रेम से भरकर गलियों में घूम रहे थे। हमें तन-मन की सुध न थी। पर यह अद्भुत लीला वही जान सकता है जिस पर श्री रामजी की विशेष कृपा हो।
उस अवसर पर जो भी जिस रूप में आया, राजा दशरथ ने उसे उसी अनुसार दान दिया—हाथी, घोड़े, रथ, सोना, गौएँ, हीरे और नाना प्रकार के वस्त्र। राजा ने सब के मन को प्रसन्न कर दिया, और सभी लोग प्रसन्न होकर आशीर्वाद देने लगे—'तुलसीदासजी के स्वामी, चारों राजकुमार चिरंजीवी हों!'
इस प्रकार कुछ दिन और बीत गए। समय कब बीतता था, किसी को पता ही न चलता। दिन और रात जैसे लुप्त हो गए थे। फिर जब नामकरण संस्कार का उचित समय आया, तब राजा ने गुरु वशिष्ठजी को बुलाया।
राजा ने उनका विधिपूर्वक पूजन कर उनसे निवेदन किया—“हे मुनिवर! आप जो नाम इन बच्चों के लिए उपयुक्त समझें, कृपा करके रखें।” तब वशिष्ठजी बोले—“हे राजन्! इनके अनेक दिव्य नाम हैं, परंतु मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उपयुक्त नाम प्रस्तुत करता हूँ।”
सबसे बड़े पुत्र का नाम उन्होंने ‘राम’ रखा, जो आनंद का समुद्र और समस्त लोकों को सुख और शांति देने वाले हैं। दूसरे पुत्र का नाम ‘भरत’ रखा, जो संसार का पालन-पोषण करते हैं। जिनका स्मरण करते ही शत्रु का नाश हो जाता है, उनका नाम ‘शत्रुघ्न’ रखा गया। और जो शुभ लक्षणों के धाम हैं, श्री राम के अत्यंत प्रिय हैं और पूरे जगत के आधार हैं, उनका नाम ‘लक्ष्मण’ रखा गया।
गुरु वशिष्ठजी ने भावपूर्वक कहा—“हे राजन्! तुम्हारे ये चारों पुत्र वेद के तत्वस्वरूप हैं। वे ही मुनियों का धन, भक्तों का सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं। उन्होंने तुम्हारे प्रेमवश बाललीला में ही आनंद पाया है।”
बचपन से ही लक्ष्मणजी ने श्रीराम को अपना परम प्रिय स्वामी मान लिया और उनके चरणों में प्रेमपूर्वक समर्पित हो गए। भरत और शत्रुघ्न के बीच भी वैसा ही सेवाभाव और प्रीति जागी, जैसी कि आदर्श सेवक और स्वामी के बीच होती है।
श्याम और गौर वर्ण की दो-दो सुंदर जोड़ियों की छवि देख-देखकर माताएँ तिनके तोड़ती थीं—कि कहीं किसी की नजर न लग जाए। यद्यपि चारों ही राजकुमार गुण, शील और सौंदर्य के भंडार थे, फिर भी श्री रामचंद्रजी सबमें श्रेष्ठ, आनंद के सागर और करुणा के सूर्य थे। उनके हृदय में करुणा का चंद्रमा उदित था और उनके मुख की मोहिनी मुस्कान उसकी चंद्रकिरणों के समान सबको मोहित कर रही थी। माता कौसल्या कभी उन्हें गोद में लेकर, कभी पालने में लिटाकर “प्यारे ललना!” कहकर स्नेह में डूबी हुई दुलार करती थीं।
जो परम ब्रह्म हैं — सर्वव्यापक, अजन्मा, मायारहित, निराकार, निर्गुण और आनंदस्वरूप — वही प्रभु श्रीराम, माता कौसल्या की गोद में बालरूप में खेल रहे हैं। यह प्रभु प्रेम और भक्ति के वश होकर बाललीलाएँ कर रहे हैं।
उनके श्यामवर्ण शरीर की शोभा नील कमल और घनघोर जल से भरे हुए मेघ के समान है, और करोड़ों कामदेव भी जिनके सौंदर्य के सामने फीके हैं। उनके लाल-लाल चरणकमलों के नाखूनों से निकली शुभ्र ज्योति ऐसी लगती है जैसे लाल कमल के पत्तों पर मोती चमक रहे हों।
चरणों में वज्र, ध्वजा और अंकुश के चिह्न शोभित हैं। उनके पैरों की पैंजनी की मधुर ध्वनि सुनकर ऋषियों-मुनियों का मन भी मोहित हो जाता है। उनकी कमर में करधनी बंधी है, और पेट पर त्रिवली (तीन सुंदर रेखाएँ) हैं। उनकी नाभि की गहराई का अनुभव केवल वही कर सकते हैं जिन्हें साक्षात् दर्शन मिले हों।
उनकी भुजाएँ बलशाली और आभूषणों से सुशोभित हैं। उनके वक्षस्थल पर सिंह के नखों की छवि और सुंदर रत्नों की माला अत्यंत मनोहारी है। वहाँ ब्राह्मण भृगुजी का चरणचिह्न भी है, जिसे देखकर मन तुरंत रम जाता है। उनका कंठ शंख के समान सुंदर और सुगठित है, ठोड़ी अत्यंत कोमल और आकर्षक है। मुखमंडल पर अनगिनत कामदेवों की शोभा छा रही है। दो-दो सुंदर दाँत और लाल-लाल ओठों की छटा अनुपम है। उनकी नासिका और तिलक का सौंदर्य शब्दों में नहीं कहा जा सकता।
उनके सुंदर कान, कोमल गाल और मधुर तोतली वाणी हर किसी का मन मोह लेते हैं। जन्म से ही उनके सिर पर घुँघराले, चमकदार बाल हैं, जिन्हें माता कौसल्या प्रेम से सँवारती हैं। श्री रामजी के शरीर पर पीले वस्त्र शोभायमान हैं। जब वे घुटनों और हाथों के बल चलने लगते हैं, तो वह दृश्य बहुत ही प्यारा लगता है। उनके सौंदर्य और स्वरूप का वर्णन वेद और शेषनाग भी नहीं कर सकते। उसे वही जान सकता है, जिसने कभी स्वप्न में भी उनका दर्शन किया हो।
वे प्रभु जो सुख स्वरूप, मोह से परे, और इंद्रियों तथा वाणी की पहुँच से भी परे हैं, वे दशरथ और कौसल्या के प्रेम में बंधकर पवित्र बाल लीला कर रहे हैं। इस प्रकार भगवान् श्री रामचन्द्रजी सम्पूर्ण संसार के माता-पिता बनकर अयोध्यावासियों को आनंद दे रहे हैं। हे भवानी! जिन भक्तों ने उनके चरणों में प्रेम बाँधा है, उनके जीवन में यही प्रत्यक्ष फल है—कि भगवान स्वयं उनके बीच बाललीला करते हैं।
जो मनुष्य प्रभु श्रीराम से विमुख होकर चाहे जितने भी उपाय कर ले, उसका संसार बंधन नहीं कट सकता। जिन्होंने सम्पूर्ण जगत को वश में किया है, उन्हीं प्रभु से माया भी डरती है। प्रभु उस माया को मात्र भौंह के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोड़कर और किसका भजन किया जाए? यदि कोई मन, वचन और कर्म से चतुराई छोड़कर भक्तिभाव से उनका स्मरण करता है, तो प्रभु अवश्य कृपा करते हैं।
इसी प्रकार श्री रामचन्द्रजी अपनी बालक्रीड़ा से सम्पूर्ण नगरवासियों को सुख देते थे। माता कौसल्या कभी उन्हें गोद में लेकर झुलातीं, कभी पालने में लिटाकर दुलार करतीं। प्रेम में डूबी हुई माता कौसल्या को दिन-रात का भान नहीं रहता था। वह पुत्र-स्नेह में श्री रामजी की बाललीलाओं का मधुर गान करती रहती थीं।
एक बार माता ने श्री राम को स्नान कराकर सुंदर वस्त्रों और आभूषणों से सजाया, और उन्हें पालने पर सुला दिया। फिर वे अपने कुलदेवता की पूजा के लिए स्नान करने चली गईं।
पूजन कर नैवेद्य अर्पण किया और रसोई के स्थान पर भी गईं। जब माता फिर पूजास्थल पर लौटीं, तो देखा कि श्री राम वहाँ नैवेद्य (भोग) को ग्रहण कर रहे हैं। माता को बहुत आश्चर्य हुआ—“जो बालक अभी पालने में था, वह यहाँ कैसे आया?” भयवश वह तुरंत पालने की ओर दौड़ीं, वहाँ देखा कि श्री राम तो शांतभाव से सो रहे हैं।
फिर जब माता पूजास्थल पर लौटीं, तो देखा कि वही श्री राम वहाँ भी उपस्थित हैं और भोग ले रहे हैं। माता कौसल्या का हृदय कंपित हो उठा और मन शांत न हो सका।
वह सोचने लगी कि यहाँ और वहाँ मैंने दो बालक देखे। यह मेरी बुद्धि का भ्रम है या और कोई विशेष कारण है? प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने माता को घबड़ाई हुई देखकर मधुर मुस्कान से हँस दिए। फिर उन्होंने माता को अपना अखण्ड अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक-एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं
अगणित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत-से पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव देखे। और वे पदार्थ भी देखे जो कभी सुने भी न थे
सब प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह भगवान के सामने अत्यन्त भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है। जीव को देखा, जिसे वह माया नचाती है और फिर भक्ति को देखा, जो उस जीव को माया से छुड़ा देती है। माता का शरीर पुलकित हो गया, मुख से वचन नहीं निकलता। तब आँखें मूंदकर उसने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाया। माता को आश्चर्यचकित देखकर खर के शत्रु श्री रामजी फिर बालरूप हो गये।
माता से स्तुति भी नहीं की जाती। वह डर गयी। श्री हरि ने माता को बहुत प्रकार से समझाया और कहा- हे माता! सुनो, यह बात कहीं पर कहना नहीं। कौसल्याजी बार-बार हाथ जोड़कर विनय करती हैं कि हे प्रभो! मुझे आपकी माया अब कभी न व्यापे। भगवान ने बहुत प्रकार से बाललीलाएँ कीं और अपने सेवकों को अत्यन्त आनन्द दिया। कुछ समय बीतने पर चारों भाई बड़े होकर कुटुम्बियों को सुख देनेवाले हुए। तब गुरुजी ने जाकर चूड़ाकर्म-संस्कार किया। ब्राह्मणों ने फिर बहुत-सी दक्षिणा पायी। चारों सुन्दर राजकुमार बड़े ही मनोहर अपार चरित्र करते फिरते हैं।
जो मन, वचन और कर्म से अगोचर हैं, वही प्रभु दशरथजी के आँगन में विचर रहे हैं। भोजन करने के समय जब पिता बुलाते हैं, तब वे अपने बालसखाओं को छोड़कर नहीं आते। कौसल्या जी जब बुलाने जाती हैं, तब प्रभु ठुमुक ठुमुक भाग चलते हैं। वे शरीर में धूल लपेटे हुए आये और पिता जी ने हँसकर उन्हें गोद में बैठा लिया। भोजन करते करते अवसर पाकर मुँह में दही-भात लपटाये किलकारी मारते हुए इधर-उधर भाग चलते है। श्री रामचन्द्रजी की बहुत ही भोली और सुन्दर मनभावनी बाललीलाओं का सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदों ने गुणगान किया है।
ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी भाइयों सहित गुरु के आश्रम में विद्या ग्रहण करने गये और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गयीं।
चारों वेद जो स्वयं भगवान ने रचे हैं, वे भगवान खुद पढ़ें, यह तो बड़े अचरज की बात है। चारों भाई विद्या, विनय, गुण और शील में बड़े निपुण हैं
हाथों में बाण और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं। रूप देखते ही सारा संसार मोहित हो जाता हैं। वे सब भाई जिन गलियों से खेलते हुए निकलते हैं, उन गलियों के सभी स्त्री-पुरुष उनको देखकर स्नेह से शिथिल हो जाते हैं। कोसलपुर के रहने वाले स्त्री, पुरुष, बूढ़े और बालक सभी को कृपालु श्री रामचन्द्रजी प्राणों से भी बढ़कर प्रिय लगते हैं।
श्री रघुनाथजी प्रातःकाल उठकर माता पिता और गुरु को प्रणाम करते है और नगर के काम काज में मदद करते है उनका यह चरित्र देखकर राजा और नगरवासी खूब हर्षित होते है। फिर श्री रामचन्द्रजी नित्य अपने भाईयों और मित्रो के साथ वन में शिकार खेलते है। और शिकार प्रतिदिन लाकर दशरथ जी को दिखलाते है।
7. असुर सुबाहु-मारीच व देवी अहल्या उद्धार
मिथिला राज्य के सुन्दर वन में ज्ञानी महामुनि विश्वामित्र जी का बड़ा पावन आश्रम था वहां वे अपने शिष्यों के साथ जप, यज्ञ और योग करते थे। किंतु मारीच और सुबाहु दोनों राक्षस मुनि के सारे यज्ञ भंग कर बड़ा उपद्रव मचाते थे। और सभी मुनियों को बड़ा दुख देते थे। महा ज्ञानी मुनि जी जानते थे कि प्रभु श्री रामजी ने धरती पर अवतार लिया है। और वे ही हम ऋषियों को उन राक्षसों से बचाएंगे। इसी बहाने प्रभु जी के दर्शन का लाभ भी मिल सकेगा। इस उद्देश्य से वे सरयू नदी के पवित्र जल में नहाकर राजा दशरथ के द्वार पहुंचे।
राजा दशरथ ने भी बड़े आदर सहित मुनि विश्वामित्र जी का आवभगत किया उनके चरणों को धोकर पवित्र आसन पर बिठाया, अनेक प्रकार के प्रिय भोजन कराया। उसके बाद दशरथजी अपने चारों पुत्रों को मुनि के दर्शन कराए। और महल आने का कारण पूछा।
मुनि बोले - हे राजन! राक्षसों के समूह हमारे यज्ञ और पूजा में विघ्न डालते है, नित्य हमारे आश्रम में उपद्रव मचाते है। और हम मुनियों से दुर्व्यवहार करते है। इसलिए राजन में यहां तुमसे कुछ मांगने आया हूँ, हे राजन! छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री रघुनाथ जी को मेरे साथ चलने की आज्ञा दीजिए। राक्षसों के विनाश के बाद हम सुरक्षित रूप से भगवान की भक्ति कर सकेंगे।
इस अत्यन्त अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय काँप उठा उन्होंने कहा- हे ब्राह्मण! मैंने अपने बुढ़ापे में चार पुत्र पाये हैं, हे मुनि! आप पृथ्वी, गौ, धन और खजाना माँग लीजिये, मैं आज बड़े हर्ष के साथ अपना सर्वस्व दे दूँगा। प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल में दे दूँगा।
किंतु सभी पुत्र मुझे प्राणों से अधिक प्यारे हैं उनमें भी हे प्रभो! राम को तो किसी भी कीमत पर दे नहीं सकता। कहाँ अत्यन्त भयानक और क्रूर राक्षस और कहाँ परम किशोर अवस्था के बिलकुल सुकुमार मेरे सुन्दर पुत्र! प्रेम-रस में सनी हुई राजा की वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी ने हृदय में बड़ा हर्ष माना। फिर वसिष्ठजी ने राजा को बहुत प्रकार से समझाया, जिससे राजा का सन्देह खत्म हुआ। राजा ने बड़े ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें शिक्षा दी। फिर कहा- हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि! अब आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं। इनका ध्यान रखिएगा।
पुरुषों में सिंह रूप दोनों भाई राम-लक्ष्मण मुनि का भय दूर करने, प्रसन्न होकर चले। वे भगवान के लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं, नील कमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम्बर पहने और सुन्दर तरकस कसे हुए हैं। दोनों हाथों में सुन्दर धनुष और बाण हैं।
मार्ग में राक्षसी ताड़का का सामना हुआ। मुनि और श्री रामजी की आवाज सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी। श्री रामजी ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिये और उसे श्राप मुक्त किया। इसके बाद ऋषि विश्वामित्र ने प्रभु को ऐसी दिव्य विद्या दी, जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो। सब अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके मुनि प्रभु श्री रामजी को अपने आश्रम में ले आये और उन्हें परम हितैषी जानकर भक्ति पूर्वक कन्द, मूल और फल का भोजन कराया।
सबेरे श्री रघुनाथजी ने मुनि से कहा- आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिये। आज हम आपके यज्ञ में किसी भी तरह का विघ्न नहीं होने देंगे। यह सुनकर सब मुनि प्रसन्न होकर हवन करने लगे। यह समाचार सुनकर मुनियों का शत्रु, क्रोधी राक्षस मारीच, अपने सहायकों को साथ लेकर यज्ञ विध्वंस के लिए दौड़ा। श्री रामजी ने उसे ऐसा बाण मारा कि वह सौ योजन विस्तृत समुद्र के पार जा गिरा। फिर श्री रामजी ने सुबाहु को अग्निबाण से मार गिराया। उधर छोटे भाई लक्ष्मणजी ने राक्षसों की सारी सेना का संहार कर दिया। इस प्रकार श्री रामजी ने राक्षसों का नाश करके ब्राह्मणों को निर्भय कर दिया। तब सभी देवता और मुनिगण प्रसन्न होकर उनकी स्तुति करने लगे। कुछ दिनों बाद मुनि विश्वामित्रजी प्रभु श्री राम को जनकपुर में होने वाले धनुष यज्ञ के दर्शन हेतु ले चले। मार्ग में चलते हुए एक आश्रम दिखाई दिया, जहाँ न कोई मनुष्य था, न पशु-पक्षी और न ही कोई जीव-जंतु। वहाँ केवल एक स्त्री-आकार की पत्थर की शिला थी। उसे देखकर प्रभु श्री रामजी ने मुनि से इसका रहस्य पूछा। तब मुनि ने विस्तार से बताया - "यह गौतम मुनि की पत्नी अहल्या हैं, जो शाप के कारण पत्थर की देह धारण किए यहाँ धैर्यपूर्वक आपके चरण-कमलों की धूल की प्रतीक्षा कर रही हैं। हे रघुवीर! कृपा करके इन्हें अपना पावन स्पर्श दीजिए।" जैसे ही श्री रामजी के पवित्र चरण उस शिला पर पड़े, वह तपस्विनी अहल्या अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गईं। प्रभु श्री राम को सामने पाकर वह प्रेम और भक्ति से भरकर उनके चरणों से लिपट गईं। उनके नेत्रों से प्रेम और आनंद के आँसू बहने लगे। फिर मन में धैर्य करके उन्होंने प्रभु को पहचाना और श्री रामजी की कृपा से भक्ति प्राप्त की। वह विनम्रता से कहने लगीं—
"मुनि ने जो मुझे शाप दिया, वह वास्तव में मेरे लिए परम कल्याणकारी सिद्ध हुआ। मैं उसे ईश्वर की कृपा मानती हूँ, क्योंकि उसी के कारण मैंने संसार से उद्धार करने वाले प्रभु श्री हरि को प्रत्यक्ष देखा। हे प्रभो! मैं बुद्धि से अत्यंत सरल हूँ, आपसे एक ही विनती है — मैं और कोई वर नहीं माँगती, बस यही चाहती हूँ कि मेरा मन रूपी भौंरा सदा आपके चरण-कमलों की रज से प्रेम रूपी अमृत रस का पान करता रहे।"
"जिन चरणों से गंगा जैसी परमपावन नदी प्रकट हुई, जिन्हें शिवजी ने अपने सिर पर धारण किया, और जिन्हें ब्रह्माजी पूजते हैं — उन्हीं चरणों को कृपालु प्रभु श्री हरि ने मेरे सिर पर रखा।"
इस प्रकार अहल्या बार-बार प्रभु के चरणों में गिरकर स्तुति करने लगीं। जब उन्होंने प्रभु का साक्षात् स्नेह और आशीर्वाद पाया, तो अत्यंत आनंदित होकर अपने पतिलोक को चली गईं।
श्री रामजी और लक्ष्मणजी मुनि के साथ फिर आगे चल पड़े। कुछ समय बाद वे जगत को पवित्र करने वाली गंगा नदी के पास पहुंचे। महाराज गाधिके पुत्र विश्वामित्र जी ने देवनदी गंगाजी के पृथ्वी पर आने की कथा सुनाई। फिर प्रभुने ऋषियों सहित गंगाजी मे स्नान किया। फिर मुनि के साथ वे प्रसन्न होकर चले और शीघ्र ही जनकपुर के निकट पहुँच गये।
श्री रामजी ने जब जनकपुर की शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मणसहित अत्यन्त हर्षित हुए। वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृत के समान जल है और मणियों की सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। रंग-बिरंगे पक्षी मधुर शब्द कर रहे हैं। रंग-रंग के कमल खिले हैं। सब ऋतुओं मे सुख देनेवाला शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन बह रहा है। पुष्पवाटिका, बाग और वन, जिनमें बहुत-से पक्षियों का निवास है, फूलते, फलते और सुन्दर पत्तों से लदे हुए नगर के चारों ओर सुशोभित हैं। नगर की सुन्दरता का वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है; वहीं रम जाता है। सुन्दर बाजार है, मणियों से बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्माने उन्हें अपने हाथों से बनाया है।
कुबेर के समान श्रेष्ठ धनी व्यापारी सब प्रकार की अनेक वस्तुएँ लेकर दूकानों में बैठे हैं। सुन्दर चौराहे और सुहावनी गलियाँ की तो क्या बात है। सबके घर मङ्गलमय हैं और उनपर चित्र कढ़े हुए हैं, जिन्हें मानो कामदेव रूपी चित्रकार ने अंकित किया है। नगर के सभी स्त्री-पुरुष सुन्दर, पवित्र, साधु-स्वभाव वाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान् हैं।
जहाँ जनकजी का अत्यन्त अनुपम सुन्दर महल है, वहाँ के ऐश्वर्य को देखकर देवता भी चकित हो जाते हैं। मनुष्यों की तो बात ही क्या!
उज्ज्वल महलों में अनेक प्रकार के सुन्दर रीति से बने हुए मणिजटित सोने की जरी के परदे लगे हैं। राजमहल के सब दरवाजे फाटक सुन्दर हैं, वहाँ राजाओं, नटों, मागधों और भाटों की भीड़ लगी रहती है। घोड़ों और हाथियों के लिये बहुत बड़ी-बड़ी घुड़शालें और गजशालाएँ बनी हुई हैं; जो हमेशा घोड़े, हाथी और रथों से भरी रहती हैं।
बहुत-से शूरवीर, मन्त्री और सेनापति हैं। उन सबके घर भी राजमहल सरीखे ही हैं। नगर के बाहर तालाब और नदी के निकट जहाँ-तहाँ बहुत-से राजालोग डेरा डाले हुए हैं।
वहीं आमों का एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब प्रकार की सुविधा थी और जो सब तरह से मनोहर सुहावना था, विश्वामित्रजी ने कहा- हे सुजान रघुवीर! मेरा मन कहता है कि यहीं रहा जाय।
कृपाकेधाम श्री रामचन्द्रजी 'बहुत अच्छा स्वामिन्!' कहकर वहीं मुनियों के समूह के साथ ठहर गये। मिथिलापति जनकजी ने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र आये हैं, तब उन्होंने पवित्र हृदय के ईमानदार, स्वामिभक्त मन्त्री, बहुत-से योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुरु शतानन्दजी और अपनी जाति के श्रेष्ठ लोगों के साथ राजा मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी से मिलने चले।
राजा ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। सुकुमार किशोर अवस्था वाले, श्याम और गौर वर्ण के दोनों कुमार नेत्रों को सुख देने वाले हैं। जब रघुनाथ जी आये तब सभी उनके रूप एवं तेज से प्रभावित होकर उठकर खड़े हो गये। विश्वामित्रजी ने उनको अपने पास बैठा लिया। दोनों भाइयों को देखकर सभी के शरीर रोमाञ्चित हो उठे। श्री रामजी की मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर जनक जी अपनी सुध-बुध खो दिए। राजा जनक ने मुनि के चरणों में सिर नवाकर प्रेमभरी वाणी से पूछा।
हे नाथ! कहिये, ये दोनों सुन्दर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने 'नेति' कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगलरूप लेकर नहीं आए है?
