अँधेरे में परछाई या रात की दस्तक?”
कहते हैं... कुछ चीज़ें सिर्फ अंधेरे में ही दिखाई देती हैं... और कुछ अंधेरे तो इतनी खौफनाक होती हैं की उनहे बया करना मुशकिल हो जाता हैं
दो हफ़्ते कैसे निकल गए, पता ही नहीं चला। कॉलेज से लौटकर हम हर शाम उसी पुराने मकान — हमारे पी.जी. — में लौटते थे, और धीरे-धीरे वो जगह भी हमें अपनी सी लगने लगी थी।
पड़ोस के बच्चे, सरला आँटी, नेहा — सब हमसे घुल-मिल गए थे। पर फिर भी... कुछ था... जो हर रात मुझे चैन से सोने नहीं देता था।
उस रात अमावस्या थी।
आसमान पर न चाँद था, न कोई रोशनी। सिर्फ़ स्याह अंधेरा। जब-जब बिजली चमकती, मुझे लगता कोई चेहरा है उस अंधेरे के पीछे — जो मेरी ही ओर ताक रहा है।
दिव्या मेरे पास गहरी नींद में सोई थी। मुझे प्यास लगी थी। मैं धीरे से उठी और किचन की ओर गई। जब चलती थी, तो टाइल्स पर मेरे कदमों की गूंज यूँ सुनाई देती... जैसे कोई और भी साथ-साथ चल रहा हो।
गिलास में पानी भरा ही था कि ऐसा लगा — कोई मुझे देख रहा है। खिड़की की तरफ़ देखा… सिर्फ अंधेरा और गीली मिट्टी की वही नम महक। हवा ऐसी जैसे गले में ही साँस अटक जाए।
"कुछ नहीं है डृष्टी... वहम है," मैंने ख़ुद को समझाया और वापस बिस्तर की ओर बढ़ी। पर जैसे ही लेटी... नज़र के कोने से एक परछाई दिखाई दी।
खिड़की के पास... एक औरत की छाया... धुँधली, सफेद साड़ी में लिपटी, उलझे बाल… और आँखें — सीधी मेरी तरफ़ देखती हुई।
मैं हिल भी नहीं सकी। साँसें जैसे जम गई थीं। आँखें ज़ोर से बंद कर लीं और चादर के अंदर छुप गई। बस होंठों से एक ही शब्द निकला —"सुबह हो जाए... प्लीज़..."
सुबह की रोशनी जब चेहरे पर पड़ी, तो बदन अभी भी काँप रहा था। मैं चुपचाप खिड़की को देखती रही। दिव्या पीछे से मुस्कराते हुए आई — "गुड मॉर्निंग! तेरे लिए चाय तैयार है।"
मैं बस उतना ही मुस्कराई जितना ज़रूरी था। उसे बताकर क्या फ़ायदा? वो तो हँसकर टाल देगी।
"जल्दी कर वरना आज फिर मिश्रा सर की क्लास में फ्री धमक पड़ेगी!" — दिव्या ने कहा और तैयार होने चली गई।
मैं खिड़की के पास गई। वही जगह थी जहाँ कल रात वो परछाई दिखी थी... या शायद सिर्फ़ मुझे दिखी थी?“अरे चल ना यार!” — दिव्या की आवाज़ ने मुझे ख्यालों से बाहर खींचा।“हाँ… कुछ नहीं,” मैंने कहा और हम कॉलेज की ओर निकल गए।
दिन भर की क्लासेस, दोस्त, गपशप — सब कुछ एक पल के लिए उस डर को भुला देता था। पर रात होते ही… मैं उसी खिड़की को देखती हुई सोती थी।
और फिर… वो रात आई — जब सब कुछ नॉर्मल नहीं था। उस दिन दिव्या को हल्का बुख़ार था, वो जल्दी सो गई। मैं पढ़ाई कर रही थी। करीब रात के डेढ़ बज रहे थे। तब...
KNOCK... KNOCK... KNOCK...
पहले तो लगा सपना है। पर नहीं — फिर से वही दस्तक। और फिर एक आवाज़... धीमी, पर मेरे कानों में सीधी उतरती हुई —
"डृष्टी..."
जैसे कोई बहुत पुरानी दीवार के पार से बोल रहा हो। मैंने कान बंद कर लिए... पर दस्तक जारी रही। दिव्या ने करवट बदली, आँख आधी खुली — “कोई है क्या?”... फिर सो गई। मैं चादर में दुबक गई… साँसें थाम लीं।
सुबह हुई... दुनिया वही थी। पर मैं बदल चुकी थी। क्या वो परछाई सच थी?क्या वाक़ई कोई मुझे बुला रहा था? या फिर मैं ही कुछ देख रही थी — जो किसी और को नज़र नहीं आ रहा था?
"वो दस्तक... क्या वो भी सच थी? या सिर्फ़ मेरे अंदर के डर की गूँज?"