Anjan - 2 in Hindi Horror Stories by Raj Phulware books and stories PDF | अंजान - 2

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अंजान - 2

अंजान भाग 2

लेखक: राज फुलवरे

अध्याय एक — वापसी

रात फिर वही थी — बरसात, हवा, और वह सन्नाटा जो किसी अधूरी बात की तरह दीवारों में अटका हुआ था.

अजय की आँखें कई दिनों से ठीक से बंद नहीं हुई थीं.

कॉफी का कप मेज पर ठंडा पडा था, टीवी बंद था, और खिडकी से टपकती बूँदें जमीन पर गीले निशान बना रही थीं.

हर बार जब बिजली चमकती, वो एक पल को उस चेहरे को देखता —

वही भीगी हुई लडकी, सफेद कपडों में, काँपती हुई,

और फिर — आईने पर उभरते वे शब्द —



>“ थोडी देर रुकने आई थी.







उसकी रूह काँप जाती थी.

क्या यह सब सपना था या कोई सच्चाई?

हर बारिश उसे यह एहसास दिलाती कि वह फिर से आने वाली है.



उस रात भी बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी.

बंटी ऊपर सो चुका था, और अजय नीचे लिविंग Room में बैठा पुराने सीसीटीवी फुटेज देख रहा था —

उसी रात का, जब वो लडकी उसके घर आई थी.



स्क्रीन पर साफ दिख रहा था — वो दरवाजे पर आई, अंदर गई.

लेकिन वापस बाहर जाती हुई नहीं दिखी.



> अजय (धीरे से खुद से): ये कैसे हो सकता है. वो गई कहाँ?







वो कुर्सी से उठा. तभी हवा का तेज झोंका अंदर आया.

पर्दे फडफडाए, और खिडकी का शीशा खडक उठा.

अजय खिडकी बंद करने गया, लेकिन जैसे ही उसने बाहर झाँका —

वहीं. वही लडकी खडी थी.



भीगती हुई, सफेद कपडों में, शांत चेहरा,

और आँखों में एक दर्द जो शब्दों से भी गहरा था.



> अजय (काँपती आवाज में): त. तुम?



लडकी (धीरे से): डरो मत, अजय. मैं आई हूँ. अपनी कहानी बताने।







अजय के कदम पीछे हटे, पर उसके चेहरे पर डर नहीं था —

बस एक अनकही बेचैनी थी.



> कंकणी (मुस्कुराते हुए): मुझे अब किसी से बदला नहीं चाहिए. बस सच्चाई बतानी है।







कमरे में नमी घुल गई. बारिश की गंध, ठंडी हवा और उसका शांत स्वर —

सब कुछ किसी अधूरे गीत जैसा लग रहा था.



> अजय (धीरे से): तुम. कौन हो?



कंकणी: मेरा नाम कंकणी है. और मैं वही हूँ, जिसका हादसा तुम्हारी बिल्डिंग के बाजू वाली सडक पर हुआ था — फूलों की पेंटिंग वाली बिल्डिंग के नीचे.







अजय का चेहरा पीला पड गया.

वो वही सडक थी — जहाँ कुछ महीने पहले कार में आग लगी थी.



> अजय (साँस रोकते हुए): वो कार. वो हादसा. तुम.



कंकणी (धीरे से मुस्कुराते हुए): हाँ. वो मैं थी।







अजय सन्न रह गया.

कमरे में सिर्फ बारिश की आवाज थी.

कंकणी ने धीरे से कहा —



>“ बैठो अजय. मेरी कहानी लंबी है.













अध्याय दो — शुरुआत



अजय सोफे पर बैठा था.

वो उसके सामने, जैसे हवा में ही ठहरी हुई.

हर शब्द के साथ उसके चेहरे पर कभी दर्द, कभी दृढता झलक रही थी.



> कंकणी (धीरे से): मैं मुंबई में रहती थी. एक कॉरपोरेट कंपनी में काम करती थी — वेस्टर्न एग्जिक्युटिव्स प्राइवेट लिमिटेड.

बहुत मेहनत से यहाँ पहुँची थी मैं।







> अजय: परिवार में कौन था तुम्हारा?



कंकणी: मां घर पर थीं — बीमार, अकेली.

मामा जयद्रथ, जो नगर पालिका में काम करते थे, वही मदद करते थे.

हम उन पर बहुत भरोसा करते थे. शायद यही मेरी सबसे बडी भूल थी।







कंकणी की आँखें दूर कहीं देख रही थीं —

जैसे पुराने दिन फिर से सामने आ गए हों.









