वह शाम बाकी दिनों जैसी नहीं थी। कमरे में अजीब-सी ख़ामोशी थी, जैसे दीवारें भी मेरी तन्हाई सुन रही हों। बाहर हल्की बारिश हो रही थी, खिड़की पर बूँदों की दस्तक किसी बेचैन दिल की तरह लगातार बज रही थी। ऐसे में मैंने टीवी ऑन किया और सामने स्क्रीन पर उभर आया नाम—“शेरशाह”।
शुरुआत में लगा, यह तो बस एक और युद्ध फिल्म होगी। लेकिन जैसे-जैसे दृश्य आगे बढ़ते गए, मुझे महसूस हुआ कि यह केवल परदे की कहानी नहीं है, बल्कि मेरे दिल की गहराई तक उतरने वाली यात्रा है।
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पहली झलक – हँसी और मासूमियत
फिल्म का पहला हिस्सा हल्का-फुल्का था। कॉलेज लाइफ़, दोस्तों की शरारतें, क्रिकेट मैच, और बीच-बीच में हँसी-मज़ाक। वहाँ एक साधारण-सा लड़का था—विक्रम बत्रा, परदे पर सिद्धार्थ मल्होत्रा के रूप में। लेकिन उनकी मासूम हँसी और बातों में ऐसा विश्वास था कि लगा, यह किरदार नहीं, कोई अपना-सा दोस्त है।
विक्रम का पहली बार कहे गए शब्दों में से एक मेरे दिल पर सीधे उतरा—
“ज़िंदगी अगर खुलकर जीनी है तो बड़े सपने देखने पड़ेंगे।”
उसकी बातें सुनते-सुनते मैंने सोचा—कितनी बार मैंने भी बड़े सपने देखे हैं, पर डर और हालात ने उन्हें आधे रास्ते में ही रोक दिया।
फिर आई मोहब्बत की खुशबू। डिंपल (कियारा आडवाणी) के किरदार ने फिल्म को और भी दिलकश बना दिया। उनका मासूमियत भरा संवाद—
“तुम जहाँ भी रहोगे, मेरी दुआएँ हमेशा तुम्हारे साथ होंगी।”
सुनते ही लगा कि जैसे यह सिर्फ़ विक्रम से नहीं, बल्कि मुझसे भी कहा जा रहा हो। मोहब्बत और जंग—दोनों का संगम इस फिल्म को एक अलग ही रंग दे रहा था।
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जंग का आह्वान
इंटरवल से पहले तक फिल्म ने हल्के-फुल्के रंग दिखाए, लेकिन उसके बाद परदे पर अचानक एक तूफ़ान आ गया। कारगिल युद्ध का दृश्य—बर्फ़ से ढके पहाड़, आसमान से बरसती गोलियाँ, हर तरफ़ मौत का साया।
विक्रम बत्रा का वो मशहूर संवाद गूँजा—
“या तो तिरंगा फहराकर आऊँगा… या तिरंगे में लिपटकर आऊँगा। लेकिन आऊँगा ज़रूर।”
उस पल मेरा दिल काँप गया। कमरे की चार दीवारों के बीच बैठा मैं अचानक खुद को उन पहाड़ों के बीच महसूस करने लगा। सोचने लगा—अगर मैं वहाँ होता, तो क्या इतनी हिम्मत जुटा पाता?
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“दिल माँगता है और…”( ये दिल मांगे मोर)
फिल्म के सबसे यादगार लम्हों में से एक था जब पूरी टुकड़ी ने नारा लगाया—
“दिल माँगता है और…”
और पूरा हॉल गूँज उठा—“मोर!”
