ANDHERE MEIN GAYAB HO GAYE in Hindi Horror Stories by Madhu Shalini Verma books and stories PDF | अंधेरे में गायब हो गये

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अंधेरे में गायब हो गये

अंधेरे में गायब हो गये 

नीलेश के भीतर हमेशा एक खालीपन रहा, जैसे किसी अधूरी कहानी का हिस्सा हो। उसके कानों में पंछियों की आवाज़ें गूँज रही थीं, लेकिन मन में शांति नहीं थी। उसने गहरी साँस ली और सोचा, शायद इन पहाड़ों में मुझे सुकून मिलेगा।

वह नीचे उतरकर होटल के पास बने रास्ते पर टहलने लगा। पगडंडी पर चलते हुए उसकी नज़र सामने से आती एक लड़की पर पड़ी। उसने हल्के नीले रंग की ड्रेस पहन रखी थी और हाथ में पुरानी किताब थी। उसके चेहरे पर एक अजीब सी चमक थी, जैसे धुंध को चीरकर निकल आई हो। नीलेश ने अनायास ही कदम धीमे कर लिए।

लड़की ने मुस्कुराकर देखा और बोली, "आप भी यहाँ नए लग रहे हैं?"

नीलेश थोड़ा झेंप गया। "हाँ… मैं छुट्टियों के लिए आया हूँ।"

लड़की ने किताब बंद करते हुए कहा, "मैं वंदिता।"

नीलेश ने हल्की मुस्कान दी, "नीलेश।"

कुछ पलों की चुप्पी के बाद वंदिता ने पूछा, "आप अकेले घूमने आए हैं?"

नीलेश ने सिर हिलाया, "हाँ, मुझे अकेलापन अच्छा लगता है। शांति मिलती है।"

वंदिता ने हँसते हुए कहा, "अकेलापन शांति देता है या सवाल खड़े करता है?"

नीलेश उसकी बात सुनकर चौंक गया। वह इतनी सहजता से उसके भीतर की बात कह गई थी।

वह थोड़ा संभलते हुए बोला, "कभी–कभी सवालों से भागना पड़ता है।"

वंदिता ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा, "और कभी सवाल ही हमें सच तक ले जाते हैं।"

दोनों की यह पहली बातचीत थी, लेकिन नीलेश को लगा जैसे वह उसे बरसों से जानता हो।

शाम तक वे दोनों साथ-साथ वादियों में घूमते रहे। वंदिता बहुत बातें करती थी। वह किताबों, कविताओं और पहाड़ों के किस्सों में खोई रहती। नीलेश सिर्फ सुनता रहा, और हर बार उसे लगता रहा कि यह लड़की साधारण नहीं है।

वंदिता ने अचानक एक पुराना पेड़ दिखाते हुए कहा, "क्या आपको पता है, इस जगह के बारे में एक कहानी है?"

"कहानी?" नीलेश ने उत्सुक होकर पूछा।

"हाँ," वंदिता ने धीमे स्वर में कहा, "लोग कहते हैं यहाँ बहुत साल पहले एक लड़की अचानक गायब हो गई थी। किसी ने उसे फिर कभी नहीं देखा।"

नीलेश ने थोड़ा हँसने की कोशिश की, "शायद अफ़वाह होगी।"

वंदिता ने आँखों में अजीब चमक के साथ कहा, "शायद। लेकिन अफ़वाहें भी कभी–कभी सच्चाई छुपाती हैं।"

नीलेश को उसके शब्दों ने भीतर तक छू लिया। वह लड़की जितनी मासूम लग रही थी, उतनी ही रहस्यमयी भी।

रात ढलने लगी थी। नीलेश अपने कमरे में लौटा तो बार-बार वही बातें उसके दिमाग में घूम रही थीं। वंदिता की मुस्कान, उसका रहस्यमयी अंदाज़ और अचानक कही गई कहानियाँ।

उसने सोचा, क्यों लग रहा है जैसे यह मुलाक़ात साधारण नहीं है?

बालकनी से बाहर झाँका तो उसने देखा — दूर सड़क पर कोई खड़ा है। धुंध में चेहरा साफ़ नहीं दिख रहा था, लेकिन कद-काठी देखकर वह समझ गया कि वह वंदिता ही है।

वह हैरान होकर नीचे भागा। बाहर आकर उसने चारों ओर देखा, पर वहाँ कोई नहीं था। खाली सड़क पर बस हवा सरसराती थी।

"अजीब है," उसने खुद से कहा, "क्या मैंने सच में उसे देखा या यह मेरा वहम था?"

