कहानी - हँसते जख्म
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आज पहली बार धीर को खुशी के साथ पूरी तरह आत्मसंतुष्टि हो रही थी। हो भी क्यों न? आखिर उसने भी तो अपने माता-पिता -पिता को संघर्ष करते, अभावों में दिन काटते देखा है। लेकिन पिता की जिद ने दोनों बच्चों की पढ़ाई रुकने नहीं दिया।
धीर की पढ़ाई और बिटिया शील के सुखद भविष्य की उम्मीद को उन्होंने कभी मरने नहीं दिया। सामर्थ्य से अधिक काम करते। जबकि माँ दूसरों के घरों में चौका बर्तन करके पति का बोझ हल्का करने की कोशिश करती रहती।
पर ईश्वर को यह भी मंजूर नहीं था और एक दिन अचानक उसके पिता इस दुनिया से विदा हो गए। उस समय धीर ग्यारवीं और शील छठी कक्षा में थे। त्रयोदश संस्कार की औपचारिकता निभाने के दो दिन बाद उसने माँ से कहा - माँ! पापा तो अब रहे नहीं। तो क्यों न मैं पढ़ाई छोड़कर कुछ काम करूँ?
उसकी माँ ने समझाया - पर बेटा! तेरे पिता के सपनों का क्या होगा?
कुछ नहीं माँ! उसे शील पूरा करेगी। हम उसे खूब पढ़ाएंगे। धीर की माँ कुछ बोलती भी तो क्या? उसका मौन उसकी स्वीकृति जैसी थी।
अगले दिन से धीर दिहाड़ी मजदूरी करने लगा।
तीसरे दिन सुबह - सुबह धीर के स्कूल के प्रधानाचार्य आ पहुँचे और उसके स्कूल न आने का कारण जानना चाहा। तब शील की माँ ने अपनी व्यथा खोलकर रख दिया। प्रधानाचार्य ने उन्हें समझाया - देखो बहन जी! धीर पढ़ने में होशियार है। मैं और तो कुछ नहीं कर सकता, लेकिन जब तक मैं पद पर हूँ, आपके दोनों बच्चों की पढ़ाई रुकने नहीं दूँगा।
फिर अगले साल के बाद धीर कालेज में पहुँच जायेगा। मैं प्रयास करुँगा कि उसे छात्रवृति भी मिल जाय, साथ ही वह छोटे बच्चों को एक दो घंटे ट्यूशन पढ़ा लिया करेगा, तो आपका भार भी कुछ कम हो जायेगा। धीर की माँ ने हाथ जोड़ लिए।धीर ने आगे बढ़कर प्रधानाचार्य के पैर पकड़ लिए - गुरु जी यदि ऐसा हो सकता है, तो मैं जरूर पढ़ूंगा और अपनी बहन को भी पढ़ाऊँगा। तब शायद मेरे पापा का सपना भी जरूर पूरा हो जाएगा।
प्रधानाचार्य जी ने उसे उठाया और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा - देखो बेटा! अब तुम पर बड़ी जिम्मेदारी है, माँ, बहन का ध्यान रखो और पढ़ाई में जान लगा दो। मेरा विश्वास है कि तुम जरुर सफल होगे और बहन को भी एक अच्छा भविष्य दे सकोगे।
धीर की आंखों में आँसू आ गये। उसने हाथ जोड़कर कहा - गुरु जी! मैं अपनी माँ की सौगंध लेकर आप को विश्वास दिलाता हूँ कि मैं आपके विश्वास और पापा के सपने को मरने नहीं दूँगा।
उस दिन से आज तक धीर निरंतर लग्न से पढ़ाई में जुट गया। इण्टर प्रथम श्रेणी में पास हुआ।
प्रधानाचार्य जी ने कालेज में उसका प्रवेश करा दिया और प्राचार्य से मिलकर पूरी बात बताई, जिसका परिणाम यह हुआ कि बिना किसी असुविधा के धीर को किताबें मिल गई और समयानुसार आवेदन के बाद उसको छात्रवृत्ति की सुविधा भी।
अपने नाम के अनुरूप धीर पूरी तन्मयता से पढ़ाई करता, बहन की पढ़ाई और जरुरतों का ध्यान रखता, साथ ही ट्यूशन पढ़ाकर माँ का बोझ कम करने का भी प्रयास करता।
परिस्थितियों के अनुसार उसने खुद को ढाल लिया था और स्नातक होने के साथ अपने एक दोस्त की मदद से प्राइवेट जॉब भी करने लगा। स्नातकोत्तर की पढ़ाई प्राइवेट फ़ार्म भरकर पूरी करने के बाद सौभाग्य से उसे एक सरकारी विभाग में क्लर्क की नौकरी मिल गई।
इसकी खबर देने आज वह माँ बहन को लेकर प्रधानाचार्य जी के घर गया और खबर देने के साथ ही उनके पैरों में सिर रख दिया। उन्होंने उसे उठाया, हौसला अफजाई की और कहा - मुझे तुम पर गर्व है बेटा, लेकिन तुम्हारी असली परीक्षा होनी शेष है। जिस दिन तुम अपनी बहन को उसकी मंजिल तक पहुँचा दोगे, उस दिन मुझे लगेगा कि मेरी कोशिश का पूरा फल मिल गया।
फिर नसीहत देते हुए कहा कि मेहनत और ईमानदारी से नौकरी करना, माँ को आराम देना और अपने वादे को याद रखना। तुम्हारे पिता की नजर आज भी तुम पर है। धीर की माँ ने हाथ जोड़कर कहा - साहब, ये आज जो कुछ है, आपकी वजह से है। मेरे बच्चों के सिर पर अपना हाथ मत हटाइएगा।
प्रधानाचार्य जी ने कहा - नहीं बहन जी! यह सब ईश्वर की कृपा और बच्चों की मेहनत और आपके धैर्य का फल है। मैं तो निमित्त मात्र हूँ।
फिर शील से पूछा - तुम्हारा क्या विचार है बेटा?
शील ने सिर झुकाकर उत्तर दिया - मैं आफीसर बनना चाहती हूँ गुरु जी।
शाबाश बेटा! मेहनत से पढ़ाई करो, सफलता जरूर मिलेगी।
धीर एक बार फिर प्रधानाचार्य जी को आश्वस्त करने के साथ अपने नये लक्ष्य के साथ माँ और बहन के साथ वापस घर की ओर चल दिया।
रास्ते भर वह माँ, बहन और अपने जीवन के ज़ख्मों को याद करते हुए सोच रहा था कि हँसते जख्मों की मंज़िल का सुखद परिणाम शायद ऐसा ही होता है।
सुधीर श्रीवास्तव