“कल्पनाओं ने शब्द दिए ,शब्दों ने अक्षर और तब इन अक्षरों से मिलकर तैयार हुआ वाक्य ! किन्तु क्या पूरी हो गई उनकी यात्रा ?नहीं, वाक्यों से तैयार होता है एक पूरा पैराग्राफ और कहानियाँ और उपन्यास यूं ही नहीं लिख दिए जाते हैं ! उन्हें तैयार करने के लिए जुटती हैं शब्दों , अक्षरों ,वाक्यों और पैराग्राफों की सेना |उनकी रसद सामग्री बनती है लेखक की कल्पना और उसकी उड़ान |क्या ये सब है तुम्हारे पास ?” समरेश दा के इन प्रश्नों से घबरा ही उठा था मैं|कहानी या उपन्यास लिखने के लिए इन सारी तैयारियों से होकर गुजरना जरूरी है ? कतई नहीं |एक पल को मैं रुका और उनको सीधा और सपाट उत्तर दे बैठा – “ क्षमा करें दादा,मैं आपकी बातों से कतई सहमत नहीं हूँ | किसी कहानी या उपन्यास की लोकप्रियता सही मायनों में उसके लेखक की अभिव्यक्ति प्रतिभा से जुडी हैऔर उसके पात्र ? पात्र तो बिखरे पड़े होते हैं |आप तैयार तो होइए कितनी और कैसी चाहिए कहानियाँ आपको ? “दादा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट तैर गई |वे मौन रहे | उनके उस मौन से मैं अपने आप को विजयी समझ लौट आया था |लेकिन मन ही मन सोच रहा था कि कहने को तो मैं कह गया | क्या सचमुच मैं इधर उधर बिखरे पात्रों और उनसे जुड़े सूत्रों को शब्द दे सकूँगा ? वैसे पात्र के रुप में तो इस समय मेरे सामने स्वयं समरेश दा ही खड़े हैं |क्या शब्द , अक्षर और वाक्य की सेनाओं के सहारे मात्र से मैं उनकी ज़िंदगी को दे सकूँगा किसी कहानी या उपन्यास का स्वरूप ? नहीं , शायद नहीं |आज लगभग इकतीस वर्ष बाद मुझे उन्ही समरेश दा की एक और बात याद आ रही है |वे कहा करते थे –“देखो यार , ज़िंदगी की रेलगाड़ी तमाम ऊबड़ खाबड़ जमीन पर बिछी आयडी तिरछी पटरियों पर भागी चली जा रही है |मानो दौड़ लगाती जा रही। है | मनुष्य के इस धरती पर आने के साथ उसकी यह भागमभाग जो एक बार शुरू हुई है वह अब रुकने वाली नहीं है |यह जो रेल की पटरियाँ हैं मानो मनुष्य की ज़िंदगी के एक एक दिन हैं और रेलगाड़ी ,खुद मनुष्य | उसके मन रूपी डिब्बों में न जाने कब , कहाँ और कैसे कोई सवारी बैठ या उतर जाएगी, उसे नहीं पता | उसे तो सिर्फ़ इंजन की तरह बढ़ना है, आगे बढ़ते ही रहना है |लेकिन जानते हो ? इसमें कोयले की जगह भावनाएं हैं सपने और उनको पूरी करने की हसरतें हैं , खट्टे मीठे अनुभवों का लंबा सिलसिला है जो कभी भी शांत नहीं होता |धधकता ही रहता है और मनुष्य के जीवन को गति देता रहता है |समरेश दा उन दिनों पूरे फार्म पर थे| प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर की पत्र- पत्रिकाओं की सीमाओं को लांघ कर वे अब तो अन्तराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में स्थान बना रहे थे |यथार्थ को छूती उनकी कहानियाँ पाठकों