अगले दिन सुबह नीलेश फिर उस पगडंडी पर गया। वह सोच रहा था कि शायद वंदिता से मुलाक़ात हो जाए। और सचमुच, थोड़ी देर बाद वह आई।

नीलेश ने संकोच से पूछा, "कल रात… तुम यहाँ थी?"

वंदिता ने उसकी ओर देखा और मुस्कुराई, "रात? मैं तो अपने कमरे में थी।"

"लेकिन… मैंने देखा था," नीलेश ने अटकते हुए कहा।

वंदिता ने बिना झिझक के कहा, "शायद सपना देखा होगा।"

नीलेश को उसकी मुस्कान में कुछ छुपा हुआ सा लगा। वह कुछ कहना चाहता था, पर चुप रह गया।

दिन बीतते रहे। दोनों रोज़ मिलते, बातें करते और वादियों में घूमते। नीलेश का अकेलापन धीरे–धीरे वंदिता की मौजूदगी से भरने लगा। लेकिन हर बार उसे लगता, वंदिता की आँखों में कोई अनकहा रहस्य है।

एक शाम जब सूरज पहाड़ों के पीछे डूब रहा था, नीलेश ने हिम्मत करके पूछा, "तुम्हारी आँखों में हमेशा एक उदासी क्यों होती है?"

वंदिता ने धीरे से कहा, "क्योंकि हर खुशी का साथ हमेशा नहीं होता।"

नीलेश ने उसकी ओर देखा, "मतलब?"

वंदिता सिर झुका कर बोली, "कभी–कभी इंसान को खुद भी नहीं पता होता कि वह कब और कहाँ गुम हो जाएगा।"

नीलेश सन्न रह गया। उसे लगा जैसे वंदिता कोई पहेली बोल रही है।

उस रात नीलेश करवटें बदलता रहा। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। अचानक खिड़की से आती ठंडी हवा के बीच उसे फिर वही छाया दिखी। इस बार बिल्कुल साफ़ — वह वंदिता थी, जो सड़क पर खड़ी होकर उसकी ओर देख रही थी।

नीलेश घबराकर दरवाज़ा खोलकर बाहर भागा। उसने देखा कि वंदिता धीरे-धीरे अंधेरी गली की ओर जा रही है।

"वंदिता!" नीलेश ने आवाज़ दी।

लेकिन उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। नीलेश दौड़ा, पर जैसे ही वह गली के पास पहुँचा, वंदिता अचानक धुंध में गुम हो गई। वह चारों ओर देखता रह गया। न कोई आवाज़, न कोई निशान। सिर्फ़ अंधेरा।

उसके होठों से अनायास निकला — "ये क्या हो रहा है?"

नीलेश रातभर उस गली के बारे में सोचता रहा। उसकी आँखों में वही दृश्य घूम रहा था — वंदिता का अंधेरे में गायब हो जाना। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह सच था या उसका वहम।

सुबह जैसे ही धूप खिड़की से भीतर आई, नीलेश बिना देर किए नीचे उतरा और उस गली तक गया। गली शांत थी, वहाँ किसी के कदमों के निशान तक नहीं थे। उसने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई, पर सब कुछ सामान्य था। क्या वाकई कल रात मैंने उसे यहाँ देखा था?

अचानक पीछे से एक आवाज़ आई, "आप यहाँ क्या ढूँढ रहे हैं?"

नीलेश पलटा। सामने वंदिता खड़ी थी। उसके चेहरे पर वही मासूम मुस्कान थी, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

नीलेश ने संकोच से कहा, "कल रात… मैंने तुम्हें इसी गली में जाते देखा था। फिर तुम अचानक गायब हो गईं।"

वंदिता हँसी, "आप मज़ाक तो नहीं कर रहे? मैं तो अपने कमरे में थी।"

नीलेश ने गंभीर होकर कहा, "मैंने अपनी आँखों से देखा था।"

वंदिता ने उसकी ओर ध्यान से देखा, फिर बोली, "कभी–कभी नींद और जागने के बीच हमें अजीब चीज़ें दिखती हैं। आपको शायद सपना आया होगा।"

नीलेश चुप हो गया। उसकी मुस्कान में कुछ ऐसा था जिसे वह पकड़ नहीं पा रहा था।

दिन धीरे–धीरे बीतते गए। नीलेश और वंदिता साथ घूमते रहे। पर नीलेश के मन में अब एक सवाल लगातार चुभता रहता — क्या वंदिता में कोई रहस्य छुपा है?

