गाँव के सुनसान छोर पर एक जर्जर मकान खड़ा था , जिसकी दीवारों की दरारों से हवा सीटी बजाती थी और छप्पर से छनकर आती धूप उस घर की कहानी सुनाती थी।
वक़्त ने उसे थका दिया था, मगर उसके भीतर रहने वाली दो स्त्रियाँ समय से भी अधिक मज़बूत थीं, सरोज और उसकी बहू रेखा।
सरोज,सफेद सूती साड़ी में लिपटी, झुर्रियों से भरा चेहरा, पर आँखों में अब भी उम्मीद की चमक।
बरसों पहले उसका पति ग़ुस्से में घर छोड़ गया था।
उसको बेसहारा छोड़कर |
अकेली औरत का समाज में जीना अनवरत चलने वाला युद्ध है |
उसने अपने बेटे को अपना हौसला बनाया |
गाँववालों ने कहा - “अब लौटेगा नहीं।”
पर सरोज ने कभी दरवाज़े की कुंडी भीतर से नहीं लगाई।
वह रोज़ चौखट पर दीया जलाती, मानो लौ के सहारे उम्मीद को ज़िंदा रखे हो।
समय बीतता गया, और वह लौ धीरे-धीरे मद्धम पड़ती चली गई।
फिर बेटे की शादी हुई, रेखा आई..चंचल, सरल और हँसमुख।
उसके आने से घर में फिर से हँसी लौट आई।
जब बच्चों की किलकारियाँ गूँजने लगीं, सरोज को लगा, जैसे जीवन की धूप फिर से उतर आई हो।
पर नियति को यह मंज़ूर न था।
एक रात, उसका जवान बेटा अचानक गिर पड़ा।
अस्पताल पहुँचे तो डॉक्टर ने कहा - “अब कोई उम्मीद नहीं…”
उस दिन सरोज के भीतर कुछ स्थायी रूप से टूट गया।
रेखा की आँखों में अँधेरा उतर आया।
गाँववालों ने कहा.. “अभी तो जवान है, दूसरी शादी कर ले।”
पर रेखा बोली..
“मेरे लिए ये बच्चे ही दुनिया हैं, इन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी।”
लोगों की जुबानें ज़हर उगलने लगीं।
कभी ताने, कभी फुसफुसाहटें।
लेकिन सरोज ने बहू का हाथ थाम लिया
“मत डर, हम दोनों मिलकर सब कर लेंगे।”
और उन्होंने कर दिखाया।
सरोज ने आँगनबाड़ी में दाई का काम शुरू किया.. छोटे बच्चों को हँसाती, उन्हें गोद में सुलाती।
रेखा ने स्कूल में मिड-डे मील पकाना शुरू किया..धुएँ में आँसू घुल जाते, मगर चेहरे पर थकान की लकीर नहीं आती।
दोनों औरतें अपने दुःख को चुपचाप ओढ़कर भी दूसरों के लिए रोशनी बन गईं।
वक़्त बहता गया।
बच्चे बड़े हुए, पढ़े, आगे बढ़े।
जो लोग कभी ताने कसते थे, अब वही कहते..
“इन औरतों ने तो चमत्कार कर दिया, राख से उजाला रचा है।”
एक दिन सूरज ढलते-ढलते, सरोज की साँसें थम गईं।
गाँव का हर आदमी उसकी अंतिम यात्रा में शामिल हुआ।
कोई बोला..“ये औरत नहीं, चट्टान थी।”
कोई बोला.. “आज एक माँ नहीं, एक युग चला गया।”
रेखा मौन खड़ी रही।
आँखों में आँसू थे, पर चेहरे पर दृढ़ता।
उसे लगा मानो सरोज पास खड़ी है, कह रही है
“मत डर… अब तेरे कंधों में मेरी ताक़त है।”
बच्चे अब अपने पैरों पर खड़े हो चुके थे।
बेटे ने शहर में नौकरी पाई, घर बनाया
लोगों ने कहा.. “अब तो बेटा बड़ा हो गया, रेखा भी शहर चली जाए।”
रेखा मुस्कुराई..
“जिस घर ने मुझे टूटने से बचाया, मैं उसे यूँ ही कैसे छोड़ दूँ?”
वो अब भी उसी पुराने घर में रहती है
वही टूटी दीवारें, वही छप्पर से छनती धूप..
पर अब उस घर में उजाला है…
क्योंकि वहाँ सरोज की दी हुई हिम्मत अब भी साँस लेती है।
उस दिन से गाँव की गलियों में एक ही किस्सा सुनाई देता था...
“औरत चाहे तो अकेले ही टूटे हुए घर को जोड़ सकती है, और हारे हुए जीवन में भी नयी सुबह ला सकती है।”
~रिंकी सिंह