मैं आदिब्रह्मा हूँ।
मैं ही समस्त संसार का उत्पातिक हूँ।
मैं ही चारों ओर और मैं ही आचार हूँ।
मैं ही आत्मा और मैं ही परमात्मा हूँ।
मैं ही मनु, और मैं ही असुर, और दानव हूँ, तथा मैं ही अंधकार और प्रकाश हूँ।
मुझसे ही यह संसार है, मुझसे ही प्रेम और तृष्णा हैं।
मैंने स्वर्ग तथा नरक की रचना की है।
मैंने ग्रह और इस संसार के अनगिनत रूप बनाए हैं।
तथा इस संसार में जो कुछ भी है, वह मैं हूँ।
जो नहीं है, वह भी मैं हूँ।
और जो होगा, वह भी मैं हूँ।
संसार की उत्पत्ति मुझसे हुई। मुझसे ही देव, दानव, असुर, सूर, मनुष्य, अच्छाई और बुराई जन्मी।
संसार में संतुलन बनाए रखने के लिए मैंने ही देवताओं और असुरों को बनाया।
देवता—जो प्रकाश और अच्छाई के प्रतीक हैं।
दानव और असुर—जो अंधकार और बुराई के प्रतीक हैं।
मेरी रचित इस सृष्टि में सब कुछ मेरे विधान के अनुसार चलता है। कई युगों से यह संसार संतुलित है।
परन्तु जिस युग का प्रचलन था, वह दैवीय और भावनात्मक था।
मेरे बनाए हुए असुर और देवता, जो आपस में शत्रु हैं, उनमें से एक प्रेमी ने संसार के नियमों को बदलना चाहा।
परिणामस्वरूप उनके मिलन में अनेक बाधाएँ उत्पन्न हुईं।
संसार में सब कुछ संतुलित था—देवता अपने कार्यों में निपुण, और दानव अपने कर्मों में तत्पर थे।
वहीं एक दानव राज के भाई अपनी दिव्य शक्तियों से आकाश में उड़ रहा था, तभी उसने एक सुन्दर कन्या को देखा।
उसे देखते ही दानव भ्राता अपने मन और अक्षु पर अपना वश खो बैठा, और अपने आपको स्वर्ग की सीमा में जाने से रोक न सका।
देवराज की बहन—
स्वर्ग के ब्रह्म मंदिर के उद्यान में फूलों की चुनाई और माला निर्माण में व्यस्त थी, तभी उसने पीछे किसी की आहट महसूस की।
उसने अपनी शक्तियों से उस आहट करने वाले पर आक्रमण किया।
आक्रमण से दानव राज बच गया और देवी वसुधा के सामने आ गया।**
देवी वसुधा ने अपने सामने एक दानव को देखकर आश्चर्यचकित होकर पूछा—
"दानव राज, क्या आपको अपनी सीमा का ज्ञान नहीं? क्या आप नहीं जानते यह स्वर्ग की सीमा है? यहाँ आपका होना वर्जित है।"
दानव राज व्रणासुर ने कहा—
"हे देवी, हम अपने मन तथा नेत्र पर अपना नियंत्रण खो बैठे थे।
आप जैसी सुन्दर स्त्री को देखकर, आपके कमल जैसे नेत्र, आपकी समुंदर से भी गहरी आँखें, गुलाब की पंखुड़ियों से होठ, तथा प्रेम से भरे आपके बोल एवं सहद जैसी आपकी मधुर वाणी—हम इन सब से आपकी ओर खिंचे चले आए।
अब तो हमने आपकी शक्तियों को भी देख लिया। आप तो सुन्दरता की मूरत के साथ-साथ एक छत्रिय वीरांगना भी हैं।
तो भला आप ही बताइए, हम अपनी ये नजरें कैसे हटा सकते हैं?"