को बांध लेती थीं |पाठक उसमें इतना रम जाते थे कि कहानी कब शुरू हुई और कब खत्म हो गई उन्हें पता ही नहीं चलता |संपादक और उनके संबंध भी अब विपरीत तेवर ले बैठे थे |किसी जमाने में संपादकों की ओर से उनकी रचनाओं का पारिश्रमिक तय होता था किन्तु आज समरेश दा स्वयं इस स्थिति में थे कि जितना चाहें पारिश्रमिक मांग लें ,संपादक को उनकी रचना चाहिए ही |समरेश दा ने ऐसे दिनों के आने कि कल्पना तो की थी किन्तु यह स्वर्णिम दिन इतनी जल्दी और उनके जीवन के इतनी कम उम्र में आ जाएगा ऐसा उन्होंने नहीं सोचा था |
“किस उम्र में लिखना शुरू कर दिए थे दा ?”लोग सहज ही यह उत्कंठा लिए सवाल जब पूछ बैठते थे तो उनका जबाव होता –“शायद अपनी माँ की कोख में जब मैं पल बढ़ रहा था सोचना समझना शायद तभी से शुरू हो गया था |”इतना कह कर वह धीरे से मुस्कुरा उठते थे |“आप तो मजाक कर रहे हैं दादा !”पुन: पूछे गए आगे के इस प्रतिप्रश्न को मानो वे जान ही रहे थे और बोल पड़ते-“ अरी, मेरी फ़ाइल तो लाना सुरुचि बिटिया.. वही जिसमें मैंने अपनी पहली प्रकाशित रचना सहेज कर रखी है |”और फिर मानो किसी कीमती वस्तु हो उसे आहिस्ता आहिस्ता खोलते हुए वे दिखाते..यह रही मेरी पहली कहानी,एक तोते की आत्मकथा | .. प्रश्न पूछने वाला दंग रह जाता ऐसे व्यवस्थित संग्रह को देखकर |कुल चार सदस्यों वाला परिवार था समरेश दादा का |एक तो वे स्वयं,दूसरी उनकी पत्नी रानी देवी,तीसरा पुत्र रत्नशील और चौथी उनकी बिटिया सुरुचि |परिवार के मुखिया भले ही दादा कहलाते हों लेकिन परिवार रानी देवी ही चलाती थीं | सारा कामकाज उनके ही जिम्मे |बच्चों की परवरिश , उनकी फीस उनकी पुस्तकें और उन सभी की आवश्यकताऐं , सभी की जिम्मेदार रानी देवी |इन सारी भाग दौड़ और जिम्मेदारियों से जब कभी वे परेशान हो जाया करती थीं तो वे समरेश दादा पर बरसने से भी नहीं चूकती थीं |बोल उठतीं-“बच्चा पैदा करने की जिम्मेदारी तक ही तुम साथ थे ,भला कभी तो मुई कलम के अलावे इनकी भी सोचा करो !” और तब समरेश दा के चेहरे पर एक चिर परिचित मुस्कान तैरने लगती |वे बोल उठते –‘तुम जो हो !”बच्चों की जिद पर समरेश दा ने इस साल फिर अपने उसी सीधे सादे परंपरागत ढंग से विवाह की चालीसवीं वर्षगांठ मनाई |अगरबत्ती और चंदन की सुगंध सारे घर में तैर रही थी |आज परिवार के सभी लोग उनके मित्रों के साथ इकट्ठे थे | समरेश दा कुर्ता - पैजामा पर सफेद शाल लपेटे, माथे पर दही और सिंदूर का टीका लगाए अपने सौम्य व्यक्तित्व की आभा बिखेर रहे थे |एक बड़ी सी थाली में नारियल रखा था और शाम के छह बजते ही दादा ने उस नारियल को टेबल पर पटकते हुए फोड़ डाला और शंखनाद करने लगे | बस, यूं ही मना डालते थे समरेश दा अपना जन्मदिन | वे कहते-“केक काटना और जल रही मोमबत्तियों को बुझाना तो