इस धरती पर कुछ सच ऐसे होते हैं जिनके बारे में हम कभी पूछते नहीं, और कुछ ऐसे रहस्य होते हैं जिन्हें हम अनजाने में ढोते रहते हैं। जैसे कोई छाया पीछे-पीछे चलती है—खामोश, लेकिन हमेशा मौजूद। वेदिका चौहान के जीवन में भी ऐसी ही एक छाया थी। उसे पता नहीं था कि वह कौन सी है, कहाँ से आई है, या क्यों हर मोड़ पर उसका पीछा करती है। बस इतना महसूस होता था कि वह अकेली नहीं है—न कभी रही, और शायद न कभी रहेगी।वेदिका, 28 वर्ष की, एक साधारण सी लाइब्रेरियन थी। उसके बाल कंधों तक आते हुए थोड़े हल्के भूरे रंग के, आँखों में हमेशा छुपा हुआ सा शांत लेकिन टूटा हुआ आत्मविश्वास, और चाल में वह झिझक जो उन लोगों में होती है जिसने बचपन में बहुत कुछ खोया हो। शहर के पुराने हिस्से में स्थित “कायस्थ पब्लिक लाइब्रेरी” उसकी दुनिया का सबसे शांत हिस्सा था। किताबों के पीले पन्ने, उन पर जमा पुरानी स्याही की गंध, और बरसों से बिना छुई ‘रहस्य-शास्त्र’ की किताबें—यह सब उसकी धड़कनों से कहीं ज्यादा स्थिर था।और शायद उसे स्थिरता ही चाहिए थी। क्योंकि उसके जीवन में स्थिर कुछ भी नहीं था।रात के लगभग साढ़े आठ बजे थे। लाइब्रेरी में भीड़ कम थी, ज्यादातर लोग जा चुके थे। बाहर नवंबर की हवा में हल्की ठंडक थी और काँच की खिड़कियों पर धूल के बीच से आती एक टिमटिमाती स्ट्रीटलाइट रोशनी फेंक रही थी। वेदिका किताबें शेल्फ पर लगा रही थी, तभी उसकी निगाह स्टोररूम के दरवाज़े पर पड़ी। वह दरवाज़ा थोड़ा खुला हुआ था।स्टोररूम हमेशा बंद रहता था। उसमें ऐसी किताबें रखी थीं जिन्हें कोई नहीं पढ़ता—कुछ पुरानी राजवंशों की पांडुलिपियाँ, कुछ दुर्लभ प्राचीन ग्रंथ, और कुछ ऐसी किताबें जिनके लेखक भी अज्ञात थे। लाइब्रेरी के नए मालिक ने साफ कह रखा था कि वह कमरा हमेशा ताला-चाबी में रहे।पर आज वह कमरा खुद-ब-खुद खुला था।अंदर अंधेरा था।और हवा में कुछ अजीब सी नमी थी—जैसे बरसों से बंद रखा कोई राज आज सांस ले रहा हो।वेदिका ने भौहें सिकोड़ते हुए दरवाज़ा खोला। भीतर कदम रखते ही जैसे हवा भारी हो गई। पुराने कागज़ और फफूँदी की गंध उसके नथुनों में भर गई। वह रैक दर रैक देखते हुए आगे बढ़ी कि तभी उसकी नजर एक अजीब सी किताब पर पड़ी। चमड़े के कवर वाली वह किताब बाकी किताबों की तरह धूल में डूबी नहीं थी। बल्कि साफ-सुथरी, जैसे किसी ने अभी-अभी उसे यहाँ रखा हो।किताब पर लिखा था—“छाया–विधान: निषिद्ध ग्रंथ”उस शब्दों में गहराई थी… ऐसी कि वह सीधे आँख के भीतर उतर जाए। वेदिका ने जैसे ही किताब छुई, उसकी उंगलियों के पोरों में हल्की सी गर्मी दौड़ गई—मानो किताब जीवित हो।उसी समय पीछे से हवा का एक झोंका आया और स्टोररूम का दरवाज़ा जोर से बंद हो गया।वेदिका चौंक गई। उसने मुड़कर देखा।खामोशी।घना अंधेरा।सिर्फ वही और किताब।उसने जल्दी से बाहर आने की कोशिश की, लेकिन ताला भीतर से बंद था। उसने किताब को पकड़ा और अपने फोन की फ्लैशलाइट ऑन करके दरवाज़े को देखा—ताला बिल्कुल सामान्य था… पर जैसे किसी अदृश्य ताकत ने उसे जकड़ रखा हो।तभी…किताब के पन्ने खुद-ब-खुद पलटे।वेदिका की सांस अटक गई।उस पन्ने पर सिर्फ एक लाइन लिखी थी—अजीब, घूमा हुआ, नागों जैसा अक्षरों में।लेकिन वेदिका को वह पढ़ना आता था।उसे समझ आया।उसे हमेशा से समझ आता था, हालांकि उसने कभी सीखा नहीं।“जिस दिन छाया बुलाए, उस दिन पिछले जन्म की पुकार जाग उठती है।”उसने किताब बंद कर दी।उसकी हथेलियाँ काँप रही थीं।