अमीरगढ़ के जंगल में अभिमन्युसिंह बारोट का भालू के साथ सामना...
अमीरगढ़ का वनराज...
बनासकांठा के उत्तरी किनारे पर, राजस्थान की सीमा के पास एक अनोखा जंगल फैला हुआ है—अमीरगढ़। यह जंगल मानो धरती का काला खजाना। पहाड़ी ढलानों के बीच ऊँचे साग, खैर, कड़वे, बबूल, ढाक के पेड़ और बीच में घने घास के जंगल। सूर्यप्रकाश होने के बावजूद यहाँ कई जगहों पर गहरा अंधेरा छाया रहता है। दिन के समय भी रात जैसी शांति।
अमीरगढ़ के जंगल में चीता, भेड़िया, जंगली सुअर, नीलगाय, सियार, मोर, और अनेक प्रकार के पक्षी... लेकिन सबसे खतरनाक नाम—भालू। खास तौर पर स्लॉथ बेयर, जिसे यहाँ के लोग “भालू” कहते हैं।
इसी वनराज में उस दिन अभिमन्युसिंह बारोट उतरा था।
अभिमन्युसिंह बारोट—55 वर्ष का, बिजनेस जगत में नाम कमाने वाला, लेकिन दिल से प्रकृति का दीवाना। उनकी वन्यजीव प्रदर्शनियाँ विश्वभर में प्रसिद्ध थीं। उनके फोटोग्राफ्स ने प्रकृति का नया चेहरा दुनिया को दिखाया था। और साथ थी उनकी पसंदीदा कार—ब्लैक थार। गहरा काला रंग, टायरों पर कीचड़ की छींटें, और अंदर कैमरे और तरह-तरह के टेली लेंस की भरमार। उनके साथ हमेशा एक खास भरोसेमंद साथी भी रहता था—उनकी लाइसेंस वाली रिवॉल्वर। उन्होंने कभी जंगल में इसका उपयोग नहीं किया था, लेकिन उनका मानना था: “जंगल एक अजनबी दोस्त है। कभी-कभी शायद किसी से भी लड़ना पड़ जाए, तो खाली हाथ नहीं होना चाहिए।”
सितंबर के बारिश के बाद का दिन। मिट्टी से सुगंध उठ रही थी। पत्तों पर बूँदें झूल रही थीं। हवा में नमी थी, लेकिन एक अजीब शांति का अहसास।
अभिमन्युसिंह ने अपनी थार को जंगल की सीमा के पास पार्क किया। बैग कंधे पर, कैमरा गले में, हाथ में पानी की बोतल। वह धीरे-धीरे जंगल में उतर गया।
कई घंटों तक वह फोटोग्राफी में खोया रहा। सूर्यकिरणों में चमकता मोर, पानी पीता चीतल, पत्तों से झूलता मकड़ा—सब कुछ उनकी लेंस में कैद होता गया।
दोपहर ढाई बजे होने के बावजूद शाम के छह बजे जैसा घना माहौल था। जंगल असामान्य रूप से शांत। पक्षियों का कलरव अचानक बंद हो गया। हवा भी मानो ठहर गई।
अभिमन्युसिंह के कानों में सरसराहट का आवाज आया। भारी शरीर घास में खिसकता हुआ। उन्होंने सोचा—जंगली सुअर होगा।
लेकिन एक क्षण में हवा में एक तीखी, कड़वी गंध आई। वह गंध उन्हें पहचानी थी। वन्यजीव शोधकर्ता होने के नाते वह जानते थे—यह भालू की गंध थी।
अब उनकी धड़कन तेज होने लगी।
घास खिसकी और एक काला आकार बाहर आया। वह थी मादा भालू। काली, झाँखी खाल, लालचटक आँखें, लंबी जीभ बाहर लटकती, मजबूत कंधे, और चारों पंजों में चाकू जैसे तीखे नाखून।
उसने अभिमन्युसिंह को सीधी नजर से देखा। उस नजर में भूख, संदेह और आक्रामकता सब था।
कैमरे का क्लिक हुआ।
भालू ने चौंककर गरजना शुरू किया।
जंगल हिल गया।
भालू धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। अभिमन्युसिंह चट्टान के पीछे खिसक गए। वह जानते थे—अगर भालू हमला कर दे, तो इंसान का बचना मुश्किल है। भालू इंसान से चार गुना तेज दौड़ सकता है, उसकी ताकत से एक ही प्रहार से हड्डियाँ टूट सकती हैं।
