“यह सज्जन आज के विज़िटर्ज़ हैं, सर,” मेरे दफ़्तर के विज़िटर्ज़ टाइम पर मेरा निजी सचिव मेरे सामने एक सूची रखता है।
इस में जोड़ा गया एक नया नाम मुझे आकर्षित करता है : एकनाथ, एक कवि।
“इसी को पहले भेज दो,” इस नाम को ले कर मेरे अंदर गहरा रोष रहा है। अपनी बेटी के कारण।
यह संयोग ही है कि प्रदेशीय पुलिस सेवा के अन्तर्गत मेरी यह नयी नियुक्ति उसी कस्बापुर ज़िले में पुलिस निरीक्षक के रूप में हुई है जहां सात साल पहले भी मैं रह चुका हूं। डी.वाए. एस.पी. के पद पर।
“नमस्कार, सर,” मेरे दफ़्तर में प्रवेश लेने वाला युवक अपने कंधे पर एक फटीचर झोला लटकाए है। अजीब दिखावट लिए। पुलिसिया मेरी निगाह की नाप- जोख उस के चेहरे से उस की आयु सत्ताईस और तीस वर्ष के बीच की ठहरा रही है।और उस के दिखाव- बनाव से उस की आर्थिक स्थिति निम्न-मध्यवर्गीय।
“नमस्कार, सर,” वह मेरे अभिवादन में अपने हाथ दोबारा जोड़ देता है और अपनी नज़र मेरे सामने रखी कुर्सी पर ला टिकाता है। उसे ग्रहण करने के लिए मेरे संकेत की प्रतीक्षा में।
“एकनाथ?” मैं पूछता हूं। उस की नज़र नज़र- अंदाज़ करते हुए।
उसे मैं अभी खड़े ही रहने देना चाहता हूं।
“सच पूछें,सर,तो यह नाम मजबूरी में रखे हूं…..”
“मजबूरी में?” मैं चौंकता हूं।
“ऐसा है,सर,कोई सात साल पहले की बात है। इस नाम के एक कवि के मकान पर पुलिस ने धावा बोल दिया था और उस के दो साथियों को उसी वक्त अपनी हिरासत में लिवा ले गई थी। डर के मारे वह एकनाथ भूमिगत हो गया और हमारी संस्था ने उस के रक्षण हेतु हमारे कस्बापुर के सभी कवियों को आदेश दे डाला, सभी अपना नाम यही रखेंगे : एकनाथ…..”
मेरे कानों में अकस्मात सात साल पहले वाले समवेत व उद्दंड स्वर गूंज उठे: ‘एकनाथ मैं हूं, एकनाथ मैं हूं।’
“बैठो,” मैं उसे अपने सामने वाली कुर्सी को इंगित करता हूं।
“धन्यवाद, सर,” दीन भाव से वह कुर्सी ग्रहण करने के बाद अपने कंधे वाला झोला मेज़ पर ला टिकाता है।
“इस झोले में क्या है?” मैं उसे घूरता हूं।
“भेंटस्वरूप आप के अपने दो कविता- संग्रह लाया था, सर…..”
“देखें,” अपने अनुमान का मानचित्र चिह्मित करना है मुझे।
दोनों इसी गरीब का चित्र लिए हैं और दोनों ही के नाम के स्थान पर अंकित है : एकनाथ।
उस की शिक्षा वाले कालम के आगे एम.ए. का विषय,यूनिवर्सिटी का नाम और सत्र वही हैं जो मेरी बेटी के रहे हैं।
उन दिनों पिछड़े इस ज़िले में स्नातकोत्तर शिक्षा की व्यवस्था नहीं रही थी और समाजशास्त्र में एम.ए. करने की इच्छुक अपनी बेटी को मैं ने राजधानी में भेज रखा था।
मैं जान गया यह वही एकनाथ है जिसे मेरी बेटी अपनी स्कूटी की पिछली सीट पर बिठला कर राजधानी की सड़कें नापते रही थी।अपनी तथा अपने परिवार की प्रतिष्ठा को दांव पर रख कर।
बिना परवाह किए कि उन्हीं दिनों मैं समजातीय, समवर्गीय अपने एडिशनल जज के बेटे के साथ उस का विवाह ठहराने के लिए एड़ी- चोटी का ज़ोर लगा रहा था। बेशक वही लड़का आज मेरा दामाद है और मेरे नाती- नातिन का पिता भी किंतु उस समय वह प्रदेशीय प्रशासनिक सेेवा में प्रवेश पाने में सफल रहा था और उस के लिए अनेक विवाह- प्रस्ताव आ रहे थे।
“तुम्हारी संस्था का नाम क्या है?” उस के एक संग्रह के पृष्ठ पलटते हुए मैं पूछता हूं।
“स्पार्टेकस लीग, सर।”
स्पार्टेकस नाम मेरे लिए एक कटु व अप्रीतिकर संदर्भ लिए हुए है।
इस नाम की एक कविता मैं ने अपनी बेटी के पास देखी थी। एक फटीचर डायरी में । जिस में और भी कई ऊलजलूल कवितांए घसीटी गईं थीं।
पृष्ठ पलटते- पलटते मैं पाता हूं इस संग्रह में स्पार्टेकस नाम की कविता ज्यों की त्यों उपस्थित है।
“स्पार्टेकस नाम यों ही नहीं रखा जाता,” मैं उस का संग्रह बंद कर देता हूं, “पश्चिमी जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की एक छात्र- शाखा भी यही नाम रखे है : स्पार्टेकस।”
“जानता हूं,सर। उन्हों ने उन्नीस सौ साठ में यह नाम चुना था मगर,सर,उस से पहले भी रोज़ा लक्ज़मबर्ग और कार्ल लिबक्नेट द्वारा संगठित जर्मनी के एक नव समाजवादी दल ने अपना नाम स्पार्टेकस लीग रखे रहा था…..”
