गर्मियों की सुस्त दुपहर में एक नौजवान लड़का जो सुपौल के सुनसान गलियारों से होता हुआ एक मदरसे कि तरफ जा रहा था। वह तकरीबन पच्चीस से छब्बीस साल होगा.. वहाँ पहुंचने के बाद उसने मदरसे के दरवाजे पर जैसे ही नॉक किया तो गार्ड ने दरवाज़ा खोलते ही पूछा—
“हां! जी, क्या काम है?”
“अस्सलामो अल्यकुम”
“वालेकुमअस्सलाम जी बताईए आपको किस से मिलना है?”
“जी, मुझे आमिल नौमान साहब से मिलना है।”
“वैसे आपका नाम?"
“फरहान, मैं दरभंगा जिले से आया हूँ।”
“ठीक है.. आप अंदर तशरीफ़ लाएं..”
“शुक्रिया!”
तभी गार्ड ने कहा—
“आप मेरे साथ आएं..”
वो लोग अभी वहाँ पहुँचे ही थे के तभी सामने वाले कमरे से किसी के चीखने–चिल्लाने की आवाजें आने लगी और फरहान ये सब सुनकर सहम गया। अभी वह कुछ बोलता के तभी गार्ड ने सहमे आवाज़ में कहा—
“आप यहाँ से ख़ुद ही अंदर जाएं।”
“जी, आपका शुक्रिया..”
और तभी गार्ड वहाँ से चला गया, आवाजें लगातार आ रही थी। फरहान ने हिम्मत दिखाते हुए कमरे कि ओर चला गया तभी एक शख्स सामने से आकर कहना लगा—
“आप फरहान है न?”
“जी, लेकिन माफ करें आपको मेरा नाम कैसे पता है?”
“मुफ्ति साहब ने हमें पहले ही इतलह कर दिया था के आप आज आने वाले हैं। वह अभी एक बच्चे का रूहानी इलाज़ (exorcism) कर रहे है। इसलिए आप को थोड़ा इंतेज़ार करना होगा।”
“जी बेहतर, वैसे उस बच्चे की आवाजें बाहर तक आ रही थी क्या हुआ है उसे?”
“उस बच्चे पर सिहर (black magic) किया गया और जो शैतान उस बच्चे के अंदर है वह उसे काफी दिनों से उसे सता रहा है।”
“सताने से मुराद?”
“वह उस बच्चे कि जान लेना चाहता है उसके अम्मी–अब्बू ने बताया के वह रोज खून की उल्टियां करता है। और अपने आप को नुकसान पहुँचाता है। उसे आज यहाँ बहुत मुश्किल और परेशानी से लाया गया है।”
अभी वो लोग बात ही कर रहे थे के तभी उस बच्चे कि डरावनी आवाज ने सबको सहमा दिया वह अपनी आवाज़ में बात नहीं कर रहा था बल्कि एक डरावनी आवाज़ के साथ फ़ारसी ज़बान में कुछ पढ़ रहा था मानो जैसे वो कोई अम्लीयात अंजाम दे रहा हो।
"मन या जान-ए ऊ रा मिगीरम, वगरना मजबूरम जान-ए खुदम रा बेदहम।" (मैं या तो इसकी जान लूँगा, या मुझे अपनी जान देनी पड़ेगी।)
वह शैतान (जिन्न) ये लफ्ज़ बार–बार दोहरा रहा था। और उसकी बढ़ती और लगातार आवाज़ ने सबके दिलों में एक ख़ौफ का माहौल बना दिया था। तभी आमिल साहब ने उस शैतान को धमकाते हुए कहा—
“छोड़ दे इस बच्चे को इसने तेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ा है।”
“नहीं, मुझे इसकी रूह चाहिए, नहीं तो वह मुझे मार देगा।”
आमिल नौमान साहब ने हैरत से पूछा—
“तुझे कौन मार देगा?”
“मैंने उससे वादा किया है के मैं इस बच्चे कि रूह उसे सौंप दूंगा।”
“तुमने इसकी रूह का सौदा किस से किया है? बताओ.. उसका नाम क्या है?”
