Husband and Wife: The Spiritual Science of Love in Hindi Moral Stories by Hemant Bhangawa books and stories PDF | पति - पत्नी : प्रेम का आध्यात्मिक विज्ञान

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पति - पत्नी : प्रेम का आध्यात्मिक विज्ञान

इस अध्याय में प्रस्तुत विचार किसी भी पति-पत्नी के जीवन को अधिक प्रेममय, शांत और आध्यात्मिक बनाने के लिए लिखे गए हैं। जिनके हृदय में भगवान का नाम बसता है, उनके रिश्तों में स्वाभाविक रूप से प्रकाश फैलता है। आइए - गृहस्थ जीवन के इस दिव्य रहस्य को समझे -

     राधे राधे

1. गृहस्थ जीवनः संसार का सबसे पवित्र आश्रम    

ईश्वर की रचना में मनुष्य जन्म ही सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण है, जिसमे प्राणी स्वयं ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग बनाता है। जिसने इस मनुष्य जीवन के महत्व को समझ लिया वो इस भवसागर से हमेशा हमेशा के लिए तर जाएगा । भगवान ने चार आश्रम बनाए – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। परंतु कम ही लोग जानते हैं कि सबसे कठिन और सबसे पवित्र आश्रम गृहस्थ है।

क्यों ?

क्योंकि-

• यहीं सेवा की परीक्षा है

• यहीं त्याग की परीक्षा है

• यहीं धैर्य की परीक्षा है

और यहीं प्रेम को साधना में बदलने का अवसर है गृहस्थ केवल पति-पत्नी का साथ नहीं, बल्कि दो आत्माओं की वह यात्रा है जहाँ दोनों भगवान की ओर बढ़ते हैं। गृहस्थ जीवन कोई साधारण जीवन नहीं... यह वही जीवन है जिसे स्वयं भगवान ने सबसे बड़ा आश्रम कहा है। क्योंकि इसी में प्रेम की परीक्षा भी है, और प्रेम की पूर्णता भी। प्रेमानंद जी महाराज ने कहा है - "गृहस्थ वही सच्चा है, जो अपने जीवनसाथी को दुख न दे और उसे भगवान की तरह मानकर सेवा करे।"

2. पति-पत्नी का संबंध : एक दिव्य मिलन

जब एक आत्मा को उसके कर्मों, संस्कारों, स्वभाव और आध्यात्मिक स्तर के अनुसार दूसरा साथी दिया जाता है, वह संयोग नहीं होता - वह भगवान की बनाई हुई योजना होती है। पति-पत्नी शरीर से नहीं जुड़ते, वे कम से जुड़े होते हैं, और प्रेम से मुक्ति-पथ की ओर चलते हैं। पति-पत्नी का संबंध केवल दो मनुष्यों का मिलन नहीं होता यह दो आत्माओं का वह संगम है जिसे ईश्वर स्वयं जोड़ते हैं। रिश्ता तभी टिकता है जब प्रेम भगवान के चरणों तक पहुँच जाए। जहाँ भक्ति है, वहाँ कलह अपने आप पिघल जाती है। जब पति पत्नी को “मेरी जिम्मेदारी" नहीं बल्कि "मेरी आत्मा को आगे बढ़ाने वाली साथी" मानता है... और पत्नी पति को "मेरी इच्छा पूरी करने वाला पुरुष" नहीं बल्कि "मेरे जीवन का आध्यात्मिक साथी" मानती है... तब यह संबंध जगत का नहीं, यह आध्यात्मिक योग बन जाता है। पति-पत्नी को संसार में एक-दूसरे की सेवा के लिए भेजा जाता है। यह सेवा केवल बाहरी नहीं होती, यह सेवा आत्मा की होती है। जब पति पत्नी को अपने जीवन की संगिनी मानता है, और पत्नी पति को जीवन मार्ग का संरक्षक मानती है, तब यह रिश्ता शरीर से ऊपर उठकर साधना बन जाता है। जिस घर में पति-पत्नी एक-दूसरे को भगवान की देन समझकर चलते हैं, वह घर साधारण घर नहीं रहता, वह एक छोटा - सा वृंदावन बन जाता है। पति - पत्नी एक दूसरे पर बोझ नही अपितु एक दूसरे की आत्मा है। इसलिए पत्नी को अर्धांगिनी कहा गया है। इसके बिना जीवन यात्रा सम्भव नही है। अगर पुरूष चाहे तो भी पत्नी के बिना जीवन का वो आनंद नही ले सकता जिस आनंद के लिए परमात्मा ने जन्म दिया है।

3. प्रेम क्या है ? और क्या नहीं ?