एक शाम जब दोनों पहाड़ी रास्ते पर टहल रहे थे, नीलेश ने हिम्मत करके पूछा, "वंदिता, क्या तुम्हें कभी डर नहीं लगता? ये जंगल, ये गहराई, ये अंधेरे रास्ते…"

वंदिता ने मुस्कुराकर कहा, "डर तब लगता है जब इंसान अपने भीतर से भाग रहा हो।"

"मतलब?" नीलेश ने चौककर पूछा।

वंदिता ने नजरें झुका लीं, "कुछ नहीं… बस यूँ ही कह दिया।"

उसी शाम नीलेश का पुराना दोस्त रक्षित हिल स्टेशन पर पहुँच गया। उसने नीलेश को फोन किया और दोनों होटल के लॉबी में मिले।

"कहाँ गायब हो गया था तू?" रक्षित ने मज़ाक में कहा, "फोन तक नहीं उठाता।"

नीलेश ने मुस्कुराते हुए कहा, "बस यहाँ थोड़ा चैन मिल रहा है।"

"चैन? या कोई मिल गई है?" रक्षित ने हँसते हुए आँख दबाई।

नीलेश हँसकर रह गया, लेकिन तुरंत गंभीर होकर बोला, "हाँ, किसी से मिला हूँ। नाम है वंदिता।"

रक्षित ने उत्सुक होकर पूछा, "ओह… कैसी है?"

नीलेश ने कहा, "अजीब है। खूबसूरत भी, रहस्यमयी भी। कभी लगता है सब कुछ सच्चा है, कभी लगता है जैसे कोई सपना हो।"

रक्षित ने मजाक छोड़कर गंभीरता से कहा, "रहस्यमयी? तूने ठीक से जाँच की है? अजनबी जगहों पर अक्सर लोग वैसे नहीं होते जैसे दिखते हैं।"

नीलेश चुप रहा। उसे खुद भी यही डर सताता था।

अगले दिन रक्षित और नीलेश दोनों वंदिता से मिले। वंदिता बेहद सहज थी, उसने रक्षित से भी खूब बातें कीं। लेकिन रक्षित बार–बार नीलेश की तरफ देखकर आँखों से इशारा करता रहा, मानो कह रहा हो इस लड़की में कुछ गड़बड़ है।

उस रात होटल में बैठकर रक्षित ने नीलेश से कहा, "देख भाई, मैं तुझे डराना नहीं चाहता। पर मैंने गौर किया है — जब भी तू वंदिता के साथ होता है, उसके आस–पास एक अजीब सा सन्नाटा छा जाता है। जैसे वक़्त रुक गया हो।"

नीलेश ने चौंककर कहा, "तुझे भी ऐसा लगता है?"

"हाँ," रक्षित ने दृढ़ता से कहा, "और मैंने सुना है, इस जगह पर सालों पहले एक लड़की गायब हुई थी।"

नीलेश अचानक सन्न हो गया। वही कहानी वंदिता ने भी बताई थी। क्या यह संयोग हो सकता है?

कुछ दिन बाद, नीलेश होटल की लाइब्रेरी में किताब ढूँढ रहा था। धूल से भरी अलमारी के कोने से उसे एक पुरानी डायरी मिली। पन्ने पीले हो चुके थे और कवर पर नाम लिखा था — "वंदिता…"

नीलेश की साँसें थम गईं। उसने जल्दी–जल्दी पन्ने पलटे। उसमें लिखा था —"आज मैंने उस पुराने पेड़ के पास एक अजनबी लड़के को देखा। उसने मुझसे बात की, लेकिन मुझे डर है कि अगर किसी को पता चला तो सब कुछ खत्म हो जाएगा। मुझे लगता है कोई मुझे देख रहा है… मुझे लगता है मैं जल्द ही कहीं गुम हो जाऊँगी।"

नीलेश के हाथ काँप उठे। यह डायरी उसी लड़की की थी, जिसका ज़िक्र लोग करते थे — जो सालों पहले अचानक गायब हो गई थी। और सबसे हैरानी की बात यह थी कि डायरी में बनी तस्वीरें बिल्कुल वंदिता जैसी दिखती थीं।

रात को नीलेश बेचैन होकर वंदिता से मिला। उसने डायरी उसके सामने रख दी और कहा, "ये तुम्हारी है?"

