रजनी के हाथ, बैठक में आगंतुकों के स्वागत व्यवस्था को, तेजी से दुरुस्त करने में जुटे थे तो मन बचपन के आंगन में, दौड़ लगा रहा था। कुमाऊं अंचल के उस छोटे से गावं में, साल भर खेती, घर, परिवार में व्यस्त रहने वाली उसकी मां रुक्मणी, फाल्गुन माह की आंवला एकादशी की मानो प्रतीक्षा में ही रहती थी।
इतना तो आम भी नहीं बौराता, जितना उसकी मां होली फाग में, बौरा उठती थी। फिर तो मां को न गोठ में बंधे पशु याद रहते न घर के अंदर मौजूद बेटी, सभी की जिम्मेदारी दादी पर आ जाती। दादी भी खुशी खुशी, रंग एकादशी से पूर्णिमा तक मां को गृहस्थी की जिम्मेदारी से छुट्टी दे देती। पूरे गावं में, न मां की तरह कोई इतने ऊंचे सुर में तान छेड़ पाता न ही ढोलक की थाप पर चक्करगिन्नी सा नृत्य कर पाता। “आज मेरे घर आना","आज म्यर घर धरिया होई (आज मेरे घर होली गीत करना)" की पुकार के साथ, स्त्री, पुरुषों की अलग अलग, बैठकी होली का दौर शुरू हो जाता।
बड़ी बूढ़ी आमा कह उठती "हाई कतुक रंगीली बवारि छू (कितनी राग रंग से परिपूर्ण बहु है)"। इसीलिए पूरे गावं में मां, रंगीली के नाम से मशहूर हो गई थी। मां को भी, अपने गुणों को प्रदर्शित करने का, इससे बड़ा सुअवसर कब मिलता।
रजनी दस साल की थी, जब उसके माता पिता, बस के खाई में गिर जाने से, मृत्यु को प्राप्त हो गए। उसे काका, काकी अपने साथ नैनीताल ले आए। उन दोनों के विवाह को पांच वर्ष बीत चुके थे और वे अभी तक निःसंतान थे। दादी ने उसकी जिम्मेदारी से मुक्ति ले ली।
माता पिता के साथ, उसके संगी साथी, सभी गांव में छूट गये। काकी, उसके प्रति न तो अतिशय प्रेम प्रदर्शित करती, न ही कटु वचन कहती। वे सिर्फ उसकी जरूरतों का ध्यान रख, उसे पूर्ण करती। चाचा चाची दोनों सरकारी इंटर कॉलेज में टीचर हैं इसलिए उसकी पढ़ाई सुचारु रूप से चलने लगी। लेकिन उसके नाम की तरह जिंदगी में भी रजनी ठहर गई थी। आठ साल गुजरे, कोएड कॉलेज में एडमिशन मिला तो लगा जिंदगी में काले रंग के अतिरिक्त भी अनेक रंग बिखरे हुए हैं। पहली बार उसकी मित्र मंडली में युवक भी शामिल हुए।
नया फैशन, नया उत्साह और युवावस्था का खुमार उस पर भी चढ़ने लगा। उसके पांव खुद-ब-खुद थिरकने लगे और मन मयूर सा नाचने लगा। गाने बजाने के नाम पर छिप जाने वाली रजनी का, पंचम सुर में गा उठना, लोगों को हैरान कर गया। मगर उसकी काकी को पता था कि यह गुण तो उसे, अपनी मां से विरासत में मिला हुआ है। गोरे गोल मुखड़े पर, जीवंत काली आंखों और कमर तक सुनहरी केश राशि के साथ जब वो होली गीतों पर थिरक उठती तो देखने वाले मानो जड़वत हो उठते।
नैनीताल के पर्यटकों में से, उसकी मित्र मंडली, नवविवाहितों को चिन्हित कर ही लेती और फिर वे उनका पीठ पीछे खूब मज़ाक बनाते। अच्छा समय जल्द फुर्र हो गया। चाची ने आईवीएफ तकनीक का सहारा लेकर जुड़वा बच्चों को जन्म दिया और रजनी को किशोरावस्था से युवावस्था में पहुंचने की जगह सीधे अधेड़ावस्था में पहुंचा दिया। उन्होंने छह महीने बाद नन्हे बच्चों की जिम्मेदारी, उसे सौंप कर अपना कॉलेज पूर्ववत जॉइन कर लिया।
