RAGHAVI SE RAGINI - 1 in Hindi Short Stories by Asfal Ashok books and stories PDF | रागिनी से राघवी (भाग 1)

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रागिनी से राघवी (भाग 1)

आश्रम में प्रातःकालीन ध्यान-धारणा के बाद जब सूर्य की पहली किरणें जिनालय के श्वेत संगमरमर पर पड़तीं, तब पंच-परमेष्ठी की पूजा आरंभ होती। घंटियों की मधुर ध्वनि, दीपों जा प्रज्ज्वलन, फूलों की सुगंध, और मंत्रों का सामूहिक उच्चारण वातावरण को पवित्र बना देता।

राघवी पूजा के बाद अन्य साध्वियों के साथ दिनचर्या में लग जाती। दोपहर में थोड़ा विश्राम, फिर ग्रंथ-पठन, सेवा-कार्य, और शाम को प्रवचन-श्रवण। इस तरह दिन भर व्यस्तता बनी रहती और खासा थकान के कारण रात में वह गहरी नींद सो जाती। नींद इतनी गहरी कि बीच-बीच में उठकर जल पीने की भी इच्छा नहीं होती।पर महीने के वे पाँच-सात मुश्किल दिन, जब शरीर पूजा के काबिल नहीं रहता, तब उसे कक्ष में एकांत दे दिया जाता। बाकी साध्वियाँ समझतीं कि वह विश्राम कर रही है, पर सच यह था कि वह दिन भर अपने कक्ष में पड़ी ऊँघती रहती। कभी दर्द से करवट बदलती, कभी आँखें बंद कर लेटी रहती। और जैसे ही आँख लगती, दिन हो या रात, अतीत गाहे-ब-गाहे उसके सपने में आ जाता। कभी बचपन की गलियाँ, कभी माँ की गोद, कभी कॉलेज के दिन। पर पिछले कुछ महीनों से एक ही चेहरा बार-बार आता– मंजीत का।

एक बार तो यह सपना इतना गहरा और जीवंत था कि वह चौंककर उठ बैठी। स्वप्न में बड़ी माताजी नहीं, मंजीत उसका गुरु बना बैठा था। पीली धोती-चोगे में! माथे पर चंदन का तिलक, और आँखों में वही पुरानी चमक। उसने हाथ जोड़कर पूछा, “कोऽहं, किं मम धर्मः?”

और मंजीत ने मुस्कुराते हुए, बड़े कोमल स्वर में कहा, 'तुम क्षिति हो, बीज धारण करना ही तुम्हारा धर्म है। धरती बनो, जो बिना शिकायत बोझ उठाए, जीवन को अंकुरित होने दे।'

उस रात वह देर तक जगी रही। हृदय में एक अजीब सी हलचल थी– न दोष, न पाप, बस एक गहरी स्वीकारोक्ति।

उधर, यही हाल मंजीत का था।

गाँव की टूटी-फूटी सड़क पर सुबह-सुबह साइकिल चलाता, धूल उड़ाता स्कूल पहुँचता। बच्चे उसे “मास्टरजी” कहकर घेर लेते। दिन भर पढ़ाता, खेलाता, फिर दोपहर ढलते-ढलते आश्रम की ओर निकल पड़ता। वहाँ कभी लाइब्रेरी की व्यवस्था करता, कभी बगीचे में पानी डालता, कभी प्रवचन के बाद साध्वियों से किताबों पर चर्चा करता। रात को थका-हारा लौटता और बेसुध सो जाता।

पर नींद में वह भी अब अकेला नहीं रहता था। सपने में कभी दीना नगर की धर्मशाला की छत पर रागिनी मिल जाती– चाँदनी में उसका श्वेत वस्त्र चाँदी सा चमकता। कभी पठानकोट के पार्क की उस पुरानी बेंच पर, जहाँ मुहब्बत वाले दिनों में घंटों बैठे रहते थे...। और एक बार तो फिर से निर्मलमति की कुटिया में मिल गई! वही लकड़ी की खाट, वही मिट्टी का दीया। उसने रागिनी के चरण पकड़ लिए और बिना सोचे स्तुति करने लगा–

'गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु, गुरुर देवो महेश्वरः। गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥'

हे साँचा गुरु महाराज, बताओ– कोऽहं, किं मम धर्मः?