वंदिता ने डायरी देखी, कुछ पल चुप रही, फिर धीरे से बोली, "कहाँ मिली तुम्हें?"

"होटल की लाइब्रेरी में।"

वंदिता ने गहरी साँस ली और बोली, "ये… मेरी नहीं है। लेकिन हाँ, इसमें जिसके बारे में लिखा है, वो कोई और थी… बहुत साल पहले।"

नीलेश ने कठोर स्वर में कहा, "लेकिन तस्वीरें बिल्कुल तुम्हारी जैसी हैं। ये कैसे संभव है?"

वंदिता ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा, "कुछ बातें समझने के लिए समय चाहिए। अगर तुम मुझ पर भरोसा करते हो तो सवाल मत पूछो।"

नीलेश के मन में तूफ़ान उठ रहा था। क्या यह वही लड़की है जो सालों पहले गायब हुई थी?

उस रात नीलेश अपने कमरे में अकेला बैठा रहा। खिड़की से बाहर अंधेरा घना होता जा रहा था। अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई।

नीलेश ने दरवाज़ा खोला तो कोई नहीं था। लेकिन ज़मीन पर वही डायरी पड़ी थी, जिसमें आख़िरी पन्ने पर नई लिखावट दिखाई दे रही थी — "मैं वापस आ गई हूँ। लेकिन इस बार, मैं फिर से गायब हो जाऊँगी… अंधेरे में।"

नीलेश का दिल जोर–जोर से धड़कने लगा। वह पन्ने को घूरता रहा। लिखावट ताज़ा थी। लेकिन सवाल यही था — इसे लिखा किसने?

डायरी के उस आख़िरी पन्ने ने नीलेश के मन में तूफ़ान खड़ा कर दिया था। उसने कई बार पन्ने को पढ़ा — "मैं वापस आ गई हूँ। लेकिन इस बार, मैं फिर से गायब हो जाऊँगी… अंधेरे में।"
लिखावट बिल्कुल ताज़ा थी। उसने हाथ से छूकर भी देखा, स्याही अभी–अभी सूखी थी।

नीलेश की नींद उड़ गई थी। वह खिड़की से बाहर झाँकता रहा। धुंध छाई थी और हवा पेड़ों से टकराकर अजीब आवाज़ें कर रही थी। उसे लगा जैसे कोई पास ही खड़ा हो और उसे देख रहा हो।

अगली सुबह जब वह वंदिता से मिला, तो बहुत बेचैन था। उसने डायरी का ज़िक्र किया, लेकिन वंदिता ने मुस्कुराकर कहा, "तुम ज़्यादा सोचने लगे हो। ये सब इत्तफ़ाक़ है।"

नीलेश ने गंभीर होकर कहा, "ये इत्तफ़ाक़ नहीं है। हर बार जब मैं तुम्हारे साथ होता हूँ, मुझे लगता है तुम मुझे किसी और कहानी में ले जा रही हो। सच क्यों नहीं बताती?"

वंदिता कुछ पल चुप रही। उसकी आँखें नम हो गईं। उसने धीमे स्वर में कहा, "क्योंकि कुछ सच ऐसे होते हैं, जिन्हें जानने के बाद इंसान कभी पहले जैसा नहीं रह पाता।"

नीलेश उसके चेहरे को देखता रह गया। उसमें एक अजीब सी पीड़ा झलक रही थी।

धीरे–धीरे, अनजाने में ही सही, नीलेश का दिल वंदिता के लिए धड़कने लगा। उसकी रहस्यमयी बातें, उसकी मासूम मुस्कान, और उसके भीतर छुपा दर्द — सब मिलकर नीलेश को उससे बाँधते जा रहे थे।

एक दिन वादियों के बीच, जब दोनों अकेले टहल रहे थे, नीलेश ने साहस जुटाकर कहा, "वंदिता, अगर कभी मुझे चुनना पड़ा — सच और तुम्हारे बीच — तो मैं तुम्हें चुनूँगा।"

