राज एक बहुत ही व्यस्त इंजीनियर था। उसका हर दिन कंप्यूटर के सामने रिपोर्ट्स, प्रेजेंटेशन और मीटिंग्स में ही गुज़र जाता था। उसके पास अपने बेटे, आठ साल के मोहित के लिए समय ही नहीं था। मोहित हमेशा उससे कोई न कोई सवाल पूछता रहता, "पापा, आसमान नीला क्यों है?", "पापा, चिड़ियाँ उड़ती कैसे हैं?", लेकिन राज हमेशा एक ही जवाब देता, "बेटा, अभी नहीं... बाद में बताता हूँ।" और वह 'बाद' कभी आता ही नहीं था।
एक शाम, राज बहुत थका हुआ घर लौटा। मोहित उसके पास एक किताब लेकर दौड़ा, "पापा, आज स्कूल में टीचर ने सूरज के बारे में बताया। तुम मुझे और बताओ न?"
राज के सिर में दर्द था। उसने झल्लाकर कहा, "मोहित, देख नहीं रहा मैं थका हुआ हूँ? जाओ, मम्मी से पूछो या टीवी देखो।" मोहित का चेहरा उतर गया। वह चुपचाप अपने कमरे में चला गया।
अगली सुबह, राज की नींद अजीब आवाज़ से खुली। उसने देखा, मोहित उसके स्टडी रूम में बैठा था और उसकी पुरानी, धूल भरी अलमारी से एक बॉक्स निकाल रहा था।
"यह सब क्या है, मोहित?" राज ने पूछा।
"कुछ नहीं, पापा... बस देख रहा था," मोहित ने कहा।
राज ने उस बॉक्स की तरफ देखा। वह उसके बचपन का बॉक्स था। उसमें उसकी पुरानी डायरी, स्केच बुक और तस्वीरें थीं। उसने वह बॉक्स कई सालों से नहीं खोला था।
अचानक, उसकी नज़र एक तस्वीर पर पड़ी। वह तस्वीर थी उसके और उसके अपने पिता की, जिन्होंने उसे पहली बार साइकिल चलाना सिखाया था। उसे याद आया कि कैसे उसके पिता उसे पार्क में ले जाते थे और उसे पेड़-पौधों, पक्षियों के बारे में बताया करते थे। उसके पिता भी एक व्यस्त डॉक्टर थे, लेकिन उन्होंने राज के लिए हमेशा समय निकाला था।
राज को एहसास हुआ, वह अपने बेटे के साथ वैसा ही व्यवहार कर रहा है जैसा वह नहीं चाहता था। उसने काम को इतना महत्व दिया कि वह अपने बेटे के बचपन के कीमती पलों को खोता जा रहा था।
उस दिन, राज ने ऑफिस से जल्दी छुट्टी ली। वह सीधे एक दुकान पर गया और एक नई फुटबॉल खरीदी। घर आकर उसने मोहित से कहा, "चलो बेटा, आज मैं तुम्हें फुटबॉल खेलना सिखाता हूँ।"
मोहित की आँखों में एक चमक आ गई, जो राज ने महीनों में नहीं देखी थी। पार्क में, जब मोहित गेंद को किक मारता और राज उसे पकड़ने की कोशिश करता, तो उसके चेहरे पर एक अलग ही खुशी थी। मोहित ने फिर से सवाल पूछना शुरू किया और इस बार राज ने हर सवाल का जवाब धैर्य से दिया।
शाम होते-होते दोनों थक गए थे, लेकिन उनके दिल हल्के थे। घर लौटते समय मोहित ने राज का हाथ थाम लिया और बोला, "पापा, आज मेरा सबसे अच्छा दिन था।"
राज ने उसे गले लगा लिया और कहा, "मेरा भी, बेटा... मेरा भी।"
उस दिन राज ने सीखा कि दुनिया की सारी कामयाबी उस एक पल की खुशी के बराबर भी नहीं है, जो उसे अपने बेटे की हँसती आँखों में देखने को मिली। समय कभी वापस नहीं आता, लेकिन इंसान चाहे तो अपनी गलतियाँ सुधार सकता है।
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कहानी का सार (Moral): पैसा और कामयाबी ज़रूरी हैं, लेकिन अपनों के साथ बिताया गया समय उससे भी ज़्यादा कीमती है। बच्चों का बचपन एक बार ही आता है, उसे नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए।
आशा है कि आपको यह छोटी सी कहानी पसंद आई होगी!