रागिनी ने उसके सर पर हाथ रखा। उस स्पर्श में ममता थी, प्रेम था, और एक गहरी शांति। उसने कहा, 'तुम बीजक हो मंजीत, बोना ही तुम्हारा धर्म है। जो धरती को खोदे, बीज डाले, और फिर धैर्य से प्रतीक्षा करे।'

दोनों की नींदें अब एक-दूसरे से मिलने लगी थीं।वैसे तो दिन में वह स्कूल में और रागिनी मंदिर की सेवा में रहती, पर ध्यान-प्रवचन में या किसी सामुदायिक कार्यक्रम में जब भी दोनों पास-पास बैठते, एक अदृश्य धागा उन्हें खींचता। कभी किताब बदलते हाथ छू जाते, कभी चादर का कोना एक-दूसरे को छूता। कोई देखता तो लगता बस संयोग, पर दोनों जानते थे कि यह संयोग नहीं, स्मृति है। मौका पा बेझिझक गले लग जाते। कोई पूछता तो कहते, “साधकों का प्रेम।” पर उस आलिंगन में एक अनिर्वचनीय सुख होता, जैसे दो आत्माएँ सदियों बाद फिर मिली हों।

मिलन की गहरी प्रेरणा अब दबने से रही। दोनों एक दिन आश्रम की मुख्य संचालिका साध्वी विशुद्धमति जी के कक्ष में पहुँच गए। कमरे में बस एक दीया जल रहा था। माताजी श्वेत वस्त्रों में, आँखें बंद, ध्यानमग्न। दोनों ने भूमि स्पर्श की।

राघवी ने धीमे स्वर में कहा, 'माताजी, मैं साध्वी के रूप में अपनी सारी जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मंजीत के साथ एक ऐसा रिश्ता जीना चाहती हूँ जो प्रेम को आत्मा की शुद्धता और एकता पर आधारित रखे। मैं देह की भूख नहीं, आत्मा की प्यास की बात कर रही हूँ।'

मंजीत ने आगे कहा,' माताजी, हम अब अकेले-अकेले नहीं जी सकते। हम साथ मिलकर गाँव के बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, जंगल बचाना चाहते हैं, असहायों की सेवा करना चाहते हैं। यह प्रेम यदि सेवा में बदल जाए, तो क्या यह भी साधना नहीं?'

विशुद्धमति जी ने लंबी साँस ली। उनकी आँखों में करुणा थी, पर अनुभव की गहराई भी:

'राघवी, जैन दर्शन में आत्मा ही सत्य है। वासना या देह का आकर्षण तृष्णा बन जाता है, जो आत्मा को बाँधता है। साधना का मार्ग है इस तृष्णा को जानना, उसे देखना, और फिर उसे छोड़ना।'

मंजीत ने साहस जुटाया, 'माताजी, वासना मानव स्वभाव का हिस्सा है। इसे दबाने से वह और विकट हो जाती है। यदि हम इसे अहिंसा, सत्य और संयम के साथ जी लें, तो क्या वह भी मोक्ष का मार्ग नहीं बन सकता? महावीर स्वामी ने भी गृहस्थों को धर्म बताया था।'

विशुद्धमति जी मौन हो गईं। उनकी स्मृति में पिछले बीस वर्षों की कई साध्वियाँ उभर आईं– कोई भाग गईं, कोई टूट गईं, कोई लौट आईं। वे नहीं चाहती थीं कि राघवी भी उसी चक्कर में फँसे। पर वे यह भी जानती थीं कि जब दो आत्माएँ इतनी प्रगाढ़ता से मिलती हैं, तो उन्हें रोकना हिंसा ही है।

अंत में उन्होंने धीरे से कहा, 'राघवी, मंजीत, यदि तुम्हारा प्रेम आत्मा की शुद्धता को बढ़ाता है, यदि उसमें अहिंसा, अपरिग्रह और संयम बना रहता है, तो वह भी एक साधना है। पर याद रखना– देह का आकर्षण जब प्रबल होगा, उस दिन आत्मा की पुकार सुनना। यदि तुम दोनों उस दिन भी एक-दूसरे को मुक्त कर सको, तो तुम्हारा प्रेम सच्चा है।'

राघवी की आँखों में आँसू थे, पर होंठों पर मुस्कान। उसने माताजी के चरण स्पर्श किए और कहा, 'माताजी, आपने हमें बंधन से मुक्त कर दिया।'

फिर एक साधारण दिन, बिना किसी घोषणा के, और अपना श्वेत वस्त्र उतारे बग़ैर, छोटा सा झोला उठा, मंजीत के साथ आश्रम के मुख्य द्वार से बाहर निकल गई। कोई ढोल-नगाड़ा नहीं, कोई विदाई नहीं। बस विशुद्धमति जी ने द्वार पर खड़े होकर दूर तक देखा और आँखें बंद कर लीं।

गाँव का वह छोटा सा मकान– मिट्टी का, बिजली तक नहीं। पर वहाँ शामें दीये की लौ में जगमगातीं, दोनों की नजरों में घूम रहा था। और मन एक ख्वाब रहा था कि वहां वे दोनों मिलकर गांव और आसपास के सभी ग्रामीण बच्चों को पढ़ाएंगे, सबदूर पेड़ लगाएंगे, गाँव की औरतों को सिलाई-बुनाई सिखाएंगे। और रात को जब थककर लेटेंगे, तो एक-दूसरे का हाथ थाम लेंगे, चुपचाप देखते– जैसे कह रहे होंगे,

तुम क्षिति, मैं बीजक।

अब धर्म पूरा हुआ।

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