वंदिता ने उसकी आँखों में देखा। कुछ पल बाद वह बोली, "शायद तुम्हें पता ही नहीं है कि तुम क्या कह रहे हो।"

"पता है," नीलेश ने दृढ़ स्वर में कहा, "मैं जानता हूँ कि मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता।"

वंदिता ने हल्की मुस्कान दी, लेकिन उसके चेहरे पर दर्द साफ़ दिख रहा था।

उसी दिन शाम को, नीलेश की मुलाक़ात पहली बार अवंतिका से हुई। वह कैफ़े में अकेला बैठा कॉफी पी रहा था कि एक लड़की ने उसके सामने कुर्सी खींच ली। उसके बाल कंधों पर बिखरे थे और आँखों में अजीब सी कठोरता थी।

"तुम नीलेश हो?" उसने सीधे सवाल किया।

नीलेश ने चौंककर कहा, "हाँ… आप?"

"मैं अवंतिका," उसने जवाब दिया।

नीलेश हैरान रह गया। "तुम्हें मेरा नाम कैसे पता?"

अवंतिका ने ठंडी हँसी हँसी, "वंदिता ने बताया होगा। आखिर वो तुम्हारे साथ रोज़ घूमती है।"

नीलेश चुप रहा।

अवंतिका झुककर बोली, "सुनो, मैं तुम्हें एक चेतावनी देने आई हूँ। उससे दूर रहो। वंदिता जैसी दिखती है, वैसी है नहीं।"

नीलेश ने विरोध में कहा, "नहीं, तुम गलत हो। तुम उसे नहीं जानती।"

अवंतिका की आँखों में गुस्सा चमका। "मैं उसे तुमसे ज़्यादा जानती हूँ। और यही वजह है कि कह रही हूँ — अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी तो पछताओगे।"

यह कहकर वह अचानक उठी और कैफ़े से चली गई। नीलेश अवाक रह गया।

उस रात नीलेश बेचैन था। उसने वंदिता से मिलकर पूछा, "तुम अवंतिका को जानती हो?"

वंदिता का चेहरा सख़्त हो गया। उसने धीरे से कहा, "तुम उससे मिले?"

"हाँ," नीलेश ने कहा, "और उसने मुझे तुमसे दूर रहने को कहा। क्यों? सच क्या है?"

वंदिता ने गहरी साँस ली और बोली, "अवंतिका मेरी पुरानी दोस्त है। लेकिन अब वह मुझे समझती नहीं। वह सोचती है कि मैं… मैं जैसी दिखती हूँ वैसी हूँ नहीं।"

"और क्या तुम सच में वैसी नहीं हो जैसी दिखती हो?" नीलेश ने सीधे पूछा।

वंदिता ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखों में आँसू थे। "कभी–कभी मैं खुद भी नहीं जानती कि मैं कौन हूँ।"

अगले दिन रक्षित ने नीलेश से कहा, "यार, मुझे अच्छा नहीं लग रहा। तेरा चेहरा देखकर साफ़ समझ आ रहा है कि तू इस लड़की के चक्कर में फँस गया है। लेकिन सोच — अगर अवंतिका सच कह रही हो तो?"

नीलेश झल्लाकर बोला, "तुम दोनों क्यों बार-बार उसे गलत साबित करना चाहते हो? मैं उसे जानता हूँ।"

रक्षित ने ठंडे स्वर में कहा, "जानता है या बस मानना चाहता है?"

नीलेश चुप रह गया।

उस शाम वादियों में अचानक मौसम बदल गया। तेज़ आँधी आई, पेड़ हिलने लगे। नीलेश और वंदिता पुराने पेड़ के पास खड़े थे। नीलेश ने कहा, "मुझे लगता है कोई हमें देख रहा है।"

वंदिता ने उसकी ओर देखा और धीमे स्वर में कहा, "कभी–कभी साये भी हमारे पीछे चलते हैं।"

इतना कहते ही अचानक पेड़ की डाल टूटकर नीलेश की ओर गिरी। वंदिता ने उसे ज़ोर से धक्का देकर बचा लिया।

नीलेश ज़मीन पर गिरा और काँपती आवाज़ में बोला, "ये क्या था? दुर्घटना… या किसी ने जानबूझकर किया?"