अंगरेजों की इस्टाइल का बर्थ डे होता है |” वे आगे बोलते-“ हमारा तो भारतीय इस्टाइल है , नारियल फोड़ों, शंख बजाओ,यही तो शुभ और मंगलकारी है |”उस दिन साहित्य प्रकाशन वाले वर्मा जी ने घंटों समरेश दादा के साथ बैठकर उन्हें इस बात के लिए राजी कर लिया था कि उनकी यत्र तत्र प्रकाशित कहानियों को संग्रहित करके उनको एक कथा संग्रह का स्वरूप दिया जाए |समरेश दा हर बार की तरह इस बार भी संदेह व्यक्त करते रहे कि कहीं ऐसा करने से लोग उनको व्यावसायिक और लालची लेखक न कहने लगें |वे कहने लगे-“यत्र तत्र लिखना और छपते रहना तो ठीक है लेकिन किताब - शिताब ठीक नहीं |”लेकिन इस बार वर्मा जी ने उनको न जाने क्या सिखा दिया कि वे संग्रह के लिए राजी हो गए और राजी ही नहीं युवा उन्मादी हो गए |सिर्फ़ एक हफ्ते में पुस्तक की पांडुलिपि वर्मा जी के हाथ में थी |
“अब साले प्रकाशकों को मैं भी दिखा दूंगा कि मैं किस चीज का बना हूँ ?समरेश दा का कथा संग्रह छापना क्या सबके औकात की बात है ?ढेर लगा दूंगा ढेर, मैं रूपयों की | प्रकाशक वर्मा जी आत्मलाप कर ही रहे थे कि समरेश दादा की आवाज़ ने उनका मोहभंग कर दिया | दादा उनसे पूछ रहे थे कि “ इस संग्रह के छपने की कब तक उम्मीद की जाए ?” वर्मा जी बोले –“बस !चार से छह महीने लगेंगे दादा और फिर छप जाते ही एक भव्य समारोह में लोकार्पण करवाएंगे |.. कैसा रहेगा ?”‘फिर पाम्प एण्ड शो ? ना बाबा ना |मेरा संग्रह तो यूं ही रिलीज कर देना | उसकी सुगंध, उसकी मिठास से ही लोग मुझको जाने तो ठीक है |”दादा बोल उठे | वर्मा जी की तो सारी योजना ही ठप्प सी पड़ती लगी लेकिन वे कुशल व्यवसायी थे, इतनी जल्दी हार नहीं मानने वाले थे | बोल पड़े-“ठीक है दादा , अभी छपने तो दें !”अपनी ज़िंदगी के चालीसवें साल को पार करते करते किसी व्यक्ति का अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व के रुप में उभर जाना हर एक के वश की बात नहीं हुआ करती है |समरेश दादा की कहानियों के लिए जब अनुवाद हेतु अंग्रेजी में पत्र आते तो अंग्रेजी भाषा का सदा विरोध करने वाले दादा को ना जाने क्यों उस पत्र पर बेहद प्यार आ जाया करता था ! अपनी पत्नी को बुलाकर कहते-“रानी, देखो तो रशियन भाषा में अब मेरी कहानी का अनुवाद होने जा रहा है |कैसा होगा बोलो तो ?” लेकिन रानी वही रटा रटाया उत्तर देकर उनकी सारी उत्कंठा पर पानी फेर दिया करती थीं | बोलतीं-“ऊँह !तुम्हारा काम तुम ही जानो |मुझे तो तब भी चौके चूल्हे के काम से फुरसत नहीं मिलने वाली है |” दादा भी अपनी पत्नी के ऐसे उत्तरों के अभ्यस्त हो चले थे |अभ्यस्त ही क्यों , कभी कभी तो ऐसा लगता था कि मानो वे आतुर रहा करते थे ऐसे प्रसंगों के लिए | इसके पीछे एक बड़ा ही मधुर इतिहास भी छिपा था | आप भी जानना तो चाहेंगे ही ?