यह केवल सैनिकों का युद्धघोष नहीं था, यह इंसान की आत्मा की पुकार थी। मैंने महसूस किया कि यह नारा मेरी ज़िंदगी की लड़ाईयों पर भी लागू होता है। हर बार जब हालात मुझे हराने की कोशिश करते हैं, मेरा दिल भी तो यही कहता है—“और हिम्मत, और कोशिश।”
उस समय मेरे दिल से अनायास ही एक शेर निकला—
“मंज़िल मिले या न मिले, सफ़र छोड़ना नहीं,
हार सामने हो तो भी, हौसला तोड़ना नहीं।”
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शेरशाह – मौत से आँख मिलाने वाला
विक्रम बत्रा का किरदार सिर्फ़ एक सैनिक नहीं था। वह एक आइना था, जिसमें मैंने अपनी कमजोरी और डर देखे। उनके शब्द—
“शेरशाह पीछे हटना नहीं जानता।”
सुनते ही लगा कि जैसे यह मुझसे कहा जा रहा हो।
मैंने सोचा—कितनी बार मैं अपनी मुश्किलों से पीछे हट गया हूँ। छोटी-सी नाकामियों ने मुझे डरा दिया, लेकिन यहाँ एक इंसान है जो मौत की आँखों में देखकर भी मुस्कुरा रहा है।
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मोहब्बत का दर्द
फिल्म के युद्ध दृश्यों के बीच भी डिंपल और विक्रम की मोहब्बत बार-बार झलकती रही। उनका रिश्ता अधूरा था, लेकिन उसमें गहराई थी। जब विक्रम डिंपल से कहते हैं—
“तू मेरी ज़िंदगी है, लेकिन मेरा फ़र्ज़ देश है।”
तो मेरे दिल में एक टीस उठी। कितनी बार हम मोहब्बत और ज़िम्मेदारी के बीच फँस जाते हैं, और दोनों को साथ लेकर चलना मुश्किल हो जाता है।
उस वक्त मेरे मन में एक और शेर उभरा—
“मोहब्बत भी ज़रूरी है, फ़र्ज़ भी निभाना है,
दिल किसी का रखना है, वतन पर जान लुटाना है।”
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वीरगति और खामोशी
फिल्म के आख़िरी दृश्य में जब विक्रम बत्रा वीरगति को प्राप्त होते हैं और तिरंगे में लिपटकर लौटते हैं, तो मैं स्क्रीन से नज़रें नहीं हटा पाया। कमरे में एक गहरी ख़ामोशी थी। आँसू बह रहे थे, लेकिन उन आँसुओं में गर्व भी था।
उस पल मुझे लगा—यह केवल एक सैनिक की कहानी नहीं है। यह हर उस इंसान की कहानी है जो अपने सपनों और फ़र्ज़ के लिए अंत तक लड़ता है।
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संगीत और असर
फिल्म का संगीत मेरे दिल को छू गया। “रातां लंबियां” जैसे गीतों ने मोहब्बत को जिंदा रखा, जबकि युद्ध दृश्यों में गूँजते नगाड़ों ने दिल में डर और गर्व दोनों भर दिए। हर धुन, हर शब्द दिल की गहराई में उतर गया।
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मेरे जीवन की सीख
फिल्म खत्म हुई तो स्क्रीन काली हो गई, लेकिन मेरे भीतर एक रोशनी जल उठी। बाहर बारिश थम चुकी थी, हवा में ठंडक थी। मैं खिड़की से बाहर देख रहा था और खुद से पूछ रहा था—
“क्या मैं भी अपनी ज़िंदगी की लड़ाई वैसे ही लड़ सकता हूँ जैसे शेरशाह ने लड़ी?”
मेरा मन चुप नहीं रहा। उसने जवाब दिया—
“हाँ, अगर तू डटकर खड़ा होगा, तो तेरे लिए भी जीत संभव है।”
उस रात मैंने खुद से एक वादा किया—अब चाहे हालात कितने भी मुश्किल हों, मैं पीछे नहीं हटूँगा।
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अंतिम एहसास
“शेरशाह” मेरे लिए सिर्फ़ एक फिल्म नहीं रही। यह मेरे दिल की डायरी का वह पन्ना बन गई जिसमें साहस, मोहब्बत, फ़र्ज़ और बलिदान की स्याही से लिखा हुआ है।
किसी शायर की पंक्तियाँ याद आ गईं—
“जो शख़्स मौत से टकरा के मुस्कुराता है,
उसकी दास्तान हर दिल में अमर हो जाता है।”
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निष्कर्ष
“शेरशाह” परफेक्ट फिल्म है या नहीं, यह सवाल अब महत्वहीन है। इसकी असली खूबसूरती यह है कि यह इंसान को अपनी लड़ाइयाँ लड़ने की प्रेरणा देती है। विक्रम बत्रा की कहानी ने मुझे यह सिखाया कि—
“ज़िंदगी छोटी हो सकती है, लेकिन अगर उसे फ़र्ज़ और मोहब्बत के साथ जिया जाए तो वह अमर हो जाती है।”
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