वंदिता ने कुछ नहीं कहा। उसकी आँखों में डर साफ़ दिख रहा था।

उस रात नीलेश अपने कमरे में बैठा सोचता रहा। उसके मन में तीनों चेहरे घूम रहे थे — वंदिता की रहस्यमयी मुस्कान, अवंतिका की चेतावनी, और रक्षित की शंका।

उसने डायरी का आख़िरी पन्ना फिर खोला। वही लाइन — "मैं वापस आ गई हूँ… लेकिन इस बार फिर अंधेरे में गायब हो जाऊँगी।"

उसके दिल में सवाल और गहरा हो गया — क्या वंदिता वही लड़की है जो सालों पहले गायब हुई थी? या फिर वह कोई और खेल खेल रही है?

नीलेश अब पूरी तरह उलझ चुका था। एक तरफ़ उसका दिल वंदिता के लिए धड़क रहा था, दूसरी तरफ़ उसके सामने सच की परतें खुलने लगी थीं। रक्षित लगातार उसे चेतावनी देता, और अवंतिका की बातें उसके मन को और बेचैन कर देतीं।

उस सुबह नीलेश ने तय कर लिया कि वह अब चुप नहीं बैठेगा। उसने वंदिता से साफ़–साफ़ पूछना था कि असलियत क्या है।

वह उसे उसी पुराने पेड़ के पास ले गया। हवा में अजीब सी ठंडक थी।

"वंदिता," नीलेश ने सीधे कहा, "अब और झूठ मत बोलो। मैं सब जानना चाहता हूँ। तुम कौन हो? तुम्हारा इस डायरी से क्या रिश्ता है? और अवंतिका क्यों कहती है कि तुम वैसी नहीं हो जैसी दिखती हो?"

वंदिता की आँखें छलक उठीं। उसने धीरे से कहा, "नीलेश, मैंने कभी चाहा ही नहीं था कि तुम इसमें उलझो। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है।"

नीलेश ने उसका हाथ पकड़ लिया, "नहीं वंदिता, देर नहीं हुई। सच बताओ।"

वंदिता काँपती आवाज़ में बोली, "वो डायरी… मेरी ही है। सालों पहले मैं यहीं रहती थी। लेकिन एक रात…"

वह वाक्य पूरा नहीं कर पाई। उसके होंठ काँपने लगे।

उसी समय पीछे से आवाज़ आई — "आख़िरकार तुमने मान ही लिया।"

दोनों ने पलटकर देखा। अवंतिका खड़ी थी। उसके चेहरे पर गुस्सा और पीड़ा दोनों थे।

अवंतिका ने नीलेश की ओर इशारा करते हुए कहा, "देखा, मैंने कहा था न? वंदिता वही है, जो सालों पहले मरी थी।"

नीलेश स्तब्ध रह गया। "क्या?!"

वंदिता ने सिर झुका लिया।

अवंतिका गुस्से में बोली, "मैंने उस रात सब देखा था। उस घर में, जो अब खंडहर बन चुका है… वहीं उसकी हत्या हुई थी। और उसी रात से यह आत्मा बार-बार लौटती है।"

नीलेश के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसने अविश्वास से वंदिता को देखा। "ये सच नहीं हो सकता…"

वंदिता ने आँसू पोंछते हुए कहा, "काश ये सच न होता। पर यही सच्चाई है। मैं वही लड़की हूँ, जो उस रात अंधेरे में गायब हो गई थी।"

नीलेश के लिए यह सुनना आसान नहीं था। उसका दिल कह रहा था कि वह सब झूठ है, पर उसकी आँखें देख रही थीं कि वंदिता सच बोल रही है।

"लेकिन… तुम मेरे सामने ज़िंदा कैसे हो?" उसने काँपते स्वर में पूछा।

वंदिता ने धीमे स्वर में कहा, "मैं पूरी तरह ज़िंदा नहीं हूँ। मैं औरों की तरह जीती नहीं। मेरा वजूद बस उन यादों और अधूरी चाहतों में है जो मुझे बाँधे हुए हैं।"

अवंतिका ने जोड़ते हुए कहा, "यही वजह है कि यह हर बार लौट आती है। और जब इसका समय पूरा होता है, यह फिर अंधेरे में गुम हो जाती है।"

रक्षित, जो इस बातचीत के बीच वहाँ आ पहुँचा था, सन्न रह गया।
"तो… मतलब नीलेश, तू जिस लड़की से प्यार करता है, वह इंसान ही नहीं, एक आत्मा है?"

