Sacrifice of truth in Hindi Short Stories by mood Writer books and stories PDF | सत्य का बलिदान

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सत्य का बलिदान


सुरजनगर एक पुराना, शांत और रंग-बिरंगा शहर था। यहाँ की गलियों में बचपन से ही दोस्तियाँ पनपती थीं। मंदिर की घंटियों और मस्जिद की अज़ान की आवाज़ें एक-दूसरे में घुल-मिल जाती थीं। मोहल्ले की गलियों में बच्चे गिल्ली-डंडा खेलते, बुज़ुर्ग चौपाल पर बैठकर चर्चा करते और औरतें अपने-अपने घरों के आँगन में पापड़ सुखातीं।

इसी शहर के बीचों-बीच एक छोटी-सी दर्जी की दुकान थी। दुकान का मालिक था रामकुमार शर्मा। उम्र करीब 45 साल, चेहरे पर हल्की झुर्रियाँ, लेकिन आँखों में सच्चाई की चमक। उसका पहनावा साधारण था – साधे हुए कपड़े और सिर पर हमेशा सफेद गमछा। मशीन की टक-टक आवाज़ ही उसकी रोज़ी-रोटी और पहचान थी।

रामकुमार का काम सिर्फ कपड़े सिलना नहीं था, बल्कि लोगों के दिलों को जोड़ना भी था। मोहल्ले का हर इंसान उसे जानता था। कोई शादी का लहँगा सिलवाता, तो कोई कुरता। वह बिना भेदभाव हर किसी का काम करता।

अक्सर उसका मुस्लिम दोस्त रशीद कुरैशी दुकान पर आता। दोनों बैठकर चाय पीते और बातें करते।
रशीद हँसते हुए कहता – “रामू भाई, आपकी सुई को कभी भेदभाव करना नहीं आया। हमारे कपड़े और उनके कपड़े, सब बराबर।”
रामकुमार मुस्कुराकर जवाब देता – “रशीद भाई, सुई कपड़े जोड़ती है, तो इंसानियत क्यों न दिलों को जोड़े।”

उसका परिवार भी उतना ही सरल था। पत्नी मीना देवी, जो घर संभालती और हर सुबह पति को टिफ़िन देकर विदा करती। और बारह साल का बेटा अभय, जो स्कूल जाता और शाम को दुकान पर आकर पिता के पास बैठ जाता। अभय अपने पापा से हर तरह के सवाल पूछता –
“पापा, लोग क्यों लड़ते हैं धर्म के नाम पर?”
रामकुमार उसे दुलारते हुए कहते – “क्योंकि बेटा, वो भूल जाते हैं कि असली धर्म इंसानियत है। अगर लोग ये समझ लें तो लड़ाई की कोई वजह ही न बचे।”

जीवन यूँ ही शांत बह रहा था। लेकिन समय का पहिया कब किसे कहाँ पहुँचा देता है, कोई नहीं जानता।

एक दिन रामकुमार ने मोबाइल पर सोशल मीडिया खोला। उसने एक पोस्ट देखी, जिसमें समाज में हो रहे अन्याय के बारे में लिखा था। उसे लगा कि यह सच लोगों तक पहुँचना चाहिए। उसने वह पोस्ट शेयर कर दी। उसके मन में कोई बुरा भाव नहीं था, लेकिन डिजिटल दुनिया में छोटे शब्द भी कभी-कभी आग का काम कर जाते हैं।

शहर के कुछ युवक, खासकर दो – साहिल कुरैशी और इमरान शेख़, इस पोस्ट को देखकर भड़क उठे। दोनों पहले से ही उग्र विचारधारा से प्रभावित थे। उन्हें लगा कि यह पोस्ट उनके धर्म के खिलाफ है।

धीरे-धीरे उनकी सोच ज़हरीली होती चली गई। एक दिन वे अपने गली के बाहर वाले मोहल्ले में एक कट्टरपंथी नेता से मिले। वह नेता आग उगलते शब्दों में बोला –
“अगर तुम धर्म के सच्चे बेटे हो, तो इस अपमान का जवाब दो। वरना कल तुम्हारे बच्चे भी तुम्हें कायर कहेंगे।”

उस दिन के बाद से साहिल और इमरान का चेहरा बदल गया। उनके दिमाग में सिर्फ बदला और नफ़रत घूमने लगी। दोनों ने छिपकर वीडियो बनाए, जिसमें वह कहते –
“हम चुप नहीं बैठेंगे। हम इंसाफ़ करेंगे।”

इधर रामकुमार को मोहल्ले में कुछ लोग चेताने लगे –
“रामू भाई, वो पोस्ट हटा दो। माहौल बिगड़ रहा है। लोग गुस्से में हैं।”
लेकिन रामकुमार शांत भाव से बोले –
“मैंने किसी की बुराई नहीं की। मैंने सिर्फ सच कहा। और अगर सच बोलना गुनाह है, तो यह गुनाह मैं हर दिन करूँगा।”