प्रेमः

• शब्द नहीं

• प्रदर्शन नहीं

• शरीर नहीं

• आकर्षण नहीं

प्रेम है -

• मन का विनम्र होना

• हृदय का पवित्र होना

• स्वभाव का निस्वार्थ होना

• और आत्मा का शांत होना 

सच्चा प्रेम वह है जो तुम्हें भगवान की ओर खींच ले जाए। वही प्रेम पति - पत्नी के बीच होना चाहिए। प्रेम वह नहीं जो शब्दों में हो, प्रेम वह है जो नजरों में सम्मान हो, मन में विश्वास हो, और आचरण में सेवा हो । जहाँ प्यार में 'मेरा तेरा' कम होकर 'हमारा' बढ़ जाए, वहीं प्रेम का असली जन्म होता है। गृहस्थ जीवन को सुखमय एवं आध्यात्मिक बनाने का एक माध्यम है - पति की पत्नीव्रता एवं पत्नी की पतिव्रता होना, अर्थात दोनों एक दूसरे से परिपूर्ण रहे। किसी और की चाह मात्र भी इस सुखमय दांपत्य जीवन की फसल को नष्ठ करने वाला कीड़ा बन जाएगा।

4. क्यों झगड़े होते हैं ? ( सबसे गहरी बात )

झगड़े दो कारणों से नहीं होते -

• प्यार कम होने से

• भाग्य खराब होने से

झगड़े होते हैं केवल अपेक्षाओं से। पत्नी सोचती है - "वह मेरे मन को जाने।" पति सोचता है - "वह मेरे मन को समझे।" लेकिन दोनों की मन की भाषा अलग होती है। झगड़े बोल कर नहीं होते, मन की मौन शिकायतों से होते हैं। जिस दिन पति-पत्नी यह समझ लेते हैं कि - "हम एक-दूसरे को बदलने नहीं आए, बल्कि एक-दूसरे को पूर्ण करने आए हैं।" उस दिन से झगड़े समाप्त... और प्रेम आरंभ । झगड़े इच्छा से नहीं होते, झगड़े अपेक्षा से होते हैं। जब हम यह सोचते हैं कि "वह ऐसा क्यों नहीं करता?" या "वह मेरी तरह क्यों नहीं सोचती?" तभी दूरी आती है। लेकिन जिस दिन पति-पत्नी यह समझ जाएँ कि - "हम एक - दूसरे को बदलने नहीं, एक- दूसरे को समझने के लिए आए हैं।" वहीं से प्रेम खिलने लगता है। झगड़े उसी क्षण से टूटते हैं जहाँ मन में स्वार्थ घुलता है। खुद के पक्ष को ही सही रखना भी इस रिश्ते की नींव में दरार पैदा करता है। इसलिए पति - पत्नी स्वयं के लिए निष्पक्ष होकर प्रेम को प्राथमिकता दे।

5. जब रिश्ता भक्ति बन जाए

प्रेमानंद जी महाराज कहते हैं- "जहाँ घर में भगवान का नाम है, वहाँ प्रेम टिकता ही है।" पति-पत्नी यदि प्रतिदिन - एक साथ बैठकर "राधे राधे" जपें

• एक साथ प्रसाद ग्रहण करें

• एक साथ प्रार्थना करें

• एक साथ मंदिर जाएँ

तो उनका रिश्ता केवल "गृहस्थ" नहीं रह जाता, वह गृहस्थी में ब्रजभाव बन जाता है। जब पति पत्नी के माथे पर हाथ रखकर प्रेम से कह दे - "तुम भगवान की भेजी हुई लक्ष्मी हो।” और पत्नी धीरे से बोल दे - "तुम मेरे नारायण हो।" वह घर धर्मशाला नहीं, वृंदावन बन जाता है।