तभी वह शैतान (जिन्न) खौफ़नाक तरीक़े से हंसने लगा। उसकी ख़ौफनाक हँसी ने सबके कानों को बेहरा कर दिया था सब अपने कानों को हाथ लगा कर बंद कर रहे थे। अचानक आमिल साहब ने अपने ज़बान पर अरबी आयात (रुकयह) पढ़ना शुरू कर दिया। वह शैतान ने जैसे ही उन आयतों को सुना खौफ से और चिल्लाने लगा और तभी आमिल साहब ने उस खबीस जिन्न को हुक्म दिया—
“निकल जा इस बच्चे की जिस्म से वरना मैं तुझे जला कर राख कर दूंगा।”
इतना अल्फ़ाज़ सुनते ही वह खबीस जिन्न उस बच्चे के शरीर से निकल गया और तभी आमिल साहब ने उस बच्चे के बाजू पर एक सियाह ताबीज़ बांध दी। वह बच्चा उस ख़बीस जिन्न की क़ैद से तो आज़ाद था लेकिन उसकी हालत बहुत ही ज़्यादा बिगड़ चुकी थी। तभी आमिल साहब ने अपने एक शागिर्द से कहा—
“इस बच्चे के अम्मी अब्बू को बुलाओ”
“जी उस्ताद”
तभी आमिल साहब उस बच्चे के पास आए और उसका जिस्म बांधने के लिए कुछ अरबी कलमात पढ़ने लगे। अभी कुछ ही देर हुए थे के उस बच्चे के अम्मी अब्बू वहाँ आ गए। जैसे ही उसकी माँ ने उसे बेहोशी कि हालात में देखा तो वह रोने लगी, आमिल साहब ने उन्हें दिलासा देते हुए कहा—
“फिक्र न करें, आपका बेटा अब खतरे से बाहर है और जल्द ही होश में आ जाएगा। फिलहाल मेरी एक बात ध्यान से सुनें— मैनें इसकी बाजू पर जो सियाह ताबीज़ बांधा है वो कभी भी इससे अलग नहीं होना चाहिए और चालीस दिन के बाद फिर इसे मेरे पास यहाँ लाना है और हाँ, मैनें उस शैतान को इसकी जिस्म से बाहर तो निकाल दिया है लेकिन वह अपनी हर कोशिश करेगा इसको नुकसान पहुंचाने के लिए आप इन बातों को बिल्कुल ख़ाश ध्यान रखें।”
तभी उनका वह शागिर्द जो बाहर फरहान के साथ था कमरे में आ पहुँचा और अर्ज़ करने लगा—
“मुफ्ति साहब आपको जिनका इंतेज़ार था वह आ चुकें हैं और आपसे मिलने के मुंतजिर हैं।”
आमिल साहब ने हैरत से पूछा—
“वह अभी कहाँ है?”
“जी मैंने उन्हें सही सलामत आपके दफ्तर म पहुँचा दिया है।”
इतना सुनते ही आमिल साहब अपने दफ़्तर कि जानिब चले गए। वहाँ फरहान दफ्तर में अकेला, एक किताब पढ़ रहा था। तभी किसी ने उसका नाम लेते हुए कहा—
“फरहान, ये तुम हो?”
फरहान जैसे ही पीछे मुड़ा तो देखा आमिल साहब उसके सामने खड़े थे। फिर फरहान ने उनसे मुखातिब होते हुए कहा—
“अस्सलामो अल्यकुम, जी मैं फरहान”
“वालेकुमअस्सलाम, तुम कितने बड़े और हसीन हो गए हो।”
“जी शुक्रिया”
“मैं तुम्हे पंद्रह साल के बाद देख रहा हूँ। जब तुम्हारे अब्बू तुम्हे लेकर मुंबई चले गए थे।”
“हाँ, वहाँ जाने के बाद उन्होंने मुझे एक हॉस्टल में रखवा दिया था। कुछ दिन बीते ही थे के तभी खबर मिली के उन्होंने ने दूसरी शादी कर ली है। अब तो वह सब कुछ भूल गए हैं। मानो जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं था। मेरी माँ के साथ जो हादसा हुआ था वह सब भूल चुके हैं। लेकिन मैं अब तक वो सब भूल नहीं पाया...”
आमिल साहब ने जैसे ही फरहान कि बातें सुनी मन ही मन कहने लगे—
“नसीम ऐसा कैसे कर सकता है? मुझे यक़ीन नहीं आ रहा...मैंने जो मोहब्बत उसकी आँखों में रफिया के लिए देखी थी वह शायद आज तक किसी की आँखों में नहीं देखी...”
तभी आमिल साहब ने सादगी अंदाज में कहा—
“बेटा, मुझे यक़ीन है वह ये सब तुम्हारे लिए भी करना चाहते थे, ताकि तुम्हे कभी भी उन रिश्तों की कमी महसूस न हो.. वह शायद तुम्हारी अम्मी के जाने के बाद बिल्कुल तन्हा हो गए थे और तुम्हारी जिम्मेदारियां भी थी इसलिए उन्हे ये बेहतर फैसला लगा होगा। बेटा मेरी एक बात याद रखना— कभी–कभी कुछ फैसले हमें ग़लत लगते हैं लेकिन वो हमारे हक़ में बेहतर होते हैं।”
“फिर मेरी अम्मी के हक़ में वो फैसले बेहतर साबित क्यों नहीं हुए? मेरी आँखों के सामने उस शैतान ने उनकी जान ले ली और मैं बस ये सब देखता रह गया। वो दर्द जो मेरे दिलों_दिमाग़ पर हावी हो चुका है वो निकल क्यों नहीं रहा? हर रात करवटें बदलता रह जाता हूँ। लेकिन नींद नहीं आती..”
“मुझे पता था के तुम वो सच जानने के लिए मेरे पास एक दिन ज़रूर आओगे। और अब शायद यह सही वक्त है के मैं उन सच से पर्दा हटाऊं..”
आख़िर क्या था वो सच? जिसे अब तक फरहान से छुपाकर रखा गया था। जानने के लिए सुनिए, सिहर का एक अगला एपिसोड!