कभी-कभी रूहें वक़्त से नहीं, मोहब्बत से बंधी रहती हैं…
और जब कोई जाता है, तो आधा दिल ज़िंदा रह जाता है।”
राघव के जाने के बाद मोहम्मदपुर की हवा भी भारी हो गई थी।
इमामबाड़े के पास जब लोग उसकी लाश देखे, तो किसी ने उसे हाथ तक नहीं लगाया।
कहा गया — “नीच जात था, खुदा का नाम भी नहीं जानता था।”
मगर किसी ने यह नहीं सोचा कि उसने अपनी जान उसी इमामबाड़े की दीवार के नीचे दी थी,
जहाँ उसने पहली बार मोहब्बत देखी थी।
आयरा ने जब यह सुना, तो उसकी आँखों से आवाज़ निकल गई —
बस होंठ काँपे, और वो गिर पड़ी।
तीन दिन तक बेहोश रही।
जब होश आया, तो उसने सबको चुपचाप देखा —
किसी के चेहरे पर ग़म नहीं, बस इज़्ज़त का डर था।
अब्बू ने कहा — “ये सब भूल जाओ, आयरा। वो तुम्हारे लायक नहीं था।”
आयरा ने धीमे से जवाब दिया — “शायद मैं ही उसके लायक नहीं थी, अब्बू।”
शादी जल्दी तय कर दी गई — लखनऊ के एक शिया व्यापारी, असर अब्बास से।
निकाह के दिन आयरा सफेद दुपट्टे में थी,
पर चेहरे पर सजी हँसी नक़ली थी।
क़ाज़ी ने कहा — “कबूल है?”
तीन बार “कबूल है” बोलते वक्त हर बार उसकी आँखों में राघव की मिट्टी तैर गई।
वो अब किसी और की बीवी थी —
मगर राघव की मोहब्बत उसके जिस्म से नहीं, रूह से बंधी थी।
लखनऊ में ज़िंदगी चलती रही — महलों जैसे घर में, गहनों की चमक में, लोगों की तारीफ़ों में।
मगर आयरा अब मुस्कुराना भूल गई थी।
रात को जब सब सो जाते,
वो खिड़की खोलकर आसमान को देखती और कहती —
“राघव, तू मिट्टी में है या मेरी साँसों में?”
वो वही किताब — दीवान-ए-मीर — हर रात पढ़ती।
कभी पन्नों से मिट्टी की खुशबू आती, कभी आँसुओं की नमी।
उसने हर रात उस किताब से बात करना शुरू कर दिया था,
जैसे राघव वहीं छुपा हो — किसी लफ़्ज़, किसी शेर, किसी मिट्टी की खुशबू में।
एक दिन मुहर्रम का महीना आया।
आयरा काले कपड़े पहनकर निकली — पहली बार अपने ससुराल से इजाज़त लेकर।
कहा — “मातम करने जा रही हूँ।”
मगर असल में, वो वापस मोहम्मदपुर जा रही थी —
उसी जगह, जहाँ सब खत्म हुआ था, और सब शुरू भी।
गाँव अब बदल चुका था — दीवारें नई, मगर नज़रों में वही पुराना डर।
इमामबाड़ा अब भी खड़ा था, मगर उसके एक कोने में अब कोई नहीं आता था —
वही कोना जहाँ राघव की आख़िरी साँसें टूटी थीं।
आयरा वहीं जाकर बैठ गई।
बरसात हो रही थी।
मिट्टी गीली थी, हवा ठंडी।
उसने जमीन को छूकर कहा —
“तू अब भी यहीं है न, राघव?”
उसने अपनी चूड़ियाँ उतारीं, और वहीँ रख दीं।
उसकी आँखों से आँसू गिरते रहे — जैसे हर कतरा कोई अधूरी दुआ हो।
उसने अपने साथ लाई बोतल निकाली —
वही बोतल, जिसमें कभी राघव ने अपनी कविताएँ रखी थीं।
उसने धीरे से ज़मीन में गाड़ दी।
“अब ये तेरा और मेरा वादा है, राघव —
मैं भी अब इसी मिट्टी में रहूँगी।”
उस रात बारिश बहुत तेज़ हुई।
लोगों ने कहा, “पुरानी दीवार फिर गिर गई।”
मगर उस दीवार के नीचे सिर्फ़ मिट्टी नहीं थी —
वहाँ आयरा भी थी,
ठंडी, शांत… राघव की तरह।
सुबह जब लोगों ने देखा,
दीवार के नीचे दो नाम खुदे हुए थे —
“राघव” और “आयरा” —
मिट्टी में, लेकिन अमर।
कई सालों बाद,
जब नई पीढ़ी ने इमामबाड़े की मरम्मत करवाई,
मज़दूरों को वहाँ एक पुराना शीशे का टुकड़ा मिला —
अंदर एक काग़ज़ था, जिस पर लिखा था :
“हमारे दरमियान जो दीवारें थीं,
वो अब भी खड़ी हैं…
पर अब कोई फर्क नहीं पड़ता —
क्योंकि हम मिट्टी में एक हैं।”
गाँव वाले आज भी कहते हैं —
बरसात की रातों में इमामबाड़े की दीवार के पास
एक हल्की सी खुशबू आती है — गीली मिट्टी और इत्र की।
कुछ कहते हैं, वहाँ कोई लड़की काले कपड़ों में दिखती है,
जो मिट्टी को छूकर मुस्कुराती है।
कहते हैं, वो आयरा है…
और उसके पास खड़ा कोई राघव,
जो अब भी वही शेर दोहराता है —
“मिट्टी में मिल जाऊँ मगर तेरा नाम बाकी रहे,
मोहब्बत अधूरी ही सही, मगर सच्ची रहे।”
अंत
✨ “अनकही मोहब्बत” — दो रूहों की कहानी जो समाज के नहीं, खुदा के मुक़द्दर में एक-दूसरे के नाम लिखी गईं।