6. पति - पत्नी और अहंकार

अहंकार रिश्ते का सबसे बड़ा दुश्मन है। अहंकार कहता है - "तुम गलत हो, मैं सही हूँ।" प्रेम कहता है - "तुम ठीक रहो, मुझे कोई फर्क नहीं।" भगवान स्वयं कहते हैं - "जहाँ अहंकार है, वहाँ मैं नहीं।" इसलिए: 

• पति अगर गलत हो जाए - पत्नी उसे प्रेम से सही करे

• पत्नी अगर गलत हो जाए - पति उसे धैर्य से समझाए क्योंकि पति-पत्नी शत्रु नहीं, एक-दूसरे की कमियों के उपचारक हैं। जहाँ अहंकार है, वहाँ प्रेम नहीं। जहाँ प्रेम है, वहाँ अहंकार नहीं। पति अगर अपने अहंकार को त्यागकर पत्नी के सुख को प्राथमिकता दे और पत्नी अपने मन के अभिमान को छोड़कर पति का साथ दे, तो दोनों के बीच के अंतर मिटने लगते हैं। धीरे-धीरे यह रिश्ता स्वार्थ से सेवा की ओर, और सेवा से साधना की ओर बढ़ जाता है। कई बार हम देखते है कि पति स्वयं को सर्वोच्च मानकर पत्नी की आजादी में बाध्यता प्रदान करता है। पत्नी जीवन पर अपना अधिकार समझता है, परन्तु ये निश्चित ही गलत प्रतीत होता है। पति को चाहिए कि जीवन को रथ समझे, स्वयं को रथ का एक पहिया और पत्नी को दूसरा पहिया, तभी ये जीवन सार्थक होगा और इस रथ को हांकने वाले स्वयं भगवान है।

7. सेवाः गृहस्थ का सबसे बड़ा नियम 

गृहस्थ जीवन का मूल आधार है - सेवा ।

• पत्नी का श्रम = सेवा

• पति का समर्पण = सेवा

• बच्चों का पालन = सेवा

• घर की रक्षा = सेवा

• एक-दूसरे का मन रखना = सेवा

जब सेवा में प्रेम जोड़ दिया जाए, तो वह भक्ति बन जाती है। प्रेमानंद जी महाराज का सुंदर वचन है: "जिस घर में भगवान के नाम का भाव है, वहाँ बर्तन धोना भी पूजा है और खाना बनाना भी।" पति-पत्नी अगर अपने घर के कामों को "यज्ञ" समझकर करें - खाना बनाना प्रसाद बन जाता है, घर संभालना सेवा बन जाता है और एक-दूसरे का साथ, भक्ति बन जाती है। यही गृहस्थ की आध्यात्मिक सुंदरता है। जो अपने जीवनसाथी को दुख न पहुँचाए, जो अपने घर को मंदिर बनाकर रखे, जो अपनी पत्नी/पति को भगवान द्वारा भेजा साथी समझे और जो छोटे-छोटे त्यागों से प्रेम को बड़ा बनाता जाए, ऐसा गृहस्थ ही ईश्वर का प्रिय कहलाता है।

8. संस्कार: रिश्ते की जड़ 

पत्नी घर का मंदिर है, पति घर का दीपक।

एक घर तभी चमकता है जब -

• संस्कार हो

• सम्मान हो

• सत्य हो

• संयम हो

पति पत्नी को माँ सरस्वती का रूप मानकर बोले - तो उसके शब्द मधुर हो जाएँ। पत्नी पति को भगवान का अंश मानकर देखे - तो उसका व्यवहार दिव्य हो जाए।

9. मन का शांति-स्थान: जीवनसाथी का हृदय

पत्नी का मन ऐसा कोमल होता है कि वह पति का एक वचन जीवन भर याद रखती है। पति का मन ऐसा सरल होता है कि वह पत्नी के एक स्पर्श से शांत हो जाता है, इसलिए पति को पत्नी के हृदय में चोट नहीं पहुँचानी चाहिए। और पत्नी को पति के सम्मान में कमी नहीं आने देना चाहिए। 