नीलेश ने रक्षित की ओर गुस्से से देखा। "वह सिर्फ़ आत्मा नहीं है। वह मेरी ज़िंदगी है। मैं इसे खो नहीं सकता।"

वंदिता ने आँखों में दर्द भरकर कहा, "तुम्हें मुझे खोना ही पड़ेगा, नीलेश। यही मेरी नियति है।"

रात होते ही नीलेश बेचैन हो गया। उसने खुद उस पुराने घर तक जाने का फ़ैसला किया, जिसका ज़िक्र अवंतिका ने किया था।

वह खंडहर वाकई वीरान था। टूटी खिड़कियाँ, जाले और सन्नाटा। नीलेश ने टॉर्च जलाकर भीतर कदम रखा। हवा में अजीब सी गंध थी।

अचानक उसे एक कमरे की दीवार पर खून से लिखे शब्द दिखाई दिए —"मैं यहाँ हूँ… हमेशा के लिए।"

नीलेश का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा। तभी पीछे से वंदिता की आवाज़ आई। "अब तुम सब जान चुके हो। यही वो जगह है जहाँ मेरी ज़िंदगी खत्म हुई थी।"

नीलेश पलटा। वंदिता वहाँ खड़ी थी, उसकी आँखों में आँसू थे लेकिन चेहरा बेहद शांत था।

"किसने… किसने किया ये सब?" नीलेश ने काँपते हुए पूछा।

वंदिता ने धीमे स्वर में कहा, "आज तक किसी को पता नहीं चला। लेकिन उस रात… मैं बस गायब हो गई। और तभी से, जब भी कोई मुझे याद करता है, मैं लौट आती हूँ।"

नीलेश ने उसके करीब आकर कहा, "तो इस बार मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा। चाहे तुम आत्मा हो या इंसान, तुम मेरी हो।"

वंदिता की आँखों से आँसू बह निकले। "अगर तुमने मुझे रोकने की कोशिश की, तो तुम भी उसी अंधेरे में खो जाओगे जहाँ मैं हूँ।"

रक्षित और अवंतिका भी वहाँ पहुँच गए थे। अवंतिका ने नीलेश का हाथ पकड़कर खींचा। "मत भूलो, यह तुम्हारे बस में नहीं है। इसे जाना ही होगा।"

रक्षित ने गंभीर होकर कहा, "नीलेश, प्यार अंधा होता है। पर सच को अनदेखा करने से सच बदल नहीं जाता।"

वातावरण भारी होता जा रहा था। ठंडी हवाएँ तेज़ हो गईं। घर की खिड़कियाँ अपने आप बंद होने लगीं। नीलेश समझ गया कि कुछ होने वाला है।

वंदिता ने काँपते स्वर में कहा, "नीलेश… अगर तुम सच जान चुके हो, तो अब मेरा साथ छोड़ दो। वरना तुम भी इस अंधेरे का हिस्सा बन जाओगे।"

नीलेश ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया। "मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता।"

अवंतिका चिल्लाई, "नीलेश! ये तुम्हें हमेशा के लिए खींच लेगी!"

और तभी अचानक तेज़ हवा चली, कमरा अंधेरे से भर गया।

वंदिता की आवाज़ गूँजी —"अगली सुबह, शायद मैं यहाँ न रहूँ…"

नीलेश चीख पड़ा, "नहीं वंदिता! तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकती!"

लेकिन उसकी चीखें उस अंधेरे में गुम हो गईं। कमरे में सिर्फ़ सन्नाटा रह गया।

खंडहर की दीवारें कराह रही थीं। हवा की सनसनाहट और दरवाज़ों की चरमराहट मिलकर मानो कोई अनजाना गीत गा रही थीं। नीलेश ठिठका खड़ा था। उसकी आँखों के सामने अंधेरा गहराता जा रहा था, और वंदिता धीरे–धीरे धुंध में विलीन होने लगी।

"नहीं!" नीलेश चीख पड़ा। "तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकती!"

