विकसित भारत हमारा सामूहिक संकल्प in Hindi Anything by Rajesh Maheshwari books and stories PDF | विकसित भारत हमारा सामूहिक संकल्प

Featured Books
  • पडद्याआडचे सूत्रधार - 1

    जशी आपल्या पृथ्वीवर जैव विविधता आहे तशी कुठेतरी, कोणत्यातरी...

  • मी आणि माझे अहसास - 125

    शोधा असे दृश्य शोधा जे आत्म्याला शांती देऊ शकेल. एक असे घर श...

  • सवाष्ण

    आज जत्रेचा पाचवा दिवस होता आणि त्यात रात्री झालेला पाऊस. सगळ...

  • My Lovely Wife

    अनाथ इशू ला 5 वर्षाची असताना,,शहरातील सर्वात श्रीमंत असणाऱ्य...

  • हेल्लो

    सायली आणि निशात…निशात हा खूप साधा-सरळ मुलगा. कुणालाही उगाच ए...

Categories
Share

विकसित भारत हमारा सामूहिक संकल्प

विकसित भारत हमारा सामूहिक संकल्प

भारतीय परम्परा में प्राचीन काल से कहा जाता रहा है कि एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति। इस विचार ने चर्चा की एक मूल्यवान परंपरा और जीवन विषयक विभिन्न विचारों की स्वीकृति के द्वार खोल दिए है, और उसकी पूर्ण स्वीकार्यता भी व्यक्त की है। इसलिए 125 वर्ष पहले स्वामी विवेकानंद ने गर्व से यह घोषणा की थी कि हमारा दर्शन सहिष्णुता से आगे बढकर, हम सत्य तक पहुँचने के सभी मार्गों को स्वीकार करते है। भारत की यह युगों पुरानी प्राचीन परंपरा जीवन के सनातन दृष्टिकोण से उत्पन्न होती है जो आध्यात्मिकता पर आधारित है और इसलिए एकात्म और समग्र है। भारत के लोगों द्वारा इसका पालन आदिकाल से किया जाता रहा है। भारत का इतिहास विचारों और आंकलनों के इस आदान प्रदान के उदाहरणों से भरा हुआ है।

विकास के बारे में पश्चिम की अलग अवधारणा है और हमारी अलग कल्पना है। हमें विकास की अनुकूल अवधारणा खडी करनी पडेगीं। अंधानुकरण करके लोग जिन समस्याओं में फंस गए है उनमें हम क्यों फंसे ? हम उसके उत्तर खोजें। हमें उसमें फंसना नही है। आज दुनिया सबके विकास के साथ समन्वित और संतुलित विकास की बात कर रही है, सस्टेन्बल डेवलपमेंट की बात कर रही है। हमारे पास पहले से ही यह सब विद्यमान है। हमने भूतकाल में अपने जीवन का उदाहरण प्रस्तुत किया है। हमारी क्षमता है, हम आधुनिकतम दुनिया के लिए उपयुक्त मॉडल खडा कर सकते है। हमें उस दिशा में सोचना चाहिए। अर्थ का जीवन में मर्यादा से अधिक प्रधान पद आने से अनेक समस्याएँ खडी हो गई। हम अर्थ (आर्थिक कामों) को अनुशासन के दायरे में चलाते है। कमाई से विरोध नही लेकिन कमाई सब कुछ नही। कमाओ जी भर के कमाओ लेकिन दिल खोलकर बाँटों। यह मुख्य बात है। कमाने से ज्यादा, कमाई का उपयोग कैसे करना यह सीखना होगा। सक्सेफुल जीवन, मीनिंगफुल जीवन भी होना चाहिए।

मैं एक ही उदारण दूंगा। जापान के बारे में एक पुस्तक लिखी गई द इन्क्रेडिबल जापानीज्। जापान उस समय दुनिया के बाजारों का राजा था। उस समय जापान के बाजारों का अध्ययन दो समाजशास्त्री और दो अर्थशास्त्रीयों ने मिलकर किया और एक पुस्तक लिखी। पुस्तक पढने लायक है। उसके अंतिम पृष्ठ पर उन्होंने नौ निष्कर्ष दिए है उनमें से पहले पांच निष्कर्षों का संबंध अर्थशास्त्र से नही है। उन्होंने लिखा है कि जापान के लोग अनुशासित है इसलिए इतने प्रगतिशील है। दूसरी बात जापान के लोग जब अपने हित का विचार करते है तो अपने अकेले के हित का विचार नही करते, वे अपने गांव की भलाई सोचकर उसकी योजना करते है। तीसरा निष्कर्ष है कि जापान के लोग अपने देश के लिए किसी भी प्रकार का साहस करने के लिए सदा तैयार रहते है। चौथा जापान के लोग अपने देश के लिए किसी भी प्रकार का त्याग करने के लिए तैयार रहते है और पांचवां वे अपने देश का हर काम उत्कृष्ट हो इसकी चिंता करते है।