 10. जब घर में आधुनिकता आती है, पर आध्यात्मिकता नहीं


कपड़े आधुनिक हो जाएँ, भोजन आधुनिक हो जाए, परिवार आधुनिक हो जाए - इससे रिश्ते नहीं बिगड़ते । रिश्ते तब बिगड़ते हैं जब -

• भाषा कठोर हो जाए

• हृदय कठोर हो जाए

• संसार की नकल शुरू हो जाए

• और घर से भगवान का भाव निकल जाए

आधुनिक जीवन + आध्यात्मिक हृदय = सबसे सफल गृहस्थ

जब पति-पत्नी का रिश्ता केवल "साथ " न होकर, एक- दूसरे की ऊँचाई बनने लगे, जब दोनों एक-दूसरे को आत्मिक ताकत देने लगें, जब वे साथ बैठकर भगवान का नाम ले, तो यह रिश्ता संसार का नहीं रह जाता, इसमें दिव्यता उतर आती है। तब यह प्रेम बन जाता है, कृष्ण के प्रेम जैसा – निर्मल, पवित्र, शांत ।

11. एक-दूसरे के घावों को भरना

पति-पत्नी को एक-दूसरे के

• डर

• पीड़ा

• दर्द

• कमजोरी

• चिंता

सब समझनी चाहिए, क्योंकि पत्नी का हृदय पति की दुनिया है और पति का हृदय पत्नी का मंदिर।

12. राधा-कृष्ण का गुण गृहस्थ में कैसे लाएँ

राधा-कृष्ण का प्रेम गूढ़ है - भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है। पति राधा नहीं बन सकता, पत्नी कृष्ण नहीं बन सकती। लेकिन...

• पति राधा का त्याग अपना सकता है

• पत्नी कृष्ण की करुणा अपना सकती है

घर में राधे राधे  का नाम हो, तो रिश्ता कभी फीका नहीं पड़ता।

13. क्षमाः प्रेम का सर्वोच्च रूप

दो बातें कभी मत भूलना -

1. जिसने क्षमा करना सीख लिया, उसने प्रेम को जीत लिया।

2. जिसने अपमान सह लिया, वह भगवान के बहुत निकट होता है।

पति-पत्नी का रिश्ता क्षमा के बिना अधूरा है। जब दोनों को रहना एक दूसरे के समीप है, एक दूसरे के साथ जीवन जीना है तो मन मे किसी बात को रखकर गृहस्थ जीवन को बर्बाद क्यों करना। इसलिए प्रत्येक बात को एक दूसरे के समीप बैठकर सुलझा लेना ही दाम्पत्य धर्म है।

14. वाणी: रिश्ते की नींव

दुनिया की सबसे पवित्र वस्तु है - वचन । पत्नी को चाहिए कि पति से मधुर भाषा बोले। पति को चाहिए कि पत्नी से सम्मानपूर्वक बोले। कठोर शब्द सबसे बड़े युद्ध का कारण बन जाते हैं और मधुर शब्द सबसे बड़े घाव भर देते हैं।

15. पत्नी लक्ष्मी है - यह क्यों कहा ?

पत्नी उस घर में प्रवेश करती है, जहाँ उसका कोई खून नहीं होता। लेकिन वह :

• खाना बनाती है

• काम करती है

• बच्चे जनती है

• घर सँभालती है

यह त्याग केवल लक्ष्मी का होता है। इसलिए पत्नी को देवी मानना धर्म नहीं... कृतज्ञता है।

16. पति नारायण है - यह क्यों कहा ? 

पतिः

• रक्षा करता है

• घर चलाता है

• पत्नी की सुरक्षा करता है

• परिवार की ढाल बनता है

यह शक्ति केवल नारायण की है। इसलिए पति को ईश्वर का अंश मानना अंधविश्वास नहीं... सम्मान है।

17. गृहस्थी को वृंदावन कैसे बनाएं 

बहुत सरल

• सुबह Radhe-Radhe बोलकर उठो

• एक-दूसरे को स्मित दो

• भोजन से पहले भगवान को प्रणाम

• रोज़ 5 मिनट जप

• कभी कठोर भाषा नहीं

• और रात को सोने से पहले एक बार "धन्यवाद"