हे प्रभो! मैं आपसे सत्य भाव से पूछता हूँ। हे नाथ! बताइये, ये दोनों कौन है ? इनको देखते ही अत्यन्त प्रेम के वश होकर मेरे मन ने जबर्दस्ती ब्रह्म सुख को त्याग दिया है। मुनि ने हँसकर कहा- हे राजन् ! आपने ठीक ही कहा। आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता।
जगत में जहाँ तक जितने भी प्राणी हैं, ये सभी को प्रिय हैं। ये रघुकुलमणि महाराज दशरथ के पुत्र हैं। मेरे हित के लिये राजा ने इन्हें मेरे साथ भेजा है।
ये राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल के धाम हैं। सारा जगत इस बात का साक्षी है कि इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकर मेरे यज्ञ की रक्षा की है। राजा बार-बार प्रभु को देखते हैं प्रेम से शरीर पुलकित हो रहा है और हृदय में बड़ा उत्साह है। फिर मुनि की प्रशंसा करके और उनके चरणों में सिर झुका कर राजा उन्हें नगर में लिवा चले।
एक सुन्दर महल जो सभी ऋतुओं में सुखदायक था, वहाँ राजा ने उन्हें ले जाकर ठहराया। रघुकुल के शिरोमणि प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऋषियों के साथ भोजन और विश्राम करके भाई लक्ष्मण समेत बैठे।
लक्ष्मण जी के हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें। परन्तु प्रभु श्री रामचन्द्रजी का डर है और फिर मुनि से भी संकोच करते हैं। किंतु श्री रामचन्द्रजी ने छोटे भाई के मन की दशा जान ली, वे गुरु की आज्ञा पाकर बहुत ही विनय के साथ मुस्कराकर बोले - हे नाथ! लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, किन्तु आप के डर और संकोच के कारण स्पष्ट नहीं कहते। यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं इसको ये सुंदर नगर घुमा दूं।
यह सुनकर मुनीश्वर विश्वामित्र जी ने प्रेम सहित वचन कहे- हे राम! तुम धर्म की मर्यादा का पालन करने वाले और प्रेम के वशीभूत होकर सेवकों को सुख देनेवाले हो। सुख के निधान दोनों भाई जाकर नगर देख आओ। अपने सुन्दर मुख दिखलाकर सब नगर-निवासियों के नेत्रों को सफल करो। दोनों भाइयों के पीले रंग के वस्त्र हैं, कमर के पीले दुपट्टों में तरकस बँधे हैं। हाथों में सुन्दर धनुष-बाण सुशोभित हैं। श्याम और गौर वर्ण के शरीरों के अनुकूल रंग के सुन्दर चन्दन का तिलक है। सिंह के समान पुष्ट गर्दन और विशाल भुजाएँ हैं। चौड़ी छाती पर अत्यन्त सुन्दर गजमुक्ता की माला है। सुन्दर लाल कमल के समान नेत्र और चन्द्रमा के समान मुख है।
जब नगर वासियों ने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिये आये हैं, तब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मानो दरिद्र खजाना लूटने दौड़े हों। स्वभाव से सुन्दर दोनों भाइयों को देखकर वे लोग नेत्रों का फल पाकर सुखी हो रहे हैं। स्त्रियाँ घर के झरोखों से प्रेम सहित श्री रामचन्द्रजी के रूप को देख रही हैं। वे आपस में बड़े प्रेम से बातें कर रही हैं - हे सखी! इन्होंने करोड़ों कामदेवों की छबि को जीत लिया है। देवता, मनुष्य, असुर, नाग और मुनियों में ऐसी शोभा तो कहीं सुनने में भी नहीं आती। हे सखी! भगवान विष्णु की चार भुजाएँ हैं, ब्रह्माजी के चार मुख हैं, शिवजी के पाँच मुख और विकराल रूप है। पर श्रीराम जैसे सुंदर किशोर रूप की उपमा किसी देवता से भी नहीं दी जा सकती। ये सौंदर्य के धाम हैं, जिनके श्याम और गौर वर्ण अंग-अंग पर करोड़ों कामदेव भी निछावर हो जाएँ।
हे सखी! बताओ, ऐसा कौन प्राणी होगा जो इनके रूप को देखकर मोहित न हो जाए? तभी एक दूसरी सखी ने प्रेमपूर्वक कहा – "सुनो! ये दोनों राजकुमार अयोध्याधिपति महाराज दशरथ के पुत्र हैं। ये मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए आए थे और उन्होंने राक्षसों का वध किया है।"
श्यामवर्ण, कमल-नेत्रों वाले, धनुष-बाण धारण किए जो सुंदर किशोर हैं, वे श्री राम हैं — कौसल्या जी के पुत्र। उनके पीछे-पीछे चलने वाले गौरवर्ण वाले राजकुमार उनके छोटे भाई लक्ष्मण हैं — माता सुमित्रा के पुत्र।
दोनों भाई मुनि विश्वामित्र की सेवा करके, अहल्या का उद्धार करके यहाँ धनुष-यज्ञ देखने आए हैं। यह जानकर नगर की सभी स्त्रियाँ हर्षित हो उठीं।
फिर एक सखी बोली – "हे सखी! यह रूप तो जानकी के योग्य है। यदि राजा जनक इन्हें देख लें, तो अपनी प्रतिज्ञा छोड़कर भी इन्हीं से सीता का विवाह कर दें।" एक सखी बोली – राजा जनक ने इन राजकुमारों को पहचान लिया है और मुनि के साथ आदर सत्कार भी किया है, परंतु वे अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ते।
दूसरी सखी ने कहा – अगर विधाता कृपालु हैं, तो जानकी जी को यही वर अवश्य मिलेगा। इसमें कोई संदेह नहीं। एक सखी बोली – "यदि ऐसा दैवयोग बना, तो हम सभी धन्य हो जाएंगे। मैं तो इसी आशा से आतुर हूँ कि विवाह के बाद ये बार-बार यहाँ आएँगे। और यदि विवाह न हुआ तो? एक ने दुख से कहा, तो इनके दर्शन फिर दुर्लभ हो जाएँगे। ऐसा संयोग तभी होगा जब हमारे पूर्व जन्मों के पुण्य बलवान हों।
फिर एक ने कहा – हे सखी! यह विवाह सब के लिए कल्याणकारी होगा। पर शंकरजी का धनुष बहुत कठोर है। और ये राजकुमार तो कोमल-कांतिवान बालक हैं। तभी दूसरी सखी मधुर स्वर में बोली – सुनो! ये दिखने में छोटे हैं, पर इनका तेज अपार है। जिनके चरणों की धूल से अहल्या उद्धार पाई, वे यह धनुष क्यों नहीं तोड़ पाएँगे? जिस ब्रह्मा ने सीताजी को रचा है, उसने श्री राम जैसे सुंदर, योग्य वर को भी रचा है। ये सुनकर सभी स्त्रियाँ आनंदित हो गईं और कहने लगीं – "ऐसा ही हो!" हर्ष से भरकर वे फूल बरसाने लगीं। जहाँ-जहाँ दोनों भाई जाते, वहाँ-वहाँ आनंद छा जाता। दोनों भाई नगर के पूरब दिशा में पहुँचे, जहाँ धनुष यज्ञ के लिए सुंदर रंगभूमि सजाई गई थी। वहाँ एक विशाल, पक्का और कलात्मक आँगन बना था, चारों ओर सोने के सुंदर मंच बनाए गए थे, जहाँ-जहाँ राजा लोग बैठेंगे। उनके पीछे चारों दिशाओं में एक गोलाकार मंडल था, जो नगरवासियों के लिए बना था — ऊँचा, विशाल और अत्यधिक सुंदर। वहीं पास ही विविध रंगों से रचे भव्य सफेद भवन बने थे, जहाँ नगर की स्त्रियाँ अपने-अपने कुल और मर्यादा के अनुसार बैठकर यज्ञ का दृश्य देख सकें। नगर के बालक मधुर वचनों से श्री रामचंद्रजी को आदरपूर्वक पूरी यज्ञभूमि दिखा रहे थे। वे श्री रामजी के सुंदर अंगों को स्पर्श करके पुलकित हो रहे थे और दोनों भाइयों को देखकर अत्यंत हर्षित हो रहे थे। श्री राम ने उन सब बालकों के स्नेह को जानकर प्रेमपूर्वक यज्ञभूमि की प्रशंसा की, जिससे बालकों का उत्साह और प्रेम और भी बढ़ गया। श्री रामजी कोमल और मधुर वाणी से अपने छोटे भाई लक्ष्मण को यज्ञ की रचना दिखाते और समझाते हैं — वही प्रभु जिनकी आज्ञा मात्र से माया पलभर में असंख्य ब्रह्मांडों की रचना कर देती है। इस प्रकार सब कौतुक विचित्र रचना देखकर वे गुरु के पास चले। देर हुई जानकर उनके मन में डर है। फिर भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे। रात्रि का प्रवेश होते ही मुनि ने आज्ञा दी, तब सब ने सन्ध्यावन्दन किया। फिर प्राचीन कथाएँ तथा इतिहास कहते-कहते सुन्दर रात्रि के दो - पहर बीत गयी। तब श्रेष्ठ मुनि ने जाकर शयन किया। दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे जिनके चरणकमलों के दर्शन एवं स्पर्श के लिये वैराग्यवान पुरुष भी भाँति-भाँति के जप और योग करते हैं। वे ही दोनों भाई मानो प्रेम से जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजी के चरणकमलों को दबा रहे हैं। मुनि के बार-बार कहने पर और उनसे आज्ञा लेकर श्री रघुनाथ जी ने जाकर शयन किया।
8. सीता स्वयंवर एवं शिवधनुष का भंजन
सुबह होते ही, जब मुर्गे की आवाज कानों में पड़ी तो लक्ष्मणजी उठे। जगत के स्वामी सुजान श्री रामचन्द्रजी भी गुरु से पहले ही जाग गये। सब शौचक्रिया करके वे जाकर नहाये। फिर सन्ध्या अग्निहोत्रादि नित्यकर्म समाप्त करके उन्होंने मुनि को मस्तक नवाया। पूजा का समय जानकर, गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई फूल लेने चले। उन्होंने महल के सुन्दर बाग को देखा, मन को लुभाने वाले अनेक वृक्ष लगे हैं। रंग-बिरंगी उत्तम लताओं के मण्डप छाये हुए हैं। नये पत्तों, फलों और फूलों से युक्त सुन्दर वृक्ष अपनी सम्पत्ति से कल्पवृक्ष को भी लज्जित कर रहे हैं। पपीहे, कोयल, तोते, चकोर आदि पक्षी मीठी बोली बोल रहे हैं और मोर सुन्दर नृत्य कर रहे हैं। बाग के बीचो बीच सुहावना सरोवर भी है, जिसमें मणियों की सीढ़ियाँ सुंदर ढंग से बनी हैं। उसका जल निर्मल है, जिसमें अनेक रंगों के कमल खिले हुए हैं, बाग और सरोवर को देखकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी भाई लक्ष्मण सहित हर्षित हुए। श्री राम जी ने चारों ओर दृष्टि डालकर और मालियों से पूछकर प्रसन्न मन से पुष्प लेने लगे। उसी समय सीता जी वहाँ आयीं। उनकी माताजी ने उन्हें गिरिजा (पार्वती) जी की पूजा करने के लिये भेजा था। साथ में उनकी सयानी सखियाँ हैं, जो मनोहर वाणी से गीत गा रही हैं। सरोवर के पास गिरिजाजी का मन्दिर सुशोभित है,
सखियों सहित सरोवर में स्नान करके सीताजी प्रसन्न मन से गिरिजा जी के मन्दिर में गयीं। उन्होंने बड़े प्रेम से पूजा की और अपने योग्य सुन्दर वर माँगा। एक सखी सीताजी का साथ छोड़कर फुलवाड़ी देखने चली गयी थी। उसने जाकर वहां दोनों भाइयों को देखा और प्रेम में विह्वल होकर वह सीताजी के पास दौड़ी आयी।
सखियों ने उसके शरीर को इतना पुलकित देखकर कोमल वाणी से पूछने लगीं कि अपनी प्रसन्नता का कारण बता- उसने कहा- दो राजकुमार बाग देखने आये हैं। किशोर अवस्था के हैं और सब प्रकार से सुन्दर हैं। वे साँवले और गोरे रंग के हैं; उनके सौन्दर्य को मैं कैसे बखानकर कहूँ। वाणी बिना नेत्र की है और नेत्रों के वाणी नहीं है।
यह सुनकर और सीताजी के हृदय में बड़ी उत्कण्ठा देख सब सयानी सखियाँ प्रसन्न हुईं। तब एक सखी कहने लगी- हे सखी! ये वही राजकुमार हैं जो सुना है कि कल विश्वामित्र मुनि के साथ आये हैं और जिन्होंने अपने रूप की मोहिनी डालकर नगर के स्त्री-पुरुषों को अपने वश में कर लिया है। जहाँ-तहाँ सब लोग उन्हीं की छबि का वर्णन कर रहे हैं। हमें अवश्य चलकर उन्हें देखना चाहिये, वे देखने ही योग्य हैं उसके वचन सीताजी को अत्यन्त ही प्रिय लगे और दर्शन के लिये उनके नेत्र व्याकुल उठे। उसी प्यारी सखी को आगे करके सीताजी चलीं।
नारदजी के वचनों का स्मरण करके सीताजी के मन में पवित्र प्रीति उत्पन्न हुई। वे डरी हुई मृगछौनी की तरह इधर-उधर देख रही है। हाथों के कंगन, करधनी और पायजेब की आवाज़ सुनकर श्री रामचन्द्रजी हृदय में विचार कर लक्ष्मण से कहते हैं- यह ध्वनि ऐसी आ रही है मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का संकल्प करके डंके पर चोट मारी है। ऐसा कहकर श्री रामजी ने घूमकर उस ओर देखा। श्री सीताजी के मुखरूपी चन्द्रमा को निहारने के लिये उनके नेत्र चकोर बन गये। सुन्दर नेत्र स्थिर हो गये। सीताजी की शोभा देखकर श्री रामजी ने बड़ा सुख पाया। हृदय में वे उसकी सराहना करते हैं, किन्तु मुख से वचन नहीं निकलते। वह शोभा ऐसी अनुपम है मानो ब्रह्माने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान् कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो
वह सीताजी की शोभा सुन्दरता को भी सुन्दर करने वाली है वह ऐसी मालूम होती है। मानो सुन्दरता रूपी घर में दीपक की लौ जल रही हो। अबतक सुन्दरता रूपी भवन में अँधेरा था, वह भवन मानो सीताजी की सुन्दरता रूपी दीपशिखा को पाकर जगमगा उठा है, जो पहले से भी अधिक सुन्दर हो गया है। इस प्रकार हृदय में सीताजी की शोभा का वर्णन करके और अपनी दशा को विचारकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी पवित्र मन से अपने छोटे भाई लक्ष्मण से समयानुकूल वचन बोले- हे तात! यह वही जनकजी की कन्या है जिसके लिये धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिये ले आयी हैं। और यह फुलवाड़ी में प्रकाश करती हुई फिर रही है। जिसकी अलौकिक सुन्दरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन मोहित हो गया है। हे भाई! सुनो, मेरे मङ्गलदायक दाहिने अंग फड़क रहे हैं।
श्री रामजी छोटे भाई से बातें कर रहे हैं, पर उनका मन सीताजी के रूप में मग्न है। सीताजी चकित होकर चारों ओर देख रही हैं। मन इस बात की चिन्ता कर रहा है कि राजकुमार कहाँ चले गये। तब सखियों ने लता की ओट में सुन्दर श्याम और गौर कुमारों को दिखलाया। उनके रूप को देखकर नेत्र ललचा उठे। वे ऐसे प्रसन्न हुए मानो उन्होंने अपना खजाना पहचान लिया। श्री रघुनाथजी की छबि देखकर नेत्र निश्चल हो गये। पलकों ने भी गिरना छोड़ दिया। अधिक स्नेह के कारण शरीर विह्वल बेकाबू हो गया। मानो शरद् ऋतु के चन्द्रमा को चकोरी बेसुध हुई देख रही हो।
नेत्रों के रास्ते श्री रामजी को हृदय में लाकर चतुर शिरोमणि जानकीजी ने पलकों के किवाड़ लगा दिये (अर्थात् नेत्र मूंदकर उनका ध्यान करने लगीं)। जब सखियों ने सीताजी को प्रेम के वश जाना, तब वे मन में सकुचा गयीं। कुछ कह नहीं सकती थीं।
उसी समय दोनों भाई लतामण्डप में से प्रकट हुए। मानो दो निर्मल चन्द्रमा बादलों के पर्दे को हटाकर निकले हों। उनके शरीर की आभा नीले और पीले कमल-सी है। सिरपर सुन्दर मोरपंख सुशोभित हैं। उनके बीच-बीच में फूलों की कलियों के गुच्छे लगे हैं। माथे पर तिलक और पसीने की बूँदें शोभायमान हैं। कानों में सुन्दर भूषणों की छबि छायी है। टेढ़ी भौंहें और घुँघराले बाल हैं। नये लाल कमल के समान रतनारे (लाल) नेत्र हैं। ठोड़ी, नाक और गाल बड़े सुन्दर हैं, मुख की छबि तो मुझसे कही ही नहीं जाती, जिसे देखकर बहुत-से कामदेव लजा जाते हैं। वक्ष स्थल पर मणियों की माला है। शंख के सदृश सुन्दर गला है। कामदेव के हाथी के बच्चे की सूँड़ के समान (उतार-चढ़ाववाली एवं कोमल) भुजाएँ हैं, जो बलकी सीमा हैं। जिसके बायें हाथ में फूलोंसहित दोना है, हे सखि! वह साँवला कुँवर तो बहुत ही सलोना है।
सिंह की-सी (पतली, लचीली) कमरवाले, पीताम्बर धारण किये हुए, शोभा और शील के भण्डार, सूर्यकुल के भूषण श्री रामचन्द्रजी को देखकर सखियाँ अपने-आपको भूल गयीं। एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीताजी से बोली- गिरिजाजी का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेतीं। तब सीताजी ने सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुल के दोनों सिंहों को अपने सामने खड़े देखा। नख से शिखा तक श्री रामजी की शोभा देखकर और फिर पिता का प्रण याद करके उनका मन बहुत क्षुब्ध हो गया।
जब सखियों ने सीताजी को प्रेम के वश देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगीं-बड़ी देर हो गयी अब चलना चाहिये। कल इसी समय फिर आयेंगे, ऐसा कहकर एक सखी मन में हँसी। सखी की यह रहस्यभरी वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गयीं। देर हो गयी जान उन्हें माता का भय लगा। बहुत धीरज धरकर वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में ले आयीं, और उनका ध्यान करती हुई। अपने को पिता के अधीन जानकर लौट चलीं। मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्री रामजी की छबि देख-देखकर उनका प्रेम बढ़ता ही जा रहा है। शिवजी के धनुष को कठोर जानकर वे मन में विलाप करती हुई हृदय में श्री रामजी की साँवली मूर्ति को रखकर चलीं। शिवजी के धनुष की कठोरता का स्मरण आने से उन्हें चिन्ता होती थी कि ये सुकुमार रघुनाथजी उसे कैसे तोड़ेंगे, पिता के प्रण की स्मृति से उनके हृदय में क्षोभ था ही, इसलिये मन में विलाप करने लगीं। प्रेमवश ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाने से ही ऐसा हुआ। फिर भगवान के बल का स्मरण आते ही वे हर्षित हो गयीं और साँवली छबि को हृदय में धारण करके चलीं। प्रभु श्री रामजी ने जब सुख, स्नेह, शोभा और गुणों की खान श्री जानकीजी को जाते हुए देखा। तब परम प्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुन्दर चित्तरूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया। सीताजी पुनः भवानीजी के मन्दिर में गयीं और उनके चरणों की वन्दना करके हाथ जोड़कर बोलीं- हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो; हे महादेवजी के मुखरूपी चन्द्रमा की ओर टकटकी लगाकर देखनेवाली चकोरी! आपकी जय हो; हे हाथी के मुखवाले गणेशजी और छः मुखवाले स्वामी कार्तिकेयजी की माता! हे जगज्जननी! आपकी जय हो। आपका न आदि है, न मध्य है और न अन्त है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करनेवाली हैं। पति को इष्टदेव मानने वाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता! आपकी प्रथम गणना है। हे भक्तों को मुँह माँगा वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवि! आपके चरणकमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते है।
मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं। क्योंकि आप सदा सबके हृदयरूपी नगरी में निवास करती हैं। मेरी भी विनती को स्वीकार कीजिए। गिरिजाजी सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गयीं। उन के गले की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुस्कुराई। सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद माला को सिर पर धारण किया। गौरीजी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं- हे सीता! तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। नारदजी का वचन सदा पवित्र और सत्य होता है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुन्दर साँवला वर श्री रामचन्द्रजी तुमको मिलेगा। इस प्रकार श्री गौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सब सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं।
तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं। और इधर हृदय में सीताजी के सौन्दर्य की सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजी के पास गये। श्री रामचन्द्रजी ने विश्वामित्रजी से सब कुछ कह दिया। क्योंकि उनका सरल स्वभाव है, छल तो उन्हें छूता भी नहीं है। पुष्प लेकर मुनि ने पूजा की। फिर दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों। यह सुनकर श्री राम-लक्ष्मण सुखी हुए। श्रेष्ठ विज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी भोजन करके कुछ प्राचीन कथाएँ कहने लगे। इतने में दिन बीत गया और गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई सन्ध्यावंदना करने चले। उधर पूर्व दिशा में सुन्दर चन्द्रमा उदय हुआ। श्री रामचन्द्रजी ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजी के मुख के समान नहीं है, खारे समुद्र में तो इसका जन्म, दिन में यह मलिन शोभाहीन, निस्तेज रहता है, और काले दाग से युक्त है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे कर सकता है? फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देनेवाला है। और कमल का वैरी (उसे मुरझा देनेवाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत-से अवगुण हैं। जो सीताजी में नहीं हैं।
अतः जानकीजी के मुख की तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा। इस प्रकार चन्द्रमा के बहाने के मुख की छबि का वर्णन करके, बड़ी रात हो गयी जान, वे गुरुजी के पास चले मुनि के चरणकमलों में प्रणाम करके, आज्ञा पाकर उन्होंने विश्राम किया। रात बीतने पर श्री रघुनाथजी जागे और भाई को देखकर ऐसा कहने लगे। हे तात! देखो, कमल, चक्रवाक और समस्त संसार को सुख देनेवाला सूर्योदय हुआ है। लक्ष्मणजी दोनों हाथ जोड़कर प्रभु के प्रभाव को सूचित करने वाली कोमल वाणी बोले - सूर्योदय होने से कुमुदिनी सकुचा गयी और तारागणों का प्रकाश फीका पड़ गया, जिस प्रकार आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गये हैं। रात्रि का अन्त होने से जैसे कमल, चकवे, भौरे और नाना प्रकार के पक्षी हर्षित हो रहे हैं। वैसे ही हे प्रभो! आपके सब भक्त आपके हाथों से धनुष टूटने पर सुखी होंगे। सूर्य उदय हुआ, बिना ही परिश्रम अन्धकार नष्ट हो गया। तारे छिप गये, संसार में तेज का प्रकाश हो गया।
हे रघुनाथजी! सूर्य ने अपने उदय के बहाने सब राजाओं को प्रभु (आप) का प्रताप दिखलाया है। आपकी भुजाओं के बल की महिमा को उद्घाटित करने के लिये ही धनुष तोड़ने की यह पद्धति प्रकट हुई है। भाई के वचन सुनकर प्रभु मुस्कराए। फिर स्वभाव से ही पवित्र श्री रामजी ने शौच से निवृत्त होकर स्नान किया और नित्यकर्म करके वे गुरुजी के पास आये। आकर उन्होंने गुरुजी के सुन्दर चरणकमलों में सिर नवाया।
उधर जनकजी ने शतानन्दजी को बुलाया और उन्हें तुरंत ही विश्वामित्र मुनि के पास भेजा। उन्होंने आकर जनकजी की विनती सुनायी। विश्वामित्रजी ने हर्षित होकर दोनों भाइयों को बुलाया। शतानन्दजी के चरणों की वन्दना करके प्रभु श्री रामचन्द्रजी गुरुजी के पास जा बैठे। तब मुनि ने
कहा- हे तात! चलो, जनकजी ने बुलावा भेजा है चलकर सीताजी के स्वयंवर को देखना चाहिये। देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं। लक्ष्मणजी ने कहा- हे नाथ! जिस पर आपकी कृपा होगी, वही बड़ाई का पात्र होगा (धनुष तोड़ने का श्रेय उसी को प्राप्त होगा)। इस श्रेष्ठ वाणी को सुनकर सब मुनि प्रसन्न हुए। सभी ने सुख मानकर आशीर्वाद दिया। फिर मुनियों के समूह सहित कृपालु श्री रामचन्द्रजी धनुषयज्ञ शाला देखने चले।
जब यह समाचार नगरवासियों को मिला कि अयोध्यापति दशरथ के दोनों पुत्र—श्रीराम और लक्ष्मण—रंगभूमि में पधारे हैं, तब बालक, युवा, वृद्ध, स्त्रियाँ और पुरुष—सभी लोग घर-गृहस्थी और काम - काज भूलकर उन्हें देखने दौड़ पड़े।
जनकजी ने जब देखा कि जनसमूह अत्यंत बढ़ गया है, तब उन्होंने अपने विश्वासपात्र सेवकों को बुलवाकर आज्ञा दी, "तुम सब तुरंत लोगों के बीच जाकर उन्हें यथायोग्य आसन दो।" सेवकों ने कोमल और मधुर वाणी से उत्तम, मध्यम, लघु और सामान्य सभी स्त्री-पुरुषों को आदरपूर्वक उनके स्थानों पर बैठा दिया। उसी समय श्रीराम और लक्ष्मणजी वहाँ पधारे। वे राजाओं के समूह में ऐसे शोभायमान हो रहे थे, जैसे असंख्य तारों के बीच दो पूर्ण चंद्रमा उदित हो गए हों। जिनके हृदय में जैसी भावना थी, उन्होंने प्रभु श्री राम का वैसा ही रूप देखा। दुष्ट और कपटी राजा उन्हें देखकर ऐसे भयभीत हो उठे मानो मृत्यु सामने आ खड़ी हो। जो राक्षस छलपूर्वक राजाओं का वेश धारण कर वहाँ उपस्थित थे, उन्होंने श्री राम को प्रत्यक्ष काल के समान देखा। नगरवासी उन्हें मनुष्यों के भूषण और नेत्रों के सुखदाता रूप में निहारने लगे।
स्त्रियाँ हर्ष और प्रेम से अपने-अपने भावों के अनुसार श्री रामजी का दर्शन कर रही थीं—मानो स्वयं श्रृंगाररस ने दिव्य मूर्ति धारण कर लिया हो। विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए, जिनके अनेक मुख, भुजाएँ, नेत्र और चरण थे। जनकजी के कुटुम्बी उन्हें स्नेहपूर्ण प्रियजन के समान देख रहे थे। राजा जनक सहित रानियाँ प्रभु को अपने पुत्र के रूप में देख रही थीं। उनके मन की प्रीति का वर्णन करना असंभव है। योगियों ने उन्हें शुद्ध, सम, शांत और स्वप्रकाश परमात्मा के रूप में अनुभव किया।
भगवत्भक्तों ने उन्हें अपने आराध्य, सर्वसुखदाता ईष्टदेव के रूप में निहारा। स्वयं सीताजी जिस भाव से श्री राम का दर्शन कर रही थीं, वह आनंद और स्नेह वाणी से परे था—वह तो उनके अंतःकरण का ही अनुभव था। जिस-जिसके हृदय में जैसी भावना थी, श्री रामजी उन्हें वैसे ही दिखाई दिए। साँवले और गौरवर्ण वाले दोनों भाई सभा में ऐसे शोभायमान थे जैसे करोड़ों कामदेव भी उनके सौंदर्य के आगे तुच्छ प्रतीत हों। उनका मुख शरदपूर्णिमा के चंद्रमा को भी मात दे रहा था, नेत्र कमल के समान मनोहर थे, कानों में कुण्डल झूम रहे थे, मुस्कान चंद्र किरणों को लज्जित करने वाली थी। ललाट पर तिलक दमक रहा था, काले घुंघराले बालों को देखकर भौंरे भी लजा जाते थे।
सिर पर पीले चौकोर मुकुट थे, जिनमें फूलों की कलिकाएँ जड़ी थीं। गले में शंख के समान गोल और सुंदर तीन रेखाएँ थीं, जैसे तीनों लोकों की सीमा बता रही हों। वक्षस्थल पर गजमुक्ताओं की माला और तुलसी की कंठी सुशोभित थी। कंधे बलशाली बैल के समान ऊँचे, कमर में तरकस और पीताम्बर, बाएँ कंधे पर धनुष और दाएँ हाथ में बाण सुशोभित हो रहे थे। उनका हर अंग नख से शिखा तक दिव्य शोभा दे रहा था। जनकजी उन्हें देखकर आनंदविभोर हो गए और विश्वामित्र मुनि के चरण पकड़ कर अपनी कथा सुनाई। और मुनि को यज्ञशाला दिखाई।
जहाँ-जहाँ दोनों राजकुमार जाते, वहाँ-वहाँ जनसमूह आश्चर्य से उन्हें निहारने लगता। सभी ने देखा कि श्री रामजी सबकी ओर मुख किए हैं, किंतु इसका रहस्य कोई नहीं समझ पाया। मुनि ने कहा, “राजन! रंगभूमि की रचना अत्यंत सुंदर है।” ऐसे विरक्त मुनि से यह प्रशंसा पाकर राजा को विशेष प्रसन्नता हुई।
सभी मंचों में से एक मंच अत्यंत विशाल, उज्ज्वल और सुंदर था। राजा ने स्वयं मुनि सहित दोनों भाइयों को उस पर बिठाया। प्रभु को देखकर सभी राजा ऐसे निराश हो गए जैसे पूर्णचंद्र के सामने तारे फीके पड़ जाएँ। राजाओं को विश्वास हो गया कि यही रामचन्द्रजी ही धनुष तोड़ेंगे। इधर उनके रूप को देखकर सब के मन में यह निश्चय हो गया कि शिवजी के विशाल धनुष को बिना तोड़े भी सीताजी सिर्फ श्री रामचन्द्रजी के ही गले में जयमाल डालेंगी। वे कहने लगे, “भाइयों! यश, बल और प्रताप खोकर अब घर लौट चलो।”
परंतु कुछ अभिमानी राजा यह सुनकर बहुत हंसे और बोले, उन्होंने कहा- धनुष तोड़ने पर भी विवाह होना कठिन है अर्थात् सहज ही में हम जानकी को हाथ से जाने नहीं देंगे, काल भी आ जाए तो युद्ध में हम पीछे नहीं हटेंगे।”
यह सुनकर धर्मात्मा, हरिभक्त और विवेकी राजा मुस्कराकर बोले, “हे राजाओं! यह धनुष जिसे कोई नहीं तोड़ सका, उसे श्री राम ही भंग करेंगे। और जहां तक युद्ध की बात है तो महाराज दशरथ के वीर पुत्रों को कौन जीत सकता है? मन के लड्डू खाने से क्या भूख मिटती है?”
