हरियाणा के बलाली गाँव की गलियों में हर रोज़ बच्चों की आवाज़ गूँजती रहती है। कभी कोई कबड्डी खेलता तो कभी अखाड़े से मिट्टी की गंध हवा में घुल जाती। इन्हीं गलियों के बीच रहते थे महावीर सिंह फोगाट। कभी वे एक शानदार पहलवान हुआ करते थे। उनकी आँखों में एक ही सपना था – कि वे भारत के लिए गोल्ड मेडल जीतें और देश का नाम रोशन करें। लेकिन किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया। परिवार की जिम्मेदारियाँ, पैसों की तंगी और समाज की बेड़ियों ने उन्हें अखाड़े से दूर कर दिया। उनका सपना अधूरा रह गया, लेकिन उनके दिल में वह सपना बुझा नहीं था।
महावीर अक्सर अपने पुराने मेडल देखते रहते। दोस्तों से बातें करते तो उनकी आवाज़ में कसक साफ झलकती। वे कहते कि एक दिन उनका बेटा होगा और वही वो करेगा जो वे नहीं कर पाए। हर दिन उनकी उम्मीद इसी ख्वाब से बंधी रहती। लेकिन किस्मत जैसे उनसे कोई खेल खेल रही थी। पत्नी दया कौर ने एक-एक करके चार बेटियों को जन्म दिया। गीता, बबीता, रीतू और संगीता। हर बेटी के जन्म पर महावीर का चेहरा थोड़ी देर को उतर जाता, मगर वे कभी खुलकर कुछ कहते नहीं। गाँव वाले ताने मारते – “अरे महावीर, बेटा नहीं हुआ… अब तेरा सपना कौन पूरा करेगा?” महावीर चुप रह जाते, लेकिन उनके भीतर का दर्द और गहराता जाता।
इसी बीच एक दिन गाँव की गलियों में कुछ ऐसा हुआ जिसने सब कुछ बदल दिया। दो लड़कों ने गीता और बबीता का मज़ाक उड़ाया। बात इतनी बढ़ गई कि दोनों बहनों ने उन लड़कों को पकड़कर पीट दिया। गुस्से में उन्होंने उन्हें इस कदर धूल चटाई कि उनके कपड़े फट गए और चेहरा लहूलुहान हो गया। जब यह बात गाँव तक पहुँची, तो सब हैरान रह गए। कोई कहने लगा ये लड़कियाँ तो लड़कों से भी ताकतवर हैं, कोई बोला कि महावीर की बेटियाँ तो तूफ़ान हैं।
महावीर ये सब सुनते रहे। पहले तो उन्हें अजीब लगा, फिर अचानक उनके मन में एक बिजली सी कौंध गई। रात को जब सब सो गए, वे अकेले बैठे सोचते रहे। उनके मन में वही दृश्य घूमता रहा – गीता और बबीता का उन लड़कों को धूल चटाना। तभी उन्हें लगा कि ताकत, हिम्मत और जज़्बा बेटों में ही नहीं, उनकी बेटियों में भी है। वे सोचने लगे कि असली खिलाड़ी वही होता है जिसके अंदर जीतने की आग हो, चाहे वह बेटा हो या बेटी।
अगली सुबह जब सूरज उग रहा था, गाँव की मिट्टी पर ओस जमी थी, महावीर ने अपनी दोनों बेटियों को खेतों की ओर बुलाया। बेटियाँ हैरान थीं, सोच रही थीं कि शायद उन्हें कोई नया काम करना होगा। लेकिन महावीर की आँखों में आज एक अलग ही चमक थी। उन्होंने दृढ़ आवाज़ में कहा – “आज से तुम दोनों पहलवानी सीखोगी।” गीता और बबीता उनकी बात सुनकर सन्न रह गईं। दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा जैसे यकीन न हो रहा हो कि उनके पिता सचमुच ये कह रहे हैं।
धीरे-धीरे पूरे गाँव में यह खबर फैल गई। लोग हँसने लगे। कोई बोला, “महावीर पागल हो गया है, बेटियों को कुश्ती सिखाएगा।” कोई बोला, “लड़कियाँ अखाड़े में उतरेंगी? ये तो नाम डुबो देगा।” लेकिन महावीर को किसी की परवाह नहीं थी। उनके दिल में अब यह तय हो चुका था कि अगर बेटा नहीं है तो क्या हुआ, उनकी बेटियाँ ही उनका सपना पूरा करेंगी।