अचानक भालू ने छलांग लगाई।
अभिमन्युसिंह ने अपने शरीर को बगल में फेंका। भालू के नाखून चट्टान पर पड़े, चीथड़े उड़ गए। चीथड़े और चिंगारियाँ हवा में उड़ीं।
यह भालू के हमले की शुरुआत थी।
भालू सीधे उन पर झपटा और ऊपर चढ़ बैठा। गर्म साँस उनके चेहरे पर लगी। उन्होंने अपना बैग आगे किया। भालू ने बैग को फटकारा, कपड़ों के टुकड़े उड़ गए। अभिमन्युसिंह ने तुरंत कैमरा भालू के सिर पर मारा।
भालू डगमगाया, लेकिन फिर खड़ा हुआ। इस बार उसने नाखून फेरे। एक नाखून अभिमन्युसिंह के हाथ को छू गया। चीरा पड़ गया। खून बहने लगा।
अब यह असली जंग थी।
अभिमन्युसिंह ने जमीन से मुट्ठीभर धूल उठाकर सीधे भालू की आँखों में फेंक दी। भालू पागल की तरह गरजा। उसने अंधाधुंध नाखून फेरे। चट्टान से टुकड़े उड़ पड़े।
अभिमन्युसिंह के पैर काँप रहे थे। साँस फूल गई थी। उन्होंने रिवॉल्वर निकाली। उंगली ट्रिगर पर गई। लेकिन दिल में आवाज आई—
“प्रकृति को मारकर मैं नहीं जीतता, मैं हारता हूँ।”
उन्होंने ट्रिगर नहीं दबाया।
लेकिन भालू ने फिर छलांग लगाई। अब वह सीधे उनकी छाती पर थी।
उस क्षण अभिमन्युसिंह ने चमत्कारिक बुद्धि दिखाई। उन्होंने अपनी पानी की बोतल भालू के खुले मुँह में ठूँस दी। बोतल फट गई, पानी छलक गया। आवाज और अचानक गीलापन से भालू घबरा गया।
वह पीछे हट गया।
यही मौका था।
अभिमन्युसिंह ने रिवॉल्वर को आकाश में फायर किया। गोली का धमाका जंगल को हिला गया।
भालू घबरा गया। उसने पीठ फेरी और दौड़ लगा दी। उसकी गरज धीरे-धीरे दूर होती गई।
जंगल फिर शांत हो गया।
अभिमन्युसिंह चट्टान के पास बैठ गए। खून बह रहा था, लेकिन दिल धड़क रहा था—“मैं जिंदा हूँ? आज यमराज सामने मिलने आए थे।”
उन्होंने कैमरा फिर हाथ में लिया। डूबते सूरज की रोशनी में दूर जाते भालू की आखिरी तस्वीर कैद की। वह फोटो सिर्फ एक जानवर का नहीं था, वह इंसान की बहादुरी, बुद्धि और प्रकृति के प्रति सम्मान का सबूत था।
शाम ढल रही थी। आकाश में लाल रंग छा रहा था। थार कार की ओर लौटते हुए अभिमन्युसिंह के मन में एक ही विचार घूम रहा था—
“कभी-कभी हथियार से नहीं, बुद्धि से जीतना पड़ता है। प्रकृति के सामने इंसान हमेशा छोटा है। आज मैं नहीं जीता—प्रकृति ने मुझे बचाया। कभी-कभी चमत्कार भी होते हैं।”
वह दिन उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी जीत और सबसे बड़ा सबक था।
अमीरगढ़ के जंगल में मादा भालू के साथ वह सामना सिर्फ एक वन्यजीव घटना नहीं थी। यह इंसान और प्रकृति के बीच का जीवंत संवाद था।
अभिमन्युसिंह उस दिन से और प्रसिद्ध हो गए। लेकिन उनके दिल में एक नया विश्वास जन्मा—
“प्रकृति से जीतना नहीं है, उसे समझना है।”
बस, रात ढल रही थी। अभिमन्यु थोड़ा तरोताजा होकर अपनी थार लेकर हाइवे पर चित्रासनी से आगे निकल रहे थे...
अहमदाबाद की ओर...
©निरंजन
21/09/2025