मनुष्य के जीवन में पर्व बहुत महत्व रखते हैं। सुबह से शाम हो फिर दूसरे दिन की सुबह से फिर शाम। इस प्रकार आदमी अपने जीवन यापन के लिए कार्य करता रहता है। महीने के बाद महीना इसी प्रकार वर्षों बीत जाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि वर्षों जाते हैं। जीवन भी बीत जाता है। कुछ व्यक्ति अपना भाग्य ऐसा लेकर आते हैं कि बुढ़ापे में भी काम करने से फुर्सत नहीं मिलती। कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो फैक्ट्री में आठ घंटे की ड्यूटी करने के पश्चात फिर से दोबारा आठ घंटे की ड्यूटी करने लगते हैं। यह इसलिए है की ओवर टाइम करने के पश्चात कुछ आमदनी हो जाएगी जिससे घर का खर्च चल जाएगा।
दूसरी तरफ हमारे कुछ भाई-बहन ऐसे भी हैं जिनको ना होली ना दिवाली मनाने की फुर्सत मिलती है। ये हमारे फौजी और पुलिस के भाई हैं। दिवाली के रोज यदि शहर में पुलिस गस्त में लगाए तो बहुत बड़ी अव्यवस्था फैल सकती है। वहीं दूसरी ओर हमारे फौजी भाई हैं जो हमारी सिमाओं पर तैनात रहते हैं। वे यदि कहीं दिवाली मनाने लग जाए तो दुश्मन बहुत बड़ा फायदा उठा सकता है। संभव है उन्हें दिवालि और होली का पता भी नहीं होता होगा।
समाज में तीसरा वर्ग वह है जो हमेशा अपनी दो समय की रोटी की ही चिंता करता है। यदि उनका चूल्हा सुबह जल गया तो शाम की चिंता होती है। परंतु उनका एक नियम पक्का रहता है की संध्या हुई तो एक दीपक देहरी पर जला लिया, यदि और थोड़ी सी संपन्नता हुई तो एक अंदर कमरे में जला लिया। उनकी यही दिवाली होती है। उन्हें कभी भी दिवाली पर नए-नए वस्त्र या नई-नई चीजों की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती। यह नहीं कि उनको इच्छा नहीं होती परंतु यह कि वे अपनी इच्छाओं को दमन करना जानते हैं। ऐसे व्यक्तियों के पास यदि थोड़ा बहुत पैसा आ भी जाए तो भी वे सबसे पहले उन आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं जिससे पेट भरता रहे। यदि पेठ भरा हुआ है तो प्रतिदिन दिवाली है। कहते हैं गरीबी में बच्चे अधिक होते हैं। आमदनी कम होने के कारण ऐसे परिवार बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति पहले करते हैं और यदि कुछ बच गया तो अपनी पूर्ति करते हैं।
मध्यवर्ग का भी यही हाल है। मध्य वर्ग भी सोचता है कि क्या बचाऊं अपने लिए क्या बचाऊं बच्चों के लिए। दिवाली सामने आ गई है कहां से क्या लाऊं। आसपास के परिवारों को देखकर फिर भी मध्यम वर्ग अपनी इज्जत को ढक ने लिए बच्चों के लिए दो तीन नवीन वस्त्र ले आता है पत्नी के लिए साड़ी ले आता है और अपने लिए धोती के स्थान पर पंछा ले आता है।चार पांच पटाखे ले आता है और चार-पांच दीपक जला लेता है। मिठाई के स्थान पर कुछ बताशे या एक दो खिलौने ले आता है। क्योंकि लड्डू वगैरा उसकी पहुंच से बाहर होते हैं। इन थोड़ी सी वस्तुओं में वह असीम प्रसन्नता का अनुभव करता है। अन्य थोड़ी सी वस्तुओं में से वह लक्ष्मी गणेश जी का भोगी लगा देता है और प्रार्थना करता है कि 'हे प्रभु आप मुझे इसी प्रकार प्रसन्न रखना'। उसके मन में कोई बहुत बड़ी बुर्ज खलीफा जैसी इमारत नहीं बनानी या कोई बहुत बड़ा राष्ट्रपति भवन जैसा महल नहीं बनाना, वह अपने एक कमरे के घर में ही बहुत प्रसन्न रहता है। आखिर त्यौहार तो प्रसन्नता के लिए ही मनाया जाता है। यदि प्रसन्नता नहीं है तो वह त्यौहार नहीं है।
