आह... कुछ नहीं बदला , कुछ भी नहीं । सबकुछ वैसा ही है बल्कि और भी गाढ़ापन आ गया है इस हरियाली में । बस की खिड़की से सिर टिकाए मैं प्यारे उत्तराखण्ड के सीढ़ीनुमा खेतों को निहारे सोच रही थी ।
अचानक ड्राइवर ने ब्रेक दबाया और आवाज आई ,सब लोग चाय पानी पी लो । मैं बस से उतरी, चारों ओर नजरें दौड़ाई और जितनी दूर पहाड़ी तक नज़र पहुंच सकती थी देखा । पलकें झपकाई तो आंख से एक आंसू टप्प से नीचे गिरा । खुद को समझाया की सूरज से नजरें मिलाने का नतीजा है ये, मगर दिल ज़ोरो से धड़क रहा था और गला सूख गया था । सांस जाने कितने ही आंसुओं को जकड़े हुए थी । हाय ये पहाड़ की यादें....। मैं दौड़ते हुए कदमों के साथ वापिस बस में बैठ गई और पूरे रास्ते माँ की गोद में सर रख भरपूर नींद ली । आँख खुली तो देखा गांव आ गया है । दादा जी के पैर तो जमीन पर थे ही नहीं ,वो तो मानो जैसे उड़ रहे हो । वो घर की ओर अपनी लाठी की ठक ठक के साथ हम सबमें सबसे तेज़ ,सबसे आगे चल रहे थे । उनकी खुशी और उत्साह का तो ठिकाना ही नहीं था ।
मैंने तपाक से कहा ,
"अरे बूबू (दादा जी) धीरे चलो साँस चढ़ जाएगी ।
"तुम सब आराम से आओ मैं चलता हूं
"उन्होंने जवाब दिया ।
मैं तो हँस दी थी ।
टेढ़े मेढ़े रास्तों में एक वक्त के बाद बूबू आँखों से ओझल हो गए थे. हम समझ गए थे कि वो घर पहुंच गए हैं । अगली सुबह तेज बारिश हो रही थी और साथ में ओले भी गिर रहे थे .सामने देखा तो बरामदे किनारे बूबू कुर्सी पर बैठे रो रहे हैं । मैंने हड़बड़ाते हुए पूछा ,
"अरे क्या हुआ क्यों रो रहे हो आप ?
"ईजा (लाड़ प्यार का शब्द ) मैं अब दिल्ली वापिस नहीं आऊंगा यही रहूंगा चाहे कुछ भी हो जाए ; तुम सब जाओ फोन पर खोज खबर लेते रहना, उन्होंने कहा ।
मुझे समझ नहीं आ रहा था क्या कहूं क्योंकि लाज़मी था उनका अपनी जन्मभूमि से इतना प्रेम ।
मैंने उनकी हथेली को सहलाते हुए उन्हें चुप कराया और यूं ही बात बदलते हुए पूछ लिया ...
बूबू चाड़ नि ऊना अछान?? कधेल आलि??
( "बूबू गौरैया नहीं आ रही आजकल
कब आएगी ??? )
"वो मौसम्बी का पेड़ हिला; उन्होंने कहा ।
मैंने पेड़ की तनों को हल्के हाथों से झटका तो भीतर से एक बड़ा गौरैयों का समूह बाहर की ओर उड़ दिया । मेरी आँखें तो चमक उठी । ऐसा लगा मानो बूबू ने अपने सीने से आज़ाद किया हो उन्हें , क्योंकि उनका घर , वो पेड़ बूबू ने अपने हाथो से लगाया था । उस वक्त मुझे याद आया कई सालों पुराना एक खूबसूरत दृश्य जब लाल माटी और गोबर से लीपे आँगन पर थिरक रही थी गेंहूँ की बालियां और किलकारी गूंजी थी घर के किसी कोने में ,जहां माँ की बेहोशी पर पानी छिड़कते हुए दाई माँ ने कहा था "मुबारक हो बेटी हुई है"
तब गौरैया ही सबसे अधिक चहचहाई थी।
एक अंदरूनी संतुष्टि और चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ यह सोचे दिल्ली वापिस आना हुआ कि मेरे बूबू अकेले नहीं हैं उन्होंने प्रकृति की प्रिय सहेली गौरैया को अब तक बचा के रखा है, जो उनके साथ सदा रहेगी । 🍁
~ पूजा