बीते पांच वर्षों के दौरान, उसके विवाह के कई रिश्ते आये मगर चाची ने साफ इनकार कर दिया कि पहले उनके बच्चे संभल जाये, फिर देखेंगे। गांव में आमा (दादी) भी न रही। काका उसका पक्ष लेते रहते मगर घर पर काकी की मर्जी ही चलती।
"कितने सावन बीत गये, मैं बैठी आस लगाए, जिस सावन में मिले सावरिया, वो सावन कब आये कब आये" कारवां पर बज रहे इस गीत के साथ, रजनी की उंगलियों में स्वेटर की सिलाइयां तेजी से चल रही थीं। उस दिन भी वो हमेशा की तरह, दोनों बच्चों को भीतर सुला कर, बालकनी में आ रही धूप सेंकने बैठ गई थी।
रजनी खाली हाथ नहीं लौटी उसके हाथ में एक ट्रे मौजूद थी जिसमें गर्म चाय के साथ, बाल मिठाई के टुकड़े भी थे।
काका के छात्र अक्सर गांव से दूध, दही, हरा साग आदि घर पहुंचा जाते हैं। इसलिए रजनी भी झोले को खाली कर, झटपट चाय भी बना लाई।
"चाय के लिये खाली परेशान हुई आप"
"अकेले पीने का मन नहीं था अच्छा हुआ तुम आ गये" उसने वरुण से बड़े प्रेम से कहा।
"आप मुझे पहचानती हैं?" वरुण ने आश्चर्य से कहा।
"तुम्हें काका ने भेजा हैं तो उनके छात्र ही होंगे, वैसे तुम्हें देखकर लगता हैं कि पढ़ाई देर से शुरू हुई हैं तुम्हारी"
वरुण मुस्कुराया और चाय घुटकता हुआ बोला" आपकी पढ़ाई पूरी हो गई ?"
"नहीं बी एड में दाखिला मिल गया है। जल्द कॉलेज जाना शुरू करूंगी। जब से बच्चे हुए हैं रेगुलर की जगह प्राइवेट ही बीए, एमए, पूरा किया"
"कितने बच्चे हैं आपके " वरुण ने आश्चर्य से पूछा।
तल्लीताल से तहसील की ओर जाती इस रोड में सुबह सब्जी मंडी सजती तो दोपहर होते होते, सड़क के दोनों ओर की दुकानों में चहल पहल बढ़ जाती। उसके घर के नीचे भी बाल मिठाई की प्रसिद्ध दुकान है। ऊपरी मंजिल पर बने इस प्लैट को काका ने नौकरी की शुरूआत में ही खरीद लिया था। यहां एक कोना पकड़कर धूप सेकना और स्वेटर बिनना, अब तो दिन भर का यही समय रजनी को फुर्सत और सुकून देता।
“मास्साब ने यह भिजवाया है" आवाज सुनकर रजनी ने उसे देखा। अंडाकार गोरे मुखड़े का, घुंघरालें बालों वाला युवक, अपनी छोटी छोटी आंखों पर, चश्मे का फ्रेम टिकाता हुआ बोला।
रोड से जुड़ी सीढ़ियों से, ऊपर बालकनी में पहुंच गये युवक को, वो अपलक देखती रही।
" लीजिये" उसने झोला आगे किया।
रजनी की तंद्रा भंग हुई "आप बैठिए मैं यह बर्तन खाली कर के लाती हूं " कहकर वो बालकनी में खुलता मुख्य द्वार खोलकर, अंदर चली गई।
वरुण उसके छोड़े हुए, स्वेटर को देखने लगा।
रजनी खाली हाथ नहीं लौटी उसके हाथ में एक ट्रे मौजूद थी जिसमें गर्म चाय के साथ, बाल मिठाई के टुकड़े भी थे।
"मेरे नहीं, काकी के बच्चे हैं। तभी तो काका ने कहा हैं अब तुम कॉलेज जाओ, काकी साल भर छुट्टी लेंगी" रजनी ने कहा।