“जानता हूं,” मैं ने सिर हिलाया, “सन उन्नीस सौ चौदह में जिन्हों ने ‘स्पार्टेकस लैटर्ज़’ के नाम से प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की भूमिका का जम कर विरोध किया था…..”
“जी। सन उन्नीस सौ चौदह के अंत से लेकर उन्नीस सौ अठारह तक…..”
“जानता हूं। सब जानता हूं,” मैं उसे टोक देता हूं, “ हम पुलिस वालों को विश्व भर के राजनैतिक दलों की पृष्ठभूमि की जानकारी रहा करती है।यही वह ‘लीग’ है जो बाद में जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी में परिवर्तित हो गई थी और जिस ने एक बड़ी सामाजिक क्रांति का आह्वान दिया था।”
“जी।”
“मगर तुम बताओ तुम्हारी यह
लीग भी किसी राजनैतिक गतिविधियों में सक्रिय है क्या?” मैं उसे घेर लेना चाहता हूं। ताकि उस पर फंदा लगाना सुगम रहे। उस के कपट- योग की सीमा निर्धारित हो जाए।
“बिल्कुल नहीं,सर। हम तो केवल स्पार्टेकस नाम के उस पुरातन विद्रोही से प्रेरणा लेते हैं,” वह सतर्क हो लेता है।
“कैसी प्रेरणा?”
“हमारी संस्था एक साहित्यिक संस्था है जिस के अनुसार कवि वही है जो समाज की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी जन के प्रति विरोध प्रकट करे, जैसे उस बहादुर स्पार्टेकस ने किया था…..”
“मगर वह तो एक भगौड़ा था। अभित्यागी था। ईसा पूर्व के एथेंस क्षेत्र में जन्मा। रोम की सेना में स्वेच्छा से भर्ती हुआ।फिर वहीं से भाग निकला और पकड़े जाने पर जब उसे गुलाम के रूप में बेच डाला गया तो अपने तलवारिया स्कूल से फिर निकल
भागा…..”
“जी,सर,” उत्तेजित हो कर वह मेरी बात तत्काल तोड़ देता है, “मगर देखिए, सर, अपने उस तलवारिया स्कूल से अपने साथ भरती दूसरे गुलामों में से वह केवल 77 साथी ही साथ लाया था मगर एक ही साल के अंदर उस के साथियों की संख्या 90,000 तक पहुंच ली थी और वह रोमन सेना की दो टुकड़ियां हरा चुका था। दक्षिण इटली लूट चुका था…..”
“लेकिन अंत में हुआ क्या? उस के वर्णन पर मैं लगाम लगाता हूं।अगले ही साल सब छितरा दिए गए। ईसापूर्व सन 73 में स्पार्टेकस का विद्रोह शुरू हुआ तो ईसापूर्व सन 71 में खत्म भी हो गया…..”
“जी। रोम के नए सेनापति मार्क्स लुसिनियस क्रिसमस ने अपनी सेना की आठ टुकड़ियों से बेशक उसे मार डाला मगर, सर, हमारी संस्था उस के बारे में उस किवदंती को आज भी जीवित रखे है जिस के अनुसार हार चुके स्पार्टेकस और उस के साथियों का दंड निर्धारित करने के लिए जब स्पार्टेकस का नाम पुकारा गया तो सभी एक साथ चिल्लाए थे, स्पार्टेकस मैं हूं, स्पार्टेकस मैं हूं…..”
अपनी कविता ‘स्पार्टेकस’ की पृष्ठभूमि तैयार करते समय उस ने अवश्य ही स्पार्टेकस के विषय में यह जानकारी एकत्रित की होगी । जिस प्रकार उस की कविता पढ़ते ही मैं उसे समझने के लिए विश्वकोश पर स्पार्टेकस पर सामग्री खोज चुका था।परिणाम, स्पार्टेकस का अंत मेरा देखा हुआ था।
मेरे कानों में फिर वही दो समवेत स्वर गूंज उठते हैं :
‘एकनाथ मैं हूं’.....