और यहीं से शुरू होती है असली दंगल – एक पिता का अपनी बेटियों पर विश्वास और समाज से लड़ाई का पहला कदम।
महावीर ने जिस दिन यह तय किया कि उनकी बेटियाँ ही उनका सपना पूरा करेंगी, उसी दिन से उनका घर बदल गया। पहले जहाँ सुबह सब आराम से उठते थे, अब सूरज निकलने से पहले ही गीता और बबीता की नींद टूटने लगी। नींद से भरी आँखें और थके शरीर को लेकर दोनों बहनें खेतों की ओर दौड़ने जातीं। उनके पाँवों में छाले पड़ने लगे, लेकिन पिता की आँखों की सख्ती देखकर वे कुछ कह नहीं पातीं।
महावीर की ट्रेनिंग आसान नहीं थी। गाँव की मिट्टी में, धूप में, बारिश में – गीता और बबीता को वही अभ्यास करने पड़ते जो बड़े पहलवान करते हैं। शुरुआत में उन्हें यह सब बिलकुल अच्छा नहीं लगता। गीता कई बार सोचती कि बाकी लड़कियाँ गुड़िया से खेल रही हैं और मैं यहाँ पसीना बहा रही हूँ। बबीता भी अक्सर रो देती, लेकिन महावीर का चेहरा किसी पत्थर की तरह सख्त रहता। वे कहते – “तुम्हें तकलीफ़ अभी है, पर जब पूरा गाँव तुम्हारी जीत का झंडा लहराएगा तब समझ में आएगा कि ये पसीना बेकार नहीं गया।”
धीरे-धीरे उनकी ट्रेनिंग और भी कठिन होती गई। खाने में तेल-घी, समोसे-पकौड़े सब बंद हो गए। महावीर ने बेटियों को सख्त डाइट पर डाल दिया – दूध, दही, सब्ज़ी और बस वही जो खिलाड़ी खाते हैं। गीता और बबीता जब कभी चोरी-छिपे पकौड़े खा लेतीं तो महावीर को पता चल जाता और उनकी डाँट बिजली की तरह गिरती।
सबसे बड़ा झटका तब लगा जब महावीर ने उनकी चोटियाँ काट दीं। लड़कियों के लिए बाल उनकी शान होते हैं, लेकिन महावीर ने कैंची उठाई और कहा – “कुश्ती में बालों का बोझ नहीं चाहिए।” गीता और बबीता रो पड़ीं, लेकिन बाल जमीन पर गिरते रहे। स्कूल में बच्चे उनका मज़ाक उड़ाते – “अरे देखो, लड़कियों के बाल कहाँ गए, अब तो ये लड़कों जैसी लगती हैं।” गीता और बबीता चुपचाप सह लेतीं, क्योंकि वे जानती थीं कि घर जाकर भी यही सुनना पड़ेगा – “अगर सपना पूरा करना है तो मज़ाक से डरना छोड़ो।”
गाँव वाले भी महावीर का मज़ाक उड़ाते। कभी कहते, “लड़कियों को मिट्टी में क्यों धकेल रहा है?” कभी कहते, “समाज हँस रहा है, छोड़ दे ये पागलपन।” लेकिन महावीर किसी की नहीं सुनते। उनकी आँखों में सिर्फ एक ही तस्वीर थी – उनकी बेटियाँ अखाड़े में उतरेँ और लड़कों को धूल चटाएँ।
धीरे-धीरे गीता और बबीता को भी एहसास होने लगा कि यह सब यूँ ही नहीं हो रहा। उनके शरीर मजबूत होने लगे, दौड़ में उनकी साँसें पहले जितनी नहीं फूलतीं। दाँव-पेंच में उनकी पकड़ बेहतर होती चली गई। अब वही गाँव वाले, जो मज़ाक उड़ाते थे, हैरान होकर देखते कि महावीर की बेटियाँ अखाड़े में लड़कों को पटखनी देने लगी हैं।
एक दिन जब गीता ने अखाड़े में एक मजबूत लड़के को धूल चटा दी, तब महावीर की आँखों में पहली बार गर्व झलक पड़ा। लेकिन वे फिर भी सख्त बने रहे, बस इतना बोले – “ये तो शुरुआत है, अभी असली लड़ाई बाकी है।”
यहीं से बेटियों की असली परीक्षा शुरू हुई – सुबह-शाम की कड़ी मेहनत, समाज की तानों की मार और पिता की सख्ती के बीच वे समझने लगीं कि उनका रास्ता कठिन जरूर है, लेकिन मंज़िल वही है जो उनके पिता ने देखी है।