अध्याय तीन — कॉरपोरेट की सुबहें



सुबहें हमेशा जल्दी शुरू होती थीं.

ऑफिस में भाग- दौड, फाइलें, Presentation और डेडलाइन्स.

कंकणी नीली शर्ट में थी, बालों को बाँधा हुआ, चेहरे पर आत्मविश्वास.



> रिया (उसकी सहकर्मी): कंकी! तेरा Presentation धमाकेदार था।



कंकणी (मुस्कुराते हुए): बस टारगेट पूरा करना है, फिर प्रमोशन मिलेगा।



तन्वी (मजाक में): फिर तू हमें पहचानोगी नहीं, मैडम कंकणी!







तीनों हँस पडीं.

कंकणी खुश थी — उसकी मेहनत अब रंग ला रही थी.

उसने हाल ही में एक सिल्वर iबीस कार बुक की थी.

वो उसके सपनों की पहली गाडी थी.



लेकिन उसी शाम —

फोन की घंटी बजी.



> मां (कमजोर आवाज में): बेटी, आज जल्दी आ जाना. मामा आए हैं. कुछ जरूरी बात करनी है।



कंकणी (बिना शक के): ठीक है मां, छह बजे तक पहुँचती हूँ।







उसे क्या पता था — यह Call उसकी जिंदगी की आखिरी शांति भरी शाम होगी.









अध्याय चार — मामा और ठेकेदार



मुंबई के पुराने इलाके में बारिश के बाद कीचड और पानी फैला था.

कंकणी की कार गलियों में रुकती है.

वो छतरी लेकर सीढियाँ चढती है.



अंदर मां बैठी थीं — खाँसती हुई, और पास मामा जयद्रथ मोबाइल पर थे.

उनकी आवाज ऊँची थी, जैसे किसी सौदे की बात चल रही हो.



> मामा (फोन पर): थापर भाई, सब तय है. बस सिग्नेचर वाली फाइल भेज देना।



(हँसते हैं)“ कंकणी आ रही है. वही बोलेगी फाइनल।







कंकणी दरवाजे पर ही ठिठक गई.

उसके चेहरे पर अविश्वास था.



> कंकणी: मामा. मैं आ गई।



मामा (मुस्कुराते हुए): आ जा बिटिया, बैठो. तुम्हारी मां की तबियत ठीक नहीं थी।







कुछ ही देर बाद दरवाजे पर दस्तक हुई.

अंदर आया ठेकेदार थापर — महँगे कपडे, गले में सोने की चेन, आँखों में चालाकी.



> मामा: थापर भाई, यही है मेरी भांजी — कंकणी!



थापर (हँसते हुए): ओह. तो ये हैं वो होनहार लडकी?







कंकणी मुस्कुराई नहीं, बस सिर हिलाया.

थापर बोला —



>“ देखिए, हमें एक सरकारी project के लिए आपकी मदद चाहिए.

आपकी कंपनी के नाम से कुछ पेपर्स पास करवाने हैं.







> कंकणी: आपको मुझसे क्या काम?



मामा (बीच में): अरे कुछ नहीं बिटिया, बस Sign करने हैं. सब वैध है।



कंकणी (कडक आवाज में): मामा, यह रिश्वत का मामला तो नहीं?







> मामा (कडककर): हर काम में थोडा- बहुत ऐसा चलता है! तू फालतू डरती है।







> थापर (सिगरेट जलाते हुए): देखो बेटा, ज्यादा ईमानदारी जिंदगी में बोझ बनती है।







कंकणी के चेहरे पर अब गुस्सा था.



>“ मैं ऐसे किसी काम का हिस्सा नहीं बनूँगी।







थापर की आँखों में खून उतर आया.



>“ सोच लो, कंकणी. जो नहीं झुकता, वो टूट जाता है।







> कंकणी: मैं झुकने नहीं आई हूँ, थापर. मैं अपने दम पर जीती हूँ।







वो कमरे में चली गई और मोबाइल रिकॉर्डिंग चालू कर दी.

मामा और थापर की आवाजें बाहर से आ रही थीं —



> थापर: जयद्रथ, लडकी जिद्दी है।



मामा: मैं संभाल लूँगा. अगर ना मानी, तो मजबूर करनी पडेगी।







कंकणी का चेहरा ठंडा पड गया.



>“ मामा. आपने मुझे बेचना चाहा?







वो रात पूरी जागी रही.