वे बोले, “सीताजी को साक्षात् जगज्जननी समझो और उन्हें पत्नी रूप में पाने की आशा एवं लालसा छोड़ दो। और श्री रघुनाथजी को जगत का पिता (परमेश्वर) विचारकर, नेत्र भरकर उनकी छबि देख लो ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलेगा। सुन्दर, सुख देने वाले और समस्त गुणों की राशि ये दोनों भाई शिवजी के हृदय में बसने वाले हैं स्वयं शिवजी भी जिन्हें सदा हृदय में छिपाये रखते हैं, वे तुम्हारे नेत्रों के सामने आ गये हैं।
समीप आये हुए (भगवद्दर्शनरूप) अमृत के समुद्र को छोड़कर तुम जगज्जननी जानकी को पत्नी रूप में पाने की दुराशारूप मिथ्या मृगजल को देखकर दौड़कर क्यों मरते हो? फिर भाई जिसको जो अच्छा लगे वही जाकर करो। हमने तो श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कर लेने का फल पा लिया।
ऐसा कहकर अच्छे राजा प्रेममग्न होकर श्री रामजी का अनुपम रूप देखने लगे। मनुष्यों की तो बात ही क्या देवता लोग भी आकाश से विमानों पर चढ़े हुए दर्शन कर रहे हैं और सुन्दर गान करते हुए फूल बरसा रहे हैं। तब सुअवसर जानकर जनकजी ने सीताजी को बुलावा भेजा। सब चतुर और सुन्दर सखियाँ आदरपूर्वक उन्हें लिवा चलीं।
रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिये मुझे काव्य की सब उपमाएँ तुच्छ लगती हैं; क्योंकि वे लौकिक स्त्रियों के अंगों से अनुराग रखनेवाली हैं। यदि किसी स्त्री के साथ सीताजी की तुलना की जाय तो ब्रह्मांड में ऐसी सुन्दर युवती है ही कहाँ जिसकी उपमा उन्हें दी जाय। पृथ्वी की स्त्रियों की तो बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी यदि देखा जाय तो हमारी अपेक्षा माता सीता कहीं अधिक दिव्य और सुन्दर हैं,
सयानी सखियाँ सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं। सीताजी के नवल शरीर पर सुन्दर साड़ी सुशोभित है। जगज्जननी की महान छबि अतुलनीय है। सब आभूषण अपनी-अपनी जगह पर शोभित हैं, जिन्हें सखियों ने अंग-अंग में भलीभाँति सजाकर पहनाया है। जब सीताजी ने रंगभूमि में पैर रखा, तब उनका दिव्य रूप देखकर स्त्री-पुरुष सभी मोहित हो गये। देवताओं ने हर्षित होकर नगाड़े बजाये और पुष्प बरसाकर अप्सराएँ गाने लगीं। सीताजी के करकमलों में जयमाला सुशोभित है। सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने लगे।
सीताजी चकित चित्त से श्री रामजी को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह के वश हो गये। सीताजी ने मुनि के पास बैठे हुए दोनों भाइयों को देखा तो उनके नेत्र अपना खजाना पाकर ललचाकर वहीं श्री रामजी में स्थिर हो गये। परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बड़े समाज को देखकर सीताजी सकुचा गयीं। वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में बसाकर सखियों की ओर देखने लगीं। श्री रामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की छबि देखकर वहां बैठे सभी राजा और स्त्री-पुरुषों सब एकटक उन्हीं को देखने लगे। सभी अपने मन में सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं। मन-ही-मन वे विधाता से विनय करते हैं। हे विधाता! जनकजी के पागलपन को शीघ्र हर लीजिये और हमारी ही ऐसी सुन्दर बुद्धि उन्हें दीजिये कि जिससे बिना ही विचार किये राजा अपना प्रण छोड़कर सीताजी का विवाह रामजी से कर दें। संसार उन्हें भला कहेगा, क्योंकि यह बात सब किसी को अच्छी लगती है। हठ करने से अन्त में भी हृदय जलेगा। सब लोग इसी लालसा में मग्न हो रहे हैं कि जानकीजी के योग्य वर तो यह साँवला ही है।
तब राजा जनक ने बंदीजनों (भाटों) को बुलाया। वे विरुदावली (वंशकी कीर्ति) गाते हुए चले आये। राजा ने कहा-जाकर मेरा प्रण सबसे कहो। भाट चले, उनके हृदय में भी परम आनन्द था।
भाटों ने श्रेष्ठ वचन कहे- हे पृथ्वी का पालन करने वाले सब राजागण! सुनिये। हम अपनी भुजा उठाकर जनकजी का विशाल प्रण कहते हैं। राजाओं की भुजाओं का बल चन्द्रमा है, शिवजी का धनुष राहु है, वह भारी है, शक्तिशाली है, यह सबको पता है। बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर चुपके-से बिना छूए ही चले गए हैं।
उसी शिवजी के कठोर शक्तिशाली धनुष को आज इस राजसभा में जो भी तोड़ेगा, तीनों लोकों की विजय के साथ ही उसको जानकी जी बिना किसी विचार के हठपूर्वक वरण करेंगी। प्रण सुनकर सब राजा ललचा उठे। जो वीरता के अभिमानी थे, वे मन में बहुत ही तमतमाये। कमर कसकर अकुलाकर उठे और अपने इष्टदेवों को सिर नवाकर चले।
वे तमककर बड़े ताव से शिवजी के धनुष की ओर देखते हैं। और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते हैं, करोड़ों भाँति से जोर लगाते हैं, पर वह उठता ही नहीं। जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक है, वे धनुष के पास ही नहीं जाते। कुछ मूर्ख राजा तमककर (किटकिटाकर) धनुष को पकड़ते हैं, परन्तु जब नहीं उठता तो लज्जित होकर चले जाते हैं, मानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर वह धनुष और अधिक भारी होता जाता है। तब दस हजार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके हिलाए नहीं हिलता है।
सब राजा उपहास के योग्य हो गये। जैसे वैराग्य के बिना संन्यासी उपहास के योग्य हो जाता है। कीर्ति, विजय, बड़ी वीरता इन सबको वे धनुष के हाथों बरबस हारकर चले गये। राजा लोग हृदय से हारकर श्रीहीन (हतप्रभ) हो गये और अपने-अपने समाज में जा बैठे। राजाओं को असफल देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे।
मैंने जो प्रण ठाना था, उसे सुनकर द्वीप - द्वीप के अनेकों राजा आये। देवता और दैत्य भी मनुष्य का शरीर धारण करके आये तथा और भी बहुत-से रणधीर वीर आये परन्तु धनुष को तोड़कर मनोहर कन्या, बड़ी विजय और अत्यन्त सुन्दर कीर्ति को पानेवाला मानो ब्रह्मा ने किसी को रचा ही नहीं। कहिये, यह लाभ किसको अच्छा नहीं लगता। परन्तु किसी ने भी शंकरजी का धनुष नहीं चढ़ाया। अरे भाई! चढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहा, कोई तिलभर भूमि भी हिला न सका। अब कोई वीरता का अभिमानी नाराज न हो। मैंने जान लिया, पृथ्वी वीरों से खाली हो चुकी है। अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं।
में यदि प्रण छोड़ता हूँ तो पाप का भागी बन जाऊंगा; इसलिये क्या करूँ, कन्या कुंवारी ही रहे। यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से खाली है, तो ऐसा कठोर प्रण करके उपहास का पात्र न बनता।
जनक के वचन सुनकर सभी स्त्री-पुरुष जानकीजी की ओर देखकर दुःखी हुए, परन्तु लक्ष्मणजी तमतमा उठे, उनकी भौंहें टेढ़ी हो गयीं, ओठ फड़कने लगे और नेत्र क्रोध से लाल हो गये। श्री रघुवीरजी के डर से कुछ कह तो सकते नहीं, पर जनक के वचन उन्हें बाण-से लगे। और जब न रह सके तब श्री रामचन्द्रजी के चरणकमलों में सिर नवाकर वे यथार्थ वचन बोले- रघुवंशियों में कोई भी जहाँ होता है, उस समाज में ऐसे वचन कोई नहीं कहता, जैसे अनुचित वचन रघुकुलशिरोमणि श्री रामजी को उपस्थित जानते हुए भी जनकजी ने कहे है।
हे सूर्यकुलरूपी कमल के सूर्य! सुनिये, मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, कुछ अभिमान करके नहीं, यदि आप आज्ञा दे, तो मैं ब्रह्माण्ड को गेंद की तरह उठा लूँ। और उसे कच्चे घड़े की तरह फोड़ डालूँ। मैं सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड़ सकता हूँ, हे भगवन्! आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है। ऐसा जानकर हे नाथ! आज्ञा हो तो कुछ खेल करूँ, उसे भी देखिये। धनुष को कमल की डंडी की तरह चढ़ाकर उसे सौ योजन तक दौड़ा लिये चला जाऊँ।
हे नाथ! आपके प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते (बरसाती छत्ते) की तरह तोड़ दूँ। यदि ऐसा न करूँ तो प्रभु के चरणों की शपथ है, फिर मैं धनुष और तरकस को कभी हाथ में भी न लूँगा।
जैसे ही लक्ष्मणजी क्रोधभरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी काँप गये। सभी लोग और सब राजा डर गये। सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी घबरा गये। गुरु विश्वामित्रजी, श्री रघुनाथजी और सब मुनि मन में प्रसन्न हुए और बार-बार पुलकित होने लगे। श्री रामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया और प्रेमसहित अपने पास बैठा लिया।
विश्वामित्रजी शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी में बोले- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का सन्ताप मिटाओ। गुरु के वचन सुनकर श्री रामजी ने चरणों में सिर नवाया। उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद और वे अपने खड़े होने की शान से जवान सिंह को भी लजाते हुए सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुए। और उनके खड़े होते ही वहां उपस्थित सभी स्त्री पुरुष और संत हर्षित हो गए। अभिमानी और कपटी राजा उल्लू की तरह छिप गये।
प्रेमसहित गुरु के चरणों की वन्दना करके श्री रामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा माँगी। समस्त जगत के स्वामी श्री रामजी सुन्दर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की चाल से स्वाभाविक ही चले। श्री रामचन्द्रजी के चलते ही नगरभर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो गये और उनके शरीर रोमांच से भर गये। उन्होंने पितर और देवताओं की वन्दना करके अपने पुण्यों का स्मरण किया। यदि हमारे पुण्यों का कुछ भी प्रभाव हो, तो हे गणेश गोसाईं! रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को कमल की डंडी की भाँति तोड़ डालें।
श्री रामचन्द्रजी को वात्सल्य भाव से निहारते हुए और अपनी सखियों को समीप बुलाकर, सीताजी की माता स्नेहवश व्याकुल होकर इस प्रकार बोलीं—"हे सखि! जो लोग हमारे हितैषी कहलाते हैं, वे भी इस समय केवल तमाशा देखने वाले बन गए हैं। कोई भी विश्वामित्रजी को समझाकर यह नहीं कहता कि रामजी अभी बालक, सुकुमार हैं, इनके लिए यह हठ उचित नहीं है।
जिस धनुष को रावण और बाणासुर जैसे महावीर भी नहीं हिला सके, उसे तोड़ने का आदेश मुनि विश्वामित्रजी रामजी को दे रहे हैं और रामजी भी उसे तोड़ने के लिए चल पड़े हैं—यह बात रानी को हठपूर्ण प्रतीत हुई। इसलिए वे कहने लगीं—"कोई तो विश्वामित्रजी को समझाए कि क्या हंस के बच्चे मन्दराचल पर्वत उठा सकते हैं?" और कोई समझाए या न समझाए, परन्तु राजा तो ज्ञानी और विवेकशील हैं; उन्हें तो गुरु को समझाने का प्रयास अवश्य करना चाहिए था। लेकिन लगता है कि राजा का सारा विवेक भी जैसे समाप्त हो गया है। हे सखी! विधाता की गति कुछ जानने में नहीं आती यों कहकर रानी चुप हो गई।
तब एक चतुर रामजी के महत्त्व को जानने वाली सखी कोमल वाणी से बोली- हे रानी! तेजवान देखने में भले ही छोटा हो पर फिर भी उसे छोटा नहीं गिनना चाहिये। कहाँ घड़े से उत्पन्न होने वाले छोटे-से मुनि अगस्त्य और कहाँ अपार समुद्र? किन्तु उन्होंने उसे अपनी शक्ति से सोख लिया, आकाश में सूर्य देखने में छोटा लगता है, पर उसके उदय होते ही तीनों लोकों का अन्धकार मिट जाता है। जिसके वश में ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मंत्र भी अत्यन्त छोटा ही होता है। कामदेव ने फूलों का ही धनुष-बाण लेकर समस्त लोकों को अपने वश में कर रखा है। हे देवी! ऐसा जानकर सन्देह त्याग दीजिये। हे रानी! सुनिये, रामचन्द्रजी धनुष को अवश्य ही तोड़ेंगे।
सखी के वचन सुनकर रानी को श्री रामजी के सामर्थ्य के सम्बन्ध में विश्वास हो गया। उनकी उदासी मिट गयी और श्री रामजी के प्रति उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया। उस समय श्री रामचन्द्रजी को देखकर सीताजी भयभीत हृदय से देवता से विनती कर रही हैं। वे व्याकुल होकर मन-ही-मन मना रही हैं- हे महेश-भवानी! मुझपर प्रसन्न होइये, मैंने आपकी जो सेवा की है, उसे सफल कीजिये और मुझपर स्नेह करके धनुष के भारीपन को कम कर दीजिए। हे गणोंके नायक, वर देने वाले देवता गणेशजी! मैंने आज ही के लिये तुम्हारी सेवा की थी। बार-बार मेरी विनती सुनकर धनुष का भारीपन बहुत ही कम कर दीजिये। श्री रघुनाथजी की ओर देख-देखकर सीताजी धीरज धरकर देवताओं को मना रही हैं। उनके नेत्रों में प्रेम के आँसू भरे हैं। किंतु पिता के प्रण का स्मरण करके सीताजी का मन क्षुब्ध हो उठा। वे मन-ही-मन कहने लगीं अहो! पिताजी ने बड़ा ही कठिन हठ ठाना है, वे लाभ-हानि कुछ भी नहीं समझ रहे हैं।
मन्त्री डर रहे हैं; इसलिये कोई उन्हें सीख भी नहीं देता, पण्डितों की सभा में यह बड़ा अनुचित हो रहा है। कहाँ वज्र से भी बढ़कर कठोर धनुष और कहाँ ये कोमल शरीर किशोर श्यामसुन्दर!
हे विधाता! मैं हृदय में किस तरह धीरज धरूँ, सिरस के फूल के कण से कहीं हीरा छेदा जाता है। सारी सभा की बुद्धि बावली हो गयी है, अतः हे शिवजी के धनुष! अब तो मुझे तुम्हारा ही आसरा है। तुम अपनी जड़ता लोगों पर डालकर, श्री रघुनाथजी के सुकुमार शरीर को देखकर उतने ही हलके हो जाओ। इस प्रकार सीताजी के मन में बड़ा ही सन्ताप हो रहा है। प्रभु श्री रामचन्द्रजी को देखकर फिर पृथ्वी की ओर देखती हुई सीताजी के चंचल नेत्र इस प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो चन्द्रमण्डलरूपी घड़े में कामदेवकी दो मछलियाँ खेल रही हों। अपनी बढ़ी हुई व्याकुलता जानकर सीताजी सकुचा गयीं और धीरज धरकर हृदय में विश्वास ले आयीं कि यदि तन, मन और वचन से मेरा प्रण सच्चा है और श्री रघुनाथजी के चरणकमलों में मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त है, तो सबके हृदय में निवास करनेवाले भगवान् मुझे रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी की दासी अवश्य बनायेंगे। जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।
प्रभु की ओर देखकर सीताजी ने यह निश्चय कर लिया कि यह शरीर उन्हीं का होकर रहेगा। कृपानिधान श्री रामजी सब जान गये। उन्होंने सीताजी को देखकर धनुष की ओर ऐसा देखा, जैसे गरुड़जी छोटे-से साँप की ओर देखते हैं।
इधर जब लक्ष्मणजी ने देखा कि रघुकुलमणि श्री रामचन्द्रजी ने शिवजी के धनुष की ओर ताका है, तो वे शरीर से पुलकित हो ब्रह्माण्ड को चरणों से दबाकर निम्नलिखित वचन बोले- हे दिग्गजो! हे कच्छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर पृथ्वी को थामे रहो, जिससे यह हिलने न पावे। श्री रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को तोड़ना चाहते हैं। मेरी आज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ। श्री रामचन्द्रजी जब धनुष के नजदीक गए, तब सब स्त्री-पुरुषों ने देवताओं को मनाया।
श्री रामजी ने पहले सब लोगों की ओर देखा, फिर कृपासागर प्रभु ने जानकीजी की ओर दृष्टि डाली और उन्हें अत्यंत व्याकुल पाया। उन्होंने सीताजी को अत्यंत विह्वल देखा—ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उनका प्रत्येक क्षण कल्प के समान लंबा बीत रहा हो। जैसे प्यासा मनुष्य जल के बिना प्राण त्याग दे, तो उसके मर जाने के बाद अमृत का सरोवर भी व्यर्थ है; वैसे ही समय बीत जाने पर पछताने से क्या लाभ। जब सम्पूर्ण खेती सूख जाए, तब वर्षा का क्या लाभ? यह सब मन में विचारकर प्रभु श्रीराम ने सीताजी की ओर स्नेहपूर्वक देखा। उनका अपार प्रेम देखकर श्रीराम पुलकित हो उठे।
मन-ही-मन उन्होंने अपने गुरु को प्रणाम किया और तत्क्षण अत्यंत फुर्ती से धनुष को उठा लिया। जब उन्होंने धनुष को हाथ में लिया, तब वह बिजली की भाँति चमका और आकाश में मण्डलाकार हो गया।
उठाना, प्रत्यंचा चढ़ाना और उसे खींचना — ये तीनों कार्य इतनी शीघ्रता और सहजता से हुए कि कोई देख ही नहीं पाया कि कब क्या हुआ। सबने केवल इतना देखा कि श्रीराम धनुष खींचे खड़े हैं।
उसी क्षण श्री रामजी ने उस परम विशाल धनुष को मध्य से तोड़ डाला। उसके टूटने की कठोर और भयंकर ध्वनि से संपूर्ण लोक गूंज उठे। सूर्य के रथ के घोड़े मार्ग छोड़ने लगे, दशो दिशाओं के हाथी चिंघाड़ उठे, पृथ्वी काँपने लगी, शेषनाग, वराह और कच्छप कंपित हो उठे। देवता, मुनि और राक्षस सभी अपने कानों पर हाथ रखकर चकित और व्याकुल हो गए।
तुलसीदासजी कहते हैं— जब यह निश्चित हो गया कि श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ डाला है, तब चारों ओर एक ही स्वर गूंजने लगा— "श्री रामचन्द्रजी की जय!"
शिवजी का धनुष मानो एक विशाल जहाज़ था और श्री रामचन्द्रजी की भुजाओं का बल एक अपार समुद्र। जब यह धनुष टूटा, तब वे सब लोग डूब गये जो मोहवश उस जहाज़ पर सवार हुए थे। प्रभु श्रीराम ने धनुष के दोनों टुकड़े पृथ्वी पर डाल दिए। यह दृश्य देखकर सभी लोग हर्षित हो उठे।
विश्वामित्रजी उस पवित्र समुद्र के समान हैं, जिसमें प्रेम रूपी अथाह जल भरा हुआ है। उसमें जब रामरूपी पूर्णचन्द्र प्रकट हुए, तो पुलकावलीरूपी बड़ी-बड़ी लहरें उठने लगीं। आकाश में नगाड़े गूंजने लगे। देवाङ्गनाएँ गान करती हुई नृत्य करने लगीं। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, सिद्धगण और मुनीश्वरगण प्रभु की स्तुति करते हुए आशीर्वाद बरसा रहे हैं। वे रंग-बिरंगे फूलों और मालाओं की वर्षा कर रहे हैं। किन्नर मधुर गीत गा रहे हैं। चारों ओर जय-जयकार की ध्वनि छा गई, जिसमें धनुष टूटने की आवाज़ भी विलीन हो गई।
जहाँ-तहाँ स्त्री-पुरुष आनंदित होकर कहने लगे—"श्रीराम ने शिवजी का महान धनुष तोड़ दिया!" धीरबुद्धि वाले, भाट, मागध और सूतगण विरुदावली गा रहे हैं। लोग घोड़े, हाथी, धन, मणि और वस्त्र निछावर कर रहे हैं। झाँझ, मृदंग, शंख, शहनाई, भेरी, ढोल, नगाड़े आदि अनेक सुंदर वाद्ययंत्र बजने लगे। नगर की कन्याएँ मंगलगीत गाने लगीं।
सीताजी की माता अपनी सखियों सहित अत्यंत हर्षित हुईं, जैसे सूखी धान की फसल को जल मिल गया हो। जनकजी ने भी चिंता त्याग दी और मानो थके हुए व्यक्ति को थाह मिल गई हो। धनुष टूटने के पश्चात् अन्य राजागण श्रीहीन होकर ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे दिन के उजाले में दीपक की शोभा नष्ट हो जाती है।
सीताजी का आनंद तो अवर्णनीय था; मानो चातकी को स्वाति का जल मिल गया हो। लक्ष्मणजी जिस प्रकार श्री रामजी को निहार रहे थे, वह वैसा ही था जैसे चकोर का बच्चा चन्द्रमा को देखता है। तभी शतानंदजी ने आज्ञा दी और सीताजी श्रीराम के पास चलीं।
उनके साथ सुंदर, चतुर सखियाँ मंगल गीत गा रही थीं। सीताजी की चाल बालहंसिनी-जैसी थी और उनके अंगों में अनुपम शोभा थी। सखियों के बीच वे इस प्रकार शोभायमान थीं जैसे अनेक छवियों के बीच कोई अद्वितीय छवि। उनके करकमलों में सुंदर जयमाला थी, जिसमें विश्वविजय की शोभा चमक रही थी। शरीर में संकोच था, पर मन में परम उत्साह। उनका अंतरंग प्रेम कोई समझ नहीं पा रहा था। श्रीराम को निकट देखकर वे चित्र-सी स्थिर हो गईं।
चतुर सखी ने समझाकर कहा, “सीते! यह सुंदर माला पहनाओ।” सीताजी ने दोनों हाथों से माला उठाई, परंतु प्रेमवश पहनाई नहीं जा रही थी। उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित लग रहे थे मानो दो कमल डंडियों सहित डरते हुए चन्द्रमा को माला दे रहे हों। यह दृश्य देखकर सखियाँ गाने लगीं। अंततः सीताजी ने श्रीरामजी के गले में जयमाला पहना दी।
श्रीराम के वक्षस्थल पर जयमाला देखकर देवगण फूलों की वर्षा करने लगे। सभी राजागण ऐसे संकुचित हो गये जैसे सूर्य को देखकर कुमुद कुम्हला जाता है। नगर व आकाश में बाजे बजने लगे। दुष्ट दुखी हो गये और सज्जन प्रसन्न। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीश्वरगण जयकार करते हुए आशीर्वाद दे रहे थे। देवियाँ गा रही थीं, नाच रही थीं, और बार-बार फूलों की अंजलिया बरसा रही थीं। ब्राह्मण वेद मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे और भाट कुल कीर्ति का गुणगान कर रहे थे। तीनों लोकों में यश फैल गया कि श्रीराम ने शिवधनुष तोड़कर सीताजी को वरण कर लिया। नगरवासी आरती कर रहे हैं और अपनी हैसियत भूलकर श्रीसीताराम पर सब कुछ न्यौछावर कर रहे हैं। वह युगल ऐसा शोभायमान है मानो सौंदर्य और श्रृंगाररस स्वयं साक्षात् उपस्थित हो गये हों।
सखियाँ सीताजी से कह रही थीं—"स्वामी के चरण स्पर्श करो!" परंतु सीता अत्यंत संकोचवश भयभीत थीं, और चरण नहीं छू रही थीं। उन्हें गौतमपत्नी अहल्या की कथा याद आ रही थी, इस कारण वे हाथों से ही श्रीराम के चरणों का स्पर्श कर रही थीं। उनकी इस अलौकिक प्रीति को जानकर रघुकुलमणि श्रीराम मंद मुस्कान के साथ उन्हें देख रहे थे।
उसी समय कुछ राजाओं के मन में लालच उपज गया। वे दुष्ट और मूढ़ अपने अहंकार में तमतमाने लगे। वे कवच पहनकर गालियाँ बकते हुए कहने लगे-"सीता को छीन लो, और दोनों राजकुमारों को बाँध लो! केवल धनुष तोड़ने से इच्छा पूरी नहीं होती! जब तक हम जीवित हैं, कोई राजकुमारी को विवाह कर नहीं ले जा सकता!"
यदि जनक प्रतिरोध करें, तो उन्हें भी युद्ध में हराकर जीत लो! उनकी ऐसी वाणी सुनकर साधु राजाओं ने कहा—इन राजाओं को देखकर तो लज्जा भी लज्जित हो गई है! अरे मूर्खो! तुम्हारी वीरता, यश और सम्मान तो धनुष के साथ ही टूट गया। अब कौन-सी बहादुरी दिखा रहे हो? विधाता ने तुम्हारे मुखों पर कालिख पोत दी है! ईर्ष्या, अभिमान और क्रोध को त्यागकर श्रीरामजी के दर्शन करो। लक्ष्मण का क्रोध प्रबल अग्नि है, उसमें पतंगे मत बनो! क्या कौआ गरुड़ का स्थान ले सकता है? खरगोश सिंह का स्थान? क्या लोभी व्यक्ति निष्कलंक कीर्ति पा सकता है? क्या जो भगवान श्रीहरि से विमुख हो, वह मोक्ष पा सकता है? वैसे ही, हे राजाओ! सीता पर तुम्हारा लालच व्यर्थ है। जब यह कोलाहल हुआ तो सीताजी शंकित हो उठीं। सखियाँ उन्हें उनकी माता के पास ले गईं। श्रीरामजी मन में सीताजी की भक्ति का गुणगान करते हुए गुरु विश्वामित्र के पास चले।
राजाओं की दुर्वाणी सुनकर सीताजी की माताएँ भी चिंता में डूब गईं। इधर लक्ष्मणजी क्रोध से इधर-उधर देखने लगे, पर श्रीरामजी के कारण मौन रहे। उनकी आँखें लाल हो गईं, भौंहें तिरछी हो गईं। वे राजाओं को देखकर इस प्रकार क्रोधित हो उठे जैसे हाथियों का झुंड देखकर सिंह का बच्चा जोश में आ गया हो। राजाओं की हरकतें देखकर जनकपुर की स्त्रियाँ भी क्रोधित होकर गालियाँ देने लगीं। तभी शिवजी के धनुष टूटने का समाचार सुनकर भृगुकुल के सूर्य, परशुरामजी वहाँ आ गए।
उन्हें देखकर सभी राजा ऐसे सहम गए जैसे बाज की झपट देखकर बटेरें छिप जाती हैं। उनका गोरा शरीर, उस पर विभूति सुशोभित थी। विशाल ललाट पर त्रिपुण्ड और रौद्र भृकुटियाँ उन्हें और भी भयंकर बना रही थीं। सिर पर जटा, तेजस्वी मुख पर क्रोध की लालिमा। भौंहें टेढ़ी, नेत्र क्रोध से लाल। बिना कुछ कहे भी वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो अग्निरूप हों। कंधे बैल जैसे बलवान, विशाल छाती-भुजाएँ, यज्ञोपवीत, माला, मृगचर्म धारण किये, कमर में वल्कल और दो तरकस, हाथ में धनुष-बाण और कंधे पर फरसा।
यद्यपि वेश मुनिवत था, पर कर्म से वे परम वीर थे। मानो वीर रस ने मुनि का रूप धारण कर लिया हो। उनके दर्शन से ही राजा भयभीत होकर उठ खड़े हुए और अपने-अपने नाम लेकर पिता सहित दण्डवत् प्रणाम करने लगे। परशुरामजी यदि किसी की ओर केवल दृष्टि भी डाल दें, तो वह समझता है कि मेरी आयु पूरी हो गई। फिर जनकजी ने आकर परशुराम को प्रणाम किया और सीताजी को बुलाकर उनके चरणों में झुकाया।
परशुरामजी ने सीताजी को आशीर्वाद दिया। यह देखकर सखियाँ अत्यंत प्रसन्न हुईं। अब वहाँ अधिक देर ठहरना उचित न समझकर, सयानी सखियाँ जानकीजी को अपनी मंडली में ले गईं। फिर विश्वामित्रजी पधारे और उन्होंने दोनों भाइयों — श्रीराम और लक्ष्मणजी — को उनके चरणों में झुकाया। उन्होंने परशुरामजी से कहा — ये राम और लक्ष्मण, अयोध्यापति महाराज दशरथ के पुत्र हैं। जब परशुरामजी ने इस अनुपम जोड़ी को देखा, तो उन्होंने उन्हें भी आशीर्वाद दिया। श्रीरामजी के अपार सौंदर्य और तेज से युक्त रूप को देखकर परशुरामजी की दृष्टि स्तब्ध हो गई,
फिर वे सब कुछ देख-समझ कर भी अनजान बनते हुए जनकजी से पूछने लगे — कहो जनक! यह यहाँ कैसी भारी भीड़ लगी है? उनके शरीर में क्रोध की अग्नि जल उठी। जनकजी ने वह सब समाचार विस्तार से सुनाया, जिनके कारण समस्त राजा वहाँ एकत्र हुए थे। परशुरामजी ने उनकी बात सुनकर क्रोध में दूसरी ओर दृष्टि डाली तो देखा कि शिवधनुष के दो टुकड़े पृथ्वी पर पड़े हैं।
यह दृश्य देखकर वे अत्यंत क्रोधित हो उठे और कठोर वचन बोले - “अरे मूर्ख जनक! यह बता कि यह धनुष किसने तोड़ा? उसे तुरंत मेरे सामने ला! अन्यथा, मैं आज तेरे समस्त राज्य की धरती उलट दूँगा।”
राजा जनक अत्यंत भयभीत हो गए, उनके मुख से कोई उत्तर नहीं निकल सका। यह देख कर कुछ कुटिल राजा मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। देवता, मुनि, नाग, नगरवासी स्त्री-पुरुष — सभी सोच में पड़ गए। सबके हृदय में अत्यंत भय व्याप्त हो गया।
सीताजी की माता मन-ही-मन अत्यंत पछता रही थीं - "हाय! विधाता ने यह बनी-बनाई बात भी बिगाड़ दी।" परशुरामजी का स्वभाव स्मरण कर सीताजी को हर क्षण कल्प के समान भारी प्रतीत हो रहा था।
तब कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने सब लोगों को भयभीत और जानकीजी को अत्यंत डरी हुई देखकर शांत स्वर में कहा — उनके मन में न हर्ष था, न विषाद। हे नाथ! शिवजी का धनुष तोड़ने वाला तो आपका ही कोई सेवक होगा। मुझे आदेश दीजिए — आप मुझसे क्यों नहीं कहते?
