Part – 2 : हदें टूटती हैं
पहले स्पर्श के बाद से ही सब कुछ बदल चुका था। अब नेहा और आयुष के बीच वो दूरी नहीं रही, जो एक दोस्त और दोस्त की पत्नी के बीच होनी चाहिए। दोनों जानते थे कि ये गलत है, लेकिन उनके दिल अब और रुकने को तैयार नहीं थे।
आयुष जब भी नेहा से मिलने आता, घर का माहौल बदल जाता। नेहा का चेहरा खिल उठता, उसकी मुस्कान अलग ही चमक बिखेरती। आयुष भी खुद को हल्का और सुकून भरा महसूस करता।
कभी दोनों साथ में टीवी देखते, लेकिन नज़रें स्क्रीन पर कम और एक-दूसरे पर ज़्यादा रहतीं। कभी नेहा रसोई में काम करती और आयुष उसके पास जाकर खड़ा हो जाता। उनकी छोटी-छोटी बातें धीरे-धीरे दिल की गहराई तक उतरने लगीं।
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नज़रें जो बोलती थीं
एक शाम नेहा ने कहा –
"आयुष, तुम जानते हो… तुम्हारी आँखें बहुत कुछ कह देती हैं।"
आयुष हल्की मुस्कान के साथ बोला –
"और तुम्हारी आँखें… वो सुन लेती हैं, जो मैं कह भी नहीं पाता।"
दोनों हँस पड़े। लेकिन उस हंसी में भी चाहत छुपी थी।
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वो सवाल
कुछ दिन बाद नेहा रसोई में चाय बना रही थी। अचानक उसने गंभीर आवाज़ में पूछा –
"आयुष, अगर मैं कबीर की बीवी ना होती… तो क्या तुम मुझे अपनाते?"
आयुष एक पल को सन्न रह गया। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा।
उसने जवाब नहीं दिया, लेकिन उसकी आँखें सब कुछ कह चुकी थीं।
नेहा ने धीरे से मुस्कुराकर कहा –
"ठीक है, मत बताओ… पर मुझे जवाब मिल गया।"
उस दिन से दोनों की नज़रों में अब कोई पर्दा नहीं रहा।
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वो रात
कबीर बिज़नेस ट्रिप पर शहर से बाहर था। घर पर सिर्फ़ नेहा और आयुष। बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी। बिजली चली गई और घर मोमबत्ती की हल्की रोशनी से जगमगाने लगा।
नेहा लाल साड़ी पहने खिड़की के पास खड़ी थी। हवा से उसके भीगे बाल चेहरे पर आ रहे थे। आयुष दूर से उसे देख रहा था। वो पल जैसे थम गया हो।
आयुष धीरे-धीरे उसके पास पहुँचा। नेहा ने उसकी ओर देखा। उनकी नज़रें मिलीं… और इस बार किसी ने भी नज़रें नहीं हटाईं।
नेहा ने धीमी आवाज़ में कहा –
"ज़िंदगी बहुत छोटी है आयुष… और हम हमेशा दूसरों के लिए अपनी चाहतें दबा देते हैं। क्या कभी अपने दिल की सुनना गलत है?"
आयुष ने धीरे से उसका चेहरा अपनी उंगलियों से थामा।
नेहा काँप उठी। उसकी साँसें तेज़ हो गईं।
कुछ पल की खामोशी के बाद, दोनों ने अपने दिल की आवाज़ सुनी।
उस रात, नेहा और आयुष ने वो हदें तोड़ दीं, जिनके आगे अब तक सिर्फ़ ख्वाहिशें थीं।
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अगली सुबह
सुबह की धूप खिड़की से कमरे में आ रही थी। नेहा आईने के सामने खड़ी थी। उसके चेहरे पर अजीब सी चमक थी, लेकिन आँखों में डर भी।
उसने खुद से फुसफुसाकर कहा –
"ये मोहब्बत थी… या गुनाह?"