अगले दिन सुबह उसने वो रिकॉर्डिंग अपने ऑफिस ईमेल में भेज दी —

अगर मुझे कुछ हुआ, तो ये सच्चाई सबके पास पहुँचेगी।









अध्याय पाँच — भागना और आग



रात —

बारिश, फिसलन भरी सडकें, और डर जो साँसों में बस गया था.



कंकणी कार में बैठी थी.

मां सो रही थीं, और वो चुपचाप निकल गई.



>“ अब रुकना नहीं है।







पीछे हेडलाइट्स चमकने लगीं — एक काली SUV।

उसमें वही आदमी था जो थापर के साथ दिखा था.

वो पीछा करने लगे.



कंकणी ने कार की स्पीड बढाई.

बारिश तेज हो गई.

सामने — फूलों की पेंटिंग वाली बिल्डिंग.



>“ बस थोडी दूर.







अचानक टायर फिसला —

कार घूमी, गड्ढे से टकराई, और एक तेज धमाके के साथ आग लग गई.



> कंकणी (चीखते हुए): मां. मैं जल रही हूँ!







SUV दूर खडी थी.

किसी ने मदद नहीं की.



मोबाइल में आखिरी रिकॉर्डिंग चल रही थी —



>“ अगर लडकी नहीं मानी, तो उसे गायब कर दो.







धमाका हुआ.

बारिश में लपटें बुझीं नहीं —

और कंकणी की जिंदगी राख में बदल गई.









अध्याय छह — आत्मा की पुकार



> कंकणी (धीरे से): यही थी मेरी कहानी, अजय.







अजय के हाथ काँप रहे थे.

उसने सुना, महसूस किया —

उसके सामने कोई परछाई नहीं थी, लेकिन हवा में उसकी उपस्थिति गहरी थी.



> कंकणी: मैंने जो रिकॉर्डिंग की थी, वो मेरे ऑफिस के मेल में सेव है.

वो तुम पुलिस को दे देना. ताकि जयद्रथ और थापर को सजा मिले.

तभी मुझे मुक्ति मिलेगी।







अजय की आँखों में आँसू थे.



>“ मैं वादा करता हूँ. तुम्हें न्याय मिलेगा।







> कंकणी (धीरे से): और मेरी मां. उसकी देखभाल कर लेना. वो अकेली है.







अजय ने सिर झुका दिया.



>“ अब तुम चैन से रहो, कंकणी.







एक हल्की हवा चली —

और वो गायब हो गई.









अध्याय सात — न्याय और मुक्ति



बारिश थम गई थी.

अजय ने लैपटॉप खोला और वह ईमेल खोज निकाला —

वहीं रिकॉर्डिंग, जो अब सब कुछ बदलने वाली थी.



उसने मेल पुलिस को फॉरवर्ड किया.

घंटों बाद रिप्लाई आया —



>“ Mumbai Police: Your complaint has been received. Investigation started.







कुछ दिनों में खबरें चैनलों पर थीं —

नगर पालिका अधिकारी जयद्रथ और ठेकेदार थापर गिरफ्तार।



अजय ने टीवी बंद किया.

चेहरे पर हल्की मुस्कान थी.



फिर वह उस चॉल में पहुँचा, जहाँ कंकणी की मां रहती थीं.



> अजय: आंटी. मैं अजय हूँ. कंकणी का दोस्त.



माया: कंकणी का दोस्त?



अजय: उसने मुझसे कहा था कि मैं आपकी देखभाल करूँ।







माया की आँखें भर आईं.



>“ वो अब नहीं है.







> अजय: वो है, आंटी. अब भी है. बस दिखती नहीं है।







माया मुस्कुराईं.

और कमरे की हवा में जैसे कोई अदृश्य सुकून फैल गया.



रात में अजय खिडकी के पास बैठा था —

मोमबत्ती अपने आप जल उठी.

फूलों की पेंटिंग हल्की रौशनी में चमक रही थी.



> हवा में आवाज आई —

धन्यवाद, अजय. अब मैं सच में आजाद हूँ.







मोमबत्ती की लौ स्थिर हो गई.









समापन



कई महीने बीत गए.

अजय रोज माया आंटी के साथ रहता, दवा देता, और कभी- कभी पुराने एलबम में कंकणी की तस्वीरें देखता.



बारिश जब भी होती, खिडकी से आती ठंडी हवा में उसे वही खुशबू महसूस होती —

फूलों की, राख की, और मुक्ति की.



> कभी- कभी कुछ कहानियाँ खत्म नहीं होतीं,

वो बस रूप बदल लेती हैं —

किसी की देखभाल बनकर,
किसी की याद बनकर जिंदा रहती है