यह सुनकर क्रोध से भरे मुनि परशुरामजी तमतमाकर बोले — सेवक वही कहलाता है जो सेवा का कार्य करे, पर जिसने शत्रु जैसा कर्म किया हो, उसके साथ तो युद्ध ही करना उचित है।
हे राम! जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह मेरे लिए सहस्रबाहु के समान शत्रु है। वह उस समाज से अलग हो जाए, नहीं तो मैं सभी राजाओं का संहार कर दूँगा!
मुनि के कठोर वचन सुनकर लक्ष्मणजी मंद-मंद मुस्कराते हुए बोले और परशुरामजी के गर्व को व्यंग्य में डुबोते हुए कहा -
"हे गोसाईं! बाल्यकाल में तो हमने बहुत-से धनुष तोड़े हैं, परंतु आपने कभी इस प्रकार का क्रोध नहीं किया। अब इसी एक धनुष पर इतनी मोह-ममता क्यों?"
यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा समान परशुरामजी क्रोध में भरकर बोले -
"अरे राजपुत्र! तू काल के वश होकर बात कर रहा है, तुझे अपने वचनों की सुध नहीं। शिवजी का यह धनुष संपूर्ण संसार में विख्यात है — क्या तू इसे साधारण धनुही के समान समझता है?"
लक्ष्मणजी मुस्कराकर बोले - "हे देव! सुनिए, हमारी दृष्टि में तो सभी धनुष एक जैसे ही हैं। किसी पुराने धनुष को तोड़ देने में क्या हानि या लाभ? श्री रामजी ने तो इसे नवीन समझकर देखा था। फिर यह तो छूते ही टूट गया - इसमें रघुनाथजी का कोई दोष नहीं है। हे मुनिवर! आप बिना कारण क्यों क्रोधित हो रहे हैं?"
परशुरामजी ने अपने फरसे की ओर देखकर कहा - अरे दुष्ट बालक! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना है क्या? मैं तुझे बालक समझकर ही अभी तक छोड़ रहा हूँ। मूर्ख! क्या तू मुझे केवल एक शांत मुनि समझता है? मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ और अत्यंत क्रोधी भी। मैं क्षत्रियकुल का शत्रु हूँ, जिसकी ख्याति सारे संसार में फैली हुई है। अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया और उसे अनेक बार ब्राह्मणों को समर्पित किया है।
हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस भयानक फरसे को देख! अरे राजा के पुत्र! तू माता-पिता की शरण में मत छिपना, क्योंकि यह फरसा इतना भयंकर है कि गर्भस्थ शिशु तक को नाश कर सकता है।
यह सुनकर लक्ष्मणजी फिर कोमल वाणी में मुस्कराकर बोले — अहो! मुनीश्वर अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं! बार-बार अपनी कुल्हाड़ी दिखाकर मानो पर्वत को फूँक से उड़ाना चाहते हों! पर यहाँ कोई कुम्हड़े की कोमल बतिया नहीं है, जो एक तर्जनी दिखते ही मुरझा जाए। आपने कुठार और धनुष-बाण क्या धारण कर लिए, मैं तो इन्हें देखकर थोड़ा-सा गर्वपूर्वक बोल गया।
किन्तु भृगुवंशीय समझकर, यज्ञोपवीत देखकर और मुनि मानकर, मैंने आपके वचनों को सहन किया है। क्योंकि देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गौ - इन पर हमारे कुल में कभी वीरता नहीं दिखाई जाती। इनका वध करने से पाप लगता है और यदि इनसे पराजित हो जाएं तो अपकीर्ति मिलती है। इसलिए यदि आप हमें मारें भी, तब भी आपके चरणों में ही जाना उचित होगा।
आपका एक-एक वचन करोड़ों वज्रों के समान है। आप व्यर्थ ही धनुष-बाण और फरसा धारण किए हुए हैं। यदि इन्हें देखकर मुझसे कोई अनुचित वचन निकल गया हो, तो हे धीर महामुनि! कृपया उसे क्षमा करें।
यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध से भरे हुए गम्भीर स्वर में बोले - हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक अत्यंत कुबुद्धि और कुटिल है। यह काल के वश होकर अपने कुल का विनाश कर रहा है। यह सूर्यवंश रूपी पूर्णचन्द्र का कलंक है। यह उद्दंड, निडर और मूर्ख है - यह अभी थोड़ी ही देर में काल का ग्रास बन जाएगा। मैं पहले ही सबको सूचित कर रहा हूँ, फिर मुझे दोष न देना। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो इसे हमारे प्रताप, बल और क्रोध का स्मरण कराकर समझाओ।
तब लक्ष्मणजी ने शांत भाव से उत्तर दिया -
हे मुनि! आपके रहते आपके यश का वर्णन भला और कौन कर सकता है? आपने स्वयं ही अनेक बार अपनी वीरता का वर्णन स्वयं के मुख से कर दिया है! यदि अब भी आपके मन में संतोष न हुआ हो, तो और भी कुछ कह दीजिए। क्रोध को भीतर रोककर असह्य दुःख मत सहिए। आप तो वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यशील और क्षोभ से रहित ज्ञानी पुरुष हैं। अपशब्द तो आप जैसे महापुरुषों को शोभा नहीं देते। शूरवीर तो रणभूमि में कर्म करते हैं, अपने मुँह से अपनी वीरता नहीं गाते। शत्रु को सामने पाकर जो अपने प्रताप का बखान करे वह तो कायर कहलाता है।
आप तो जैसे काल को पुकारकर बार-बार मुझे बुला रहे हैं। लक्ष्मणजी के इन तीव्र वचनों को सुनते ही परशुरामजी ने अपना भयानक फरसा सँभाल लिया।
वे बोले - अब लोग मुझे दोष न दें। यह तीखा बोलने वाला बालक मृत्यु के योग्य है। इसे बालक जानकर अब तक बचाया, किन्तु अब यह सचमुच मृत्यु का पात्र हो गया है।
तब विश्वामित्रजी ने शांत भाव से कहा -
हे मुनिवर! क्षमा कीजिए। साधुजन बालकों के दोष और गुणों को नहीं गिनते।
परशुरामजी बोले -
मेरे हाथ में तीखी धार वाला फरसा है, मैं स्वभाव से दयारहित और क्रोधी हूँ, और यह बालक - यह तो गुरुद्रोही और अपराधी होकर मेरे सामने उत्तर दे रहा है! फिर भी मैं इसे जीवनदान दे रहा हूँ, यह केवल तुम्हारे प्रेम के कारण है हे विश्वामित्र! अन्यथा इसे इस कठोर शक्तिशाली कुठार से काट देना मेरे लिए कोई कठिन कार्य नहीं होता और मैं गुरु के ऋण से उऋण हो जाता।
विश्वामित्रजी ने मन-ही-मन मुस्कराकर सोचा —
मुनि को तो हर ओर जीत ही जीत दिखाई दे रही है! वे श्रीराम और लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय समझ रहे हैं। परंतु यह कोई मिठे गन्ने से बनी शक्कर नहीं है जो मुँह में डालते ही घुल जाए, यह तो लोहे की खड्ग है, अखंड, अटूट। दुःख की बात है कि मुनि अभी भी इन दोनों भाइयों के प्रभाव को नहीं समझ पा रहे हैं।
माता-पिता का ऋण तो इन्होंने अच्छे से चुका दिया है, अब गुरु का ऋण शेष है - जिसे ये हृदय में बोझ समझकर उतारना चाहते हैं। मानो वह ऋण हमारे ही सिर पर निकला हो! बहुत दिन बीत गए, ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब रखने वाले को बुलाइए, मैं अपनी थैली खोलकर एकमुश्त चुका दूँ! लक्ष्मणजी के इन तीखे वचनों को सुनकर परशुरामजी ने फिर से फरसा कसकर सँभाल लिया।
सारी सभा “हाय! हाय!” करके पुकार उठी।
लक्ष्मणजी बोले -
"हे भृगुश्रेष्ठ! क्या आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? हे राजाओं के शत्रु! मैं तो आपको ब्राह्मण समझकर संयम रख रहा हूँ। आपको अब तक कोई योग्य रणधीर वीर नहीं मिला, तभी तो आप बार-बार फरसा दिखा रहे हैं। हे ब्राह्मण देवता! आप घर ही में बड़े हैं, इसलिए आपका सम्मान कर रहा हूँ।"
यह सुनकर सभा में उपस्थित सभी लोग चिल्ला उठे -
अनुचित है! यह अत्यंत अनुचित है! तब श्री रामचन्द्रजी ने एक संकेत से लक्ष्मणजी को शांत कर दिया। लक्ष्मणजी के तीखे वचन, जो मानो आहुति के समान परशुरामजी के क्रोधरूपी अग्नि में पड़ रहे थे, उन्हें शांत करने के लिए रघुकुल के सूर्य, श्री रामजी ने जल के समान शीतल वाणी में कहा - हे नाथ! बालकपर कृपा कीजिये। इस सीधे और दुधमुँहे बच्चे पर क्रोध न कीजिये। यदि इसने प्रभु के रूप में आपके प्रभाव को तनिक भी जाना होता, तो क्या यह मूर्खता से आपकी बराबरी करने का साहस करता?
बालक यदि कुछ चपलता भी करे, तो गुरु, पिता और माता उनके स्वभाव को स्नेहपूर्वक देख आनन्दित होते हैं। अतः इसे छोटा बच्चा और सेवक समझकर कृपादृष्टि कीजिए। आप तो समदर्शी, सुशील, धैर्यवान और ज्ञानी मुनि हैं। श्री रामजी के कोमल और मर्यादित वचनों को सुनकर परशुरामजी का क्रोध कुछ शांत हुआ। इतने में लक्ष्मणजी ने कुछ कहकर फिर मुस्करा दिया। उन्हें मुस्कराते देखकर परशुरामजी का क्रोध फिर भड़क उठा। उनके शरीर में नख से लेकर शिखा तक अग्नि फैल गई और उन्होंने तीव्र स्वर में कहा - हे राम! तेरा भाई बड़ा पापी है। यह शरीर से गोरा है, पर इसका हृदय अत्यंत काला है। यह बाहर से भोला दिखता है, पर वास्तव में विष के समान तीखा है। यह दूधमुँहा नहीं, विषमुख है। इसका स्वभाव टेढ़ा है और यह तेरा अनुसरण भी नहीं करता। यह अधम मुझे काल के समान भी नहीं मानता।
लक्ष्मणजी विनम्रता से किंतु साहसपूर्वक बोले— हे मुनिवर! कृपा करके सुनिए, क्रोध पाप का मूल है। इसी के वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठता है और समस्त संसार के विरुद्ध चलने लगता है। हे मुनिराज! मैं तो आपका दास हूँ। अब क्रोध छोड़कर दया कीजिए। जो धनुष एक बार टूट चुका है, वह क्रोध करने से फिर जुड़ नहीं सकता। खड़े-खड़े आपके चरण भी थक गए होंगे, कृपा कर बैठ जाइए।
यदि वह धनुष आपको अत्यंत प्रिय है, तो किसी चतुर और गुणी कारीगर को बुलाकर जुड़वा दिया जाए। लक्ष्मणजी के इस प्रकार बोलने से जनकजी भयभीत हो उठे और बोले- बस पुत्र! अब मौन हो जाओ। अनुचित बोलना किसी प्रकार उचित नहीं है।
जनकपुर के स्त्री-पुरुष भय से थर-थर काँप रहे थे और मन ही मन कह रहे थे- यह छोटा कुमार तो बड़ा ही खोटा निकला! लक्ष्मणजी की निर्भय वाणी सुन-सुनकर परशुरामजी का शरीर क्रोध से तपने लगा। उनके तेज और बल में भी ह्रास होने लगा। तब परशुरामजी ने श्री रामजी की ओर देख कर कहा- हे राम! तेरे छोटे भाई को जानकर ही मैं इसे अब तक छोड़ रहा हूँ। यह बाहर से जितना सुंदर है, मन से उतना ही मलिन है। जैसे विष के रस से भरा हुआ सोने का घड़ा!
यह सुनकर लक्ष्मणजी फिर मुस्करा दिए। तब श्री रामचन्द्रजी ने उन्हें तिरछी दृष्टि से देखा, जिससे वे लज्जित हो गए और उल्टा बोलना छोड़कर गुरुजी के पास चले गए। तब श्री रामचन्द्रजी ने अत्यंत विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर कोमल और शीतल वाणी में कहा- हे नाथ! आप तो स्वभाव से ही ज्ञानी और समझदार हैं। कृपया बालक के वचनों को गंभीरता से न लें। बालकों और बड़ों का एक स्वभाव होता है, जिन्हें संतजन कभी दोष नहीं देते। और फिर उसने (लक्ष्मण ने) कोई ऐसा कार्य भी नहीं किया है जिससे कोई हानि हुई हो।
हे स्वामी! यदि कोई अपराधी है तो वह मैं हूँ। कृपा, क्रोध, दण्ड या बन्धन- जो भी उचित हो, उसे मुझ पर कीजिए। हे मुनिराज! जिस उपाय से आपका क्रोध शांत हो सके, कृपया बताइए, मैं वही करूंगा। परशुरामजी ने कहा- हे राम! मेरा क्रोध कैसे शान्त हो सकता है? अभी भी तेरा छोटा भाई टेढ़ी दृष्टि से मुझे देख रहा है। यदि मैं इसके गले पर कुठार नहीं चलाऊँ, तो फिर क्रोध किस काम का?
जिस कुठार की भीषण मार से राजाओं की रानियाँ गर्भ गिरा देती थीं, वही कुठार मेरे हाथ में होते हुए भी मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीवित देख रहा हूँ! हाथ उठता नहीं, पर छाती क्रोध से जल रही है। हाय! यह राजाओं का संहारक मेरा प्रिय फरसा भी जैसे निष्क्रिय हो गया है। विधाता ही विपरीत हो गए हैं, इसीलिए मेरा स्वभाव भी बदल गया। वरना मेरे हृदय में कभी भी कृपा कहाँ बसती थी?
आज यह दया ही मुझे यह दुःसह पीड़ा सहने को विवश कर रही है। यह सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कराए और विनम्र भाव से सिर झुकाकर बोले- हे मुनिवर! आपकी कृपारूपी वाणी भी आपकी ही भाँति मधुर और कोमल है। जब आप बोलते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे फूल झर रहे हों। यदि आपकी कृपा करने से शरीर जल जाए, तो क्रोध करने पर उसकी रक्षा कौन करेगा? विधाता ही रक्षा करेंगे।
परशुरामजी जनकजी की ओर देखकर बोले- हे जनक! देखो, यह मूर्ख बालक हठपूर्वक यमपुरी में घर बनाना चाहता है! इसे शीघ्र आँखों से ओझल क्यों नहीं करते? यह राजपुत्र देखने में छोटा लगता है, पर वास्तव में अत्यंत खोटा है! लक्ष्मणजी ने मन-ही-मन हँसते हुए कहा- “आँखें मूँद लेने पर कहीं कोई नहीं रहता!”
तब परशुरामजी अत्यंत क्रोध से भरे हुए श्रीरामजी से बोले- अरे दुष्ट! तू शिवजी का धनुष तोड़कर उल्टा हमें ही ज्ञान सिखाता है! तेरा यह भाई तेरी ही सहमति से कटु वचन बोलता है, और तू छलपूर्वक हाथ जोड़कर विनय कर रहा है! यदि वास्तव में तू वीर है, तो युद्ध कर, और मेरे क्रोध को शांत कर; नहीं तो 'राम' कहलाना छोड़ दे। अरे शिव-द्रोही! छल छोड़ और मुझसे युद्ध कर। नहीं तो तेरे साथ तेरे भाई को भी मार डालूँगा! इस प्रकार परशुरामजी कुठार उठाए हुए कुपित होकर वचन कह रहे थे, और श्री रामचन्द्रजी सिर झुकाए भीतर ही भीतर मुस्करा रहे थे। प्रभु श्रीराम मन ही मन सोचने लगे- दोष तो लक्ष्मण का है, और क्रोध मुझ पर हो रहा है! कभी-कभी सीधेपन में भी बड़ा दोष देखा जाता है। लोग टेढ़े को नमस्कार करते हैं; जैसे राहु कभी सीधे चंद्रमा को नहीं ग्रसता!
फिर श्री रामचन्द्रजी ने प्रकट होकर अत्यंत विनम्र वाणी में कहा- "हे मुनिश्रेष्ठ! क्रोध त्याग दीजिए। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर आगे है। जिस उपाय से आपका क्रोध शांत हो, हे स्वामी! वही कीजिए। कृपा कर मुझे अपना सेवक जानिए। स्वामी और सेवक के बीच युद्ध कैसा? हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! क्रोध का त्याग कीजिए। आपके वीररस से भरे वेश को देखकर ही उस बालक ने कुछ कह दिया, किंतु वास्तव में उसका कोई दोष नहीं था। उसने आपको बाण, धनुष और कुठार धारण किए देखा, और वीर मानकर आवेश में उत्तर दे बैठा। वह आपका नाम तो जानता था, किंतु आपके तेज और स्वरूप को पहचान न सका। रघुवंश का स्वाभाविक तेज उसमें जाग उठा और उसने वैसा उत्तर दे दिया। यदि आप मुनि के वेश में आते, तो वह बालक आपके चरणों की धूलि सिर पर रखता। अनजाने में हुई उस भूल को क्षमा कर दीजिए। ब्राह्मणों के हृदय में स्वाभाविक रूप से अपार दया होती है।
"हे नाथ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी हो सकती है? कहिए तो, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक? कहाँ मेरा छोटा-सा 'राम' नाम और कहाँ आपका परशु सहित प्रसिद्ध 'परशुराम' नाम! हे देव! हमारे पास तो मात्र एक गुण धनुषधारण है, और आपके पास [शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान, आस्तिकता] जैसे नवगुणों का भंडार है। हम तो हर दृष्टि से आपसे पराजित हैं। हे विप्रवर! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए।"
श्री रामचन्द्रजी बार-बार परशुरामजी को 'मुनि' और 'विप्रवर' कहकर सम्मानपूर्वक संबोधित कर रहे थे। यह सुनकर भृगुपुत्र परशुराम कुपित होकर (या क्रोध मिश्रित हँसी हँसते हुए) बोले— "तू भी अपने भाई के समान ही टेढ़ा है। क्या मुझे केवल एक साधारण ब्राह्मण समझ रखा है? सुन, मैं कैसा विप्र हूँ, बताता हूँ। मेरे धनुष को अग्निकुण्ड, बाणों को आहुति और मेरे क्रोध को यज्ञ की प्रचण्ड ज्वाला समझ! चतुरंगिणी सेना मेरी समिधा है, और वे राजा, जो रणभूमि में मुझसे भिड़े, वे सब बलिपशु बन गए जिन्हें मैंने अपने परशु से यज्ञ में अर्पित कर दिया। मैंने ऐसे करोड़ों रण-यज्ञ किए हैं, जिनमें मन्त्रों के स्थान पर हुंकार और बलिदान के रूप में राजाओं की गर्दनें अर्पित की गई हैं। पुकार-पुकार कर, ‘स्वाहा’ की तरह मैं उन्हें रणभूमि में स्वाहा कर चुका हूँ।
मेरा प्रभाव तुझे ज्ञात नहीं, इसी कारण तू ब्राह्मण समझकर मेरा तिरस्कार कर रहा है। तूने शिवजी का धनुष तोड़ डाला, इससे तेरा अहंकार सातवें आसमान पर पहुँच गया है। तेरा व्यवहार ऐसा हो गया है, मानो तूने सम्पूर्ण जगत को जीत लिया हो!
श्रीरामचन्द्रजी ने अत्यंत नम्रतापूर्वक कहा -
हे मुनिश्रेष्ठ! कृपया विचारपूर्वक वाणी कहिए। आपका क्रोध तो बहुत महान है, पर मेरी भूल अत्यंत छोटी। वह धनुष पुराना था, छूते ही टूट गया। फिर मैं किस बात पर अभिमान करूँ? हे भृगुनाथ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण का अपमान करते हैं, तो सत्य-सत्य कहिए - फिर इस संसार में ऐसा कौन-सा योद्धा है जिसे हम भयवश मस्तक नवायें? चाहे देवता हों, दैत्य हों, राजा हों अथवा अन्य बलवान वीर, यदि कोई हमें रणभूमि में ललकारे - तो हम प्रसन्नतापूर्वक उसका सामना करेंगे, चाहे वह काल ही क्यों न हो। जो क्षत्रिय शरीर लेकर युद्ध से डर जाए, वह अपने कुल पर कलंक लगा देता है। मैं अपने कुल का गुणगान नहीं कर रहा, स्वभाव से ही कह रहा हूँ - रघुवंशी रणभूमि में काल से भी नहीं डरते। ब्राह्मणों की यही महान महिमा है कि जो आपसे डरता है, वह संसार में सबसे निर्भय बन जाता है - और जो स्वयं निर्भय है, वह भी आपके सम्मुख भय से नतमस्तक हो जाता है।
श्रीरामजी के कोमल, गूढ़ और विनयपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजी की बुद्धि खुल गई। फिर उन्होंने अंतर्मन में झांक कर देखा तो उन्हें विश्वास हो गया कि ये जो श्रीराम है। वे श्री हरि विष्णु का ही अवतार है। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक कहा - "हे राम! हे लक्ष्मीपति! कृपा करके मेरे इस धनुष को हाथ में लीजिए और उसे खींचकर मेरे संशय को दूर कर दीजिए।"
परशुरामजी ने जब श्री रामजी को धनुष सौंपना चाहा जो स्वयं श्रीलक्ष्मीपति विष्णु भगवान का ही था। वह स्वयं ही उनके हाथों में आ गया। यह दृश्य देखकर परशुरामजी अत्यंत चकित रह गए। उन्होंने श्री रामजी का दिव्य प्रभाव पहचान लिया। उनका शरीर पुलकित हो उठा और हृदय हर्ष से भर गया। वे प्रेममग्न होकर बोले - "हे रघुकुल रूपी कमलवन के सूर्य! हे राक्षसकुल रूपी अंधकार वन को जलाने वाले अग्निरूप प्रभु!
आपकी जय हो!
हे देवता, ब्राह्मण और गौ माता के हित के लिए अवतरित प्रभु! आपकी जय हो!
हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम का नाश करने वाले! आपकी जय हो!
हे विनय, शील, करुणा, ज्ञान और विवेक के सागर!
हे मधुर वचनों में कुशल, सेवकों को आनंद देने वाले, सौंदर्य में करोड़ों कामदेवों को मात देने वाले प्रभो!
आपकी जय हो!
मैं एक मुख से आपकी क्या महिमा गाऊँ?
हे भगवान शंकर के मनरूपी मानसरोवर के हंस!
आपकी अनंत जय हो!
मैंने अनजाने में आपके प्रति बहुत से अनुचित वचन कहे हैं।
हे क्षमा के मंदिर, दोनों भाइयों! मुझे क्षमा कीजिए।
"हे रघुकुल के पताकास्वरूप श्री रामचन्द्रजी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो!"