प्रसन्नता बहुत बड़े मिठाई के डब्बे या आभूषणों के डब्बे या हजार दो हजार पटाखे लाने से नहीं आती। या पांच सात जोडी मंहगे वस्त्र लाने से आती है। प्रसन्नता तो एक दो फूल झड़ी या एक दो पटाखे चलाने से भी आती है। फिजूल खर्ची प्रसन्नता नहीं लाती या पैसे होते हुए भी अधिक कंजूसी करना भी प्रसन्नता नहीं लाती। ईश्वर ने यदि धन दिया है तो उसको विवेक पूर्ण ढंग से खर्च करना चाहिए खर्च।
आप लक्ष्मी का सम्मान करें लक्ष्मी आपका सम्मान करेगी। हमारे बुजुर्ग भी यही कह गए हैं की धन या लक्ष्मी हमेशा किसी के पास स्थाई रूप से नहीं रहती वह हमेशा हस्तांतरित या हाथ बदलती रहती है। कभी किसी के पास है और कभी किसी के पास है। जो कभी लाल किले के मालिक हुआ करते थे आज वे चार कमरे के मकान में या कहीं रिक्शा चलाते हुए मिल जाएंगे।
बात दिवाली की हो रही थी। सदा दिवाली गरीब की। तुलसीदास कहते हैं की गरीबी सबसे बड़ा अभिशाप है। परंतु यह अभिशाप तब होता है जब हम दूसरे की होड में लग जाए और मन में यह विचार करें कि हमारे पास तो कुछ नहीं है उनका पूरा घर जगमगा रहा है और घर के सामने दस महंगी करें खड़ी हुई है। अपनी दूसरों से बराबरी करना या दूसरों को देखकर मन में कुंठित होना यह बची कुची प्रसन्नता को भी समाप्त कर देता है। आपने कभी विचार किया है कि बड़े-बड़े घरों में क्या हो रहा है उनके घरों में कितने उपद्र मच रहे हैं कितनी लड़ाई झगड़ा हो रहे हैं, जुआ खेल रहे हैं और कितनी शराब पी रहे हैं।
खैर दिवाली के त्योहार पर हमारा उद्देश्य दूसरों के घरों में झांकने का नहीं है परंतु अपनी प्रसन्नता कायम रखने का है। गरीबी अभिशाप तो अवश्य है परंतु इसमें बहुत बड़ी प्रसन्नता छुपी हुई है। भगवान कृष्ण के द्वारिका जाने के समय अपनी बुआ कुंती से मिलते हैं और आग्रह करते हैं बुआ मैं आपकी क्या सहायता करूं, कुंती कहती है 'हे कृष्ण तुम मुझे हमेशा ऐसे ही दुख में रखना जिसे मैं तुम्हें याद करती रहूं'। भगवान संपन्नता में या वैभवता में बहुत कम याद आते हैं, इसीलिए कबीर कहते हैं
'दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय
जो सुख में सुमिरन करें तो दुख काहे को होय।
यदि किसी को संपन्नता में या अत्यधिक अमीरी में भगवान याद आते हैं तो वह बहुत बड़ा पूर्व जन्म का संत रिहा होगा।
गरीबी अभिशाप भी है और एक प्रकार से भगवान को याद करने का भी अवसर है। जिस क्षण भगवान का नाम याद आ जाए वहीं दिवाली है। क्योंकि गरीब आदमी आज की रोटी कमाने के पश्चात भगवान को याद करता है कि 'हे ईश्वर आज की रोटी का तो इंतजाम हो गया कल की रोटी का और इंतजाम कर देना'। वह हमेशा भगवान को याद करता रहता है इसलिए उसकी दिवाली रोजाना ही होती है।
LM SHARMA