वरुण हंसने लगा।
शाम को काका ने बताया कि उनके इंटर कॉलेज में वरुण, मैथ्स का शिक्षक नियुक्त हुआ है। रजनी को बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई।
कुछ दिन बाद वरुण फिर बालकनी में हाजिर हो गया।
"ये लीजिये"
"अब ये क्या है? वरुण जी" वो सकुचाते हुए बोली।
"उस दिन आपने बताया था न कि सामने दुकान में सजे ज्यादातर स्वेटर, आपके हाथों के बुने हैं। ईजा को पता चला तो उन्होंने ये ऊन भेज दिया। आप मेरी दीदी की दो साल की बिटिया के लिये सुंदर सी ऊनी फ़ाक बना देंगी न"
"हां बिल्कुल, यह तो मेरा शौक है"
"ईजा ने गाय का घी भी भेजा है आपके लिये" वरुण ने दूसरे हाथ में पकड़ा स्टील का डिब्बा आगे बढ़ा दिया।
वरुण उसके मरुस्थल समान जीवन में ठंडे पानी की बौछार सा आता उसके अंतर्मन को भिगो के चला जाता। इस बीच काका, काकी में भी, उनकी मुलाकातों को लेकर बहस भी हुई।
"वरुण और रजनी की जोड़ी कितनी सुंदर लगेगी, तुम कहो तो मैं उसके पिता से बात करूं"
"कोई जरूरत नहीं, मेरे बच्चों को दस ग्यारह, साल का हो जाने दो फिर इसके विवाह की सोचेंगे"
"इतनी स्वार्थी न बनो" काका कहकर चुप लगा गये। तभी से रजनी ने भी अपनी नियति स्वीकार कर ली।
एक साल यूं ही उम्मीद और नाउम्मीदी के दौर में झूलते गुजर गया। आज काकी के घर दिन में महिलाओं की बैठकी होली है, फिर रात को पुरुषों की बैठकी होली जमेगी। काका, काकी और उसके लिये नई लाल किनारे की सफेद साड़ी, होली में रंग खेलने के लिये लेकर आये हैं।
आज वही, लाल किनारे की सफेद साड़ी में सजी रजनी ने, बैठक में दरी चादर बिछाकर, एक निरीक्षण किया। फिर ढोलक, मंजीरा, खड़ताल, सौंफ, सुपारी, इलायची का डिब्बा सभी यथा स्थान रखा। उसने टीवी पर गाना लगा दिया और नाचने लगी अकेले, अपने लिये
"रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे, मोहे मारे नजरिया सांवरिया रे, मोहे मारे नजरिया सावरियां रे"
काकी कोने में खड़ी होकर, उसका नृत्य देखने लगी। अचानक वो जड़ सी हो गयी ऐसा लगा जैसे रजनी नहीं रुकमणी चक्करघिननी बनी नाच रही हैं।
तभी दरवाजे पर नजर पड़ते ही, रजनी के कदम रुक गये। सामने वरुण, अपने दोनों हाथ पीछे की तरफ बांधे खड़ा दिखा।
"कुछ काम था ?" रजनी ने पूछा।
तभी काका भी भीतर से, बैठक में आ गये।
"मुझे कुछ कहना है" वरुण ने सकुचाते हुए कहा।
"कहो" काका ने प्यार से कहा।
उसने अपने दोनों बंद मुट्ठियों को खोलते हुए कहा "ये गुलाल रजनी को लगा सकता हूं?"
काका कुछ कहते, उससे पहले काकी बोल पड़ी" हांss, फिर तुम भी रंगों से बच नहीं पाओगे"
वरुण ने बिना मौका गंवाए दोनों मुट्ठी गुलाल रजनी के ऊपर उछाल दिये। गाना अब भी लगातार बज रहा है" रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे" लेकिन कमरे में बिछी चादर, अबीर, गुलाल के साथ नीले, पीले रंगों से सराबोर होने लगी।