‘एकनाथ मैं हूं’.....
जब सात साल पहले की उस रात उस मकान पर पहुंचते ही जैसे ही मैं उचरा था, एकनाथ?
तो दो जन एक साथ चिल्लाए थे: ‘एकनाथ मैं हूं’, ‘एकनाथ मैं हूं’ और भौंचक हो कर में मैं ने हवा में गोली चला दी थी और मेरे साथ आए पुलिस दल उन्हें अपनी जीप पर जबरन उठा ले गए थे।
फलस्वरूप वे दो निर्दोष पकड़े गए थे और जो अभी भी जेल में बंद थे और जिसे पकड़ने के लिए उस रात हमारे कब्ज़े में आना था, चतुर उस की पूर्व व्यवस्था ने ठीक मौके पर उसे प्रतिबोधित कर दिया था। निस्संदेह इस धूर्त ने अपना बचाव पहले ही से निश्चित कर रखा था।
नासमझ अपने उन दो मित्रों को अपने मकान पर ठहरा कर। ज़रूर उन्हें स्पार्टेकस का उदाहरण दे कर उन्हें संघबद्ध किए रहा यह!
जभी स्पार्टेकस के साथियों की तथाकथित शैली में दोनों ने गलत नाम ले कर मुझे भ्रम में डाल दिया था : एकनाथ मैं हूं, एकनाथ मैं हूं।
“तुम्हारी इस संस्था का पता क्या है?” स्पार्टेकस के नाम की कविता वाला संग्रह मैं अपने हाथ में थाम लेता हूं।
“यह न पूछिए, सर,” दिखावटी जी- हुज़ूरिया के साथ वह अपने हाथ फिर जोड़ देता है, “हम साधारणजन आप पुलिस लोग से भय बहुत खाते हैं। क्या मालूम कब आप किस पर धावा बोल दें? किसे कौन समझ कर हिरासत में ले लें? और अपनी सफ़ाई के लिए वहां कोकेन धर दें? असला रख दें?”
“मतलब?” मैं झल्लाता हूं।
मैं जान लिया हूं ‘स्पार्टेकस लीग’ नाम की संस्था उस की चतुराई की गढ़ंत है। कल्पना की छल- रचना है। और उस की ओट में वह मुझ पर प्रकट करने आया है कि मेरे हाथों दो निर्दोष लड़कों के जेल भेजने की पृष्ठभूमि से वह परिचित है।
“मतलब यह,सर,आप हमारी संस्था को संरक्षण तो दें किंतु परोक्ष रूप से।प्रत्यक्ष रूप से नहीं।गोपनीय ढंग से। प्रकट मंत्र की भांति नहीं।”
आत्मविश्वासपूर्ण उस का प्रस्ताव मुझे हतबुद्धि किए दे रहा है और मैं अपनी मेज़ की घंटी बजा देता हूं।
“हुज़ूर,” मेरा चपरासी तत्काल मेरे पास चला आया है।अपने सलाम के साथ।
“मेरे लिए चाय बनाना,” उस की उपस्थिति मुझे प्रकृतिस्थ करने में सहायक सिद्ध हो रही है।
यों भी इन पिछले पच्चीस वर्षों की अपनी पुलिस सेवा में मैं ने पाया है,अपने पुलिसगण के बीच मेरा व्यवहार स्वतः ही नियमनिष्ठ हो लेता है। अपने से वरिष्ठ अधिकारियों के संग लचकदार और अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ सुदृढ़।
“जी,हुज़ूर,” मेरे दफ़्तर के एक कोने ही में चाय बनाने के सभी साधन धरे हैं और मेरा चपरासी उसी ओर बढ़ लिया है।
“तुम अपनी जीविका कैसे चलाते हो?” मेरा आवेश ढीला पड़ रहा है। और मैं एकनाथ की ओर मुड़ लिया हूं। अपने पद के आयाम के साथ। उसे अपने स्वर में उतारते हुए।
“सर,” एकनाथ अपने हाथ जोड़ता है, “अभी तक तो स्वतंत्र लेखन ही से चल रहा था किंतु अब सोचता हूं मुझे कोई नौकरी पकड़ ही लेनी चाहिए…..”
“वहां से निकल भागने के लिए?” मैं उस के स्वांग की हंसी उड़ाता हूं, “या किसी को साथ भगाने के लिए?”
“नहीं,सर,” वह अपने झोले की ओर हाथ बढ़ाता है, “अपना प्रार्थना- पत्र साथ लाया हूं,सर। उस के साथ आप का कृपा-पत्र लग जाता…..”
“लाओ, देखें, तुम कहां ठीक बैठ पाते हो….”