गाँव का माहौल धीरे-धीरे बदलने लगा था। जो लोग कभी महावीर का मज़ाक उड़ाते थे, वही लोग अब हैरानी से देखते कि गीता और बबीता अखाड़ों में लड़कों को पटखनी देकर जीत रही हैं। पहले गाँव के छोटे मेलों से शुरुआत हुई, फिर जिले और राज्य की कुश्तियों तक उनका नाम पहुँचने लगा। गीता हर बार दांव लगाकर विरोधियों को चित्त करती और भीड़ तालियाँ बजाती। महावीर चुपचाप देखते रहते, उनके चेहरे पर सख्ती वही रहती, लेकिन आँखों की चमक अब साफ दिखने लगी थी।
धीरे-धीरे दोनों बहनों का नाम बड़ा होने लगा। अखाड़ों में जब घोषणा होती – “गीता फोगाट बनाम…” – तो लोग कानाफूसी करते, “ये तो वही महावीर की बेटी है जिसने लड़कों की धुलाई कर दी थी।” बबीता भी पीछे नहीं रहती थी। दोनों बहनों की जोड़ी अब पूरे हरियाणा में मशहूर हो रही थी।
समय बीतते-बीतते गीता की मेहनत रंग लाई और उसे नेशनल लेवल की ट्रायल्स में मौका मिला। ये वही पल था जिसका सपना महावीर सालों से देख रहे थे। जब गीता ने नेशनल चैंपियनशिप में कदम रखा तो उसके लिए माहौल नया था। हजारों लोग, बड़े अखाड़े, और देशभर की पहलवान लड़कियाँ। शुरुआत में गीता थोड़ी घबरा गई थी, लेकिन जैसे ही उसने पिता की आँखों में देखा, उसे वही पुराना अनुशासन और सख्ती याद आ गया। दाँव पर दाँव चलते गए और गीता एक-एक मुकाबला जीतती चली गई। जब उसने नेशनल गोल्ड मेडल जीता तो अखाड़े में चारों तरफ से ताली गूँज उठी। महावीर का चेहरा पहली बार मुस्कुराया, लेकिन साथ ही उन्होंने गीता से बस इतना कहा – “ये तो बस पहला कदम है, असली खेल तो यहाँ से शुरू होगा।”
नेशनल जीतने के बाद गीता को पटियाला स्थित नेशनल अकादमी भेजा गया। यहाँ से कहानी ने नया मोड़ लिया। गीता पहली बार गाँव से बाहर, एक ऐसे माहौल में आई थी जहाँ सबकुछ अलग था – बड़े मैदान, नए कोच, आधुनिक ट्रेनिंग और नई-नई लड़कियाँ। यहाँ उसे एक नया कोच मिला, जिसने उसे फ्रीस्टाइल कुश्ती सिखानी शुरू की। शुरुआत में गीता को ये अच्छा लगा क्योंकि यहाँ अनुशासन उतना कठोर नहीं था जितना पिता के पास था। उसे पहली बार थोड़ी आज़ादी महसूस हुई।
धीरे-धीरे गीता बदलने लगी। उसने पिता के बनाए नियमों को ढीला करना शुरू कर दिया। अकादमी में उसकी दोस्तें उसे कहतीं कि “इतनी सख्ती क्यों? थोड़ा रिलैक्स कर, फिल्म देख, बाल बढ़ा।” गीता ने बाल बढ़ाने शुरू कर दिए, जींस पहननी शुरू कर दी और दोस्तों के साथ घूमना-फिरना भी सीख लिया। ट्रेनिंग में भी अब वह पिता की तरह मिट्टी और अनुशासन वाली तकनीक की जगह कोच की नई स्टाइल अपनाने लगी।
महावीर जब गीता से मिलने पटियाला गए, तो उन्होंने अपनी बेटी को बदलते हुए देखा। गीता अब उन्हें सुनने की बजाय बहस करती। एक दिन तो उसने सीधा कह दिया – “आपका तरीका पुराना है, कोच का तरीका नया है। अब मुझे वही अपनाना है।” यह सुनकर महावीर अंदर तक टूट गए, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा। उनकी आँखों में गहरा दर्द था, मानो कोई उनके ही हाथों उनसे उनका सपना छीन रहा हो।
उधर गीता को लगता था कि वह सही कर रही है। लेकिन असली सच तब सामने आया जब उसने पहली बार इंटरनेशनल लेवल पर कदम रखा। विदेशी पहलवानों के सामने गीता कमजोर पड़ गई। नया कोच सही रणनीति नहीं बना पाया और गीता एक के बाद एक मैच हार गई। उसके चेहरे पर निराशा साफ दिख रही थी। दर्शक सीट पर बैठे महावीर की आँखें भर आईं, मगर वे वहाँ अपनी बेटी को संभालने भी नहीं पहुँच पाए।