हमें भी अपने समाज में यहीं संस्कार भरने हैं। इसी काम को करना है। इसलिए हम मानते है कि संपूर्ण समाज को संगठित होना चाहिए और प्रामाणिकता से, निस्वार्थ बुद्धि से, अपनी अपनी जगह छोटे बडे दायरे में देश हित में काम करने वाले सबका योगदान है। जब संपूर्ण समाज ऐसे भाव से अनुप्राणित होगा तब देश का भाग्य बदलेगा। नही तो कुछ दिन अच्छा चलेगा बाद में फिर से गिरावट आएगी। प्रामाणिकता से जो कोई देश हित में उद्यम करता है, उसका उद्यम सफल हो, ऐसा समाज निर्माण करना आवश्यक है। वी हैव कम टू फुलफिल नॉट टू डिस्ट्राय। सब सद् हितैषी लोगों के सब उद्यम सफल होते रहें इसके लिए समाज की व्यवस्था करना है। हम एक ऐसे विकास के सपने को देखते है जो सर्वांगीण हो। विकास वह हो जो सर्व समावेश हो, विकास वह हो जो सर्व स्पर्शी हो, ऐसा ना हो कि देश के एक कोने में विकास हो रहा है और बाकी सब जगह पर वैसे के वैसे ही रहें।