दादा के नजदीकी संगी साथी बताया करते हैं कि समरेश दा एक कुशल प्रेमी पहले बने थे कुशल लेखक बाद में |और उनकी प्रेमिका कोई और नहीं यही रानी देवी थीं | यूनिवर्सिटी की चहारदीवारी में उपजा यह प्रेम प्रसंग रानी देवी को घर की चहारदीवारी में खींच लाया था |उनके बचपन का साथी होने के नाते मैं आज भी जब समरेश दादा और उनकी पत्नी के सामने उन रोमांचक दिनों को याद दिलाने लगता था तो वे दोनों खुश हो जाते थे और उन दिनों की इश्कबाजी को याद करके हँसते हँसते लोटपोट भी हो जाया करते थे |शायद ऐसे ही इक्के दुक्के अवसरों पर रानी देवी को लोगों ने उन्मुक्त देखा है | हंसी ठिठोली जब उनके चेहरे पर दौड़ लगाती तो मानो वह भी विस्मित हो उठा करती थीं |“हां तो यार समर, कैसे कैसे तुम रानी देवी का दर्शन करते थे ?”.. अरे यार, वही..वो बस के पीछे पीछे अपनी सायकिल की पैडल मारते मारते तुम इस चौराहे से उस चौराहे के बस स्टाप तक तक जब पहुँच जाया करते थे ! “मैं अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाता कि रानी देवी और समरेश दादा के खिलखिलाने- हंसने का दौर चलने लगता था |अपनी कहानियों में ज़िंदगी का सच व्यक्त करने वाले समरेश दादा वैसे प्राय: बेहद एकांत जीवन बिताते थे |उनकी एकांतप्रियता मानो उनको ओज दिया करती थी ,उनके पात्रों को स्वरूप देने के लिए और न जाने उनमें वह कौन सी विलक्षण प्रतिभा थी कि समाज से नितान्त कट कर रहने वाले उन जैसे व्यक्ति के हाथ में जब कलम आ जाती थी तो झोंपड़पट्टी से लेकर राजमहल तक के चित्र शब्दश : खींच कर वे रख देते थे | बहुत पहले रानी देवी के प्यार में उन्होंने जो एक कहानी लिखी थी उसका शीर्षक था “पागल प्रेम” और जब वही कहानी रशियन भाषा में अनूदित होकर आई तो वे मानो एक बार फिर किन्हीं सपनों की दुनियाँ में खो से गए |उन्हें याद आने वे लगे वे दिन कि कैसे -कैसे उन्होंने अपने प्रेम को हासिल करने के लिए अपने माँ बाप को तैयार किया था |प्रेम को वे अपने भौतिक जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि बताया करते थे |लेकिन एक दौर ऐसा भी आया जब समरेश दादा अपनी दुनियाँ में ही सिमटते चले जाने लगे | सामाजिक तो वे कभी बने ही नहीं थे लेकिन उनकी पद प्रतिष्ठा पर इस बात से कभी आंच भी नहीं आई |उनका व्यक्तित्व उनकी लिखी रचनाओं के सहारे अपना एक विशेष प्रभामंडल बिखेरने में सोलह आने खरा उतर रही थी |उन्होंने अपने लेखन से पाठकों का एक नया वर्ग तैयार किया था वहीं दूसरी ओर उनके आलोचक भी कम नहीं थे |उन दिनों साहित्य के क्षेत्र में गुटबाजी कोई नई बात नहीं हुआ करती थी |दादा भी इसे अच्छी तरह जाना करते थे | वे बातचीत में कहा भी करते थे कि जिस लेखक को बधाई के साथ साथ गाली भी न मिले वह भला सफल लेखक कैसे माना जाएगा ? आलोचकों ने उनके लेखन पर कभी साम्यवाद की मुहर तो न जाने कैसे कुछ अति