ऐसा कहकर वे तपस्या के लिए वन की ओर प्रस्थान कर गए।
उधर, जो अहंकारी और दुराचारी राजा वहाँ उपस्थित थे, वे निरर्थक भय से कांप उठे।
उन्होंने मन में सोचा - "जब परशुरामजी जैसे महायोद्धा भी श्री रामचन्द्रजी के आगे नतमस्तक हो गए, तब हमने तो इनका अपमान किया है, कहीं प्रभु बदला न लें।" इस अकारण भय से वे कायर राजा चुपचाप, चोरी-छिपे वहाँ से भाग निकले। देवताओं ने आकाश में नगाड़े बजाए और श्री रामजी पर पुष्प वर्षा करने लगे।
जनकपुर की स्त्रियाँ और पुरुष सभी हर्ष से झूम उठे। उनके हृदय में जो मोहजनित पीड़ा थी, वह मिट गई। चारों ओर आनंद-उत्सव छा गया। शुभ बाजे बजने लगे, नगर में मंगल सजावटें की गईं।
कोयल-जैसे मधुर स्वर वाली सुंदर स्त्रियाँ, जिनके मुख और नेत्र अनुपम थे, वे झुंड-की-झुंड मिलकर मनोहर गीत गाने लगीं। जनकजी का हर्ष वाणी में व्यक्त नहीं हो सकता था। मानो किसी जन्म-जन्मांतर के दरिद्री को अचानक निधि का खजाना मिल गया हो। माता सीताजी का भय भी समाप्त हो गया। वे ऐसी सुखी हुईं, जैसे चंद्रमा के उदय होते ही चकोर कन्या प्रसन्न होती है।
9. श्रीराम और सीताजी का दिव्य विवाह
जनकजी ने महर्षि विश्वामित्रजी को प्रणाम कर भावभीनी वाणी में कहा - हे प्रभो! आपकी कृपा से श्री रामचन्द्रजी ने धनुष भंग किया। दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया। अब कृपया जो उचित हो, वह आदेश दीजिए।
मुनिश्रेष्ठ ने कहा - हे चतुर राजन्! विवाह तो धनुष की शर्त पर था। अब जबकि वह धनुष टूट गया, तो विवाह भी पूर्ण हुआ। देवता, मनुष्य और नाग - सभी को यह विदित हो चुका है। फिर भी, अब आप अपने कुल की परंपरा के अनुसार ब्राह्मणों, गुरुओं और बड़े बूढों से परामर्श लें, और वेद-विधि के अनुसार आचरण करें। अयोध्या में दूत भेजिए, जो महाराज दशरथजी को यहाँ आमंत्रित करें। जनकजी अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले -
"हे कृपालु मुनिवर! बहुत अच्छा।"
फिर उन्होंने तुरंत दूतों को बुलाकर उन्हें अयोध्या भेज दिया। इसके पश्चात् जनकजी ने नगर के सभी महाजनों को बुलवाया। वे आदरपूर्वक आए और राजाजी को प्रणाम कर विनम्रतापूर्वक सिर नवाया।
राजा ने उन्हें आदेश दिया - नगर के बाजारों, रास्तों, घरों, देवालयों और प्रत्येक स्थान को सजाओ। राजा ने फिर सेवकों को बुलवाकर कहा- विचित्र और भव्य मण्डप सजाओ।
यह सुनकर सेवक राजा की आज्ञा को शिरोधार्य कर आनंदपूर्वक चल पड़े। उन्होंने कुशल और दक्ष कारीगरों को बुलाया, जो मण्डप निर्माण में पारंगत थे। सबने पहले ब्रह्माजी की वंदना की और फिर कार्य आरंभ किया। सोने के केले के खंभे बनाए गए। हरी-हरी मणियों (पन्नों) से पत्ते और फल रचे गए, पद्मराग (माणिक) से फूल गढ़े गए। उस मण्डप की रचना देखकर स्वयं ब्रह्मा भी चकित रह गए। बाँस रूपी स्तंभ हरे-भरे पन्नों की मणियों से बनाए गए थे - इतने सुंदर कि सामान्य और मणिमय का अंतर ज्ञात न हो।
सोने की नागबेली (पान की लता) बनाई गई, जो पत्तों सहित इतनी वास्तविक लगती थी कि पहचानना कठिन हो। उसी नागबेली से सुंदर पच्चीकारीयुक्त बंदन (रस्सियाँ) बनाई गईं। मोतियों की झालरें उसमें पिरोई गईं। माणिक, पन्ने, हीरे और फिरोज़ा रत्नों से लाल, हरे, सफेद और नीले रंग के कमल बनाए गए। बहुरंगी पक्षी और भौंरे बनाए गए, जो हवा के स्पर्श से गूंजने और गाने लगते थे। स्तंभों पर देवताओं की मूर्तियाँ गढ़ी गईं, जो मङ्गलद्रव्य हाथों में लिए खड़ी थीं। नीलमणियों से अत्यंत सुंदर आम के पत्ते बनाए गए।
सोने के आम के फूल और रेशमी डोरी से बंधे पन्नों के फलों के गुच्छे मनोहर लग रहे थे। ऐसे भव्य बंदनवार बनाए गए मानो स्वयं कामदेव ने प्रेमपाश रच दिए हों। सैंकड़ों मंगलकलश, रंग-बिरंगी ध्वजाएँ, पताकाएँ, सुंदर पर्दे और चँवर सजाए गए।
मणियों से जड़े दीपकों से सुसज्जित उस मण्डप की शोभा का वर्णन कोई कवि नहीं कर सकता। वह मण्डप, जहाँ श्री जानकीजी वधू बनेंगी, और श्रीरामचन्द्रजी वर रूप में विराजेंगे - वह त्रिलोकी में प्रसिद्ध न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। जनकजी के महल की जैसी शोभा थी, वैसी ही शोभा नगर के प्रत्येक घर में दिखाई दे रही थी।
उस समय जिसने तिरहुत (जनकपुर) को देखा, उसे चौदहों लोक भी तुच्छ प्रतीत हुए। जनकपुर के साधारण घरों में भी जो वैभव देखा गया, उसे देखकर स्वयं इन्द्रदेव भी मोहित हो उठते। जहाँ स्वयं महालक्ष्मीजी स्त्री का रूप धरकर बसी हों, उस पुर की शोभा का वर्णन करना सरस्वतीजी और शेषनाग के लिए भी कठिन हो जाता है।
उसी दौरान समय जनकजी के भेजे हुए दूत अयोध्या की पवित्र नगरी में पहुँचे। उन्होंने नगर की सुंदरता देखकर हर्ष अनुभव किया और राजमहल पहुँचकर राजा दशरथजी के पास सूचना भिजवाई। राजा ने जब दूतों का संदेश सुना, तो उन्हें आदर के साथ बुलवाया। दूतों ने प्रणाम करके जनकजी का पत्र राजा को हाथ में दिया। राजा दशरथजी प्रसन्न होकर स्वयं उठे और पत्र को अपने हाथों से ग्रहण किया। जब उन्होंने पत्र पढ़ना आरंभ किया, तो उनकी आँखों से प्रेम और आनंद के आँसू छलक उठे, शरीर पुलकित हो गया और हृदय आनंद से भर उठा। हृदय में राम और लक्ष्मण हैं, हाथ में सुन्दर पत्र है, राजा उसे हाथ में लिये ही रह गये, खट्टी-मीठी कुछ भी कह न सके। फिर धीरज धरकर उन्होंने पत्रिका पढ़ी। सारी सभा सच्ची बात सुनकर हर्षित हो गयी। भरतजी अपने मित्रों और भाई शत्रुघ्न के साथ जहाँ खेलते थे, वहीं समाचार पाकर वे आ गये। बहुत प्रेम से सकुचाते हुए पूछते हैं- पिताजी! पत्र कहाँ से आया है?
हमारे प्राणों से प्यारे दोनों भाई, कहिए सकुशल तो हैं और वे किस देश में हैं? स्नेह से सने ये वचन सुनकर राजा ने फिर से पत्र पढ़ना शुरू किया। चिट्ठी सुनकर दोनों भाई पुलकित हो गये। स्नेह इतना अधिक हो गया कि वह शरीर में समाता नहीं। भरतजी का पवित्र प्रेम देखकर सारी सभा ने विशेष सुख पाया। तब राजा दूतों को पास बैठाकर मन को हरनेवाले मीठे वचन बोले- भैया! कहो, दोनों बच्चे कुशल से तो हैं? तुमने अपनी आँखों से उन्हें अच्छी तरह देखा है न? साँवले और गोरे शरीरवाले वे धनुष और तरकस धारण किये रहते हैं, किशोर अवस्था है, विश्वामित्र मुनि के साथ हैं। तुम उनको पहचानते हो तो उनका स्वभाव बताओ। राजा प्रेम के विशेष वश होने से बार-बार इस प्रकार पूछ रहे हैं।
भैया! जिस दिन से मुनि दोनों को यहां से ले गये है, तब से आज ही हमने सच्ची खबर पायी है। ये तो बताओ महाराज जनक ने उन्हें कैसे पहचाना? ये प्रिय वचन सुनकर दूत मुस्कुराए।
दूतोंने कहा- हे राजाओं के मुकुटमणि! सुनिए, आपके समान धन्य इस संसार में और कोई नहीं है, जिनके राम-लक्ष्मण जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्व के विभूषण हैं। आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं हैं। वे पुरुषसिंह तीनों लोकों के प्रकाशस्वरूप हैं। जिनके यश के आगे चन्द्रमा मलिन और प्रताप के आगे सूर्य शीतल लगता है, हे नाथ! उनके लिये आप कहते हैं कि उन्हें कैसे पहचाना! क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा जाता है? सीताजी के स्वयंवर में अनेकों राजा और एक-से-एक बढ़कर योद्धा एकत्र हुए थे, परन्तु शिवजी के धनुष को कोई भी नहीं हिला सका। सारे बलवान् वीर हार गये। तीनों लोकों में जो वीरता के अभिमानी थे, शिवजी के धनुष ने सबकी शक्ति तोड़ दी।
बाणासुर, जो सुमेरु पर्वत को भी उठा सकता था, वह भी हृदय में हारकर परिक्रमा करके चला गया; और जिसने खेल खेल में ही कैलास पर्वत को उठा लिया था, वह रावण भी उस सभा में पराजय को प्राप्त हुआ।
हे महाराज! सुनिए, जहाँ बड़े बड़े योद्धा हार मान गये। रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी ने बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमल की डंडी को तोड़ डालता है! धनुष टूटने की बात सुनकर परशुरामजी क्रोधभरे आये और उन्होंने बहुत प्रकार से आँखें दिखलायीं। अन्त में उन्होंने भी श्री रामचन्द्रजी का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया और बहुत प्रकार से विनती करके वन को गमन किया।
हे राजन्! जैसे श्री रामचन्द्रजी अतुलनीय बली हैं, वैसे ही तेजनिधान लक्ष्मणजी भी हैं, जिनके देखने मात्र से राजालोग ऐसे काँप उठते थे, जैसे हाथी सिंह के बच्चे के ताकने से काँप उठते हैं। हे देव! आपके दोनों बालकों को देखने के बाद अब आँखों के नीचे कोई आता ही नहीं। प्रेम, प्रताप और वीर-रस में सनी हुई दूतों की वचन रचना सबको बहुत प्रिय लगी। सभासहित राजा प्रेम में मग्न हो गये और दूतों को निछावर देने लगे। "उन्हें निछावर देते देखकर" यह नीतिविरुद्ध है, ऐसा कहकर दूत अपने हाथों से कान मूँदने लगे। उनका धर्मयुक्त बर्ताव देखकर सभी ने सुख माना।
तब राजा उठकर वसिष्ठजी के पास जाकर उन्हें पत्रिका दी और आदरपूर्वक दूतों को बुलाकर सारी कथा गुरुजी को सुना दी। सब समाचार सुनकर और अत्यन्त सुख पाकर गुरु बोले- पुण्यात्मा पुरुष के लिये पृथ्वी सुखों से छायी हुई है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती। वैसे ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाये स्वाभाविक ही धर्मात्मा पुरुष के पास आती हैं। तुम जैसे गुरु, ब्राह्मण, गाय और देवता की सेवा करनेवाले हो, वैसी ही पवित्र कौसल्या देवी भी हैं। तुम्हारे समान पुण्यात्मा जगत में न कोई हुआ, न है और न ही होगा। हे राजन्! तुमसे अधिक पुण्य और किसका होगा, जिसके राम-सरीखे पुत्र हैं। और जिसके चारों बालक वीर, विनम्र, धर्म का व्रत धारण करनेवाले और गुणों के सुन्दर समुद्र हैं। तुम्हारे लिये सभी कालों में कल्याण है। अतएव डंका बजवाकर बारात सजाओ और जल्दी चलो।
गुरुजी के ऐसे वचन सुनकर, 'हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर और सिर नवाकर तथा दूतों को आराम कक्ष में भिजवाकर राजा महल में गये। राजा ने सारी रानियों को बुलाकर वह पत्रिका पढ़कर सुनायी। समाचार सुनकर सब रानियाँ हर्ष से भर गयीं। राजा ने फिर दूसरी सब बातों का (जो दूतों के मुख से सुनी थीं) वर्णन किया। प्रेम में प्रफुल्लित हुई रानियाँ ऐसी सुशोभित हो रही हैं जैसे मोरनी बादलों की गरज सुनकर प्रफुल्लित होती हैं। बड़ी-बूढ़ी और गुरुओं की स्त्रियाँ प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रही हैं। माताएँ अत्यन्त आनन्द में मग्न हैं। उस अत्यन्त प्रिय पत्रिका को आपस में लेकर सब हृदय से लगाकर छाती शीतल करती हैं। राजाओं में श्रेष्ठ दशरथजी ने श्री राम-लक्ष्मण की कीर्ति और करनी का बारंबार वर्णन किया।
'यह सब मुनि की कृपा है' ऐसा कहकर वे बाहर चले आये। तब रानियों ने ब्राह्मणों को बुलाया और आनन्दसहित उन्हें दान दिये। श्रेष्ठ ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुए चले। फिर भिक्षुकों को बुलाकर करोड़ों प्रकार की निछावरें उनको दीं। 'चक्रवर्ती महाराज दशरथ के चारों पुत्र चिरंजीवी हों' यों कहते हुए वे अनेक प्रकार के सुन्दर वस्त्र पहन-पहनकर चले। आनन्दित होकर नगाड़ेवालों ने बड़े जोर से नगाड़े बजाए। नगर के सब लोगों ने जब यह समाचार सुना, तब घर-घर में खुशियां छा गई।
चौदहों लोकों में उत्साह भर गया कि जानकीजी और श्री रघुनाथजी का विवाह होगा। यह शुभ समाचार पाकर लोग प्रेममग्न हो गये और रास्ते, घर तथा गलियाँ सजाने लगे। यद्यपि अयोध्या सदा सुहावनी है, क्योंकि वह श्री रामजी की मङ्गलमयी पवित्र पुरी है, ध्वजा, पताका, परदे और सुन्दर वस्तुओं से सारा बाजार बहुत ही अनूठा छाया हुआ है। सोने के कलश, तोरण, मणियों की झालरें, हल्दी, दूब, दही, अक्षत और मालाओं से लोगों ने अपने-अपने घरों को सजाकर मङ्गलमय बना लिया। गलियों को चतुरसम से सींचा और द्वारों पर सुन्दर चौक पुराये। चन्दन, केशर, कस्तूरी और कपूर से बने हुए एक सुगन्धित द्रव्य को “चतुरसम”कहते हैं।
बिजली-सी कान्तिवाली चन्द्रमुखी, हिरण के बच्चे से नेत्रवाली और अपने सुन्दर रूप से कामदेव की स्त्री रति के अभिमान को छुड़ानेवाली सुहागिनी स्त्रियाँ सभी सोलहों श्रृंगार सजकर, जहाँ-तहाँ झुंड-की-झुंड मिलकर, मनोहर वाणी से मङ्गलगीत गा रही हैं, जिनके सुन्दर स्वर को सुनकर कोयलें भी लजा जाती हैं। राजमहल का वर्णन कैसे किया जाय, जहाँ विश्व को मोहित करनेवाला मण्डप बनाया गया है। अनेकों प्रकार के मनोहर माङ्गलिक पदार्थ शोभित हो रहे हैं और बहुत-से नगाड़े बज रहे हैं। कहीं भाट विरुदावली (कुलकीर्ति) का उच्चारण कर रहे हैं और कहीं ब्राह्मण वेदध्वनि कर रहे हैं। सुन्दरी स्त्रियाँ श्री रामजी और श्री सीताजी का नाम ले-लेकर मङ्गलगीत गा रही हैं।
दशरथजी के महल की शोभा का वर्णन कौन कवि कर सकता है, जहाँ समस्त देवताओं के शिरोमणि श्री रामचन्द्रजी ने अवतार लिया है। फिर राजा ने भरतजी को बुला लिया और कहा कि जाकर घोड़े, हाथी और रथ सजाओ, जल्दी रामचन्द्रजी की बारात में चलो।
यह सुनते ही दोनों भाई (भरतजी और शत्रुघ्नजी) आनन्दवश पुलकित हो गए। भरतजी ने सब साहनी (घुड़साल के अध्यक्ष) बुलाये और उन्हें घोड़ों को सजाने की आज्ञा दी, वे प्रसन्न होकर उठ दौड़े। उन्होंने रुचि के साथ घोड़े सजाये। रंग-रंग के उत्तम घोड़े शोभित हो गये। सब घोड़े बड़े ही सुन्दर और चंचल चाल के हैं। अनेकों जाति के घोड़े हैं, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। ऐसी तेज चाल के हैं। मानो हवा का निरादर करके उड़ना चाहते हैं। उन सब घोड़ों पर भरतजी के समान अवस्थावाले सब छैल छबीले राजकुमार सवार हुए। वे सभी सुन्दर हैं और सब आभूषण धारण किये हुए हैं। उनके हाथों में बाण और धनुष हैं तथा कमर में भारी तरकस बँधे हैं।नसभी चुने हुए छबीले छैल, शूरवीर, चतुर और नवयुवक हैं। प्रत्येक सवार के साथ दो पैदल सिपाही हैं, जो तलवार चलाने की कलामें बड़े निपुण हैं। शूरता का बाना धारण किये हुए रणधीर वीर सब निकलकर नगर के बाहर आ खड़े हुए। सारथियों ने ध्वजा, पताका, मणि और आभूषणों को लगाकर रथों को बहुत विलक्षण बना दिया है। उनमें सुन्दर चॅवर लगे हैं और घंटियाँ सुन्दर आवाज़ कर रही हैं। वे रथ इतने सुन्दर हैं मानो सूर्य के रथ की शोभा को छीने लेते हैं। अगणित श्यामकर्ण घोड़े थे। उनको सारथियों ने उन रथों में जोड़ दिया है, जो सभी देखने में सुन्दर और गहनों से सजाये हुए सुशोभित हैं, और जिन्हें देखकर मुनियों के मन भी मोहित हो जाते हैं। जो पानी पर भी जमीन की तरह ही चलते हैं। अस्त्र-शस्त्र और सब साज सजाकर सारथियों ने रथियों को बुला लिया। रथों पर चढ़-चढ़कर बारात नगर के बाहर जुटने लगी। जो जिस काम के लिये जाता है, सभी को सुन्दर सुकून होता हैं।
श्रेष्ठ हाथियों पर सुन्दर अंबारियाँ पड़ी हैं। वे जिस प्रकार सजायी गयी थीं, वो कहा नहीं जा सकता। मतवाले हाथी घंटियों से सुशोभित होकर और घंटी बजाते हुए चले, मानो सावन के सुन्दर बादलों के समूह गरजते हुए जा रहे हों। सुन्दर पालकियाँ, सुख से बैठने योग्य तामजान (जो कुर्सीनुमा होते हैं) और रथ आदि और भी अनेकों प्रकार की सवारियाँ हैं। उनपर श्रेष्ठ ब्राह्मणों के समूह चढ़कर चले, मानो सब वेदों के छन्द ही शरीर धारण किये हुए हों। मागध, सूत, भाट और गुण गानेवाले सब, जो जिस योग्य थे, वैसी सवारी पर चढ़कर चले। बहुत जातियों के खच्चर, ऊँट और बैल असंख्यों प्रकार की वस्तुएँ लाद-लादकर चले। कहार लोग करोड़ों काँवरें लेकर चले। उनमें अनेकों प्रकार की इतनी वस्तुएँ थीं कि जिनका वर्णन नहीं किया सकता। सब सेवकों के समूह अपना-अपना साज-समाज बनाकर चले।
सबके हृदय में अपार हर्ष है और शरीर पुलकित हैं। सबको एक ही लालसा लगी है कि हम श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को नेत्र भरकर कब देखेंगे? हाथी गरज रहे हैं, उनके गले में लटके घंटों की भीषण ध्वनि हो रही है। चारों ओर रथों की घरघराहट और घोड़ों की हिनहिनाहट हो रही है। बादलों का निरादर करते हुए नगाड़े घोर आवाज़ कर रहे हैं। किसी को अपनी-परायी कोई बात कानों से सुनायी नहीं देती। राजा दशरथ के दरवाजे पर इतनी भारी भीड़ हो रही है कि वहाँ पत्थर फेंका जाय तो वह भी पिसकर धूल हो जाय। अटारियों पर चढ़ी स्त्रियाँ मङ्गल-थालों में आरती लिये देख रही हैं और नाना प्रकार के मनोहर गीत गा रही हैं। उनके अत्यन्त आनन्द का बखान नहीं हो सकता। तब सुमन्त्रजी ने दो रथ सजाकर उनमें सूर्य के घोड़ों को भी मात करनेवाले घोड़े जोड़े, दोनों सुन्दर रथ वे राजा दशरथ के पास ले आये, जिनकी सुन्दरता का वर्णन सरस्वती से भी नहीं हो सकता। एक रथपर राजसी सामान सजाया गया। और दूसरा जो तेज का पुंज और अत्यन्त ही शोभायमान था,
उस सुन्दर रथपर राजा वसिष्ठजी को हर्षपूर्वक चढ़ाकर फिर स्वयं शिव, गुरु, गौरी (पार्वती) और गणेशजी का स्मरण करके दूसरे रथपर चढ़े। वसिष्ठजी के साथ जाते हुए राजा दशरथजी कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे देवगुरु बृहस्पतिजी के साथ इन्द्र हों। वेद की विधि से और कुल की रीति के अनुसार सब कार्य करके तथा सबको सब प्रकार से सजे देखकर, श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके, गुरु की आज्ञा पाकर पृथ्वीपति दशरथजी शंख बजाकर चले। बारात देखकर देवता हर्षित हुए और सुन्दर मङ्गलदायक फूलों की वर्षा करने लगे। बड़ा शोर मच गया, घोड़े और हाथी गरजने लगे। आकाश में और बारात में दोनों जगह बाजे बजने लगे। देवाङ्गनाएँ और मनुष्यों की स्त्रियाँ सुन्दर मङ्गलगान करने लगीं और रसीले राग से शहनाइयाँ बजने लगीं। घंटे घंटियों की ध्वनि का वर्णन नहीं हो सकता। पैदल चलने वाले सेवकगण तथा पट्टेबाज कसरत के खेल कर रहे हैं और ध्वज फहरा रहे हैं। हँसी करने में निपुण और सुन्दर गाने में चतुर विदूषक (मसखरे) तरह-तरह के तमाशे कर रहे हैं
सुन्दर राजकुमार मृदंग और नगाड़े के शब्द सुनकर घोड़ों को उन्हीं के अनुसार नचा रहे हैं। चतुर नट चकित होकर यह देख रहे हैं। बारात ऐसी बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुन्दर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकंठ पक्षी बायीं ओर चारा ले रहा है, मानो सम्पूर्ण मङ्गलों की सूचना दे रहा हो। दाहिनी ओर कौआ सुन्दर खेत में शोभा पा रहा है। नेवले का दर्शन भी सब किसी ने पाया। तीनों प्रकार की (शीतल, मन्द, सुगन्धित) हवा अनुकूल दिशा में चल रही है। श्रेष्ठ (सुहागिनी) स्त्रियाँ भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिये आ रही हैं। लोमड़ी बार बार दिखायी दे जाती है। गायें सामने खड़ी बछड़ों को दूध पिलाती हैं। हिरणों की टोली बायीं ओर से घूमकर दाहिनी ओर को आ रही है, मानो सभी मङ्गलों का समूह दिखायी दिया।
क्षेमकरी (सफेद सिरवाली चील) विशेष रूप से क्षेम (कल्याण) कह रही है। श्यामा बायीं ओर सुन्दर पेड़ पर दिखायी पड़ी। स्वयं सगुण ब्रह्म जिसके सुन्दर पुत्र हैं, उसके लिये सब मङ्गल शकुन सुलभ हैं। जहाँ श्री रामचन्द्रजी-सरीखे दूल्हा और सीताजी जैसी दुल्हन हैं तथा दशरथजी और जनकजी-जैसे पवित्र समधी हैं, ऐसा ब्याह सुनकर मानो सभी शकुन नाच उठे और कहने लगे अब ब्रह्माजी ने हमको सच्चा कर दिया। इस तरह बारात ने प्रस्थान किया। घोड़े, हाथी गरज रहे हैं और नगाड़ों की तेज आवाज़ गूंज रही है।
सूर्यवंश के पताकास्वरूप दशरथजी को आते हुए जानकर जनकजी ने नदियों पर पुल बँधवा दिये। बीच-बीच में ठहरने के लिये सुन्दर घर (पड़ाव) बनवा दिये, जिनमें देवलोक के समान सम्पदा छायी है, और जहाँ बारात के सब लोग अपने-अपने मन की पसंद के अनुसार सुहावने उत्तम भोजन, बिस्तर और वस्त्र पाते हैं। मन के अनुकूल नित्य नये सुखों को देखकर सभी बरातियों अपने घर भूल गये। बड़े जोर से बजते हुए नगाड़ों की आवाज सुनकर श्रेष्ठ बारात को आते हुए जानकर अगवानी करनेवाले हाथी, रथ, पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले। दूध, शर्बत, ठंढाई, जल आदि से भरकर सोने के कलश तथा जिनका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अमृत के समान भाँति-भाँति के सब पकवानों से भरे हुए परात, थाल आदि अनेक प्रकार के सुन्दर बर्तन, उत्तम फल तथा और भी अनेकों सुन्दर वस्तुएँ राजा ने हर्षित होकर भेंट के लिये भेजीं। गहने, कपड़े, नाना प्रकार की मूल्यवान मणियाँ (रत्न), पक्षी, पशु, घोड़े, हाथी और बहुत तरह की सवारियाँ, तथा बहुत प्रकार के सुगन्धित एवं सुहावने मङ्गल-द्रव्य और सगुन के पदार्थ राजा ने भेजे। दही, चिउड़ा और अगणित उपहार की चीजें काँवरों में भर-भरकर कहार चले। अगवानी करने वालों को जब बारात दिखायी दी, तब उनके हृदय में आनन्द छा गया और शरीर रोमांच से भर गया। अगवानों को सज-धज के साथ देखकर बरातियों ने प्रसन्न होकर नगाड़े बजाये।
बाराती तथा अगवानों में से कुछ लोग परस्पर मिलने के लिये हर्ष के मारे बाग छोड़कर (सरपट) दौड़ चले, और ऐसे मिले मानो आनन्द के दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों, देवसुन्दरियाँ फूल बरसाकर गीत गा रही हैं, और देवता आनन्दित होकर नगाड़े बजा रहे हैं। अगवानी में आये हुए उन लोगों ने सब चीजें दशरथजी के आगे रख दीं और अत्यन्त प्रेम से विनती की।
राजा दशरथजी ने प्रेमसहित सब वस्तुएँ ले लीं, और वे याचकों को दे दी गयीं। तदनन्तर पूजा, आदर-सत्कार और बड़ाई करके अगवान लोग उनको जनवासे की ओर लिवा ले चले। सीताजी ने बारात जनकपुर में आयी जानकर अपनी कुछ महिमा प्रकट करके दिखलायी। हृदय में स्मरणकर सब सिद्धियों को बुलाया और उन्हें राजा दशरथजी की मेहमानी करने के लिये भेजा सीताजी की आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ जहाँ जनवासा था वहाँ सारी सम्पदा, सुख और इन्द्रपुरी के भोग-विलास को लिये हुए गयीं। बरातियों ने अपने-अपने ठहरने के स्थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुखों को सब प्रकार से सुलभ पाया। इस ऐश्वर्य का कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजी की बड़ाई कर रहे हैं।
श्री रघुनाथजी यह सब सीताजी की महिमा जानकर और उनका प्रेम पहचानकर हृदय में हर्षित हुए। पिता दशरथजी के आने का समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान आनन्द समाता न था। संकोचवश वे गुरु विश्वामित्रजी से कह नहीं सकते थे; परन्तु मन में पिताजी के दर्शनों की लालसा थी। विश्वामित्रजी ने उनकी बड़ी नम्रता देखी, तो उनके हृदय में बहुत सन्तोष उत्पन्न हुआ।
प्रसन्न होकर उन्होंने दोनों भाइयों को हृदय से लगा लिया। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। वे उस जनवासे को चले, जहाँ दशरथजी थे। मानो सरोवर प्यासे की ओर लक्ष्य करके चला हो। जब राजा दशरथजी ने पुत्रोंसहित मुनि को आते देखा, तब वे हर्षित होकर उठे और सुख के समुद्र में थाह-सी लेते हुए चले।
पृथ्वीपति दशरथजी ने मुनि की चरणधूलि को बारंबार सिरपर चढ़ाकर उनको दण्डवत् प्रणाम किया। विश्वामित्रजी ने राजा को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कुशल समाचार पूछा। फिर दोनों भाइयों को दण्डवत् प्रणाम करते देखकर राजा के हृदय में सुख समाया नहीं। पुत्रों को उठाकर हृदय से लगाकर उन्होंने अपने वियोगजनित दुःसह दुःख को मिटाया। मानो मृतक शरीर को प्राण मिल गये हों। फिर उन्होंने वसिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया। मुनिश्रेष्ठ ने प्रेम के आनन्द में उन्हें हृदय से लगा लिया। दोनों भाइयों ने सब ब्राह्मणों की वन्दना की और मनभाये आशीर्वाद पाये।
भरतजी ने छोटे भाई शत्रुघ्नसहित श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम किया। श्री रामजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। लक्ष्मणजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए और प्रेम से परिपूर्ण हुए शरीर से उनसे मिले। तदनन्तर परम कृपालु और विनयी श्री रामचन्द्रजी अयोध्यावासियों, कुटुम्बियों, जाति के लोगों, याचकों, मन्त्रियों और मित्रों- सभी से यथायोग्य मिले। श्री रामचन्द्रजी को देखकर बारात शीतल हुई श्रीराम के वियोग में सबके हृदय में जो आग जल रही थी, वह शान्त हो गयी। प्रीति की रीति का बखान नहीं हो सकता। राजा के पास चारों पुत्र ऐसे शोभा पा रहे हैं मानो अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष शरीर धारण किये हुए हों। पुत्रोंसहित दशरथजी को देखकर नगर के स्त्री-पुरुष बहुत ही प्रसन्न हो रहे हैं। आकाश में देवता फूलों की वर्षा करके नगाड़े बजा रहे हैं और अप्सराएँ गा-गाकर नाच रही है।