गीता को पहली बार एहसास हुआ कि उसने कहीं न कहीं गलती कर दी है। लेकिन यह समझ अभी अधूरी थी। वह हार का बोझ लेकर अकादमी लौटी, जबकि उसके पिता चुपचाप गाँव लौट गए। उनके दिल में अब भी यही था कि एक दिन उनकी बेटी अपनी गलती समझेगी और उसी अनुशासन से लौटेगी जो उन्होंने सिखाया था।
अकादमी से लौटने के बाद गीता का चेहरा बदल चुका था। उसकी आँखों में आत्मविश्वास कम और हार की चुभन ज्यादा थी। जिन मुकाबलों में वह कभी बेजोड़ हुआ करती थी, वहाँ अब वह बार-बार मात खा रही थी। कोच की नई तकनीकें उसके लिए मददगार नहीं बनीं, बल्कि उसने अपने पिता के सिखाए हर दाँव को भुला दिया था। इंटरनेशनल हार ने उसे अंदर तक हिला दिया, लेकिन उसके अहंकार ने उसे स्वीकार नहीं करने दिया कि गलती उसी की है।
गाँव लौटकर गीता ने बबीता से अपनी तकलीफ़ बाँटी। बबीता ने उसे ध्यान से सुना और धीरे से बोली – “दीदी, हमें हमेशा लगा कि पापा बहुत सख्त हैं। लेकिन सच यही है कि उन्हीं की वजह से हम यहाँ तक पहुँचे। तुमने उनका रास्ता छोड़ा और देखो… हार गई।” ये सुनकर गीता की आँखें भर आईं। उसके दिल में पहली बार यह साफ़ हुआ कि उसके पिता का कठोर अनुशासन, उनका हर डाँट-फटकार दरअसल उसकी जीत के लिए ही था।
उस रात गीता कमरे में अकेली बैठी रही। उसे वे सारे पल याद आने लगे – सुबह चार बजे की दौड़, खेतों की मिट्टी में पसीने से भीगी कुश्ती, पकौड़ों के लिए मिली डाँट, बाल कटते वक्त बहाए आँसू। तब उसे लगता था कि यह सब बेकार है, लेकिन आज उसे समझ आया कि वही असली ट्रेनिंग थी। पापा उसे खिलाड़ी नहीं, बल्कि योद्धा बना रहे थे।
गीता ने फैसला किया कि वह अपनी गलती सुधारेगी। अगली सुबह उसने वही दिनचर्या शुरू की जो गाँव में पिता ने सिखाई थी। मिट्टी के अखाड़े में लौटकर उसने पुराने दाँव-पेंच दोहराने शुरू किए। बबीता उसके साथ खड़ी रही और दोनों बहनें फिर से उसी जुनून से मेहनत करने लगीं।
महावीर गाँव में चुपचाप यह सब देखते रहे। उन्होंने कुछ कहा नहीं, लेकिन उनकी आँखों में गर्व लौट आया। गीता ने उनके पास जाकर सिर झुका दिया और बोली – “पापा, मैं हार गई क्योंकि मैंने आपकी बात नहीं मानी। अब मैं वही करूंगी जो आपने सिखाया है।” महावीर ने पहली बार अपनी बेटी के कंधे पर हाथ रखा। उनकी आँखों में आँसू थे, लेकिन आवाज़ धीमी और स्थिर – “जीत हार से नहीं, मेहनत से होती है। अब अगर तूने मेहनत की, तो कोई तुझे हरा नहीं पाएगा।”
इसके बाद गीता ने खुद को पहले से कहीं ज्यादा कड़ा बना लिया। अब उसका हर कदम पापा के बताए रास्ते पर था। जहाँ बाकी लड़कियाँ थोड़ी देर ट्रेनिंग के बाद रुक जातीं, गीता तब तक मेहनत करती जब तक कि उसकी साँसें फूलकर जवाब न दे दें। उसके हर दाँव में अब वही जुनून लौट आया था, वही आक्रामकता जो उसे पिता ने दी थी।
धीरे-धीरे गीता फिर से प्रतियोगिताओं में उतरने लगी और उसकी जीतों का सिलसिला लौट आया। हर बार जब वह किसी को पटखनी देती, अखाड़े में तालियाँ गूँजतीं और दूर बैठे महावीर की आँखें भर आतीं। लेकिन अब वे कुछ कहते नहीं, बस चुपचाप देख कर संतोष की गहरी साँस लेते।
यह दौर गीता के लिए आत्मज्ञान का था। उसे समझ आ चुका था कि असली कोच वही है जिसने उसे जीवन भर के लिए योद्धा बनाया – उसका पिता। और अब वही सीख उसे उस मंज़िल तक ले जाएगी जहाँ से कभी कोई उसे नीचे नहीं गिरा पाएगा।