किसी भी देश की प्रगति की नींव उसकी शिक्षा प्रणाली होती है। एक मजबूत और प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए एक सुशिक्षित आबादी का होना आवश्यक है। शिक्षा से लोगों की उत्पादकता, रचनात्मकता तथा नवाचार प्रवृत्ति बढ़ती है। इससे देश की उद्यमशीलता और तकनीकी प्रगति को बढ़ावा मिलता है। शिक्षा ही वह शस्त्र है जिससे देश में व्याप्त अशिक्षा, गरीबी एवं बेरोजगारी जैसी अनेक सामाजिक कमजोरियों को समाप्त कर आर्थिक विकास को गति प्रदान की जा सकती है। शिक्षा व्यक्ति में कौशल एवं क्षमताओं का विकास कर देश के लिए बेहतर मानव संसाधन को तैयार करने में सहायक होती है। शिक्षा व्यक्ति में संज्ञानात्मक कौशल को बढ़ाती है और समस्या-समाधान की क्षमताओं का विकास करती है। देश की अर्थव्यवस्था की उत्पादकता वहां के शिक्षित श्रमिकों के अनुपात से निकटता से जुड़ी हुई है। शिक्षित युवा वर्तमान समय में बदलते श्रम बाजारों में अधिक बेहतर कुशलता से कार्य करने में सक्षम होते हैं। शिक्षा से देश में न केवल सामाजिक गतिशीलता और आर्थिक प्रगति होती है बल्कि रोजगार के अनेक अवसर भी पैदा होते हैं। शिक्षा में उचित निवेश कर एक उच्च कुशल कार्यबल तैयार कर वर्तमान व्यवसायों की जरूरतों को बेहतर ढंग से पूरा कर विकसित राष्ट्र के लक्ष्य को शीघ्र हासिल किया जा सकता है। भारत को विकसित देश बनने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, आर्थिक नीतियों का सुदृढ़ीकरण, सामाजिक समानता, नवाचार को बढ़ावा, और पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करना होगा। यह देश के सन्तुलित व समग्र विकास के लिए आवश्यक है।
भारतवर्ष पुरातन काल से शिक्षा व ज्ञान का प्रमुख केंद्र रहा है। तक्षशिला, नालंदा विक्रमशिला, वल्लभी, उदंतपुरी, पुष्पगिरी, पाटलिपुत्र और शारदा पीठ अपनी पूरी गरिमा में विश्व के मनीषियों को आकर्षित करते थे। भारतीय सभ्यता तब अपने स्वर्णकालिक दौर से गुजर रही थी। उपनिषद् के ऋषि लोगों को अचंभित कर देने वाले प्रश्नों का उत्तर सहजता से दे रहे थे। भारतीय गणितज्ञ शून्य की महिमा को आत्मसात कर रहे थे तथा भारतीय खगोलविद सूर्य और उसके ग्रहों के बीच सम्बन्ध स्थापित कर रहे थे एवं उनके मध्य दूरी को माप रहे थे। भारतीय चिकित्सक आयुर्वेद को जीवन संजीविनी बनाने के लिए निरंतर प्रयासरत थे। शल्यचिकित्सा जैसे अभिनव प्रयोगों को पूरी संजीदगी से अंजाम दे रहे थे। जब वैदिक ऋषि “आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः” की घोषणा कर चारों ओर से शिक्षा व ज्ञान को आमंत्रित कर रहे थे। तब भारत एक उन्नत सभ्यता रूपी प्रज्वलित नक्षत्र की तरह विश्व पटल पर अपनी आभा विकीर्ण कर रहा था, जिसका तेज सदियों तक विद्यमान रहा। भारतीय अर्थव्यवस्था अपने चरम पर थी। विश्व बाजारों में भारतीय वस्तुओं की मांग बहुतायत से थी। उस समय भारत सोने, चांदी, मसाले और रेशम के व्यापार का प्रमुख केंद्र था। भारत को अतीत में ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में जाना जाता था। प्राचीन भारत में इसकी उर्वरा भूमि, प्रचुर प्राकृतिक संसाधन, विश्वभर में फैले व्यापारिक मार्ग भारत को आर्थिक रूप से एक संपन्न राष्ट्र बनाते थे। यहां की संस्कृतियों में कला, विज्ञान और साहित्य की भरपूर समृद्धि थी, जो विश्व भर से विद्वानों और यात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करती थी।
वर्तमान में भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था है जो विश्व में सबसे तीव्र आर्थिक विकास दर (लगभग 8.2 प्रतिशत) के साथ आगे बढ़ रही है। वर्तमान में भारत 3 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी के साथ विश्व की पांचवीं बड़ी इकोनॉमी बन चुका है तथा वर्ष 2027 तक इसके अमेरिका और चीन के बाद 5 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी के साथ विश्व की तीसरी बड़ी इकोनॉमी होने का अनुमान है। आज भी भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है जिस पर लगभग 50 प्रतिशत आबादी अपने जीवनयापन हेतु निर्भर है। उद्योग और सेवा क्षेत्र भी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। आईटी उद्योगों ने विश्व स्तर पर भारत की पहचान बनाई है। इसके अलावा सोलर एनर्जी और नवाचार में निवेश से कृषि और उद्योगों में सुधार की संभावनाएं बढ़ी हैं। इसके बाद भी भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए केवल 7-8 प्रतिशत की वार्षिक विकास दर काफी नहीं कही जा सकती है। वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत की आर्थिक विकास दर 8.2 प्रतिशत की रही है एवं प्रति व्यक्ति आय लगभग 2,300 अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष है। किसी भी देश को विकसित राष्ट्र की श्रेणी में तभी शामिल किया जाता है जब उस देश के नागरिकों की प्रति व्यक्ति आय 13,000 अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष के आस पास हो। इस दृष्टि से भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए भारतीय नागरिकों की औसत आय लगभग 8 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ानी होगी। इसी प्रकार यदि भारत का सकल घरेलू उत्पाद भी यदि 8 प्रतिशत के आसपास प्रतिवर्ष बढ़ता है तब वर्ष 2047 तक भारत एक विकसित राष्ट्र निश्चित रूप से बन सकता है, परंतु इसके लिए भारत में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को और अधिक गति देनी होगी जिसमें शिक्षा व शिक्षित युवा अहम् भूमिका निभा सकते हैं। आज भारत के नागरिकों की औसत आयु केवल 29 वर्ष है जो विश्व की 10 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे कम है। यह भारत के लिए यह लाभदायक स्थिति है परंतु भारत इस स्थिति का लाभ वर्तमान में शिक्षा व कुशलता के कमी के कारण नहीं उठा पा रहा है।
विकसित भारत का लक्ष्य प्राप्त करने में भारत के सम्मुख अनेक समस्याएं एवं चुनौतियां हैं जैसे -
जनसंख्या प्रबंधनः हमारी विशाल जनसंख्या का देश के संसाधनों पर दबाव पड़ता है। संतुलित विकास सुनिश्चित करने के लिए सतत् जनसंख्या प्रबंधन रणनीतियां अपनाना आवश्यक है।
असमानता और सामाजिक न्यायः देश की एक बड़ी समस्या सामाजिक व आर्थिक असमानता रही है। इस अंतर को दूर करने के लिए लक्षित नीतियों की आवश्यकता है जो हाशिए पर पड़े समुदाय का उत्थान कर सामाजिक न्याय को बढ़ावा दे।
ग्रामीण भारत का सामाजिक आर्थिक समावेशनः ग्रामीण क्षेत्र आज भी अपर्याप्त बुनियादी ढांचे, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक सीमित पहुंच और स्वास्थ्य सेवा की असमानताओं से ग्रस्त है। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में संतुलित विकास प्राप्त करना आज किसी चुनौती से कम नहीं है।
शिक्षा सुधारः गुणवत्तापूर्ण शिक्षा विकास की आधारशिला है। भारत को ऐसे शैक्षिक सुधारों की आवश्यकता है जो पहुंच और गुणवत्ता दोनों में वृद्धि करें। इस दिशा में व्यावसायिक प्रशिक्षण और डिजिटल साक्षरता भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है।
कौशल विकास और रोजगारः विश्व आर्थिक मंच के अनुसार, आधे से अधिक भारतीय कामगारों को भविष्य की नौकरी बाजारों की मांगों को पूरा करने के लिए पुनः कौशल की आवश्यकता होगी। विकसित भारत लक्ष्य के लिए इस कौशल अंतर को समाप्त करना एक चुनौती है।
बुनियादी ढांचा और कनेक्टिविटीः हालांकि भारत ने बुनियादी ढांचे के विकास में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है किंतु अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। परिवहन नेटवर्क का आधुनिकीकरण, विश्वसनीय बिजली आपूर्ति सुनिश्चित करना जरूरी है। सड़कें, रेलवे और हाई स्पीड इंटरनेट में निवेश की आवश्यकता है।
नौकरशाही और भ्रष्टाचारः प्रशासनिक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना, लालफीताशाही को कम करना और पारदर्शिता को बढ़ावा देना चिरस्थायी चुनौतियाँ हैं। सतत प्रगति के लिए कुशल शासन महत्त्वपूर्ण है।
निष्कर्ष
विकसित देश बनने की दिशा में भारत की यात्रा बहुआयामी है। यह मुख्य रूप से अपने निम्न जीवन प्रत्याशा और प्रति व्यक्ति आय के कारण भ्क्प् रैंक में पिछड़ा हुआ है, जिससे शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकारी व्यय को बढ़ाकर सुधारा जा सकता है। इसके लिए आर्थिक विकास, सामाजिक समावेश, पर्यावरण संरक्षण और दूरदर्शी नेतृत्व के बीच एक संतुलन की आवश्यकता है। दृढ़ संकल्प, रणनीतिक योजना और सामूहिक प्रयासों से हम अपने देश को प्रगति के एक प्रकाश स्तंभ में परिवर्तित कर सकते हैं। भारत में शिक्षा का तात्पर्य सिर्फ ज्ञान देना नहीं है, इसका अर्थ है राष्ट्र निर्माण। यह लाखों लोगों के मस्तिष्क और आकांक्षाओं को आकार देता है, देश को आगे बढ़ाता है। आर्थिक विकास, सामाजिक सामंजस्य और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देकर, शिक्षा भारत के राष्ट्र निर्माण के प्रयासों में एक शक्तिशाली उपकरण बनी हुई है। जबकि भारत अपनी आजादी के 100वें वर्ष की ओर बढ़ रहा है, राष्ट्र निर्माण में शिक्षा की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता। यह वह आधार है जिसके द्वारा अशिक्षा, गरीबी, अकुशलता, क्षेत्रीय असमानताएँ और लैंगिक अंतर जैसी चुनौतियों को समाप्त कर देश का उज्ज्वल विकसित भविष्य निर्मित किया जा सकता है।