अगवानी में आये हुए शतानन्दजी, अन्य ब्राह्मण, मन्त्रीगण, मागध, सूत, विद्वान् और भाटों ने बारातसहित राजा दशरथजी का आदर-सत्कार किया। फिर आज्ञा लेकर वे वापस लौटे। बारात लग्न के दिन से पहले आ गयी है, इससे जनकपुर में अधिक आनन्द छा रहा है। सब लोग ब्रह्मानन्द प्राप्त कर रहे हैं और विधाता से मनाकर कहते हैं कि दिन-रात बढ़ जायँ।
श्री रामचन्द्रजी और सीताजी सुन्दरता की सीमा हैं और दोनों राजा पुण्य की सीमा हैं, जहाँ-तहाँ जनकपुरवासी स्त्री-पुरुषों के समूह इकट्ठे हो-होकर यही कह रहे हैं। जनकजी के सुकृत (पुण्य) की मूर्ति जानकी जी हैं और दशरथजी के सुकृत देह धारण किये हुए श्री रामजी हैं। इन दोनों राजाओं के समान किसीने शिवजी की आराधना नहीं की; और न इनके समान किसीने फल ही पाये।
इनके समान जगत में न कोई हुआ, न कहीं है, न ही होगा। हम सब भी सम्पूर्ण पुण्यों की राशि हैं, जो जगत में जन्म लेकर जनकपुर के निवासी हुए, और जिन्होंने जानकी जी और श्री रामचन्द्रजी की छबि देखी है। हमारे सरीखा विशेष पुण्यात्मा कौन होगा! और अब हम श्री रघुनाथजी का विवाह देखेंगे और भलीभाँति नेत्रों का लाभ लेंगे।
कोयल के समान मधुर बोलनेवाली स्त्रियाँ आपस में कहती हैं कि हे सुन्दर नेत्रोंवाली! इस विवाह में बड़ा लाभ है। बड़े भाग्य से विधाता ने सब बात बना दी है, ये दोनों भाई हमारे नेत्रों के अतिथि हुआ करेंगे। जनकजी स्नेहवश बार-बार सीताजी को बुलावेंगे, और करोड़ों कामदेवों के समान सुन्दर दोनों भाई सीताजी को लेने (विदा कराने) आया करेंगे। तब उनकी अनेकों प्रकार से पहुनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न होगी! तब-तब हम सब नगरनिवासी श्री राम-लक्ष्मण को देख-देखकर सुखी होंगे। हे सखी! जैसा श्रीराम-लक्ष्मण का जोड़ा है, वैसे ही दो कुमार राजा के साथ और भी हैं। वे भी एक श्याम और दूसरे गौर वर्ण के हैं। उनके भी सब अंग बहुत सुन्दर हैं। जो लोग उन्हें देख आये हैं, वे सब यही कहते हैं।
एक ने कहा- मैंने आज ही उन्हें देखा है; इतने सुन्दर हैं, मानो ब्रह्माजी ने उन्हें अपने हाथों से सँवारा है। भरत तो श्री रामचन्द्रजी की ही शकल सूरत के हैं। स्त्री-पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते। लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों का भी एक जैसा रूप है। दोनों के नख से शिखातक सभी अंग अनुपम हैं। मन को बड़े अच्छे लगते हैं, पर मुख से उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के योग्य तीनों लोकों में कोई नहीं है।
दास तुलसी कहता है कवि और कोविद (विद्वान्) कहते हैं, इनकी उपमा कहीं कोई नहीं है। बल, विनय, विद्या, शील और शोभा के समुद्र इनके समान ये ही हैं। जनकपुर की सब स्त्रियाँ आँचल फैलाकर विधाता को यह वचन (विनती) सुनाती हैं कि चारों भाइयों का विवाह इसी नगर में हो और हम सब सुन्दर मंगल गावें।
नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भरकर पुलकित शरीर से स्त्रियाँ आपस में कह रही हैं कि हे सखी! दोनों राजा पुण्य के समुद्र हैं, त्रिपुरारि शिवजी सब मनोरथ पूर्ण करेंगे। इस प्रकार सब मनोरथ कर रही हैं और हृदय को उमँग उमँगकर (उत्साहपूर्वक) आनन्द से भर रही हैं। सीताजी के स्वयंवर में जो राजा आये थे, उन्होंने भी चारों भाइयों को देखकर सुख पाया। श्री रामचन्द्रजी का निर्मल और महान् यश कहते हुए राजा लोग अपने-अपने घर गये। इस प्रकार कुछ दिन बीत गये। जनकपुरनिवासी और बराती सभी बड़े आनन्दित हैं। मङ्गलों का मूल लग्न का दिन आ गया। हेमन्त ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ थे। लग्न (मुहूर्त) शोधकर ब्रह्माजी ने उसपर विचार किया, और उस (लग्नपत्रिका) को नारदजी के हाथ जनकजी के यहाँ भेज दिया। जनकजी के ज्योतिषियों ने भी वही गणना कर रखी थी। जब सब लोगों ने यह बात सुनी तब वे कहने लगे - यहाँ के ज्योतिषी भी ब्रह्मा ही हैं।
निर्मल और सभी सुन्दर मङ्गलों की मूल गोधूलि की पवित्र वेला आ गयी और अनुकूल शकुन होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा - तब राजा जनक ने पुरोहित शतानन्दजी से कहा कि अब देर का क्या कारण है। तब शतानन्दजी ने मन्त्रियों को बुलाया। वे सब मङ्गल का सामान सजाकर ले आये। शंख, नगाड़े, ढोल और बहुत-से बाजे बजने लगे तथा मङ्गल कलश और शुभ शकुन की वस्तुएँ (दधि, दूर्वा आदि) सजायी गयीं। सुन्दर सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर रहे हैं। सब लोग इस प्रकार आदरपूर्वक बारात को लेने चले और जहाँ बरातियों का जनवासा था, वहाँ गये। अवधपति दशरथजी का समाज और वैभव देखकर उनको देवराज इन्द्र भी बहुत ही तुच्छ लगने लगे।
उन्होंने जाकर विनती की - कि लगन का समय हो गया, अब पधारिये। यह सुनते ही नगाड़े जोर से बजने लगे। गुरु वसिष्ठजी से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथजी मुनियों और साधुओं के समाज को साथ लेकर चले। अवधनरेश दशरथजी का भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझकर, ब्रह्माजी आदि देवता हजारों मुखों से उनकी सराहना करने लगे। देवगण सुन्दर मङ्गल का अवसर जानकर, नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी आदि देववृन्द (टोलियाँ) बना-बनाकर विमानों पर जा चढ़े और प्रेम से पुलकित-शरीर लेकर तथा हृदय में उत्साह भरकर श्री रामचन्द्रजी का विवाह देखने चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गये कि उन सबको अपने-अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे।
विचित्र पर अति सुंदर मण्डप को तथा नाना प्रकार की सब अलौकिक रचनाओं को वे चकित होकर देख रहे हैं। नगर के स्त्री-पुरुष रूप के भण्डार, सुघड़, श्रेष्ठ धर्मात्मा, सुशील और सुजान हैं। उन्हें देखकर सब देवता और देवाङ्गनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गये जैसे चन्द्रमा के उजियाले में तारागण फीके पड़ जाते हैं। ब्रह्माजी को विशेष आश्चर्य हुआ; क्योंकि वहाँ उन्होंने अपनी कोई रचना तो कहीं देखी ही नहीं।
तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुम लोग आश्चर्य में मत पड़ो। हृदय में धीरज धरकर विचार तो करो कि यह भगवान् की महामहिमामयी निजशक्ति श्री सीताजी का और अखिल ब्रह्माण्डों के परम ईश्वर साक्षात् भगवान् श्री रामचन्द्रजी का विवाह है। जिनका नाम लेते ही जगत में सारे अमङ्गलों की जड़ कट जाती है और चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) मुट्ठी में आ जाते हैं, ये वही जगत के माता-पिता श्री सीतारामजी हैं; काम के शत्रु शिवजी ने ऐसा कहा।
इस प्रकार शिवजी ने देवताओं को समझाया और फिर अपने श्रेष्ठ बैल नन्दीश्वर को आगे बढ़ाया। देवताओं ने देखा कि दशरथजी मन में बड़े ही प्रसन्न और शरीर से पुलकित हुए चले जा रहे हैं। उनके साथ परम हर्षयुक्त साधुओं और ब्राह्मणों की मण्डली ऐसी शोभा दे रही है, मानो समस्त सुख शरीर धारण करके उनकी सेवा कर रहे हों। चारों सुन्दर पुत्र साथ में ऐसे सुशोभित हैं, मानो सम्पूर्ण मोक्ष (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य) शरीर धारण किये हुए हों। मरकतमणि (पन्ना) और सुवर्ण रंग की सुन्दर जोड़ियों को देखकर देवताओं को बहुत अधिक प्रीति हुई। फिर श्री रामचन्द्रजी को देखकर वे हृदय में अत्यन्त हर्षित हुए और राजाकी सराहना करके उन्होंने फूल बरसाये।
नख से शिखातक श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर रूप को बार-बार देखते हुए पार्वतीजी सहित श्री शिवजी का शरीर पुलकित हो गया और उनके नेत्र प्रेमाश्रुओं के जल से भर गये। रामजी का मोर के कण्ठ-सी कान्तिवाला श्याम शरीर है। बिजली का अत्यन्त निरादर करनेवाले प्रकाशमय सुन्दर पीले रंग के वस्त्र हैं। सब मङ्गलरूप और सब प्रकार से सुन्दर भाँति-भाँति के विवाह के आभूषण शरीर पर सजाये हुए हैं।
उनका सुन्दर मुख शरदपूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान और मनोहर नेत्र नवीन कमल को रिझाने वाले हैं। सारी सुन्दरता अलौकिक है। दिव्य सच्चिदानन्दमयी है। वह कही नहीं जा सकती, मन-ही-मन बहुत प्रिय लगती है। राजकुमार श्रेष्ठ घोड़ों की चाल को दिखला रहे हैं और वंश की प्रशंसा करनेवाले मागध-भाट विरुदावली सुना रहे हैं। जिस घोड़ेपर श्री रामजी विराजमान हैं, उसकी तेज चाल देखकर गरुड़ भी लजा जाते हैं। उसका वर्णन नहीं हो सकता, वह सब प्रकार से सुन्दर है। मानो कामदेव ने ही घोड़े का वेष धारण कर लिया हो। मानो श्री रामचन्द्रजी के लिये कामदेव घोड़े का वेष बनाकर अत्यन्त शोभित हो रहा है। वह अपनी अवस्था, बल, रूप, गुण और चाल से समस्त लोकों को मोहित कर रहा है। सुन्दर मोती, मणि और माणिक्य लगी हुई जड़ाऊ जीन ज्योति से जगमगा रहा है। उसकी सुन्दर घुँघरू लगी ललित लगाम को देखकर देवता, मनुष्य और मुनि सभी ठगे जाते हैं।
प्रभु की इच्छा में अपने मन को लीन किये चलता हुआ वह घोड़ा बड़ी शोभा पा रहा है। मानो तारागण तथा बिजली से अलंकृत मेघ सुन्दर मोर को नचा रहा हो। जिस श्रेष्ठ घोड़े पर श्री रामचन्द्र जी सवार हैं, उसका वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शंकरजी श्री रामचन्द्रजी के रूप में ऐसे अनुरक्त हुए कि उन्हें अपने पंद्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे। श्री रामचन्द्रजी की शोभा देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे।
देवताओं के सेनापति स्वामी कार्तिकेय के हृदय में बड़ा उत्साह है, क्योंकि वे ब्रह्माजी से ड्योढ़े अर्थात बारह नेत्रों से रामदर्शन का सुन्दर लाभ उठा रहे हैं। सुजान इन्द्र अपने हजार नेत्रों से श्री रामचन्द्रजी को देख रहे हैं और गौतमजी के श्राप को अपने लिये परम हितकर मान रहे हैं। सभी देवता देवराज इन्द्र से ईर्ष्या कर रहे हैं और कह रहे हैं। कि आज इन्द्र के समान भाग्यवान दूसरा कोई नहीं है। श्री रामचन्द्रजी को देखकर देवगण प्रसन्न हैं और दोनों राजाओं के समाज में विशेष हर्ष छा रहा है।
दोनों ओर से राजसमाज में अत्यन्त हर्ष है और बड़े जोर से नगाड़े बज रहे हैं। देवता प्रसन्न होकर और 'रघुकुलमणि श्रीरामकी जय हो, जय हो, जय हो' कहकर फूल बरसा रहे हैं। इस प्रकार बारात को आती हुई जानकर बहुत प्रकार के बाजे बजने लगे और रानी सुहागिन स्त्रियों को बुलाकर परछन के लिये मङ्गलद्रव्य सजाने लगीं। अनेक प्रकार से आरती सजाकर और समस्त मङ्गलद्रव्यों को यथायोग्य सजाकर गजगामिनी (हाथी-सी चालवाली) उत्तम स्त्रियाँ आनन्दपूर्वक परछन के लिये चलीं।
सभी स्त्रियाँ चन्द्रमा के समान मुखवाली और सभी मृगलोचनी (हिरण सी आँखोंवाली) हैं और सभी अपने शरीर की शोभा से रति के गर्व को छुड़ानेवाली हैं। रंग-रंग की सुन्दर साड़ियाँ पहने हैं और शरीर पर सब आभूषण सजे हुए हैं। समस्त अंगों को सुन्दर मङ्गल पदार्थों से सजाये हुए वे कोयल को भी लजाती हुई मधुर स्वर से गान कर रही हैं। कंगन, करधनी और नूपुर बज रहे हैं। स्त्रियों की चाल देखकर कामदेव के हाथी भी लजा जाते हैं। अनेक प्रकार के बाजे बज रहे हैं, आकाश और नगर दोनों स्थानों में सुन्दर मङ्गलाचार हो रहे हैं। इन्द्राणी, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती और जो स्वभाव से ही पवित्र और सयानी देवाङ्गनाएँ थीं, वे सब कपट से सुन्दर स्त्री का वेष बनाकर रनिवास में जा मिलीं और मनोहर वाणी से मङ्गलगान करने लगीं। सब कोई हर्ष के विशेष वश थे, अतः किसी ने उन्हें पहचाना नहीं।
कौन किसे जाने पहिचाने! आनन्द के वश हुई सब दूल्हा बने हुए ब्रह्म का परछन करने चलीं। मनोहर गान हो रहा है। मधुर नगाड़े बज रहे हैं, देवता फूल बरसा रहे हैं, बड़ी अच्छी शोभा है। आनन्दकन्द दूल्हे को देखकर सब स्त्रियाँ हृदय में हर्षित हुईं। उनके कमल सरीखे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल उमड़ आया और सुन्दर अंगों में पुलकावली छा गयी। श्री रामचन्द्रजी का दूल्हे के वेष देखकर सीताजी की माता सुनयनाजी के मन में जो सुख हुआ, उसे हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पों में भी नहीं कह सकते।
मङ्गल-अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही हैं। वेदों में कहे हुए तथा कुलाचार के अनुसार सभी व्यवहार रानी ने भलीभाँति किये। पंचशब्द (तन्त्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही- इन पाँच प्रकार के बाजोंके शब्द), पंचध्वनि (वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शंखध्वनि और हुलूध्वनि) और मङ्गलगान हो रहे हैं। नाना प्रकार के वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं। रानी ने आरती करके अर्घ्य दिया, तब श्री रामजी ने मण्डप में गमन किया।
दशरथजी अपनी मण्डली सहित विराजमान हुए। उनके वैभव को देखकर लोकपाल भी लजा गये। समय-समय पर देवता फूल बरसाते हैं और भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शान्ति-पाठ करते हैं। आकाश और नगर में शोर मच रहा है। अपनी-परायी कोई कुछ भी नहीं सुनता। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी मण्डप में आये और अर्घ्य देकर आसन पर बैठाये गये। आसन पर बैठाकर, आरती करके दूल्हे को देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही हैं। वे ढेर-के-ढेर मणि, वस्त्र और गहने निछावर करके मङ्गल गा रही हैं। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का वेष बनाकर कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुलरूपी कमल के प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर अपना जीवन सफल जान रहे हैं।
नाई, बारी, भाट और नट श्री रामचन्द्रजी की निछावर पाकर आनन्दित होकर सिर नवाकर आशिष देते हैं; उनके हृदय में हर्ष समाता नहीं है। वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े ही शोभित हुए, कवि उनके लिये उपमा खोज-खोजकर लजा गये। जब कहीं भी उपमा नहीं मिली, तब हृदय में हार मानकर उन्होंने मन में यही उपमा निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर सम्बन्ध देखकर देवता अनुरक्त हो गये और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे।
वे कहने लगे जब से ब्रह्माजी ने जगत को उत्पन्न किया, तब से हमने बहुत विवाह देखे-सुने; परन्तु सब प्रकार से समान साज-समाज और बराबरी के (पूर्ण समतायुक्त) समधी तो आज ही देखे। देवताओं की सुन्दर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गयी। सुन्दर पाँवड़े और अर्घ्य देते हुए जनकजी दशरथजी को आदरपूर्वक मण्डप में ले आये।
मण्डप को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुन्दरता से मुनियों के मन भी मोहित हो गये। सुजान जनकजी ने अपने हाथों से ला-लाकर सबके लिये सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुल के इष्टदेवता के समान वसिष्ठजी की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय की परम प्रीति की रीति तो कहते ही नहीं बनती।
राजा ने वामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से पूजा की। सभी को दिव्य आसन दिये और सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया। फिर उन्होंने कोसलाधीश राजा दशरथजी की पूजा उन्हें महादेवजी के समान जानकर की, तदनन्तर उनके सम्बन्ध से अपने भाग्य और वैभव के विस्तार की सराहना करके हाथ जोड़कर विनती और बड़ाई की। राजा जनकजी ने सब बरातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिये।
राजा जनक ने दान, मान-सम्मान, विनय और उत्तम वाणी से सारी बारात का सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल और सूर्य जो श्री रघुनाथजी का प्रभाव जानते हैं,
वे कपट से ब्राह्मणों का सुन्दर वेष बनाये बहुत ही सुख पाते हुए सब लीला देख रहे थे। जनकजी ने उनको देवताओं के समान जानकर उनका पूजन किया और बिना पहचाने भी उन्हें सुन्दर आसन दिये। कौन किसको जाने-पहिचाने! सबको अपनी ही सुध भूली हुई है। आनन्दकन्द दूल्हे को देखकर दोनों ओर आनन्दमयी स्थिति हो रही है। सुजान सर्वज्ञ श्री रामचन्द्रजी ने देवताओं को पहचान लिया और उनकी मानसिक पूजा करके उन्हें मानसिक आसन दिये। प्रभु का शील स्वभाव देखकर देवगण मन में बहुत आनन्दित हुए।
श्री रामचन्द्रजी के मुखरूपी चन्द्रमा की छबि को सभी के सुन्दर नेत्ररूपी चकोर आदरपूर्वक पान कर रहे हैं; प्रेम और आनन्द बहुत है। समय देखकर वसिष्ठजी ने शतानन्दजी को आदरपूर्वक बुलाया। वे सुनकर आदर के साथ आये। वसिष्ठजी ने कहा-अब जाकर राजकुमारी को शीघ्र ले आइये। मुनि की आज्ञा पाकर वे प्रसन्न होकर चले।
बुद्धिमती रानी पुरोहित की वाणी सुनकर सखियों समेत बड़ी प्रसन्न हुईं। ब्राह्मणों की स्त्रियों और कुल की बूढ़ी स्त्रियों को बुलाकर उन्होंने कुलरीति करके सुन्दर मङ्गलगीत गाये। श्रेष्ठ देवाङ्गनाएँ, जो सुन्दर मनुष्य स्त्रियों के वेष में हैं, सभी स्वभाव से ही सुन्दरी और श्यामा हैं। उनको देखकर रनिवास की स्त्रियाँ सुख पाती हैं और बिना पहचान के ही वे सबको प्राणों से भी प्यारी हो रही हैं।
उन्हें पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के समान जानकर रानी बार-बार उनका सम्मान करती हैं। रनिवास की स्त्रियाँ और सखियाँ सीताजी का श्रृंगार करके, मण्डली बनाकर, प्रसन्न होकर उन्हें मण्डप में लिवा चलीं। सुन्दर मङ्गल का साज सजकर रनिवास की स्त्रियाँ और सखियाँ आदरसहित सीताजी को लिवा चलीं। सभी सुन्दरियाँ सोलहों श्रृंगार किये हुए मतवाले हाथियों की चाल से चलनेवाली हैं। उनके मनोहर गीत को सुनकर मुनि ध्यान छोड़ देते हैं और कामदेव की कोयलें भी लजा जाती हैं। पायजेब, पैंजनी और सुन्दर कंकण ताल की गतिपर बड़े सुन्दर बज रहे हैं।
सहज ही सुन्दरी सीताजी स्त्रियों के समूह में इस प्रकार शोभा पा रही हैं, मानो छबिरूपी ललनाओं के समूह के बीच साक्षात् परम मनोहर शोभारूपी स्त्री सुशोभित हो। सीताजी की सुन्दरता का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि बहुत छोटी है और मनोहरता बहुत बड़ी है। रूप की राशि और सब प्रकार से पवित्र सीताजी को बरातियों ने आते देखा। सभी ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया। श्री रामचन्द्रजी को देखकर तो सभी पूर्णकाम (कृतकृत्य) हो गये। राजा दशरथजी पुत्रों सहित हर्षित हुए। उनके हृदय में जितना आनन्द था, वह कहा नहीं जा सकता।
देवता प्रणाम करके फूल बरसा रहे हैं। मङ्गलों की मूल मुनियों के आशीर्वादों की ध्वनि हो रही है। गानों और नगाड़ों के शब्द से बड़ा शोर मच रहा है। सभी नर-नारी प्रेम और आनन्द में मग्न हैं। इस प्रकार सीताजी मण्डप में आयीं। मुनिराज बहुत ही आनन्दित होकर शान्तिपाठ पढ़ रहे हैं। उस अवसर की सब रीति, व्यवहार और कुलाचार दोनों कुलगुरुओं ने किय। कुलाचार करके गुरुजी प्रसन्न होकर ब्राह्मणों के द्वारा गौरी और गणेश की पूजा करवा रहे हैं। देवता प्रकट होकर पूजा ग्रहण करते हैं, आशीर्वाद देते हैं और अत्यन्त सुख पा रहे हैं। मधुपर्क आदि जिस किसी भी माङ्गलिक पदार्थ की मुनि जिस समय भी मन में चाहमात्र करते हैं, सेवकगण उसी समय सोने की परातों में और कलशों में भरकर उन पदार्थों को लिये तैयार रहते हैं। स्वयं सूर्यदेव प्रेमसहित अपने कुलकी सब रीतियाँ बता देते हैं और वे सब आदरपूर्वक की जा रही हैं। इस प्रकार देवताओं की पूजा करा के मुनियों ने सीताजी को सुंदर सिंहासन दिया।
हवन के समय अग्निदेव शरीर धारण करके बड़े ही सुख से आहुति ग्रहण करते हैं और सारे वेद ब्राह्मण का वेष धरकर विवाह की विधियाँ बताये देते हैं। जनकजी की जगद्विख्यात पटरानी और सीताजी की माता का बखान तो हो ही कैसे सकता है। सुयश, सुकृत (पुण्य), सुख और सुन्दरता सबको बटोरकर विधाता ने उन्हें सँवारकर तैयार किया है।
समय जानकर श्रेष्ठ मुनियों ने उनको बुलवाया। यह सुनते ही सुहागिनी स्त्रियाँ उन्हें आदरपूर्वक ले आयीं। सुनयनाजी (जनकजी की पटरानी) जनकजी की बायीं ओर ऐसी शोभा दे रही हैं, मानो हिमाचल के साथ मैनाजी शोभित हों। पवित्र, सुगन्धित और मङ्गल जल से भरे सोने के कलश और मणियों की सुन्दर परातें राजा और रानी ने आनन्दित होकर अपने हाथों से लाकर श्री रामचन्द्रजी के आगे रखीं।
मुनि मङ्गलवाणी से वेद पढ़ रहे हैं। सुअवसर जानकर आकाश से फूलों की झड़ी लग गयी है। दूल्हे को देखकर राजा-रानी प्रेममग्न हो गये और उनके पवित्र चरणों को पखारने लगे, प्रेम से उनके शरीर में पुलकावली छा रही है। आकाश और नगर में होनेवाली गीत, नगाड़े और जय-जयकार की ध्वनि मानो चारों दिशाओं में उमड़ चली। जो चरणकमल कामदेव के शत्रु श्री शिवजी के हृदयरूपी सरोवर में सदा ही विराजते हैं, जिनका एक बार भी स्मरण करने से मन में निर्मलता आ जाती है और कलियुग के सारे पाप भाग जाते हैं,
जिनका स्पर्श पाकर गौतम मुनि की स्त्री अहल्या ने, जो पापमयी थी, परमगति पायी, जिन चरणकमलों का मकरन्दरस (गंगाजी) शिवजी के मस्तकपर विराजमान है, जिसको देवता पवित्रता की सीमा बताते हैं; मुनि और योगीजन अपने मन को भौंरा बनाकर जिन चरणकमलों का सेवन करके मनोवांछित गति प्राप्त करते हैं; उन्हीं चरणों को भाग्य के पात्र जनक जी धो रहे हैं; यह देखकर सब जय-जयकार कर रहे हैं।
दोनों कुलों के गुरु वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर शंखोचार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और मुनि आनन्द में भर गये। सुख के मूल दूल्हे को देखकर राजा-रानी का शरीर पुलकित हो गया और हृदय आनन्द से झूम उठा। राजाओं के अलंकार स्वरूप महाराज जनकजी ने लोक और वेद की रीति को करके कन्यादान किया।
जैसे हिमवान ने शिवजी को पार्वती जी और सागर ने भगवान् विष्णु को लक्ष्मीजी दी थीं, वैसे ही जनकजी ने श्री रामचन्द्रजी को सीताजी समर्पित कीं, जिससे विश्व में सुन्दर नवीन कीर्ति छा गयी। विदेह (जनकजी) कैसे विनती करें! उस साँवली मूर्ति ने तो उन्हें सचमुच विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) ही कर दिया। विधिपूर्वक हवन करके गठजोड़ी की गयी और फेरे होने लगे।
जयध्वनि, वन्दीध्वनि, वेदध्वनि, मङ्गलगान और नगाड़ों की ध्वनि सुनकर चतुर देवगण हर्षित हो रहे हैं और कल्पवृक्ष के फूलों को बरसा रहे हैं। वर और कन्या सुन्दर फेरे ले रहे हैं। सब लोग आदरपूर्वक उन्हें देखकर नेत्रों का परम लाभ ले रहे हैं। मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं हो सकता, श्री रामजी और श्री सीताजी की सुन्दर परछाहीं मणियों के खंभों में जगमगा रही हैं, मानो कामदेव और रति बहुत-से रूप धारण करके श्री रामजी के अनुपम विवाह को देख रहे हैं। सब देखने वाले आनन्दमग्न हो गये और जनकजी की भाँति सभी अपनी सुध भूल गये।
मुनियों ने आनन्दपूर्वक फेरे करवाएं और नेगसहित सब रीतियों को पूरा किया। श्री रामचन्द्रजी सीताजी के माथे में सिंदूर दे रहे हैं; यह शोभा किसी प्रकार भी कही नहीं जाती।
मानो कमल को लाल पराग से अच्छी तरह भरकर अमृत के लोभ से साँप चन्द्रमा को भूषित कर रहा है। यहाँ श्री राम के हाथ को कमल की, सिंदूर को पराग की, श्री राम की श्याम भुजा को साँप की और सीताजी के मुख को चन्द्रमा की उपमा दी गयी है। फिर वसिष्ठजी ने आज्ञा दी, तब दूल्हा और दुल्हन एक श्रेष्ठ आसनपर बैठे; उन्हें देखकर दशरथजी मन में बहुत आनन्दित हुए। अपने सुकृतरूपी कल्पवृक्ष में नये फल आये देखकर उनका शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है। चौदहों भुवनों में उत्साह भर गया; सबने कहा कि श्री रामचन्द्रजी का विवाह हो गया। जीभ एक है और यह मङ्गल महान् है; फिर भला, वह वर्णन करके किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है!
