Andhera Kona in Hindi Horror Stories by Rahul Narmade ¬ चमकार ¬ books and stories PDF | अंधेरा कोना 2.0 : नया खौफ

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अंधेरा कोना 2.0 : नया खौफ

मैं राजन…
आप मेरी कहानियां "अंधेरा कोना" में पढ़ते आए हों।
M.Sc. Biomedical करने के बाद मैं नौकरी की तलाश में था। मेरे अतीत के डरावने अनुभव और उनकी यादें आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थीं।

अगस्त महीने में मुझे गांधीनगर की एक मल्टीनैशनल कंपनी में जॉब मिली। मेरे M.Sc. का एक दोस्त भी उसी शहर में था। अक्सर हम मिलते थे, और ये सोचकर मुझे सुकून मिलता कि मेरा कोई अपना पास में है।

सिर्फ एक साल में सब कुछ बदल चुका था।
जो मेरे अपने थे, वो अब दूर चले गए थे।
जिन गलियों में मैं कॉलेज के दिनों में घूमता था, वो अब खाली लगने लगी थीं।
कुछ दोस्त विदेश पढ़ने चले गए, कुछ अपने पिता के कारोबार में लग गए।
मैं मिडिल क्लास से था, और सुबह उठते ही मेरी दिनचर्या सिर्फ नौकरी ढूँढना होती थी।

जब आखिरकार मुझे जॉब मिली, मेरे माता-पिता खुश थे, पर मेरी तन्हाई और अतीत की यादें मुझे अभी भी कचोट रही थीं। मैं इस दर्द से बाहर निकलने के लिए कुछ नया खोज रहा था।

गांधीनगर, बाकी शहरों से अलग था — यहाँ की सड़कों के नाम हिंदी वर्णमाला पर थे — "घ रोड", "च रोड"...
मुझे जो कमरा मिला था, वो शहर के अच्छे इलाके में था।

एक रात, लगभग 12:30 बजे, मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैं बाहर निकल आया।
आगे बड़ा सा मंदिर था, बहुत सारी दुकानें और फिर एक छोटा-सा जंगलनुमा इलाका। जंगल के पीछे कुछ मकान बने थे। झाड़ियों के कारण उस इलाके में नीलगायों की संख्या ज्यादा थी।

उस समय कंपनी से मुझे दो दिन की छुट्टी थी। मैं चौराहे पर गया, जहाँ बीच में देवी माँ का एक छोटा मंदिर था।

वहीं मेरा पालतू कुत्ता सेम आया और खेलने लगा। तभी पीछे से काले रंग की स्कूटी आई।
एक महिला चला रही थी। आगे डिब्बा रखा हुआ था।
उन्होंने हॉर्न बजाया और सेम उनकी तरफ भागा।

उन्होंने स्कूटी रोकी, डिब्बा उतारा और चावल निकालकर सेम को खाने दिए। थोड़ी देर में और 4-5 कुत्ते आ गए।
वो महिला उन सबको थालियों में खाना परोसकर खिला रही थीं।

मैं पास गया और पूछा:
मैं: "Excuse me..."
महिला: "जी?"
मैं: "आप इतनी देर रात को खाना खिलाने आती हैं?"
महिला: "हाँ, इनको खाना देना ही मेरा काम है। और आप कौन?"
मैं: "मैं राजन। चार महीने से यहाँ जॉब कर रहा हूँ। ये सेम मेरा पाला हुआ कुत्ता है।"
महिला: "मेरा नाम मानसी देवी है। मैं यहीं पीछे की सोसाइटी में रहती हूँ। पिछले 22 साल से मैं हर रात इन कुत्तों को खाना खिलाती हूँ।"
मैं: "वाह! बहुत अच्छा काम है। मैं मदद कर सकता हूँ?"
मानसी देवी: "हाँ, ये डिब्बा उठाने में मदद कर दीजिए। और ये थाली आप पीछे वाली गली के दो कुत्तों को दे आइए।"
मैंने थाली ली, उन कुत्तों को खिलाया और लौट आया।

बातचीत में पता चला कि सोसाइटी के लोग गंदगी के नाम पर उन्हें रोकते थे, इसलिए वे देर रात आती हैं।
मैंने वादा किया कि छुट्टी के दिनों में मदद करूंगा | 

वापस लौटते वक्त मैं उसी जंगल के रास्ते से गुजरा।
ठंडी हवा चल रही थी, पर दिल में अजीब बेचैनी थी।
मानो अंधेरा मुझे घेरने लगा हो।

पेड़ों के साये मुझे मेरा भूतकाल याद दिलाने लगे।
मुझे ऐसा लगा मानो कोई आवाज़ कह रही हो —
"अपने आपको बचा सको तो बचा लो..."

समय जैसे थम गया था।
मन में उसी की यादें थीं, जो टूटे तारे की तरह बिखर गई थीं।

अमावस्या की वो रात मुझे निगलने को तैयार थी।
वो सुनसान सड़क मुझे अंधकार की ओर ले जा रही थी...
और आखिर में — वो सन्नाटा!
वो सन्नाटा, जो मुझे आने वाले खौफ के लिए तैयार कर रहा था।