उसकी पत्नी मीना चिंतित थी। वह रात को कहती –
“इतनी बातें मत किया करो, लोग गलत समझ लेते हैं।”
रामकुमार मुस्कुराकर उसे दिलासा देते – “मीना, सच्चे इंसान से ज़्यादा कोई सुरक्षित नहीं होता। ईश्वर हमारे साथ है।”

लेकिन सुरजनगर की गलियों में एक अनहोनी की आहट अब साफ सुनाई देने लगी थी। हवा में अजीब-सी खामोशी घुलने लगी थी।

और इस खामोशी के बीच, कोई बड़ा तूफ़ान आने वाला था…

दिन ढलने लगा था। सुरजनगर की गलियों में चहल-पहल थी। दुकानों पर ग्राहक आ रहे थे, बच्चे खेल रहे थे, और घरों से रसोई की महक उठ रही थी।
रामकुमार अपनी दुकान में मशीन पर झुके सिलाई कर रहा था। बगल में उसका बेटा अभय बैठा हुआ था, जो स्कूल से लौटते ही अपने पापा के पास चला आता। उसके हाथ में मिठाई का डिब्बा था।

अचानक गली में दो युवक दाखिल हुए – साहिल कुरैशी और इमरान शेख़। दोनों के चेहरे पर बनावटी मुस्कान थी। उन्होंने अंदर आकर कपड़े सिलवाने का बहाना किया।
रामकुमार ने बिना शक किए उनकी बात मानी और उनसे कपड़ा लिया।

लेकिन अगले ही पल माहौल बदल गया। साहिल ने बैग से हथियार निकाला, और इमरान ने दरवाजा भीतर से बंद कर दिया।
रामकुमार कुछ समझ पाता उससे पहले ही हमला हो चुका था।
गली में चीखें गूंज उठीं – “बचाओ… बचाओ…”

लोग घरों से बाहर भागे, पर किसी को भीतर जाने की हिम्मत नहीं हुई। बच्चे डर से रोने लगे। अभय ने अपने पापा को बचाने की कोशिश की, लेकिन मीठाई का डिब्बा उसके हाथ से गिरकर टूट गया और उसकी मासूम आँखों के सामने उसका संसार बिखर गया।

कुछ ही पलों में सब कुछ खत्म हो गया।
रामकुमार ज़मीन पर गिर पड़ा। उसकी आँखें अब भी खुली थीं, जैसे वह दुनिया से आखिरी बार कहना चाहता हो – “नफरत मत फैलाओ, इंसानियत सबसे बड़ी है।”

गली में सन्नाटा छा गया।
मीना दौड़ती हुई पहुँची और पति की लाश से लिपटकर रोने लगी। उसका चीत्कार सुनकर पूरे शहर का दिल काँप गया।

सुरजनगर में तनाव फैल गया। दुकानें बंद हो गईं, लोग सड़कों पर उतर आए। हर कोई यही कह रहा था – “इतना बड़ा जुर्म, धर्म के नाम पर?”

पुलिस ने फौरन कार्रवाई की। साहिल और इमरान भागने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन ज्यादा दूर नहीं जा पाए। उन्हें पकड़ लिया गया।
जांच में सामने आया कि वे दोनों एक ऐसे नेटवर्क का हिस्सा थे जो धर्म के नाम पर युवाओं के दिमाग में जहर घोलता था। उन्हें बहकाया गया, भड़काया गया और इंसानियत के खिलाफ इस्तेमाल किया गया।

मामला अदालत पहुँचा। सुनवाई के दौरान पूरा शहर खचाखच भरा हुआ था।
जज ने सख़्त लहजे में कहा –
“किसी भी धर्म की किताब हत्या की इजाज़त नहीं देती। यह अपराध सिर्फ कानून के खिलाफ नहीं है, बल्कि इंसानियत की आत्मा पर हमला है। समाज ऐसे अपराधियों को कभी माफ नहीं करेगा।”

रामकुमार की अंतिम यात्रा निकली। हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग साथ आए। किसी ने तिरंगा उठाया, तो किसी ने मोमबत्ती। लोग रोते हुए, लेकिन एकजुट होकर चल रहे थे।
पूरा शहर यह दिखा रहा था कि “नफरत फैलाने वाले कुछ लोग हो सकते हैं, लेकिन इंसानियत के सिपाही पूरे समाज में फैले हुए हैं।”

अभय अपने पिता की तस्वीर उठाए चल रहा था। उसकी आँखों से आँसू लगातार बह रहे थे, लेकिन उसके होंठों से एक वाक्य निकला –
“पापा ने सिखाया है कि इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है। मैं उनकी राह पर चलूँगा।”

लोग रुककर उसे सुनने लगे।
गली में एक ही नारा गूँजने लगा –
“नफरत हारेगी, इंसानियत जीतेगी।”

रामकुमार का जीवन छोटा था, लेकिन उसका बलिदान बहुत बड़ा संदेश दे गया।
उसने सिखा दिया कि धर्म का असली अर्थ पूजा-पाठ या रस्मों में नहीं, बल्कि इंसानियत और भाईचारे में है।
कट्टरता चाहे जितनी गहरी हो, पर इंसानियत की रोशनी कभी बुझ नहीं सकती।