सूक्ष्म आलोचकों को उसी रचना में पूंजीवाद की झलक मिला करती थी |ऐसे विरोधाभास उत्पन्न करने वाली प्रतिक्रियाओं ने दादा के हौसले और बुलंद कर रखे थे क्योंकि ऐसे में दादा को अपनी सफाई में कभी कुछ कहना ही नहीं पड़ता |“ समरेश दा के यहाँ आज यह अचानक भीड़ क्यों जुट गई है “मन ही मन बड़बड़ाते हुए मैं उनके घर के अहाते में प्रवेश कर रहा था |सीधे ड्राइंग रूम में पहुँच कर पाता हूँ कि दादा बिस्तर पर अचेत सा पड़े हैं और घर,परिवार और मुहल्ले के लोग उनको घेरे पड़े हैं |
‘‘क्या हुआ दादा को ?” मैं पूछ बैठता हूँ |
“अचानक दादा बाथरूम में नहाते समय गिर पड़े थे और वहाँ से अचेतावस्था में ही यहाँ लाकर उनको लिटाया गया है |डा.को लेने के लिए रत्नशील जा चुका है .. वे आ ही रहे होंगे |”दादा की बिटिया सुरुचि ने उत्तर दिया |मैं अवाक खड़ा कभी दादा के चेहरे की ओर देखता और कभी उनकी पत्नी के चेहरे पर उभरी विषादपूर्ण रेखाओं की ओर |हमेशा हंसने हसाने वाले समरेश दा को आज आखिर हो क्या गया है,मैं इस उधेड़बुन में था कि डाक्टर आ गए |समरेश दा का निरीक्षण करके उन्होंने उनकी पत्नी को एक ओर बुलाया |“इन्हें पैरलाइसिस का अटैक हुआ है |ठीक होने में समय लगेगा| दवा लिख दे रहा हूँ मँगवा लीजिएगा और हाँ इनकी फिजियोथेरपी भी चलेगी | ” डाक्टर चलने लगे | सभी के चेहरे पर दुख और निराशा की लहर इस समय साफ साफ पढ़ी जा सकती थी | मैंने लगभग दौड़ते हुए बाहर जाकर डाक्टर से पूछा-“डाक्टर साहब मेरे समरेश दादा ठीक तो हो जाएंगे ?”डाक्टर ने लगभग घूरने के अंदाज में उत्तर दिया-“कोशिश तो कर रहा हूँ |” उनके इस वाक्य ने मुझे अंदर तक आहत कर दिया |
समय तो समय है ,पंख लगा कर उड़ता रहा |समरेश दादा की तबीयत पहले से तो बेहतर हुई किन्तु ज्यादा देर वह बिस्तर पर ही निष्क्रिय पड़े रहते थे |अभी भी उनके शरीर और उससे ज्यादा संवेदन शील मन में लकवे का प्रभाव बना हुआ था | उनकी बोली लड़खड़ा रही थी |हाँ उनकी सांकेतिक भाषा घर वाले समझ लेते थे |ओ क्रूर काल , तू कैसा है रे ? अपनी कहानियों में पात्रों के मुंह से धाराप्रवाह और प्रभावशाली संवाद बोलते लिखते दादा जो कभी नहीं थके , कभी नहीं रुके आज स्वयं ही संवादहीन हैं ?इधर समरेश दा का लिखना पढ़ना वर्षों से ठप पड़ा था |रायल्टी के नाम पर कुछेक हजार रुपये उनकी पत्नी को मिल पाते थे जो खर्चे के लिए जाहिर है कम पड़ते थे |रानी देवी परेशान तो थीं लेकिन कभी किसी से कुछ कहती नहीं थीं |अपना दुख कहती भी तो किनसे ?मैंने उनको कुछ रुपये देने की पेशकश की किन्तु उनका स्वाभिमान आड़े आया |मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता था |दो एक जगह रानी देवी की नौकरी की भी बात चलाई किन्तु आजकल मिलती कहाँ है नौकरी कि इतनी आसानी से मिल जाए ?