अध्याय 2: दरगाह-ए-नूर का पहला सुराग़
(जहाँ रहस्य, रूह और इम्तिहान एक-दूसरे से टकराते हैं)
सुबह का वक़्त था। लखनऊ की हवाओं में हल्की सी ठंडक थी, और पुरानी गलियों में इत्र और मिट्टी की महक घुली हुई थी।
रैयान और ज़ेहरा हवेली से निकले — उनके पास वही पुराना नक्शा था, जिस पर सबसे ऊपर लिखा था:
“दरगाह-ए-नूर”
ज़ेहरा ने कहा,
“रैयान, ये दरगाह शहर के बाहर है… लोग कहते हैं वहाँ अब कोई नहीं जाता।”
रैयान ने मुस्कुराकर जवाब दिया,
“कभी-कभी जहाँ रौशनी कम होती है, वहीं सबसे गहरा नूर छिपा होता है।”
🌙 दरगाह का मंज़र
सूरज ढलने को था जब वो वहाँ पहुँचे।
दरगाह पुरानी थी — दीवारों पर बेलें चढ़ी हुईं, और मीनारों पर चाँद की किरणें गिर रही थीं।
आँगन में बस एक बुज़ुर्ग बैठे थे — सफ़ेद दाढ़ी, हाथ में तस्बीह, और आँखों में अजीब सी चमक।
उन्होंने दोनों को देखते ही कहा,
“आ गए तुम... बहुत देर कर दी।”
रैयान और ज़ेहरा ठिठक गए।
रैयान बोला, “आप हमें जानते हैं?”
बुज़ुर्ग मुस्कुराए,
“जिसे तलाश का इरादा हो, वो पहले ही पहचान लिया जाता है।”
उन्होंने इशारा किया —
“वो दीवार देखो... जहाँ नूर की लकीर टूटी है, वहीं से रास्ता शुरू होता है।”
दीवार पर रोशनी पड़ रही थी — लेकिन एक जगह सचमुच अँधेरा था।
ज़ेहरा ने टॉर्च लगाई — वहाँ एक उर्दू शेर उभरा:
“इल्म वो नहीं जो ज़ुबां कहे,
इल्म वो है जो दिल समझे।”
रैयान ने नक्शे पर वही जगह देखी — दरगाह के पीछे का कमरा।
वो दोनों अंदर गए — एक छोटा सा मकरमच का पर्दा था, जिसके पीछे फर्श पर पत्थर की चादर बिछी थी।
बीच में एक पुराना चिह्न — वही ☪︎ तीन बिंदुओं वाला आधा चाँद।
🔍 पहला सुराग़ – “इल्म का दरवाज़ा”
जैसे ही रैयान ने उस निशान को छुआ, ज़मीन हल्की सी काँपी।
पत्थर खिसक गया और नीचे एक छोटा दरवाज़ा दिखा —
जिस पर लिखा था: “बिस्मिल्लाह से शुरू करो।”
रैयान ने धीरे से दरवाज़ा खोला।
नीचे सँकरी सी सीढ़ियाँ थीं, जो अंधेरे में उतरती जा रही थीं।
ज़ेहरा बोली, “ये तो किसी सुरंग जैसा है…”
रैयान ने गहरी साँस ली, “शायद यही दरगाह का राज़ है।”
दोनों नीचे उतरे — दीवारों पर उर्दू में कुछ आयतें उभरी हुई थीं, और हर आयत के नीचे एक प्रतीक।
पहले प्रतीक पर लिखा था — “इल्म”,
दूसरे पर — “सब्र”,
तीसरे पर — “ईमान”।
अचानक हवा तेज़ हुई, और एक पत्थर का दरवाज़ा उनके पीछे बंद हो गया।
ज़ेहरा ने चौंककर कहा, “रैयान! ये क्या हुआ?”
रैयान ने नक्शा खोला — उस पर हल्की सी रोशनी चमक रही थी, जैसे किसी छिपे निशान की ओर इशारा कर रही हो।
वो बोले,
“हमें इन तीन लफ़्ज़ों का मतलब समझना होगा… वरना ये रास्ता हमें कभी बाहर नहीं जाने देगा।”
ज़ेहरा ने देखा, “इल्म” वाले चिह्न के पास दीवार पर कुछ उकेरा गया था —
एक सूरज, और नीचे लिखा था:
“जो नूर को देखे, मगर समझे नहीं, वो अंधेरे में रहेगा।”
रैयान ने टॉर्च बंद की — और ऊपर की झिर्री से आती चाँदनी उस सूरज के निशान पर पड़ी।
पत्थर धीरे-धीरे हिलने लगा…
और दरवाज़ा खुल गया।
अंदर एक छोटा कमरा था — बीच में संगमरमर की चौकी, जिस पर एक पुरानी किताब रखी थी।
किताब का नाम था:
“इल्म-ए-मौराबाद”
रैयान ने जैसे ही उसे छुआ,
दरगाह की दीवारों से अज़ान की सी आवाज़ गूँज उठी —
नर्म, मगर दिल में उतर जाने वाली।
बूढ़े फ़कीर की आवाज़ गूँजी,
“पहला दरवाज़ा खुल गया, अब सब्र की राह बाकी है…”
रैयान और ज़ेहरा ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा —
उनकी आँखों में अब डर नहीं था,
बस एक सवाल था —
“अगर पहला दरवाज़ा इतना रहस्यमयी है, तो दूसरा कहाँ ले जाएगा?”
(अध्याय 2 समाप्त)