1- 
££ काश 
काश मैं तेरे शहर का होता, इक चाय के सहारे ही सही पर मुलाकात की गुंजाइश तो होती,,
सुलगती जिंदगी के कश ले के फिक्र के धुएं को उड़ाते हुए, एक दूसरे में समा जाने की चाह में उस इक उम्मीद की तलाश करते हुए ,
उस सन्नाटे को तीनों अपनी आगोश में भर लेते
          मैं, तुम और चाय ।
                    2- ££€€ जरा सी बात थी वो
जरा सी बात थी वो ?
यूं मेरे ख़यालो में आके मेरी नींद से सौदा कर लेना
मेरे अनसुलझे मन की आखिरी मंज़िल बन जाना
मेरी आंखो में बहते दरिया का साहिल बन जाना
मैं हसूं तो मुस्कान, रोऊं तो आंसू, भटक जाऊं तो दिशा की रोशनी बन जाना
मेरे हमेशा खामोश रहे दिल की बेपरवाह हलचल बन जाना
यूं किसी तपती रेत को बारिश का यकीन दिलाना
और एक दिन इन सब बातों को एक हसीन ख़्वाब साबित कर देना
जरा सी बात थी ?
                  3-    ¢£¢ तुमने
तुमने पुकारा भी नहीं और चली गई
मैं वहीं तो था ,समय के पटल पे विराजमान क्षितिज के तल पर आंधियों के साए में आशाओं की रेत से सपनों की मंजिल के घरौंदे बनाता हुआ
इस उम्मीद में कि क़यामत की एक रोज हम तुम वहीं मिलेंगे ।
           4-    $€$¢¢ राह
अतीत की छांव में, प्यार के गांव में
आस की लिबास में,खुद की ही तलाश में
उम्मीद की धूल भरी सड़क पर 
शून्य होकर 
आज भी तुम्हारी राह देखते हैं ।
        5-   ££ मैं सोचता हूं 
 मैं सोचता हूं कि क्या ये वक्त बदलेगा ?
अगर बदला तो कीमत क्या होगी, जो नहीं बदला तो कीमत क्या होगी ?
बदला तो निखर जाएगा, नहीं बदला तो बिखर जाएगा
तो फिर निखरने की कीमत क्या होगी ? और बिखरने की कीमत क्या होगी ?
निखरने की कीमत होगी कि सब सही होगा पर लोग नहीं होंगे
बिखरने की कीमत होगी कि सब वैसा ही रहेगा और लोग भी नहीं होंगे ।
         6-      £££ किस्मत को बदलते देखा है 
किसी भी क्षण किस्मत को बदलते देखा है
मैने नाव को रेत पे चलते देखा है
उड़ी थीं अफवाहें जिनके बेहद बेहोश होने की,
उनको भी वक्त पे संभलते देखा है ।
आ गईं अगर अड़चनें तो क्या होगा
बहुत होगा तो रास्ता तबाह होगा,
पर उन रास्तों की कड़ियां तुम जोड़ते जाना,
बिखरीं कड़ियों को भी आपस में जुड़कर जंजीर में बदलते देखा है ।
तो क्या हुआ जो मंजिल जिद्दी हैं,
जिद्दी तुम भी कुछ कम नहीं,
बस क्षमता इतनी रखो कि लगे,
जो पीछे हटे तो हम नहीं,
सही समय पर सही आग में सख्त लोहे को भी पिघलते देखा है।
        7 -  ¢¢$ उलझन
पकड़ अतीत की बांह मैं
चल पड़ा हूं राह में
भविष्य की ये राह है
अनंत सी इक चाह है pe
ये चाह ही तो दर्द है
दुखों का ये बहाव है
पर बिन चाह संभव लक्ष्य ही क्या
यूं बिन सत्ताधीश कोई विपक्ष ही क्या
जो लक्ष्य नहीं तो राह क्या
ये उठ खड़ा सवाल है
ये प्रश्न ही कमाल है
उत्तर भी बेमिसाल है
ये राह है बिन लक्ष्य की
ये इस राह की तकदीर है
स्वतंत्र हूं अब राह में
ये चाह ही जंजीर है
कोशिश करी की काट दू आज इस जंजीर को
हार गया काटता भी कैसे आखिर वो मोह की शमशीर है
बिन काटे जंजीर को चलूं कैसे, करूं मैं क्या
पाऊं मैं क्या, खोऊं मैं क्या,छोङू मैं क्या ,धरूं मैं क्या
ये सोचते विचारते आकाश को निहारते
शून्य में मैं खो गया हूं
या
शून्य ही मैं हो गया हूं ।