फिर भी मैं एक निजी शिक्षण संस्थान में डेढ़ हजार रूपये की उनको नौकरी दिलाने में सफल रहा |उनकी आँखों से कृतज्ञता के आँसू झर झर बह उठे |समरेश दा को बिस्तर पर पड़े अब लगभग तीन वर्ष हो रहे थे |मैं उनके पास बैठने से डरता |उनके घर की वह चमक दमक जाने कहाँ चली गई थी जो बरसों मैंने देखी थी |बच्चों की मुस्कान पर उदासी की परत दर परत बिछी हुई थी | आँखों में निराशा दिखाई देती थी |”क्या दादा एक बार फिर लिखने लायक हो सकेंगे ?”मैं मन ही मन बुदबुदा उठा |उनकी गहरी पैठ चुकी आँखों में हिलोर ले रहा आँसू का सैलाब मुझे अंदर तक साल गया |मैं सोचता ,कितने विवश हैं अपने समरेश दा ,वे जाने क्या कहना चाह रहे होंगे।कैसी होती होगी यह पीड़ा कि आप कुछ कह भी ना पाएं, ना ही बोल सकें | उनकी इसी लकवाग्रस्त हाथ की उंगलियों ने सैकड़ों कहानियाँ लिखीं, दर्जनों उपन्यास लिख डाले |अफसोस, आज वही उँगलियाँ दो शब्द अपनी वेदना के भी नहीं लिख पा रही हैं | मुझे भगवान पर भी क्रोध आता |आखिर क्यों इतना निष्ठुर हो जाते हो भगवान ? उस दिन मैं दफ्तर थोड़ा देर से पहुंचा |मेरे कमरे में बैठने वाले सहयोगी ने कमरे में घुसते ही बताया कि मिसेज रानी का फोन आया था |आप उनसे मिल लें ,कोई जरूरी काम है |मैंने लंच में उनके यहाँ जाने का मन बनाया किन्तु कुछ लोगों के अवांछित आगमन ने मुझे व्यस्त कर दिया|मैं उस दिन नहीं जा सका | अगले दिन दफ्तर के गेट पर ही मिसेज रानी खड़ी मिलीं|मैं कुछ सफाई देता कि वे बोल पड़ीं –“आपको दादा ने बुलाया है,समय निकाल कर अवश्य आ जाइएगा |” मैंने कहा –“अवश्य आऊँगा |’ उस दिन मैं दादा के घर पहुंचा |दिन के लगभग तीन बज रहे थे | उनके कमरे में लगभग अंधेरा या यूं कहें कि रोशनी कम थी |इशारे से संरेश डा ने मुझे अपने क़रीब बुलाया |उनकी ओर झुका तो उनकी आँखों से झर झर आँसू बहने लगे |मैंने उनको आश्वासन देते हुए कहा-“सब कुछ ठीक हो जाएगा दादा ,आप चिंता मत करें |”उन्होंने अस्पष्ट शब्दों में गिड़गिड़ाते हुए विनती की –“मुझे बचा लो |” उनको कुछ बोलते हुए परियाजन उनके क़रीब आ गए |दादा वर्षों बाद आज कुछ बोल रहे थे |बच्चों और उनकी पत्नी के चेहरे पर हल्की सी विस्मित मुस्कान बिखरी किन्तु मैं, शायद अकेला मैं उनके इस मर्म का अर्थ समझ पा रहा था |वे टूट रहे थे ,उनकी आँखों में हताशा के भाव थे ,लगा कि उन्होंने अब अपने जीवन की आशा से हार मान ली है | मैंने उनको अपनी स्मृतियों के सहारे उनके सुखद अतीत में ले जाना चाहा | उनका अतीत जितना ही वैभवशाली था वर्तमान उतना ही त्रासदी भरा |वे भी क्या दिन थे जब उनकी कोई पुस्तक छपती तो पाठक उसे खरीदने के लिए टूट पड़ते थे | सैकड़ों पत्र आते रहते और कुछ पाठक तो उनसे मिलने मूल्यवान उपहार के साथ घर भी आते रहते थे |मानो दादा कोई दूसरे संसार के हों|प्रकाशकों की भीड़ उनके घर मक्खियों की तरह जुटती|एक आज का दिन है कि दादा इसी शहर के लोगों के लिए अजनबी से ,निष्क्रिय बन गए हैं|