आयुष भी कमरे में बैठा सोच रहा था।
"कबीर मेरा सबसे अच्छा दोस्त है… लेकिन दिल जिस औरत को चाहता है, वो उसी की पत्नी है। क्या मैं गलत हूँ? या सिर्फ़ इंसान?"
दिल और दिमाग़ की इस लड़ाई में उस रात मोहब्बत जीत चुकी थी।
उस रात के बाद से सब कुछ बदल गया था। नेहा और आयुष दोनों ने चाहा कि वो सब भूल जाएं, लेकिन जितना भूलने की कोशिश करते, उतना ही उनका रिश्ता गहराता गया। अब वो सिर्फ़ कबीर की गैरहाज़िरी में ही नहीं, बल्कि उसकी मौजूदगी में भी एक-दूसरे की ओर खिंचते रहते थे।
नेहा की आँखों की चमक, उसकी हंसी, आयुष के चेहरे का सुकून — ये सब धीरे-धीरे कबीर की नज़र से छुपा नहीं रहा।
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कबीर का शक
एक शाम कबीर ऑफिस से लौटते वक्त अचानक घर आ गया। दरवाज़ा खोला तो देखा, नेहा और आयुष सोफे पर बैठे थे। टीवी चल रहा था, लेकिन दोनों की नज़रें एक-दूसरे में गुम थीं।
कबीर को देखते ही दोनों संभल गए।
नेहा ने हड़बड़ी में कहा –
"कबीर, तुम… इतनी जल्दी आ गए?"
कबीर ने हल्की मुस्कान दी, लेकिन उसके चेहरे पर शक की परछाई साफ़ थी।
उस रात कबीर ने आयुष से मज़ाक में कहा –
"यार, कभी-कभी लगता है मेरी बीवी तुमसे ज़्यादा बातें करती है।"
आयुष का चेहरा उतर गया। उसने बात बदल दी।
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बढ़ती बेचैनी
अब नेहा और आयुष दोनों डर के साये में जीने लगे। मुलाक़ातें कम हो गईं, लेकिन चाहत नहीं। वो चोरी-छुपे मिलते, लेकिन हर बार दिल में ये डर रहता कि अगर सच सामने आ गया तो क्या होगा।
नेहा अक्सर आईने में खुद से सवाल करती –
"क्या ये प्यार है? या सिर्फ़ एक गलती जो बार-बार दोहराई जा रही है?"
आयुष भी रातों को नींद खो बैठा।
"कबीर मेरा भाई जैसा है… लेकिन दिल को कैसे समझाऊँ?"
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सच का सामना
एक दिन कबीर ने सीधे-सीधे आयुष से पूछ लिया –
"सच बताओ, क्या तुम्हें नेहा से… कुछ अलग लगाव है?"
कमरे में खामोशी छा गई।
आयुष की आँखें भर आईं। उसने कबीर की ओर देखा, फिर नज़रें झुका लीं।
नेहा दरवाज़े पर खड़ी सब सुन रही थी। उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
कबीर कुछ पल चुप रहा, फिर भारी आवाज़ में बोला –
"आयुष… तू मेरा सबसे अच्छा दोस्त है। अगर तूने मुझे धोखा दिया है, तो शायद मैं इसे कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगा। लेकिन अगर ये मोहब्बत है… तो मैं किसे दोष दूँ?"
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अंत
उस रात तीनों के बीच खामोशी थी। कोई कुछ नहीं बोला।
नेहा अपने कमरे में अकेली रो रही थी। आयुष सिगरेट जलाकर छत पर बैठा था। कबीर खामोश दीवारों को देख रहा था।
कहानी अधूरी रह गई थी।
ना मोहब्बत पूरी हुई, ना दोस्ती बची।
कभी-कभी, ज़िंदगी में चाहत और गुनाह की लकीर इतनी पतली हो जाती है कि इंसान पहचान ही नहीं पाता… और जब तक समझ आता है, बहुत देर हो चुकी होती है।