रात को सोने से तनिक पूर्व पत्नी ये समझे कि मेरे पति पूरे दिन से थके हुवे है तो तनिक सेवा भाव कर दु और दिल की तकलीफ और पूरे दिन की दिनचर्या को मन लगाकर सुनु  और पति को भी चाहिए कि घर के कार्यो को सरल ना समझकर बहुमूल्य एवं मेहनती समझे जिससे पत्नी के भावों को समझ सके और उसकी थकान दूर करे। इस समय पर एक दूसरे बिना किसी कारण ढूंढे एक दूसरे से पूरे दिन के लिए क्षमा मांग ले तो ये गृहस्थ जीवन में सोने पर सुहागा हो जाएगा।

बस इतना करो – घर वृंदावन बन जाएगा।

18. एक-दूसरे का हाथ पकड़े रहना

कष्ट के समय एक दूसरे साथ देना ही दोनों की आत्मा को और समीप लाता है, चाहे फिर कष्ट भावनात्मक हो या शरीरिक। कष्ट के समय प्यार से बातों को सुनकर और प्रेमपूर्वक दिया गया जवाब भी रिश्ते में मिठास घोलता है और कष्ट के समय मे एक दूसरे को दूर करना सबसे बड़ी गलती साबित होती है। जीवन में कठिनाइयाँ आएँगी ही, लेकिन पति यदि बोले - "डरो मत, मैं हूँ।" और पत्नी कहे - "जो होगा, हम दोनों मिलकर देख लेंगे।" तो जीवन सुंदर हो जाता है।

19. जिस घर में प्रेम है, वहाँ भगवान हैं

यह अंतिम सत्य है - भगवान मूर्ति में उतने नहीं, जितने पति-पत्नी के प्रेम में उतरते हैं। जहाँ प्रेम पवित्र है, वहाँ भगवान स्थिर हो जाते हैं। जहां शांति है, मधुरता है, एक दूसरे को समझने और एक दूसरे के प्रति वफादारी है तो वहां निश्चित ही भगवान का निवास होता है।

20. अध्याय का सार : गृहस्थी एक तपस्या है

पति पत्नी से कहे - "तुम मेरा अभिमान नहीं, मेरी पूजा हो।" पत्नी पति से कहे - "तुम मेरे अधिकार नहीं, मेरे आराध्य हो।" तो रिश्ता टूटता नहीं, उसमें दिव्यता आती है। "जो जीवनसाथी को ईश्वर का रूप मानता है, ईश्वर उसे अपने हृदय में स्थान देते हैं।" गृहस्थ जीवन तब सफल होता है, जब पति-पत्नी एक-दूसरे की कमियों पर नहीं, एक-दूसरे की आत्मा पर ध्यान दें और जहाँ आत्मा देखी जाती है, वहाँ प्रेम कभी समाप्त नहीं होता।

लेखक परिचय

लेखक : हेमन्त भनगावा

राधे-राधे के मधुर नाम में डूबी हुई मेरी लेखनी का उद्देश्य केवल एक है - मानव हृदय को उस दिव्य प्रेम की ओर मोड़ना, जहाँ पति-पत्नी का संबंध भी सिर्फ संसार का बंधन न रहकर, एक आध्यात्मिक साधना, एक मंगलमय यात्रा और भगवान के चरणों तक ले जाने वाला प्रेम-मार्ग बन जाए। मैं अपना जीवन प्रेमानंद जी महाराज की शरण में पाकर धन्य मानता हूँ। उन्हीं की कृपा से प्राप्त ज्ञान, भजन- भाव और व्रज की सुगंध मेरी हर रचना में स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होती है। कृष्ण प्रेम की अनुभूति ने मुझे सिखाया है कि - रिश्ते निभाए नहीं जाते, साधे जाते हैं, और साधना वहीं पूर्ण होती है जहाँ अहंकार खत्म होकर निष्काम प्रेम जन्म लेता है। मेरी हर पंक्ति, हर शब्द, हर विचार पाठकों को यही संदेश देने के लिए है कि जीवन में प्रेम ही सर्वोच्च साधना है। यदि मेरी रचनाएँ किसी एक हृदय को भी भगवान के प्रेम से जोड़ सकें, तो मैं स्वयं को धन्य समझेंगा।

राधे-राधे