समरेश दादा अच्छी तरह जान समझ रहे थे कि चढ़ते सूरज को ही नमस्कार करने का प्रचलन है,डूबते को भला कौन पूछता है ?आज वे प्रकाशकों के लिए भी डूबते हुए सूरज के समान थे |किन्तु मैं जब भी उनसे मिलता उनको बार बार यह विश्वास दिलाता रहता कि दादा आप एक दिन बिस्तर से अवश्य उठेंगे और अपने जीवन का सर्वोत्कृष्ट साहित्य इस समाज को देंगे |आप समाज को यह दिखा देंगे कि साहित्यकार अपनी शारीरिक असमर्थताओं के चलते कभी चुकता नहीं है |उसका जीवन नदी के जल के समान शांत भी होटा है और समुद्र के उठे ज्वार के समान विनाशकारी भी |प्रवाह हमेशा उनमें होटा रहता है जो हर एक को दिखाई देना सहज नहीं होता है |मैं प्राय:उनको उनके प्रिय कवि रवींद्र नाथ टैगोर की वे पंक्तियाँ याद दिलाने की कोशिश करता रहा जिसमें उन्होंने कहा है-“जो दियो संध्या नामीछे मौन अंधेरे |सब संगीत गेछे एक महाई गीते धामिया|तबू विदंश मन विहंग मोर |एखोनी अंध बधो कोरो ना पाखा |”हमेशा की तरह उस दिन भी मैं उनके पास था |इशारों में उनकी पत्नी ने मुझे बाहर बुलाया|बोल उठीं-“इधर तीन चार दिन से बाल हठ कर रहे हैं |डाक्टर ने जिन चीजों को खाने से मना किया है उसे ही मांग रहे हैं| थोड़ा आप ही समझाइए|”मैंने थोड़ी देर बाद उत्तर दिया-“भाभी,अब उनको रोकिए टोकिए नहीं |वे जो खाना चाहते हैं उनको दीजिए|ना जाने अब मुझे भी लग रहा है |”मेरे इस अप्रत्याशित उत्तर पर वे हतप्रभ हो उठीं |हाँ,मुझे ना जाने क्यों,देर रात को समरेश दादा के घर से लौटते समय इस बात का अनुमान हो चला था कि अब दादा बचने वाले नहीं हैं|जिसे इस दुनियाँ से कूच करना है उसको प्रतिबंधित करना अनावश्यक है |क्यों उनको तमाम प्रतिबंधों में रखा जाए ?शायद शुक्रवार था उस दिन |दफ्तर में सभी मुझे खोज रहे थे |पहुंचते ही कोई बोल उठा- ‘‘सुना तुमने ?.. समरेश दादा नहीं रहे !”मैं हतप्रभ होकर अपनी पिछली मुलाकात को याद कर उठा |मुझे एकबारगी को लगा कि समरेश दा एक बारव फिर मुझे पुकार रहे हों _”मुझे .. मुझे बचा लो ”और मैं चाह कर भी उनको बचा नहीं पा रहा हूँ | इस घटना को बीते बरसों हो गए हैं और मुझे ऐसा लगता है कि समरेश दा जैसे लोग कभी भी मरा नहीं करते हैं|ऐसे लोग जिन्होंने अपनी लेखनी से इतने सारे अछे बुरे चरित्रों को जीवन दिया हो वे खुद कैसे भला मर सकते हैं?दूसरों को जीवन देने वाला भला कहीं मरता है क्या ?हाँ , समरेश बसु नामक व्यक्ति ने अपनी काया को अवश्य छोड़ दिया हैक्योंकि उन्हें किसी और शरीर में प्रवेश करके अभी और साहित्य लेखन करना है,लेखन करते ही रहना है ..लेकिन ऐसे लोग तब तक जिंदा रहेंगे जब तक पृथ्वी पर मनुष्य का जीवन है , उनका सुख हैं , दुख है|मनुष्य की कोटिश:पीड़ाएं हैं और उन सबको शब्दों का चोला पहनाना है | मैं निकल पड़ता हूँ उस परकाया की तलाश में जिसमें समरेश दादा जैसे लेखक ने अभी अभी प्रवेश किया है !