वह इसे पढ़ कैसे सकती थी?यह भाषा कोई नहीं जानता—पुरातत्व विभाग वाले भी इसे डिकोड करने में असफल रहे थे। और वह… वह इसे ऐसे पढ़ लेती है जैसे कोई अक्सर पढ़ी जाने वाली किताब पढ़ रहा हो।दिल अचानक तेज धड़कने लगा।वह कमरे में बेचैन घूमने लगी।—यह क्या हो रहा है?—मैं यह भाषा कैसे पढ़ सकती हूँ?—और यह किताब आज साफ-सुथरी क्यों थी?उसी समय… उसे लगा जैसे कोई उसके पीछे खड़ा हो।हवा भारी हो गई।सांस रुकने लगी।धीरे-धीरे उसने गर्दन घुमाई।और उसने उसे देखा।एक छाया… दीवार के कोने में खड़ी थी।बिना आकार की, पर फिर भी इंसानी आकृति जैसी।बिना चेहरे की, पर फिर भी आँखों वाली।बिना हिलने-डुलने के, पर फिर भी साँस लेती हुई सी।वेदिका के पैरों तले जमीन खिसक गई।उसने कई बार डरावनी फिल्में देखी थीं, लेकिन यह अनुभव उनमें से किसी जैसा नहीं था। यह डर नहीं था—यह कुछ और था, कुछ ऐसा जो उसकी नसों में एक गहरी पहचान जैसा महसूस होता था।जैसे वह छाया उससे बहुत परिचित हो।छाया एक कदम आगे बढ़ी।कमरे की हवा मानो ठंडी हो गई।लाइट फ्लिकर करने लगी।वेदिका पीछे हटते हुए दीवार से जा टकराई।उसके सीने में धड़कन तेज हो गई।छाया उसके सामने रुक गई, और एक पल के लिए ऐसा लगा कि उसने फुसफुसाकर उसका नाम कहा—“वेदिका…”उसकी रीढ़ में बिजली सी दौड़ गई।यह आवाज़ किसी और की नहीं, उसकी खुद की जैसी थी—लेकिन गहरी, भारी, और कहीं ज्यादा प्राचीन।वेदिका के मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी।छाया धीरे से उसके हाथ में पकड़ी किताब की ओर झुकी।किताब खुद से खुली।दूसरे पन्ने पर लिखा था—“एक बार जागरण शुरू हो जाए, तो छाया–सिंहासन अपना उत्तराधिकारी खोज लेता है।”वेदिका की आँखें फैल गईं।सांसें उखड़ने लगीं।“म… मैं कौन हूँ…?”उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी, लेकिन उस अंधेरे में साफ सुनाई दी।छाया ने कुछ नहीं कहा।बस धीरे-धीरे पीछे हटने लगी।और फिर अचानक… उसने हाथ बढ़ाया।छाया के हाथ का आकार इंसान जैसा नहीं था।उंगलियाँ पतली, लंबी, और धुंधले धुएँ जैसी।वेदिका ने डर से अपना हाथ पीछे खींचा—पर तभी कुछ हुआ।किताब चमक उठी।चमक भीतर से निकलने लगी—जैसे किसी ने सदियों पुरानी मुहर तोड़ दी हो।छाया एक झटके में हवा में उछली और किताब के अंदर खिंचती चली गई—चिल्लाती हुई, मुड़ती हुई, टूटती हुई।स्टोररूम हिलने लगा।लाइट्स बुझने लगीं।दरवाज़ा अपने आप खुल गया और वेदिका, किताब सीने से चिपकाए, बाहर भागी।जैसे ही वह दालान में पहुँची, सब शांत हो गया।लाइब्रेरी बिल्कुल सामान्य।जैसे कुछ हुआ ही न हो।पर उसके भीतर कुछ हमेशा के लिए बदल चुका था।वह बाहर निकलने ही वाली थी कि उसे टेबल पर एक पुरानी रबर-बैंड में बंधी चिट्ठी दिखी।वही पुराने ज़माने का, हाथ से लिखा हुआ खत।उस पर उसका नाम लिखा था—“वेदिका चौहान”काँपते हाथों से उसने खत खोला।अंदर सिर्फ एक लाइन लिखी थी—“तुम्हें लगता है तुम साधारण हो… पर यह दुनिया कभी साधारण उत्तराधिकारी को स्वीकार नहीं करती।”नीचे हस्ताक्षर था—“—वह, जो छाया में प्रतीक्षा कर रहा है।”वेदिका के होंठ सूख गए।उसका दिल एक पल के लिए रुक सा गया।और तभी…लाइब्रेरी के बाहर एक कार रुकी।काला शीशा।काला गाड़ी।और उसमें से एक आदमी उतरा, जिसने सीधे लाइब्रेरी की ओर देखा—मानो वह वेदिका को पहचानता हो, वर्षों से तलाश रहा हो।आदमी ने धीरे से कहा—“देर हो गई, महारानी।”वेदिका के मुँह से आवाज़ नहीं निकली।