उसकी आवाज़ दीवारों से टकराकर गूँज उठी। रक्षित और अवंतिका भी वहीं थे, पर दोनों के चेहरे पर डर साफ़ था।

अवंतिका ने ज़ोर से कहा, "नीलेश! यह तुम्हारे बस का नहीं है। यह आत्मा है, इसे रुकना नहीं चाहिए।"

नीलेश ने आँखों में आँसू लिए कहा, "ये आत्मा नहीं, मेरी मोहब्बत है।"

रक्षित ने उसका कंधा पकड़ा, "मोहब्बत सच्ची है, लेकिन मौत को कोई नहीं बदल सकता।"

वंदिता ने धीरे से हाथ उठाया। उसकी आँखों में आँसू थे लेकिन चेहरा शांत था। "नीलेश, मेरी कहानी यहीं खत्म होती है। तुम चाहो तो मुझे याद रख सकते हो, लेकिन मुझे रोकना मत। मैं अब इस अंधेरे से आज़ाद होना चाहती हूँ।"

नीलेश ने पागलों की तरह सिर हिलाया। "नहीं वंदिता! मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता। अगर तुम जा रही हो, तो मुझे भी अपने साथ ले चलो।"

वंदिता की आँखें काँप गईं। उसने रोते हुए कहा, "नहीं! मैं नहीं चाहती कि तुम भी मेरी तरह अधूरी कहानी बन जाओ।"

उसने हाथ बढ़ाकर नीलेश का चेहरा छुआ। उसके स्पर्श में ठंडक थी, मानो बर्फ की तरह।

"तुम्हारी ज़िंदगी अभी बाकी है। मैं नहीं चाहती कि मेरा अतीत तुम्हारा भविष्य बन जाए।"

अचानक हवा और तेज़ हो गई। घर की दीवारें हिलने लगीं। धूल और धुंध चारों तरफ़ छा गई। रक्षित और अवंतिका बाहर भाग गए।

"चल नीलेश, यहाँ से!" रक्षित चिल्लाया।

लेकिन नीलेश वहीं जड़ हो गया। वह सिर्फ़ वंदिता को देख रहा था।

वंदिता मुस्कुराई। "तुमने मुझे एक बार फिर इंसान होने का अहसास दिलाया। तुम्हारा प्यार ही मेरी आख़िरी याद होगी।"

धीरे–धीरे उसका शरीर पारदर्शी होने लगा। नीलेश ने ज़ोर से उसका हाथ पकड़ना चाहा, लेकिन उसका हाथ हवा में ही फिसल गया।

नीलेश चीख पड़ा, "वंदिताआआआ!" उसकी आवाज़ पूरे खंडहर में गूँज उठी।

पर वंदिता की परछाईं धुंध में गुम हो चुकी थी। वहाँ सिर्फ़ अंधेरा रह गया।

कुछ देर बाद सब शांत हो गया। हवा थम गई, दरवाज़ों की आवाज़ रुक गई। नीलेश घुटनों पर गिरा रो रहा था।

अवंतिका धीरे से बोली, "मैंने कहा था न… ये कभी तुम्हारा हिस्सा नहीं बन सकती।"

रक्षित ने नीलेश को संभालते हुए कहा, "चल, यहाँ से चलते हैं।"

नीलेश ने आँसुओं से भरी आँखों से चारों ओर देखा। उस घर की दीवारें अब खामोश थीं, जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो।

अगली सुबह, सूरज की रोशनी पहाड़ों पर फैल चुकी थी। नीलेश होटल की बालकनी में खड़ा था। उसके चेहरे पर गहरी उदासी थी।

रक्षित उसके पास आया और बोला, "तू ठीक है?"

नीलेश ने धीमी आवाज़ में कहा, "नहीं। पर जीना पड़ेगा।"

उसकी आँखें दूर घाटी की तरफ़ टिकी थीं। धुंध के बीच उसे लगा, जैसे कहीं दूर वंदिता खड़ी है, उसी नीली ड्रेस में, मुस्कुराते हुए।

उसने पलक झपकाई, और वह दृश्य गायब हो गया।

नीलेश के मन में सवाल गूँज रहा था, क्या वंदिता सच में कभी थी भी, या वह सिर्फ़ एक अधूरी याद थी जो उसके दिल में जन्मी?

उसका दिल कह रहा था, वह थी। वह मेरी थी। लेकिन दिमाग कह रहा था, वह कभी इस दुनिया में थी ही नहीं।

ll समाप्त ll
(स्व रचित - मधु शालिनी वर्मा)

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