तब वसिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी और उर्मिलाजी- इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुशध्वज की बड़ी कन्या माण्डवीजी को, जो गुण, शील, सुख और शोभा की रूप ही थीं, राजा जनक ने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजी को ब्याह दिया। जानकीजी की छोटी बहन उर्मिलाजी को सब सुन्दरियों में शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार से सम्मान करके, लक्ष्मणजी को ब्याह दिया; और जिनका नाम श्रुतकीर्ति है और जो सुन्दर नेत्रोंवाली, सुन्दर मुखवाली, सब गुणों की खान और रूप तथा शील में उजागर हैं, उनको राजा ने शत्रुघ्न को ब्याह दिया।
दुल्हे और दुल्हन परस्पर अपने-अपने अनुरूप जोड़ी को देखकर सकूचाते हुए हृदय में हर्षित हो रहे हैं। सब लोग प्रसन्न होकर उनकी सुन्दरता की सराहना करते हैं और देवगण फूल बरसा रहे हैं। सब सुन्दरी दुल्हन सुन्दर दूल्हों के साथ एक ही मण्डप में ऐसी शोभा पा रही हैं, मानो जीव के हृदय में चारों अवस्थाएँ (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) अपने चारों स्वामियों (विश्व, तैजस, प्राज्ञ और ब्रह्म) सहित विराजमान हों।
सब पुत्रों को बहुओं सहित देखकर अवधनरेश दशरथजी ऐसे आनन्दित हैं, मानो वे राजाओं के शिरोमणि क्रियाओं (यज्ञक्रिया, श्रद्धाक्रिया, योगक्रिया और ज्ञानक्रिया) सहित चारों फल (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) पा गये हों। श्री रामचन्द्रजी के विवाह की जैसी विधि वर्णन की गयी, उसी रीति से सभी राजकुमारों का विवाह हुआ।
दहेज की अधिकता कुछ कही नहीं जाती; सारा मंडप सोने और मणियों से भर गया। बहुत-से कम्बल, वस्त्र और भाँति-भाँति के विचित्र रेशमी कपड़े, जो बहुमूल्य थे तथा हाथी, रथ, घोड़े, दास-दासियाँ और गहनों से सजी हुई कामधेनु सरीखी गायें आदि अनेकों वस्तुएँ हैं, उन्हें देखकर लोकपाल भी चकित हो गये। अवधराज दशरथजी ने सुख मानकर प्रसन्न चित्त से सब कुछ ग्रहण किया। उन्होंने वह दहेज का सामान याचकों को, जो जिसे अच्छा लगा दे दिया। जो बच रहा, वह जनवासे में चला आया। तब जनकजी हाथ जोड़कर सारी बारात का सम्मान करते हुए कोमल वाणी से बोले- आदर, दान, विनय और बड़ाई के द्वारा सारी बारात का सम्मान कर राजा जनक ने महान् आनन्द के साथ प्रेमपूर्वक लाड़ करके मुनियों के समूह की पूजा एवं वन्दना की। सिर नवाकर, देवताओं को मनाकर, राजा हाथ जोड़कर सबसे कहने लगे कि देवता और साधु तो भाव ही चाहते हैं। वे प्रेम से ही प्रसन्न हो जाते हैं, उन पूर्ण काम महानुभावों को कोई कुछ देकर कैसे सन्तुष्ट कर सकता है; क्या एक अंजलि जल देने से कहीं समुद्र सन्तुष्ट हो सकता है?
फिर जनकजी भाईसहित हाथ जोड़कर कोसलाधीश दशरथजी से स्नेह, शील और सुन्दर प्रेम में सनकर मनोहर वचन बोले- हे राजन्! आपके साथ सम्बन्ध हो जाने से अब हम सब प्रकार से बड़े हो गये। इस राज-पाटसहित हम दोनों को आप बिना दाम के लिये हुए सेवक ही समझियेगा।
इन लड़कियों को टहलनी मानकर, नयी-नयी दया करके पालन कीजियेगा। मैंने बड़ी ढिठाई की कि आपको यहाँ बुला भेजा, अपराध क्षमा कीजियेगा। फिर सूर्यकुल के भूषण दशरथजी ने समधी जनकजी को सम्पूर्ण सम्मान से निधि कर दिया। उनकी परस्पर की विनय कही नहीं जाती, दोनों के हृदय प्रेम से परिपूर्ण हैं।
देवतागण फूल बरसा रहे हैं; राजा जनवासे को चले। नगाड़े की ध्वनि, जयध्वनि और वेद की ध्वनि हो रही है; आकाश और नगर दोनों में खूब कौतूहल हो रहा है आनन्द छा रहा है, सीताजी बार-बार रामजी को देखती हैं और सकुचा जाती हैं; पर उनका मन नहीं सकुचाता। प्रेम के प्यासे उनके नेत्र सुन्दर मछलियों की छबि को हर रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी का साँवला शरीर स्वभाव से ही अत्यंत मनोहर है। उनकी शोभा करोड़ों कामदेवों को भी लज्जित कर देती है। उनके महावर से रचे हुए चरणकमल अत्यंत सुंदर प्रतीत होते हैं, जिन पर मुनियों के मन रूपी भौंरे सदा मंडराते रहते हैं। प्रभु ने जो पवित्र पीली धोती धारण की है, वह प्रातःकाल के सूर्य और चमकती बिजली की ज्योति को भी फीका कर देती है। कमर में सुंदर किंकिणी और कटिसूत्र शोभा पा रहे हैं, और उनकी विशाल भुजाओं में बहुमूल्य आभूषण जगमगा रहे हैं। उनका पीला जनेऊ अत्यंत शोभाशाली है, और हाथ में पहनी हुई अंगूठी चित्त को मोह लेती है। विवाह का सम्पूर्ण श्रृंगार उन्हें और अधिक अलौकिक बना रहा है। उनकी चौड़ी छाती पर मनोहर हार और वक्षस्थल के आभूषण अत्यंत सुंदर लग रहे हैं। कंधे पर रखा हुआ पीला गमछा जनेऊ की भाँति सुशोभित है, जिसके दोनों सिरों पर मोती और मणियाँ गुँथी हैं। उनके नेत्र कमल के समान कोमल और आकर्षक हैं, कानों में सुंदर कुण्डल दमक रहे हैं और उनका मुख तो मानो सारी सुंदरता का खजाना ही है। उनकी सुंदर भौंहें और मनोहर नासिका आकर्षण को और भी बढ़ा रही हैं। ललाट पर सजा हुआ तिलक सौंदर्य की पराकाष्ठा है, जिसमें मणि और मोती जड़े हुए हैं। उनके मस्तक पर सजी हुई मनोहर मौर (मुकुट) अनुपम शोभा दे रही है। इस दिव्य मौर में बहुमूल्य रत्न जड़े हुए हैं, और प्रभु के समस्त अंग मन को मोह लेते हैं। नगर की स्त्रियाँ और देव कन्याएँ दूल्हे रूप में श्रीराम के दर्शन कर उनकी बलैयाँ ले रही हैं, आरती उतार रही हैं और वस्त्र, मणि और आभूषण निछावर कर रही हैं। वे मङ्गलगान में लीन हैं। देवता आकाश से पुष्पवर्षा कर रहे हैं और सूत, मागध व भाटजन प्रभु के शुभ यश का गान कर रहे हैं। सुहागिन स्त्रियाँ सुख और प्रेम से भरकर, कुमार और कुमारियों को कुलदेवता के स्थान पर ले जाकर मंगल गीत गा-गाकर लोकाचार की विधियाँ संपन्न कर रही हैं।
पार्वतीजी श्री रामचन्द्रजी को लहकौर (वर-वधू द्वारा एक-दूसरे को ग्रास देना) की विधि सिखा रही हैं और सरस्वतीजी जानकीजी को वह रीति समझा रही हैं। रनिवास हास-परिहास और प्रेम-आनन्द में मग्न है। श्रीराम और सीताजी को निहार-निहारकर सब स्त्रियाँ अपने जीवन का परम फल प्राप्त कर रही हैं। जानकीजी के हाथ की मणियों में श्री रामचन्द्रजी के सुंदर स्वरूप की परछाईं प्रतिबिंबित हो रही है। यह देख जानकीजी को ऐसा भय होता है कि कहीं दृष्टि हटते ही यह दर्शन छिन न जाएँ, इसलिए वे अपने हाथ रूपी लता को और अपनी दृष्टि को भी हिलने-डुलने नहीं देतीं। उस समय का हँसी-खेल, विनोद और गहरा प्रेम शब्दों में नहीं कहा जा सकता - उसका अनुभव तो सखियाँ ही कर सकती हैं।
इसके बाद सुंदर सखियाँ वर-वधू को सुसज्जित करके जनवासे की ओर ले चलीं। उस समय नगर और आकाश में जहाँ भी सुनिए, वहीं मंगलमय आशीर्वादों की ध्वनि गूँज रही थी और चारों ओर आनंद ही आनंद फैला था। सभी प्रसन्न मन से कह रहे थे - "सुंदर चारों जोड़ियाँ चिरंजीवी हों!"
योगिराज, सिद्ध, मुनिजन और देवताओं ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के दर्शन करके दुन्दुभियाँ बजाईं और प्रसन्न होकर पुष्पवर्षा करते हुए "जय हो! जय हो! जय हो!" का गान करते हुए अपने-अपने लोक को चले गए। फिर चारों कुमार, अपनी-अपनी वधुओं सहित, पिता श्री दशरथजी के पास आए। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो जनवासे में शोभा, मङ्गल और आनंद उमड़ पड़ा हो। इसके पश्चात् वहाँ अनेक प्रकार की स्वादिष्ट रसोईयाँ बनायी गईं। जनकजी ने आदरपूर्वक बरातियों को आमंत्रित करवाया। राजा दशरथजी ने अपने सभी पुत्रों सहित वहाँ पधार कर विवाह के इस दिव्य अवसर को और भी भव्य बना दिया। उनके स्वागत हेतु अनुपम वस्त्रों के कालीन मार्ग में बिछाए जा रहे थे।
आदर के साथ सबके चरण धोये और सब को यथायोग्य पीढ़ों पर बैठाया। तब जनकजी ने अवधपति दशरथजी के चरण धोये। उनका शील और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता। फिर श्री रामचन्द्रजी के चरणकमलों को धोया, जो श्री शिवजी के हृदय कमल में छिपे रहते हैं। तीनों भाइयों को श्री रामचन्द्रजी के ही समान जानकर जनकजी ने उनके भी चरण अपने हाथों से धोये।
राजा जनकजी ने सभी को उचित आसन दिये और सब भोजन परसनेवालों रसोइए को बुला लिया। आदर के साथ पत्तलें पड़ने लगीं, जो मणियों के पत्तों से सोने की कील लगाकर बनायी गयी थीं। चतुर और विनीत रसोइये सुन्दर, स्वादिष्ट और पवित्र दाल-भात और गाय का सुगन्धित घी क्षणभर में सबके सामने परस गये। सब लोग पंचकौर करके (अर्थात् 'प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा और समानाय स्वाहा' इन मन्त्रों का उच्चारण करते हुए पहले पाँच ग्रास लेकर) भोजन करने लगे। अनेकों तरह के अमृत के समान स्वादिष्ट पकवान परसे गये, जिनका बखान नहीं हो सकता।
चतुर रसोइये नाना प्रकार के व्यंजन परसने लगे, उनका नाम कौन जानता है। चार प्रकार के (चर्व्य, चोष्य, लेह्य, पेय अर्थात् चबाकर, चूसकर, चाटकर और पीकर खाने योग्य) भोजन की विधि कही गयी है, उनमें से एक-एक विधि के इतने पदार्थ बने थे कि जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता। छहों रसों के बहुत तरह के सुन्दर स्वादिष्ट व्यंजन हैं। भोजन करते समय पुरुष और स्त्रियों के नाम ले-लेकर स्त्रियाँ मधुर ध्वनि से गीत गा रही हैं। उसे सुनकर समाजसहित राजा दशरथजी खुश हो रहे हैं। इस रीति से सभी ने भोजन किया और तब सब को आदरसहित आचमन (हाथ-मुँह धोने के लिये जल) दिया गया। फिर पान देकर जनकजी ने समाजसहित दशरथजी का पूजन किया। सब राजाओं के सिरमौर चक्रवर्ती श्री दशरथजी प्रसन्न होकर जनवासे को चले। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी के विवाह का उत्सव हुआ। जिन्हें सहस्र मुख हैं वे शेषजी भी उसका वर्णन नहीं कर सकते।
10. श्रीरामजी का सीता सहित अयोध्या प्रस्थान
जनकपुर में नित्य नये मङ्गल हो रहे हैं। दिन और रात पल के समान बीत जाते हैं। बड़े सबेरे राजाओं के मुकुटमणि दशरथजी जागे। याचक उनके गुणसमूह का गान करने लगे। चारों कुमारों को सुन्दर वधुओं सहित देखकर उनके मन में जितना आनन्द है, वह किस प्रकार कहा जा सकता है? वे प्रातः सब क्रिया करके गुरु वसिष्ठजी के पास गये। उनके मन में महान आनन्द और प्रेम भरा है। राजा प्रणाम और पूजन करके, फिर हाथ जोड़कर मानो अमृत में डुबोयी हुई वाणी बोले-हे मुनिराज! सुनिये, आपकी कृपा से आज मैं पूर्णकाम हो गया।
हे स्वामिन्! अब सब ब्राह्मणों को बुलाकर उनको सब तरह गहनों-कपड़ों से सजी हुई गायें दीजिये। यह सुनकर गुरुजी ने राजा की बड़ाई करके फिर मुनिगणों को बुलावा भेजा। तब वामदेव, देवर्षि नारद, वाल्मीकि, जाबालि और विश्वामित्र आदि तपस्वी श्रेष्ठ मुनियों के समूह-के-समूह आये। राजा ने सबको दण्डवत् प्रणाम किया और प्रेमसहित पूजन करके उन्हें उत्तम आसन दिये। चार लाख उत्तम गायें मँगवायीं, जो कामधेनु के समान अच्छे स्वभाववाली और सुहावनी थीं।
उन सबको सब प्रकार से गहनों कपड़ों से सजाकर राजा ने प्रसन्न होकर भूदेव ब्राह्मणों को दिया। राजा बहुत तरह से विनती कर रहे हैं कि जगत में मैंने आज ही जीने का लाभ पाया। ब्राह्मणों से आशीर्वाद पाकर राजा आनन्दित हुए। फिर याचकों के समूहों को बुलवा लिया और सबको उनकी रुचि पूछकर सोना, वस्त्र, मणि, घोड़ा, हाथी और रथ जिसने जो चाहा सो सूर्यकुल को आनन्दित करनेवाले दशरथजी ने दिये। वे सब गुणानुवाद गाते और 'सूर्यकुल के स्वामी की जय हो, जय हो, जय हो' कहते हुए चले। बार-बार विश्वामित्रजी के चरणों में सिर नवाकर राजा कहते हैं- हे मुनिराज! यह सब सुख आपके ही कृपाकटाक्ष का प्रसाद है। राजा दशरथजी जनकजी के स्नेह, शील, करनी और ऐश्वर्य की सब प्रकार से सराहना करते हैं। प्रतिदिन सबेरे उठकर अयोध्यानरेश विदा माँगते हैं। पर जनकजी उन्हें प्रेम से रख लेते हैं।
आदर नित्य नया बढ़ता जाता है। प्रतिदिन हजारों प्रकार से मेहमानी होती है। नगर में नित्य नया आनन्द और उत्साह रहता है, दशरथजी का जाना किसी को नहीं सुहाता। इस प्रकार बहुत दिन बीत गये, मानो बराती स्नेह की रस्सी से बँध गये हैं। तब विश्वामित्रजी और शतानन्दजी ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा- यद्यपि आप स्नेह वश उन्हें नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथजी को आज्ञा दीजिये।
'हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर जनकजी ने मन्त्रियों को बुलवाया। वे आये और 'जय जीव' कहकर उन्होंने मस्तक नवाया। जनकजी ने कहा- अयोध्यानाथ जाना चाहते हैं, भीतर रनिवास में खबर कर दो। यह सुनकर मन्त्री, ब्राह्मण, सभासद और राजा जनक भी प्रेम के वश हो गये। जनकपुरवासियों ने सुना कि बारात जायगी, तब वे व्याकुल होकर एक-दूसरे से बात पूछने लगे। जाना सत्य है, यह सुनकर सब ऐसे उदास हो गये मानो सन्ध्या के समय कमल सकुचा गये हों। आते समय जहाँ-जहाँ बराती ठहरे थे, वहाँ-वहाँ बहुत प्रकार का सीधा (रसोई का सामान) भेजा गया। अनेकों प्रकार के मेवे, पकवान और भोजन की सामग्री जो बखानी नहीं जा सकती- अनगिनत बैलों और कहारों पर भर-भरकर भेजी गयी। साथ ही जनकजी ने अनेकों सुन्दर शय्याएँ (पलँग) भेजीं। एक लाख घोड़े और पचीस हजार रथ सब नख से शिखातक सजाये हुए, और दस हजार सजे हुए मतवाले हाथी, जिन्हें देखकर दिशाओं के हाथी भी लजा जाते हैं, गाड़ियों में भर-भरकर सोना, वस्त्र और रत्न और भैंस, गाय तथा और भी कई नाना प्रकार की चीजें दीं। इस प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी को भेज दिया। बारात चलेगी, यह सुनते ही सब रानियाँ ऐसी विकल हो गयीं, मानो थोड़े से जल में मछलियाँ छटपटा रही हों।
वे बार-बार सीताजी को गोद में ले लेती हैं और आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं- तुम सदा अपने पति की प्यारी होओ, तुम्हारा सुहाग अचल हो; हमारी यही आशिष है। सास, ससुर और गुरु की सेवा करना। पति का रुख देखकर उनकी आज्ञा का पालन करना। सयानी सखियाँ अत्यन्त स्नेह के वश कोमल वाणी से स्त्रियों के धर्म सिखलाती हैं। आदर के साथ सब पुत्रियों को स्त्रियों के धर्म समझाकर रानियों ने बार-बार उन्हें हृदय से लगाया। माताएँ फिर-फिर भेंटती और कहती हैं कि ब्रह्मा ने स्त्रीजाति को क्यों रचा?
उसी समय सूर्यवंश के पताकास्वरूप श्री रामचन्द्रजी भाइयों सहित प्रसन्न होकर विदा कराने के लिये जनकजी के महल को चले। स्वभाव से ही सुन्दर चारों भाइयों को देखने के लिये नगर के स्त्री-पुरुष दौड़े। कोई कहता है-आज ये जाना चाहते हैं। विदेह ने विदाई का सब सामान तैयार कर लिया है।
राजा के चारों पुत्र, इन प्यारे मेहमानों के मनोहर रूप को नेत्र भरकर देख लो। हे सयानी! कौन जाने, किस पुण्य से विधाता ने इन्हें यहाँ लाकर हमारे नेत्रों का अतिथि किया है। मरनेवाला जिस तरह अमृत पा जाय, जन्म का भूखा कल्पवृक्ष पा जाय और नरक में रहनेवाला या नरक के योग्य जीव जैसे भगवान के परम पदको प्राप्त हो जाय, हमारे लिये इनके दर्शन वैसे ही हैं। श्री रामचन्द्रजी की शोभा को निरखकर हृदय में धर लो। अपने मन को साँप और इनकी मूर्तिको मणि बना लो। इस प्रकार सब को नेत्रों का फल देते हुए सब राजकुमार राजमहल में गये। रूप के समुद्र सब भाइयों को देखकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा। सासुएँ महान् प्रसन्न मन से निछावर और आरती करती हैं।
श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर वे प्रेम में अत्यन्त मग्न हो गयीं और प्रेम के वश होकर बार-बार चरण स्पर्श करती है। हृदय में प्रीति छा गयी, इससे लज्जा नहीं रह गयी। उनके स्वाभाविक स्नेह का वर्णन किस तरह किया जा सकता है। उन्होंने भाइयों सहित श्री रामजी को उबटन करके स्नान कराया और बड़े प्रेम से भोजन कराया। सुअवसर जानकर श्री रामचन्द्रजी शील, स्नेह और संकोचभरी वाणी बोले। महाराज अयोध्यापुरी को चलना चाहते हैं, उन्होंने हमें विदा होने के लिये यहाँ भेजा है। हे माता! प्रसन्न मन से आज्ञा दीजिये और हमें अपने बालक जानकर सदा स्नेह बनाये रखियेगा।
इन वचनों को सुनते ही पूरा रनिवास उदास हो गया। सासुएँ प्रेमवश बोल नहीं सकतीं। उन्होंने सब कुमारियों को हृदय से लगा लिया और उनके पतियों को सौंपकर बहुत विनती की। विनती करके उन्होंने सीताजी को श्री रामचन्द्रजी को समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार-बार कहा- हे तात! हे सुजान! मैं बलि जाती हूँ, तुमको सबका हाल मालूम है। परिवार को, पुरवासियों को, मुझको और राजा को सीता प्राणों के समान प्रिय है, ऐसा जानियेगा। हे तुलसीके स्वामी! इसके शील और स्नेह को देखकर इसे अपनी दासी करके मानियेगा। तुम पूर्णकाम हो, सुजानशिरोमणि हो और भावप्रिय हो। हे राम! तुम भक्तों के गुणों को ग्रहण करनेवाले, दोषों को नाश करनेवाले और दया के धाम हो।
ऐसा कहकर रानी चरणों को पकड़कर चुप रह गयीं। मानो उनकी वाणी प्रेमरूपी दलदल में समा गयी हो। स्नेह से सनी हुई श्रेष्ठ वाणी सुनकर श्री रामचन्द्रजी ने सास का बहुत प्रकार से सम्मान किया। तब श्री रामचन्द्रजी ने हाथ जोड़कर विदा माँगते हुए बार-बार प्रणाम किया।
आशीर्वाद पाकर और फिर सिर नवाकर भाइयोंसहित श्री रघुनाथजी चले। श्री रामजी की सुन्दर मधुर मूर्ति को हृदय में लाकर सब रानियाँ स्नेह से शिथिल हो गयीं। फिर धीरज धारण करके कुमारियों को बुलाकर माताएँ बारंबार उन्हें गले लगाकर भेंटने लगीं। पुत्रियों को पहुँचाती हैं, फिर लौटकर मिलती हैं। बार-बार मिलती हुई माताओं को सखियों ने अलग कर दिया। जैसे हाल की ब्यायी हुई गाय को कोई उसके बछड़े या बछिया से अलग कर दे। सब स्त्री-पुरुष और सखियोंसहित सारा रनिवास प्रेम के विशेष वश हो रहा है। ऐसा लगता है। मानो जनकपुर में करुणा और विरह ने डेरा डाल दिया है।
जानकीजी ने जिन तोता और मैना को पाल-पोसकर बड़ा किया था और सोने के पिंजड़ों में रखकर पढ़ाया था, वे व्याकुल होकर कह रहे हैं- वैदेही कहाँ हैं। उनके ऐसे वचनों को सुनकर धीरज किसको नहीं त्याग देगा। जब पक्षी और पशुतक इस तरह विकल हो गये, तब मनुष्यों की दशा कैसे कही जा सकती है! तब भाईसहित जनकजी वहाँ आये। प्रेम से उमड़कर उनके नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भर आया। वे परम वैराग्यवान कहलाते थे; पर सीताजी को देखकर उनका भी धीरज भाग गया। राजाने जानकीजी को हृदय से लगा लिया। प्रेम के प्रभाव से ज्ञान की महान मर्यादा मिट गयी।
सब बुद्धिमान मन्त्री उन्हें समझाते हैं। तब राजाने विषाद करने का समय न जानकर विचार किया। बारंबार पुत्रियों को हृदय से लगाकर सुन्दर सजी हुई पालकियाँ मँगवायी। सारा परिवार प्रेम में विवश है। राजा ने सुन्दर मुहूर्त जानकर सिद्धिसहित गणेशजी का स्मरण करके कन्याओं को पालकियों पर चढ़ाया। राजा ने पुत्रियों को बहुत प्रकार से समझाया और उन्हें स्त्रियों का धर्म और कुलकी रीति सिखायी। बहुत-से दासी-दास दिये, जो सीताजी के प्रिय और विश्वासपात्र सेवक थे।
सीताजी के चलते समय जनकपुरवासी व्याकुल हो गये। मङ्गलकी राशि शुभ शकुन हो रहे हैं। ब्राह्मण और मन्त्रियों के समाजसहित राजा जनकजी उन्हें पहुँचाने के लिये साथ चले। समय देखकर बाजे बजने लगे। बरातियों ने रथ, हाथी और घोड़े सजाये। दशरथजी ने सब ब्राह्मणों को बुला लिया और उन्हें दान और सम्मान से परिपूर्ण कर दिया। उनके चरणकमलों की धूलि सिरपर धरकर और आशिष पाकर राजा आनन्दित हुए और गणेशजी का स्मरण करके उन्होंने प्रस्थान किया। मङ्गलों के मूल अनेकों शकुन हुए।
देवता हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं और अप्सराएँ गीत गा रही हैं। अवधपति दशरथजी नगाड़े बजाकर आनन्दपूर्वक अयोध्यापुरी को चले। राजा दशरथजी ने विनती करके प्रतिष्ठित जनों को लौटाया और आदर के साथ सब गरीबों को बुलवाया। उनको गहने कपड़े, घोड़े हाथी दिये और प्रेम से पुष्ट करके सबको सम्पन्न कर दिया। वे सब बारंबार विरुदावली (कुलकीर्ति) बखानकर और श्री रामचन्द्रजी को हृदय में रखकर लौटे। कोसलाधीश दशरथजी बार-बार लौटने को कहते हैं, परन्तु जनकजी प्रेमवश लौटना नहीं चाहते।
दशरथजी ने फिर सुहावने वचन कहे- हे राजन्! बहुत दूर आ गये, अब लौटिये। फिर राजा दशरथजी रथ से उतरकर खड़े हो गये। उनके नेत्रों में प्रेम का प्रवाह बढ़ आया प्रेमाश्रुओं की धारा बह चली। तब जनकजी हाथ जोड़कर मानो स्नेहरूपी अमृत में डुबोकर वचन बोले- मैं किस तरह और किन शब्दों में विनती करूँ। हे महाराज! आपने मुझे बड़ी बड़ाई दी हैl
अयोध्यानाथ दशरथजी ने अपने स्वजन समधी का सब प्रकार से सम्मान किया। उनके आपस के मिलने में अत्यन्त विनय थी और इतनी प्रीति थी जो हृदय में समाती न थी। जनकजी ने मुनिमण्डली को सिर नवाया और सभी से आशीर्वाद पाया। फिर आदर के साथ वे रूप, शील और गुणों के निधान सब भाइयों से- अपने दामादों से मिले। और सुन्दर कमल के समान हाथों को जोड़कर ऐसे वचन बोले जो मानो प्रेम से ही जन्मे हों। हे रामजी! मैं किस प्रकार आपकी प्रशंसा करूँ! आप मुनियों और महादेवजी के मनरूपी मानसरोवर के हंस हैं। योगी लोग जिनके लिये क्रोध, मोह, ममता और मद को त्यागकर योगसाधन करते हैं, जो सर्वव्यापक, ब्रह्म, अव्यक्त, अविनाशी, चिदानन्द, निर्गुण और गुणों की राशि हैं, जिनको मनसहित वाणी नहीं जानती और जिनकी महिमा को वेद 'नेति' कहकर वर्णन करता है और जो सच्चिदानन्द तीनों कालों में एकरस (सर्वदा और सर्वथा निर्विकार) रहते हैं।
वे ही समस्त सुखों के मूल आप मेरे नेत्रों के विषय हुए। ईश्वर के अनुकूल होने पर जगत में जीव को सब लाभ-ही-लाभ है। आपने मुझे सभी प्रकार से बड़ाई दी और अपना जन जानकर अपना लिया। यदि दस हजार सरस्वती और शेष हों और करोड़ों कल्पों तक गणना करते रहें। तो भी हे रघुनाथजी! सुनिये, मेरे सौभाग्य और आपके गुणों की कथा कहकर समाप्त नहीं की जा सकती। मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह अपने इस एक ही बलपर कि आप अत्यन्त थोड़े प्रेम से प्रसन्न हो जाते हैं। मैं बार-बार हाथ जोड़कर यह माँगता हूँ कि मेरा मन भूलकर भी आपके चरणों को न छोड़े। जनकजी के श्रेष्ठ वचनों को सुनकर पूर्णकाम श्री रामचन्द्रजी सन्तुष्ट हुए।
