बरसात की बूंदें धीरे-धीरे मिट्टी पर गिर रही थीं। हवा में भीगती मिट्टी की खुशबू किसी पुराने गीत जैसी लग रही थी। छोटे से कस्बे की पुरानी डाकघर की इमारत अब आधी जर्जर हो चुकी थी। ईंटों की दीवारों में दरारें पड़ चुकी थीं, लेकिन भीतर बैठा बूढ़ा डाकिया रमेश आज भी अपने काम में तल्लीन था।
रमेश इस डाकघर में चालीस साल से काम कर रहा था। अब तो चिट्ठियों का दौर भी लगभग खत्म हो चुका था। सब कुछ मोबाइल और इंटरनेट पर सिमट गया था। लोग कहते, "अब डाकघर की ज़रूरत किसे है?"
लेकिन रमेश के लिए हर चिट्ठी किसी धड़कन जैसी थी। उसे लगता था कि जब तक चिट्ठियाँ पहुँच रही हैं, तब तक रिश्ते जिंदा हैं।
उस दिन जब वह पुराने रिकॉर्ड देख रहा था, तो उसे एक धूल से भरा बॉक्स मिला। अंदर कई पुराने लिफ़ाफ़े और अधूरी चिट्ठियाँ पड़ी थीं। उनमें से एक चिट्ठी पर उसका ध्यान अटक गया। उस पर लिखा था—
"मेरे बेटे अर्जुन के नाम, पर पहुँच न पाई।"
रमेश ने चिट्ठी खोली।
"प्रिय अर्जुन,
तुम्हारे पापा अब बहुत बीमार हैं। डॉक्टर कहते हैं कि ज़्यादा दिन नहीं बचा। मैं जानती हूँ तुम शहर में अपनी पढ़ाई और नौकरी में व्यस्त हो, लेकिन अगर एक बार आ सको तो शायद तुम्हारे पापा की आख़िरी ख्वाहिश पूरी हो जाए..."
यह चिट्ठी अधूरी रह गई थी। शायद समय पर नहीं पहुँच पाई। रमेश के हाथ काँप गए। उसने तुरंत बॉक्स में बाकी रिकॉर्ड खंगाले। उसे पता चला कि यह चिट्ठी पंद्रह साल पुरानी थी और कस्बे की सीमा पर रहने वाली "सावित्री देवी" ने लिखी थी।
रमेश को नींद नहीं आई। उसके मन में यही सवाल गूंजता रहा –
"क्या अर्जुन को कभी पता चला कि उसकी माँ ने उसे बुलाया था? क्या उसने अपने पिता से आख़िरी बार मुलाक़ात की?"
अगली सुबह रमेश ने ठान लिया कि वह अर्जुन को ढूँढेगा। उसने पुराने पते पर जाकर पड़ोसियों से पूछताछ की। पता चला कि सावित्री देवी अब इस दुनिया में नहीं थीं और उनका बेटा अर्जुन शहर चला गया था।
रमेश ने हिम्मत नहीं हारी। उसने अर्जुन का नया पता निकाला और शहर जाने वाली बस पकड़ी। उम्र ने उसके शरीर को कमज़ोर बना दिया था, लेकिन दिल में यह दृढ़ता थी कि वह यह अधूरी चिट्ठी अपने मंज़िल तक ज़रूर पहुँचाएगा।
कई घंटे की यात्रा के बाद वह शहर पहुँचा। भीड़-भाड़, शोर-गुल, ऊँची-ऊँची इमारतें… सब देखकर रमेश को अपना गाँव याद आने लगा। आखिरकार, वह अर्जुन के दफ़्तर पहुँचा।
रिसेप्शन पर खड़े होकर उसने कहा—
"मुझे अर्जुन से मिलना है, मैं उसके गाँव से आया हूँ।"
थोड़ी देर इंतज़ार के बाद एक सजीला, सूट-बूट पहने व्यक्ति बाहर आया। वही अर्जुन था।
रमेश ने कांपते हाथों से चिट्ठी आगे बढ़ाई—
"बेटा, ये तुम्हारी माँ की आख़िरी चिट्ठी है। किसी कारण से तुम तक पहुँच नहीं पाई।"
अर्जुन ने चिट्ठी खोली। पढ़ते-पढ़ते उसकी आँखें भर आईं। उसे याद आया कि पंद्रह साल पहले जब पिता की मौत हुई थी, वह अपनी नौकरी के इम्तिहान में इतना उलझा हुआ था कि गाँव नहीं जा पाया था। उसने सोचा था कि माँ ने उसे बुलाया ही नहीं। लेकिन अब सच उसके सामने था।
अर्जुन ने फूट-फूटकर रोते हुए कहा—
"काश! ये चिट्ठी मुझे समय पर मिल जाती… मैं अपने पापा को आख़िरी बार देख पाता।"
रमेश ने उसके कंधे पर हाथ रखा—
"बेटा, शायद ज़िंदगी यही सिखाना चाहती है कि रिश्तों को कभी कल पर मत टालो। वक्त किसी का इंतज़ार नहीं करता।"
उस दिन अर्जुन देर रात तक अपने माता-पिता की यादों में डूबा रहा। उसने तय किया कि अब वह अपने गाँव लौटेगा और माँ-बाप की छोड़ी हुई हवेली को संवारकर उसमें एक "स्मृति पुस्तकालय" बनाएगा।
कुछ महीनों बाद गाँव में वही टूटा-फूटा घर फिर से चमक उठा। वहाँ बच्चे आकर किताबें पढ़ते, बुजुर्ग बैठकर पुरानी यादें साझा करते। और उस घर के मुख्य द्वार पर एक तख्ती लगी थी—
"सावित्री-शंकर स्मृति सदन – जहाँ रिश्तों की आवाज़ अब भी गूंजती है।"
रमेश जब भी वहाँ जाता, उसे गर्व होता कि एक अधूरी चिट्ठी ने न सिर्फ अर्जुन का जीवन बदला, बल्कि पूरे गाँव को एक नई दिशा दे दी।
और अर्जुन हर आने वाले बच्चे से यही कहता—
"बेटा, रिश्तों को कभी अधूरा मत छोड़ना, वरना उनकी चिट्ठियाँ ज़िंदगी भर इंतज़ार करती रह जाती हैं।"