कॉमनवेल्थ गेम्स का माहौल किसी युद्धभूमि से कम नहीं था। एरिना खचाखच भरा हुआ था। चारों ओर अलग-अलग देशों के झंडे लहरा रहे थे, और दर्शकों के शोर से पूरा हॉल गूंज रहा था। गीता जब अखाड़े में उतरी, तो उसके चेहरे पर अब कोई घबराहट नहीं थी। उसकी चाल में वही आत्मविश्वास लौट चुका था जो उसके पिता की आँखों से उतरकर उसके दिल में घर कर गया था।
फाइनल मुकाबले में उसके सामने थी एक ताकतवर ऑस्ट्रेलियाई पहलवान। घंटी बजते ही दोनों ने एक-दूसरे पर दाँव आज़माने शुरू किए। शुरुआत में ऑस्ट्रेलियाई पहलवान गीता पर भारी पड़ी। स्कोरबोर्ड पर अंक गीता से दूर होते जा रहे थे। दर्शक सीट पर बैठे लोग बेचैन होने लगे। लेकिन गीता का चेहरा स्थिर रहा। उसे पापा की आवाज़ कानों में गूंज रही थी – “लड़ाई आख़िरी साँस तक होती है, जब तक आख़िरी मौका न मिले, हार मानना मत।”
दूसरे राउंड में गीता ने पूरी ताक़त झोंक दी। उसने वही पुराने दाँव आज़माने शुरू किए जिन्हें पिता ने सिखाया था। मिट्टी के अखाड़े की याद, सुबह की दौड़, पसीने की बूंदें – सब उसके अंदर नई ऊर्जा बनकर उमड़ने लगे। उसने पलटवार किया और धीरे-धीरे अंक बराबर कर दिए।
आखिरी सेकंड्स में मुकाबला काँटे का था। दर्शक अपनी साँसें रोककर बैठे थे। तभी गीता ने एक जबरदस्त दाँव लगाया, जिसने ऑस्ट्रेलियाई पहलवान को चित्त कर दिया। घंटी बजते ही पूरा एरिना भारत-माता के जयकारों से गूंज उठा। स्कोरबोर्ड पर साफ लिखा था – Gold Medal: India – Geeta Phogat.
गीता की आँखों में आँसू थे। वह जीत चुकी थी, लेकिन यह जीत सिर्फ उसकी नहीं थी। यह उसके पिता का सपना था, उसकी मेहनत थी, उसके त्याग थे।
लेकिन उस जीत का असली दर्दनाक और गर्व भरा पल तो तब आया जब महावीर वहाँ मौजूद नहीं थे। दरअसल, फाइनल से ठीक पहले गीता के कोच ने महावीर को एक कमरे में बंद कर दिया था ताकि वह मैच के दौरान अपनी बेटी को गाइड न कर सके। महावीर दरवाज़े के पीछे फँसे हुए थे, और उनकी आँखों में आँसू थे। वे जान रहे थे कि उनकी बेटी अखाड़े में अकेली है, लेकिन उनके दिल में विश्वास था कि गीता अब जीत सकती है।
जब जीत के बाद दरवाज़ा खुला और महावीर वहाँ पहुँचे, गीता ने गोल्ड मेडल गले में डालकर रोते हुए उनसे कहा – “पापा, ये मेडल आपका है।” महावीर की आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने बेटी को गले से लगा लिया। उनकी सारी सख्ती, सारी चुप्पी उस आलिंगन में पिघल गई।
गाँव में जब खबर पहुँची तो बलाली की गलियाँ झंडों और ढोल-नगाड़ों से गूंज उठीं। वही लोग, जिन्होंने कभी कहा था कि बेटियाँ कुश्ती नहीं कर सकतीं, अब उनके नाम के जयकारे लगा रहे थे। गीता और बबीता की जीत ने न सिर्फ अपने पिता का सपना पूरा किया, बल्कि पूरे देश को यह संदेश दिया कि बेटियाँ किसी से कम नहीं होतीं।
फिल्म का अंत महावीर सिंह फोगाट के गर्व भरे आँसुओं से होता है। उन्होंने अपनी ज़िंदगी में पहली बार यह देखा कि उनका सपना, जो कभी अधूरा रह गया था, अब उनकी बेटियों ने उसे हकीकत में बदल दिया। और यह जीत सिर्फ एक गोल्ड मेडल की नहीं थी, यह जीत उस सोच की थी जो सदियों से बेटियों को कमजोर समझती आई थी।