उन्होंने सुन्दर विनती करके पिता दशरथजी, गुरु विश्वामित्रजी और कुलगुरु वसिष्ठजी के समान जानकर ससुर जनकजी का सम्मान किया। फिर जनकजी ने भरतजी से विनती की और प्रेम के साथ मिलकर फिर उन्हें आशीर्वाद दिया। फिर राजा ने लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजी से मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया। वे परस्पर प्रेम के वश होकर बार-बार आपस में सिर नवाने लगे।
जनकजी की बार-बार विनती और बड़ाई करके श्री रघुनाथजी सब भाइयों के साथ चले। जनकजी ने जाकर विश्वामित्रजी के चरण पकड़ लिये और उनके चरणों की रज को सिर और नेत्रों में लगाया। उन्होंने कहा- हे मुनीश्वर! सुनिये, आपके सुन्दर दर्शन से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, मेरे मन में ऐसा विश्वास है। जो सुख और सुयश लोकपाल चाहते हैं; परन्तु असम्भव समझकर जिसका मनोरथ करते हुए सकुचाते हैं, हे स्वामी! वही सुख और सुयश मुझे सुलभ हो गया; सारी सिद्धियाँ आपके दर्शनों की अनुगामिनी अर्थात् पीछे-पीछे चलनेवाली हैं। इस प्रकार बार-बार विनती की और सिर नवाकर तथा उनसे आशीर्वाद पाकर राजा जनकजी लौटे।
डंका बजाकर बारात चली। छोटे-बड़े सभी समुदाय प्रसन्न हैं। रास्ते के गाँवों के स्त्री-पुरुष श्री रामचन्द्रजी को देखकर नेत्रों का फल पाकर सुखी होते हैं। बीच-बीच में सुन्दर मुकाम करती हुई तथा मार्ग के लोगों को सुख देती हुई वह बारात पवित्र दिन में अयोध्यापुरी के समीप आ पहुँची। नगाड़ों पर चोटें पड़ने लगीं; सुन्दर ढोल बजने लगे। भेरी और शंख की बड़ी आवाज हो रही है; हाथी-घोड़े गरज रहे हैं। विशेष शब्द करनेवाली झाँझें, सुहावनी डफलियाँ तथा रसीले राग से शहनाइयाँ बज रही हैं।
बारात को आती हुई सुनकर नगरनिवासी प्रसन्न हो गये। सब के शरीरों पर पुलकावली छा गयी। सबने अपने-अपने सुन्दर घरों, बाजारों, गलियों, चौराहों और नगर के द्वारों को सजाया। सारी गलियाँ अरगजे से सिंचायी गयीं, जहाँ-तहाँ सुन्दर चौक पुराये गये। तोरणों, ध्वजा-पताकाओं और मण्डपों से बाजार ऐसा सजा कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
फलसहित सुपारी, केला, आम, मौलसिरी, कदम्ब और तमाल के वृक्ष लगाये गये। वे लगे हुए सुन्दर वृक्ष फलों के भार से पृथ्वी को छू रहे हैं। उनके मणियों के थाले बड़ी सुन्दर कारीगरी से बनाये गये हैं। अनेक प्रकार के मङ्गल-कलश घर-घर सजाकर बनाये गये हैं। श्री रघुनाथजी की अयोध्यापुरी को देखकर ब्रह्मा आदि सब देवता चकित हो गए हैं ।
उस समय राजमहल अत्यन्त शोभित हो रहा था। उसकी रचना देखकर कामदेव का भी मन मोहित हो जाता था। मङ्गल शकुन, मनोहरता, ऋद्धि-सिद्धि, सुख, सुहावनी सम्पत्ति और सब प्रकार के उत्साह आनन्द मानो सहज सुन्दर शरीर धर-धरकर दशरथजी के घर में छा गये हैं। श्री रामचन्द्रजी और सीताजी के दर्शनों के लिये भला कहिये किसे लालसा न होगी? सुहागिनी स्त्रियाँ झुंड-की-झुंड मिलकर चलीं, जो अपनी छबि से कामदेव की स्त्री रति का भी निरादर कर रही हैं। सभी सुन्दर मङ्गलद्रव्य एवं आरती सजाये हुए गा रही हैं, मानो सरस्वतीजी ही बहुत-से वेष धारण किये गा रही हों। राजमहल में आनन्द के कारण शोर मच रहा है। उस समय का और सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता। कौसल्याजी आदि श्री रामचन्द्रजी की सब माताएँ प्रेम के विशेष वश होने से शरीर की सुध भूल गयीं। गणेशजी और त्रिपुरारि शिवजी का पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत-सा दान दिया।
सुख और महान आनन्द से विवश होने के कारण सब माताओं के शरीर शिथिल हो गये हैं, उनके चरण चलते नहीं हैं। श्रीरामचन्द्रजी के दर्शनों के लिये वे अत्यन्त अनुराग में भरकर परछन का सब सामान सजाने लगीं। अनेकों प्रकार के बाजे बजते थे। सुमित्राजी ने आनन्दपूर्वक मङ्गल साज सजाये। हल्दी, दूब, दही, पत्ते, फूल, पान और सुपारी आदि मङ्गल की मूल वस्तुएँ, तथा अक्षत (चावल), अँखुए, गोरोचन, लावा और तुलसी की सुन्दर मंजरियाँ सुशोभित हैं। नाना रंगों से चित्रित किये हुए सहज सुहावने सुवर्ण के कलश ऐसे मालूम होते हैं, मानो कामदेव के पक्षियों ने घोंसले बनाये हों। सब रानियाँ सम्पूर्ण मङ्गल साज सज रही हैं। बहुत प्रकार की आरती बनाकर वे आनन्दित हुईं सुन्दर मङ्गलगान कर रही हैं।
सोने के थालों को माङ्गलिक वस्तुओं से भरकर अपने कमल के समान कोमल हाथों में लिये हुए माताएँ आनन्दित होकर परछन करने चलीं। उनके शरीर पुलकावली से छा गये हैं। धूप के धूएँ से आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड़-घुमड़कर छा गये हों। देवता कल्पवृक्ष के फूलों की मालाएँ बरसा रहे हैं। सुन्दर मणियों से बने बंदनवार ऐसे मालूम होते हैं मानो इन्द्रधनुष सजाये हों। नगाड़ों की ध्वनि मानो बादलों की घोर गर्जना है। याचकगण पपीहे, मेढक और मोर हैं। देवता पवित्र सुगन्धरूपी जल बरसा रहे हैं, जिससे खेती के समान नगर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो रहे हैं। प्रवेश का समय जानकर गुरु वसिष्ठजी ने आज्ञा दी। तब रघुकुलमणि महाराज दशरथजी ने शिवजी, पार्वतीजी और गणेशजी का स्मरण करके समाजसहित आनन्दित होकर नगर में प्रवेश किया।
देवता दुन्दुभी बजा-बजाकर फूल बरसा रहे हैं। देवताओं की स्त्रियाँ आनन्दित होकर सुन्दर मङ्गलगीत गा-गाकर नाच रही हैं। मागध, सूत, भाट और चतुर नट तीनों लोकों के उजागर (सबको प्रकाश देनेवाले, परम प्रकाशस्वरूप) श्री रामचन्द्रजी का यश गा रहे हैं। जयध्वनि तथा वेद की निर्मल श्रेष्ठ वाणी सुन्दर मङ्गल से सनी हुई दसों दिशाओं में सुनायी पड़ रही है। आकाश में देवता और नगर में लोग सब प्रेम में मग्न हैं। बराती ऐसे बने-ठने हैं कि उनका वर्णन नहीं हो सकता। परम आनन्दित हैं, सुख उनके मन में समाता नहीं है।
तब अयोध्यावासियों ने राजा को वन्दन किया। श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वे सुखी हो गये। सब मणियाँ और वस्त्र निछावर कर रहे हैं। नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भरा है और शरीर पुलकित हैं। नगर की स्त्रियाँ आनन्दित होकर आरती कर रही हैं और सुन्दर चारों कुमारों को देखकर हर्षित हो रही हैं। पालकियों के सुन्दर परदे हटा हटाकर वे दुल्हनों को देखकर सुखी होती हैं।
इस प्रकार सबको सुख देते हुए वे राजद्वार पर आये। माताएँ आनन्दित होकर बहुओं सहित कुमारों का परछन कर रही हैं। वे बार-बार आरती कर रही हैं। उस प्रेम और महान् आनन्द को कौन कह सकता है! अनेकों प्रकार के आभूषण, रत्न और वस्त्र तथा अगणित प्रकार की अन्य वस्तुएँ निछावर कर रही हैं। बहुओंसहित चारों पुत्रों को देखकर माताएँ परम आनंद में मग्न हो गयीं। सीताजी और श्री रामजी की छबि को बार-बार देखकर वे जगत में अपने जीवन को सफल मानकर आनन्दित हो रही हैं। सखियाँ सीताजी के मुख को बार-बार देखकर अपने पुण्यों की सराहना करती हुई गीत गा रही हैं। देवता क्षण-क्षण में फूल बरसाते, नाचते, गाते तथा अपनी-अपनी सेवा समर्पण करते हैं। चारों मनोहर जोड़ियों को देखकर सरस्वती ने सारी उपमाओं को खोज डाला; पर कोई उपमा देते नहीं बनी, क्योंकि उन्हें सभी बिलकुल तुच्छ जान पड़ीं। तब हारकर वे भी श्री रामजी के रूप में अनुरक्त होकर एकटक देखती रह गयीं। वेद की विधि और कुलकी रीति करके अर्घ्य-पाँवड़े देती हुई बहुओं समेत सब पुत्रों को परछन करके माताएँ महल में लिवा चलीं।
स्वाभाविक ही सुन्दर चार सिंहासन थे, जो मानो कामदेव ने ही अपने हाथ से बनाये थे। उनपर माताओं ने राजकुमारियों और राजकुमारों को बैठाया और आदर के साथ उनके पवित्र चरण धोये फिर वेदकी विधि के अनुसार मङ्गलों के निधान दूल्हा और दुल्हन की धूप, दीप और नैवेद्य आदि के द्वारा पूजा की। माताएँ बारंबार आरती कर रही हैं और वर-वधुओं के सिरों पर सुन्दर पंखे तथा चॅवर कर रहे हैं। अनेकों वस्तुएँ निछावर हो रही हैं; सभी माताएँ आनन्द से भरी हुई ऐसी सुशोभित हो रही हैं मानो योगी ने परम तत्त्व को प्राप्त कर लिया। और सदा के रोगी ने मानो अमृत पा लिया।
क्योंकि रघुकुल के चन्द्रमा श्री रामजी विवाह करके भाइयों सहित घर आये हैं। माताएँ लोकरीति करती हैं और दूल्हा दुल्हन सकुचाते हैं। इस महान आनन्द और विनोद को देखकर श्री रामचन्द्रजी मन-ही-मन मुस्करा रहे हैं। मन की सभी इच्छाएं पूरी हुई जानकर देवता और पितरों का भलीभाँति पूजन किया। सबकी वन्दना करके माताएँ यही वरदान माँगती हैं कि भाइयोंसहित श्री रामजी का कल्याण हो। देवता छिपे हुए अन्तरिक्ष से आशीर्वाद दे रहे हैं। तदनन्तर राजा ने बरातियों को बुलवा लिया और उन्हें सवारियाँ, वस्त्र, मणि (रत्न) और आभूषणादि दिये। आज्ञा पाकर, श्री रामजी को हृदय में रखकर वे सब आनन्दित होकर अपने-अपने घर गये। नगर के समस्त स्त्री-पुरुषों को राजा ने कपड़े और गहने पहनाये। घर-घर बधावे बजने लगे।
याचक लोग जो-जो माँगते हैं, विशेष प्रसन्न होकर राजा उन्हें वही वही देते हैं। सम्पूर्ण सेवकों और बाजेवालों को राजा ने नाना प्रकार के दान और सम्मान से सन्तुष्ट किया। सब वन्दन करके आशिष देते हैं और गुणसमूहों की कथा गाते हैं। तब गुरु और ब्राह्मणोंसहित राजा दशरथजी ने महल में गमन किया। वसिष्ठजी ने जो आज्ञा दी, उसे लोक और वेद की विधि के अनुसार राजा ने आदरपूर्वक किया। ब्राह्मणों की भीड़ देखकर अपना बड़ा भाग्य जानकर सब रानियाँ आदर के साथ उठीं। चरण धोकर उन्होंने सबको स्नान कराया और राजा ने भलीभाँति पूजन करके उन्हें भोजन कराया। आदर, दान और प्रेम से पुष्ट हुए वे सन्तुष्ट मन से आशीर्वाद देते हुए चले।
राजा ने गाधि-पुत्र विश्वामित्रजी की बहुत तरह से पूजा की और कहा- हे नाथ! मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है। राजा ने उनकी बहुत प्रशंसा की और रानियोंसहित उनकी चरणधूलि को ग्रहण किया। उन्हें महल के भीतर ठहरने को उत्तम स्थान दिया, फिर राजाने गुरु वसिष्ठजी के चरणकमलों की पूजा और विनती की।
बहुओंसहित सब राजकुमार और सब रानियों समेत राजा बार-बार गुरुजी के चरणों की वन्दना करते हैं और मुनीश्वर आशीर्वाद देते हैं। राजा ने अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदय से पुत्रों को और सारी सम्पत्ति को सामने रखकर उन्हें स्वीकार करने के लिये विनती की। परन्तु मुनिराज ने पुरोहित के नाते केवल अपना नेग माँग लिया और बहुत तरह से आशीर्वाद दिया। फिर सीताजीसहित श्री रामचन्द्रजी को हृदय में रखकर गुरु वसिष्ठजी हर्षित होकर अपने स्थान को गये। राजा ने सब ब्राह्मणों की स्त्रियों को बुलवाया और उन्हें सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनाये। फिर नगरभर की सौभाग्यवती बहन, बेटी, भांजी आदि को बुलवा लिया और उनकी रुचि समझकर उसी के अनुसार उन्हें पहिरावनी दी। नेगी लोग सब अपना-अपना नेग-जोग लेते और राजाओं के शिरोमणि दशरथजी उनकी इच्छा के अनुसार देते हैं। जिन मेहमानों को प्रिय और पूजनीय जाना, उनका राजा ने भलीभाँति सम्मान किया। देवगण श्री रघुनाथजी का विवाह देखकर, उत्सव की प्रशंसा करके फूल बरसाते हुए नगाड़े बजाकर और परम सुख प्राप्त कर अपने-अपने लोकों को चले। वे एक-दूसरे से श्री रामजी का यश कहते जाते हैं। सब प्रकार से सबका प्रेमपूर्वक भलीभाँति आदर-सत्कार कर लेनेपर राजा दशरथजी के हृदय में पूर्ण उत्साह (आनन्द) भर गया। जहाँ रनिवास था, वे वहाँ पधारे और बहुओंसमेत उन्होंने कुमारों को देखा।
राजा ने आनन्दसहित पुत्रों को गोद में ले लिया। उस समय राजा को जितना सुख हुआ उसे कौन कह सकता है? फिर पुत्रवधुओं को प्रेमसहित गोदी में बैठाकर, बार-बार हृदय में हर्षित होकर उन्होंने उनका दुलार किया। यह समारोह देखकर रनिवास प्रसन्न हो गया। सबके हृदय में आनन्द ने निवास कर लिया। तब राजा ने जिस तरह विवाह हुआ था वह सब कहा। उसे सुन-सुनकर सब किसी को हर्ष होता है। राजा जनक के गुण, शील, महत्त्व, प्रीति की रीति और सुहावनी सम्पत्ति का वर्णन राजा ने भाट की तरह बहुत प्रकार से किया। जनकजी की करनी सुनकर सब रानियाँ बहुत प्रसन्न हुईं। पुत्रोंसहित स्नान करके राजा ने ब्राह्मण, गुरु और कुटुम्बियों को बुलाकर अनेक प्रकार के भोजन किये। यह सब करते-करते पाँच घड़ी रात बीत गयी। सुन्दर स्त्रियाँ मङ्गलगान कर रही हैं। वह रात्रि सुख की मूल और मनोहारिणी हो गयी। सबने आचमन करके पान खाये और फूलों की माला, सुगन्धित द्रव्य आदि से विभूषित होकर सब शोभा से छा गये।
श्री रामचन्द्रजी को देखकर और आज्ञा पाकर सब सिर नवाकर अपने-अपने घर को चले। वहाँ के प्रेम, आनन्द, विनोद, महत्त्व, समय, समाज और मनोहरता को सैकड़ों सरस्वती, शेष, वेद, ब्रह्मा, महादेवजी और गणेशजी भी नहीं कह सकते। फिर भला मैं उसे किस प्रकार से बखानकर कहूँ? कहीं केंचुआ भी धरती को सिरपर धारण कर सकता है?
राजा ने सबका सब प्रकार से सम्मान करके, कोमल वचन कहकर रानियों को बुलाया और कहा-बहुएँ अभी बच्ची हैं, पराये घर आयी हैं। इनको इस तरह से रखना जैसे नेत्रों को पलकें रखती हैं (जैसे पलकें नेत्रों की सब प्रकार से रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुँचाती हैं, वैसे ही इनको सुख पहुँचाना)। लड़के थके हुए नींद के वश हो रहे हैं, इन्हें ले जाकर शयन कराओ। ऐसा कहकर राजा श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में मन लगाकर विश्रामभवन में चले गये। राजा के स्वभाव से ही सुन्दर वचन सुनकर रानियों ने मणियों से जड़े सुवर्ण के पलँग बिछवाये। गद्दों पर गाय के दूध के समान सुन्दर एवं कोमल अनेकों सफेद चादरें बिछायीं। सुन्दर तकियों का वर्णन नहीं किया जा सकता। मणियों के मन्दिर में फूलों की मालाएँ और सुगन्ध द्रव्य सजे हैं। सुन्दर रत्नों के दीपकों और सुन्दर चंदोवे की शोभा कहते नहीं बनती। जिसने उन्हें देखा हो, वही जान सकता है।
इस प्रकार सुन्दर शय्या सजाकर माताओं ने श्री रामचन्द्रजी को उठाया और प्रेमसहित पलँगपर सुलाया। श्री रामजी ने बार-बार भाइयों को आज्ञा दी। तब वे भी अपनी-अपनी शय्याओं पर सो गये।
श्री रामजी के साँवले सुन्दर कोमल अङ्गों को देखकर सब माताएँ प्रेमसहित वचन कह रही हैं-हे तात! मार्ग में जाते हुए तुमने बड़ी भयावनी ताड़का राक्षसी को किस प्रकार से मारा? बड़े भयानक राक्षस, जो विकट योद्धा थे और जो युद्ध में किसीको कुछ नहीं गिनते थे, उन दुष्ट मारीच और सुबाहु को सहायकों सहित तुमने कैसे मारा?
हे तात! मैं बलैया लेती हूँ, मुनि की कृपा से ही ईश्वर ने तुम्हारी बहुत-सी बलाओं को टाल दिया। दोनों भाइयों ने यज्ञ की रखवाली करके गुरुजी के प्रसाद से सब विद्याएँ पायीं। चरणों की धूलि लगते ही मुनिपत्नी अहल्या का उद्धार हुआ। विश्वभर में यह कीर्ति पूर्णरीति से व्याप्त हो गयी। कच्छप की पीठ, वज्र और पर्वत से भी कठोर शक्तिशाली शिवजी के धनुष को राजाओं के समाज में तुमने तोड़ दिया।
विश्वविजय के यश और जानकी को पाया और सब भाइयों को ब्याहकर घर आये। तुम्हारे सभी कर्म अमानुषी हैं (मनुष्य की शक्ति के बाहर हैं), जिन्हें केवल विश्वामित्रजी की कृपाने सम्पन्न किया है। हे तात! तुम्हारा चन्द्रमुख देखकर आज हमारा जगत में जन्म लेना सफल हुआ। तुमको बिना देखे जो दिन बीते हैं, उनको ब्रह्मा गिनती में न लावें (हमारी आयु में शामिल न करें)।
विनयभरे उत्तम वचन कहकर श्री रामचन्द्रजी ने सब माताओं को संतुष्ट किया। फिर शिवजी, गुरु और ब्राह्मणों के चरणों का स्मरण कर नेत्रों को नींद के वश किया अर्थात् वे सो गए। नींद में भी उनका अत्यन्त सलोना मुखड़ा ऐसा शोभ रहा था, मानो सन्ध्या के समय का लाल कमल शोभ रहा हो। स्त्रियाँ घर-घर जागरण कर रही हैं और आपस में मङ्गलमयी बाते कर रही हैं।
रानियाँ कहती हैं- हे सजनी! देखो, आज रात्रि की कैसी शोभा है, जिससे अयोध्यापुरी विशेष शोभित हो रही है! यों कहती हुई सासुएँ सुन्दर बहुओं को लेकर सो गयीं, मानो सर्पों ने अपने सिर की मणियों को हृदय में छिपा लिया है।
प्रातःकाल पवित्र ब्राह्ममुहूर्त में प्रभु जागे। भाट और मागधों ने गुणों का गान किया तथा नगर के लोग द्वारपर वंदना करने को आये। ब्राह्मणों, देवताओं, गुरु, पिता और माताओं की वन्दना करके आशीर्वाद पाकर सब भाई प्रसन्न हुए। माताओं ने आदर के साथ उनके मुखों को देखा। फिर वे राजा के साथ दरवाजे के बाहर पधारे। स्वभाव से ही पवित्र चारों भाइयों ने सब शौचादिसे निवृत्त होकर पवित्र सरयू नदी में स्नान किया और प्रातः वंदन क्रिया करके वे पिता के पास आये। राजा ने देखते ही उन्हें हृदय से लगा लिया। तदनन्तर वे आज्ञा पाकर हर्षित होकर बैठ गये।
श्री रामचन्द्रजी के दर्शनकर और नेत्रों के लाभ की बस यही सीमा है, ऐसा अनुमानकर सारी सभा शीतल हो गयी। फिर मुनि वसिष्ठजी और विश्वामित्रजी आये। राजा ने उनको सुन्दर आसनों पर बैठाया और पुत्रों-समेत उनकी पूजा करके उनके चरण स्पर्श किए। दोनों गुरु श्री रामजी को देखकर प्रेम में मुग्ध हो गये। वसिष्ठजी धर्म के इतिहास कह रहे हैं और राजा रनिवाससहित सुन रहे हैं। जो मुनियों के मन को भी अगम्य है, ऐसी विश्वामित्रजी की करनी को वसिष्ठजी ने आनन्दित होकर बहुत प्रकार से वर्णन किया। वामदेवजी बोले- ये सब बातें सत्य हैं।
विश्वामित्रजी की सुन्दर कीर्ति तीनों लोकों में छायी हुई है। यह सुनकर सब किसी को आनन्द हुआ। श्रीराम-लक्ष्मण के हृदय में अधिक उत्साह आनन्द हुआ। नित्य ही मङ्गल, आनन्द और उत्सव होते हैं; इस तरह आनन्द में दिन बीतते जाते हैं। अयोध्या आनन्द से भरकर उमड़ पड़ी, विश्वामित्रजी नित्य ही अपने आश्रम जाना चाहते हैं, पर रामचन्द्रजी के स्नेह और विनयवश रह जाते हैं। दिनों-दिन राजा का सौगुना भाव (प्रेम) देखकर महामुनिराज विश्वामित्रजी उनकी सराहना करते हैं। अन्त में जब विश्वामित्रजी ने विदा माँगी, तब राजा प्रेममग्न हो गये और पुत्रोंसहित आगे खड़े हो गये। वे बोले हे नाथ! यह सारी सम्पदा आपकी है। मैं तो स्त्री-पुत्रोंसहित आपका सेवक हूँ। हे मुनि! लड़कों पर सदा स्नेह करते रहियेगा और मुझे भी दर्शन देते रहियेगा। ऐसा कहकर पुत्रों और रानियोंसहित राजा दशरथजी विश्वामित्रजी के चरणोंपर गिर पड़े, प्रेमविह्वल हो जाने के कारण उनके मुँह से बात नहीं निकलती।
ब्राह्मण विश्वामित्रजी ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद दिये और वे चल पड़े, प्रीति की रीति कही नहीं जाती। सब भाइयों को साथ लेकर श्री रामजी प्रेमके साथ उन्हें पहुँचाकर और आज्ञा पाकर लौटे।
गाधिकुल के चन्द्रमा विश्वामित्रजी बड़े हर्ष के साथ श्री रामचन्द्रजी के रूप, राजा दशरथजी की भक्ति, चारों भाइयों के विवाह और सबके उत्साह और आनन्द को मन-ही-मन सराहते जाते हैं। वामदेवजी और रघुकुल के गुरु ज्ञानी वसिष्ठजी ने फिर विश्वामित्रजी की कथा बखानकर कही। मुनि का सुन्दर यश सुनकर राजा मन-ही-मन अपने पुण्यों के प्रभाव का बखान करने लगे। आज्ञा हुई तब सब लोग अपने-अपने घरों को लौटे। राजा दशरथजी भी पुत्रोंसहित महल में गये। जहाँ-तहाँ सब श्री रामचन्द्रजी के विवाह की गाथाएँ गा रहे हैं। श्रीरामचन्द्रजी का पवित्र सुयश तीनों लोकों में छा गया।
जबसे श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आये, तबसे सब प्रकार का आनन्द अयोध्या में आकर बसने लगा। प्रभु के विवाह में जैसा आनन्द-उत्साह हुआ, उसे सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कह सकते। श्री सीतारामजी के यश को कविकुलन के जीवन को पवित्र करनेवाला और मङ्गलों की खान जानकर, इससे मैंने अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये कुछ (थोड़ा-सा) बखानकर कहा है। अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये तुलसी ने रामका यश कहा है। नहीं तो श्रीरघुनाथजी का चरित्र अपार समुद्र है, क्या कोई कवि उसका पार पा सकता है? जो लोग यज्ञोपवीत और विवाह के मङ्गलमय उत्सव का वर्णन आदर के साथ सुनकर गावेंगे, वे लोग श्रीजानकीजी और श्रीरामजी की कृपासे सदा सुख पावेंगे। श्रीसीताजी और श्रीरघुनाथजी के विवाह प्रसंग को जो लोग प्रेमपूर्वक गायें-सुनेंगे, उनके लिये सदा उत्साह (आनन्द)-ही-उत्साह है; क्योंकि श्रीरामचन्द्रजी का यश मंगल का धाम है।
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने प्रथमः सोपानः समाप्तः ।
कलियुगके सम्पूर्ण पापोंको विध्वंस करनेवाले श्रीरामचरितमानसका यह पहला सोपान समाप्त हुआ।।
(बालकाण्ड समाप्त)
श्रीमद्गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामजी के दिव्य जीवन, अद्भुत चरित्र और अलौकिक लीलाओं का ऐसा सुंदर और हृदयस्पर्शी चित्रण किया है, जो युगों-युगों तक भक्तों के हृदय को आलोकित करता रहेगा। उनके प्रत्येक शब्द में प्रभु श्रीरामजी के प्रति अगाध प्रेम और भक्ति की अमिट छाप दिखाई देती है।
हमें पूर्ण आशा है कि आपने हमारी यह विनम्र प्रस्तुति बालकाण्ड श्रद्धा भाव से पढ़ी होगी और इसमें श्रीरामजी के सुन्दर चरित्र से जुड़ी कथाओं का रसास्वादन किया होगा। यह प्रयास केवल एक आरंभ है। हम श्रीरामचरितमानस के सभी सात कांडों (सभी सात सोपानों) को इसी भक्ति-भाव और सरल शैली में आपके समक्ष क्रमशः प्रस्तुत करेंगे। अगली कड़ी में हम लेकर आएंगे अयोध्या कांड, जो प्रेम, त्याग और धर्म की नई झलक से आपको भावविभोर कर देगा।
आपका अनुभव हमारे लिए बहुत मूल्यवान है - कृपया इस प्रस्तुति को अपनी रेटिंग और सुझावों के माध्यम से अवश्य सराहें, जिससे हम आने वाले कांडों को और भी भावपूर्ण और उपयोगी बना सकें।
श्रीरामजी की कृपा आप पर सदा बनी रहे।
पुनः मिलेंगे अयोध्या कांड में...
तब तक के लिए...
जय श्रीराम!