राहुल का जन्म एक छोटे से कस्बे में हुआ था। उसका घर कच्चा था, छत से बारिश की बूँदें टपकती थीं, और पिता की किराने की दुकान से मुश्किल से घर का खर्च चलता था। लेकिन गरीबी के बावजूद राहुल की आँखों में हमेशा एक चमक रहती। वह अक्सर आसमान की तरफ़ देखता और सोचता—“एक दिन मैं भी ऊँचाइयों को छूऊँगा।”
बचपन से ही पढ़ाई उसका जुनून थी। कस्बे के सरकारी स्कूल में वह हमेशा पहला आता। टीचर उसकी तारीफ़ करते, मगर घर के हालात देखकर कई लोग कहते, “इतनी पढ़ाई से क्या होगा? आखिरकार तुम्हें दुकान ही संभालनी पड़ेगी।” राहुल ये सुनकर चुप हो जाता, मगर अंदर से उसका विश्वास और मज़बूत हो जाता।
स्कूल खत्म होने के बाद उसने कॉलेज जाने की ठानी। पिता ने कहा, “बेटा, हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं। तेरा सपना बहुत बड़ा है।” माँ ने आँसू पोंछते हुए राहुल के कंधे पर हाथ रखा—“बेटा, कोशिश कर। हम थोड़ा कर्ज़ ले लेंगे।” राहुल ने माँ का हाथ पकड़कर कहा, “माँ, आप बस मेरा साथ देना, बाकी मेहनत मैं कर लूँगा।”
शहर में दाख़िला लेने के बाद मुश्किलों की असली शुरुआत हुई। दिन में क्लासेस, शाम को पार्ट-टाइम होटल की नौकरी और रात में घंटों की पढ़ाई। कभी-कभी थकान से उसकी आँखें बंद हो जातीं, किताबें खुली रह जातीं। मगर दिल से एक आवाज़ आती—“अगर अब हार गया तो सपना कभी पूरा नहीं होगा।” यही सोचकर वह फिर उठ जाता और पढ़ाई में लग जाता।
राहुल का सपना सिर्फ़ नौकरी पाना नहीं था। वह चाहता था कि गाँव के बच्चे भी बड़े सपने देखें और उन्हें पूरा करने का हौसला रखें। इसी सोच से उसने कॉलेज में रहते हुए एक नया आइडिया सोचा—एक ऐसा ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म, जहाँ गाँव के छात्र मुफ़्त में पढ़ाई का सामान और गाइडेंस पा सकें।
कॉलेज में “स्टार्टअप प्रेज़ेंटेशन कॉम्पिटिशन” हुआ। राहुल ने उसी आइडिया को वहाँ रखा। उसके पास न अच्छे कपड़े थे, न अंग्रेज़ी में धाराप्रवाह बोलने की क्षमता। लेकिन उसकी आँखों में सच्चाई थी और विचारों में ताक़त। जजों ने उसे ध्यान से सुना। प्रेज़ेंटेशन ख़त्म होने पर राहुल को पहले स्थान पर घोषित किया गया। उसे फंडिंग मिली और कुछ लोग उसकी मदद करने आगे आए।
धीरे-धीरे राहुल का स्टार्टअप आकार लेने लगा। उसने छोटे स्तर से शुरुआत की—पुरानी किताबें इकट्ठी करके ज़रूरतमंद बच्चों तक पहुँचाना। फिर उसने एक ऐप बनवाया, जहाँ बच्चे मुफ़्त लेक्चर सुन सकते थे। शुरुआत में मुश्किलें आईं—नेटवर्क नहीं था, संसाधन कम थे। लेकिन राहुल ने हार नहीं मानी।
साल दर साल मेहनत रंग लाई। उसका प्लेटफ़ॉर्म पूरे राज्य में प्रसिद्ध हो गया। हज़ारों बच्चे उससे जुड़े और पढ़ाई करने लगे। राहुल ने अपनी कंपनी का नाम रखा—“सपनों का सफ़र”।
आज राहुल अपने कस्बे के बच्चों को देखकर मुस्कुराता है। वही लोग, जो कभी कहते थे “दुकान संभालो”, अब अपने बच्चों को उसकी संस्था में पढ़ने भेजते हैं। उसके पिता गर्व से दुकान पर बैठे लोगों से कहते हैं—“ये मेरा बेटा है, जिसने साबित कर दिया कि सपने सच होते हैं।” माँ की आँखों में आँसू होते हैं, मगर वो आँसू अब खुशी के होते हैं।
राहुल जब मंच से बच्चों को संबोधित करता है, तो कहता है—
“सपनों की कोई कीमत नहीं होती। उन्हें पूरा करने के लिए मेहनत चाहिए। चाहे हालात कैसे भी हों, अगर आप डटे रहें, तो मंज़िल एक दिन ज़रूर मिलती है।”
उसकी कहानी पूरे गाँव के लिए उम्मीद का दीया बन गई। अब कोई बच्चा छोटा सपना नहीं देखता। हर कोई जानता है—छोटे कस्बे से निकला बड़ा सपना भी दुनिया बदल सकता है।