देवी वसुधा ने कहा—
"हे असुर राज, कृपा कर अपनी जिह्वा को थोड़ा आराम दो, और हमारी व्याख्या करना बंद करो।
अब तुम यहाँ से जाओ। अगर किसी भी देवता ने तुम्हें देख लिया तो तुम्हारा अंत निश्चित है।"
दानव राज व्रणासुर ने कहा—
"देवी, हमने आपको अपना हृदय दे दिया है। अब हमारा अंत भी आ जाए तो हम उसे स्वीकार हैं। हम आपको अपनी भार्या बनाना चाहते हैं।"
देवी वसुधा ने कहा—
"यह क्या कह रहे हो असुर राज? आप भली भांति जानते हो कि इस प्रेम का कोई कल नहीं है, यह पाप है।"
दानव राज व्रणासुर—
"हम जानते हैं। पर आप ही बताइए, प्रेम में ना जाति देखी जाती है, ना कुल। बस प्रेम प्रेम होता है।
हम आप पर अपना ह्रदय हार चुके हैं। हमें क्षमा कीजिए, परंतु हम आपसे दूर जाने से मरते स्विकार हैं।"
देवी वसुधा—
"आपके इस प्रेम और आपके समर्पण ने हमारा भी हृदय जीत लिया है। मन ही मन हम आपके प्रेम में आ चुके हैं।
परंतु आप भी जानते हैं, यह सब पाप है—एक देवी और एक असुर का मिलना कितना बड़ा पाप है।"
व्रणासुर—
"हम जानते हैं देवी, पर हृदय पर कोई नियम, कोई बंधन का जोर नहीं चलता।"
देवी वसुधा—
"ठीक है असुर राज, पर अब आप यहाँ से जाइए। इससे पहले कि कोई देव यहाँ आ जाए। हम आपसे फिर मिलेंगे।"
व्रणासुर—
"जैसी आपकी आज्ञा देवी। हमें भूलिएगा मत, हम आपका इंतजार करेंगे।"
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इसके बाद दानव राज अपने लोक लौट जाते हैं। पर अब उनके हृदय पर केवल देवी वसुधा की छवि छाई हुई थी।
कई समय तक एक-दूसरे से मिलने के बाद जब वे देवी और असुर प्रेमी चुपके से मिलते, कुछ असुर और देवता उन्हें देख लेते।
तब देव-दानव बैठक में उनका विवाह तय किया जाता है।
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कुछ समय पश्चात...
एक यज्ञ आयोजित किया गया जहाँ देवी वसुधा और असुर व्रणासुर का विवाह होना था।
विवाह के लिए सब ओर खुशियाँ छाई हुई थीं।
दानव राज व्रणासुर को अपने विवाह की बहुत खुशी थी।
तो एक ओर देवी वसुधा भी अपने प्रेम को पाने जा रही थी।
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विवाह के पश्चात जब दोनों प्रेमी एक-दूसरे से मिलने पहुँचे, तो दानव राज और देवराज ने अपने-अपने भाई-बहनों का अंत कर दिया।
उन पर पीछे से वार कर उनके प्राण हरण कर लिए।
यह सब विश्वासघात देखकर दोनों प्रेमी की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी।
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देवराज ने कहा—
"तुम असुर हो। हम देवताओं से नीचे। तुम्हारा साहस कैसे हुआ हमारी बहन पर अपनी गंदी नज़रें डालने का?"
दानव राज ने कहा—
"तुम भले ही एक देवी हो, मगर हम असुरों के नियमों को तुमने तोड़ने का दुरसाहस कैसे किया? तुम मृत्यु के ही योग्य हो। क्या तुम नहीं जानती देव और असुर शत्रु हैं? यह पाप है।"
देवराज—
"तुम जानते थे कि यह प्रेम कभी स्वीकार नहीं किया जाएगा। तुम हम देवताओं पर अपनी खुद्रस्ती कैसे डाल सकते हो? यह पाप किया है तुमने।"
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असुर व्रणासुर अपनी प्रेमिका वसुधा के पास जाकर अपने प्रेम से उसका हाथ छूते हैं।
देवी वसुधा—
(रोते हुए व्रणासुर की ओर जाते हुए)
दोनों एक-दूसरे का हाथ थामने जाते हैं मगर थाम नहीं पाते।
देवी वसुधा—
"मैं एक देवी, अपने प्रेम, अपने ईश्वर, अपने पतिव्रत धर्म को साक्षी मानकर तुम दोनों को यह श्राप देती हूँ—
तुम दोनों कभी अपना प्रेम नहीं पा सकोगे। युगों-युगों तक भटकते रहोगे अपने प्रेम को पाने के लिए।
परंतु तुम्हारा प्रेम समाज द्वारा कभी स्वीकार नहीं किया जाएगा।
जब तक तुम सच्चे प्रेम का अर्थ नहीं समझ पाओगे, तब तक तुम युगों-युगों तक भटकते रहोगे।
यह श्राप मेरा।"**
इसी बीच दोनों प्रेमी की मृत्यु हो जाती है और उनका मिलन अधूरा रह जाता है।
दोनों एक-दूसरे का हाथ थामते-थामते रह जाते हैं।
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...कई युगों बाद...